भीड़ में - 7 - अंतिम भाग Roop Singh Chandel द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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भीड़ में - 7 - अंतिम भाग

भीड़ में

(7)

’पोते का तिलक है---जाना ही पड़ेगा. नए कपड़े भी बनवाना होगा. पता नहीं बैंक में कितने पैसे हों. कई महीनों से पास बुक की एंट्री नहीं करवाई. कल जाकर चेक करना चाहिए. लखनऊ जाने के लिए भी तो पैसे चाहिए होंगे. खाली हाथ जाना ठीक न होगा. पुत्तन के पैदा होने के बाद बधाई लेकर गया था, उसके बाद लल्लू के यहां जाना भी नहीं हुआ. महानगर में कोठी बनवाकर उसने गृह प्रवेश के समय पत्र लिखकर बुलाया था, लेकिन तब बुखार में पड़ा था. गृह-प्रवेश की बात और थी. अब बात और है. बुखार होगा तब भी जाना होगा.’ सीढ़ियां उतरते समय वे सोचते रहे.

दूसरे दिन बैंक गए थे बाबू रघुनाथ सिंह. खाते में इतने पैसे थे कि वे एक जोड़ी कपड़े बनवा सकते थे. पैसे निकालते समय उन्होंने सोचा, ’जूते भी कई साल पुराने हो गए हैं---लोग क्या कहेंगे---कोई और कहे या न कहे लल्लू का बूढ़ा श्वसुर गोपाल प्रसाद ही टोक सकता है बाबू रघुनाथ सिंह ने कपड़े तो नए पहन रखे हैं, लेकिन जूते पुराने ही हैं. नए जूते भी खरीद लेना ठीक होगा. बाटा के बहुत महंगे होंगे. लोकल ही ले लूंगा.’

बैंक से रुपए निकालकर गोविंदनगर की परिचित दुकान से पैंट शर्ट का कपड़ा लेकर उन्होंने टेलर को नाप दे दी. “किसी भी कीमत में बीस नवंबर तक कपड़े मिल जाने चाहिए” टेलर को समझा दिया था. लौटते हुए ’जनता शूज’ से जूते भी खरीद लिए. सदैव बाटा के पहनते रहे थे. ’सुनते हैं ’जनता’ वाले के जूते भी अच्छे होते हैं. एक बार आजमा कर देख लेता हूं.’ मन को संतोष दिया था उन्होंने.

घर लौटते हुए याद आया कि पचीस नवम्बर तक ठंड बढ़ जाएगी. सूट बहुत पुराना हो चुका है. पैंट फट रहा है और कोट भी कॉलर, जेबों और बाहों के पास बहुत पुराना होने का आभास देता है. स्वेटर भी कोई अच्छा नहीं है. कभी ध्यान ही नहीं दिया कि नाती-पोतों की शादियां भी होंगी. नया खरीदने के लिए पैसे नहीं हैं. फिर---’ तभी याद आया कि उनके पास एक ओवर कोट है काले रंग का. रिटायरमेंट वाले साल खरीदा था. कभी-कभी ही पहना है. वह बिल्कुल ठीक है. उसे ड्रायक्लीन करवा लेना चाहिए.

और घर पहुंचते ही उन्होंने ट्रंक से ओवर कोट निकाला. झाड़ा और देखा ड्राइक्लीन की आवश्यकता है या नहीं. कमरे से बाहर रोशनी में दोनों हाथों पर फैलाकर देखा. लगा ड्राईक्लीन की आवश्यकता नहीं है. ’पैसे बचे’ सोचकर राहत अनुभव की उन्होंने.

बीस नवंबर का दिन भी आ गया. वे टेलर से कपड़े ले आए. एक बार उसकी दुकान पर पहनकर फिटिंग देखी, फिर घर पहुंचकर देखा. पहनकर आदमकद शीशे के सामने खड़े हुए. ठीक लगा, लेकिन इस पर ओवरकोट कैसा लगेगा! हैंगर से कोट उतारकर, पहना और फिर शीशे के सामने जा पहुंचे, ’दुरस्त-एकदम दुरुस्त’. चेहरे की झुर्रियां फैल गयीं मुस्कान से. फिर एक उदासी ने आ घेरा. ’आज सावित्री होती तो कमेंट किए बिना न रहती. कहती, “शादी तुम्हारी नहीं---पुत्तन की—पोते की होने जा रही है. इतना मत सजो.” फिर आगे जोड़ती, “लेकिन लग अच्छे रहे हो.” और वे कहते, “लोगों को यह भी पता चलना चाहिए कि दूल्हे का बाबा हूं.”

चेहरे पर फिर मुस्कराहट तैर गयी. बीस तारीख के बाद हर दिन लखनऊ से किसी न किसी के आने की प्रतीक्षा करने लगे. लल्लू नहीं आएगा तो धीरेन्द्र से कहेगा, “जाकर बाबू जी को लिवा लाओ.” वैसे दोनों के बेटे भी बड़े हैं. वे भी आ सकते हैं. लल्लू के दोनों बेटों को तीन-चार बार ही उन्होंने देखा है. सामने आ खड़े हों तो पहचान भी न पाएंगे. लेकिन धीरेन्द्र का बेटा तो कई बार आ चुका है. पीछे यही कोई पांच-छः महीने पहले ही कोई परीक्षा देने. आई.आई.टी. आया था तो आधा घंटा बैठकर गया था. वह भी आ सकता है. चिट्टी भी आ सकती है, लेकिन चिट्ठी आई तो नहीं जाएंगे. कोई आएगा तभी जाना चाहिए. ’आखिर घर का मुखिया हूं—दूल्हे का बाबा.’ वे जब भी ऎसा सोचते मन में एक किलक उपजती. लेकिन चौबीस तारीख तक न कोई आया और न ही कोई पत्र आया तो वे निराश हुए. लेकिन विचार कौंधा, ’प्रह्लाद ने काफी पहले यह खबर दी थी मुझे. हो सकता है इतने दिनों में तारीख बदल गयी हो या दोनों में से किसी पार्टी ने इंकार कर दिया हो. यही होगा—वर्ना ऎसा हो ही नहीं सकता कि बेटे का तिलक हो और लल्लू मुझे न बुलाए. परम्परानुसार तिलक का पहला देय घर के बुजुर्ग के हाथ में ही दिया जाता है.’ लेकिन तभी मन ने झटका दिया, ’अब परम्पराओं का निर्वाह रहा ही कहां और न पहले की भांति तिलक होता है. तिलक के नाम पर रस्म अदायगी बची है. लोग मिलते हैं. लेन-देन तो बैंक खाते में पहुंच जाता है और रही बुजुर्ग की बात तो लल्लू के श्वसुर भी तो बुजुर्ग हैं, लेकिन जैसा भी हो, खबर तो आनी ही चाहिए थी. नहीं आई, इसका अर्थ है कि तिलक टल गया या शादी टूट गयी.’ विचार ने उन्हें पहले से अधिक निराश किया.

’लेकिन हो सकता है कल गाड़ी लेकर कोई लेने आ जाए.’ रात उन्हें देर से नींद आई. सुबह जल्दी ही उठकर नहाकर तैयार हो बैठ गए. दोपहर तक बैठे प्रतीक्षा करते रहे, ’वे कहीं जाएं और पीछे से कोई आ जाए तो ठीक न होगा.’ दोपहर भोजन भी नहीं किया. दो बिस्कुट के साथ चाय ली. दोपहर बाद छत पर टहलते रहे, लेकिन जब चार बज गए और कोई नहीं आया तब, ’पहले की सोची बात ही सही है.’ सोचते हुए वे नीचे उतर आए और कम्बल लेकर पलंग पर लेट गए. कम्बल की गर्मी से झपकी आ गयी. उठे तो छः बज चुके थे. याद आया रात देर से सोए थे और सुबह जल्दी ही उठकर तैयार हो लगभग ’अटेंशन’ की मुद्रा में ही रहे थे. ’बूढ़ा शरीर—थक गया.’

उठकर मुंह धोया और बाजार की ओर टहलने निकल गए. मन हल्का था. पुत्तन की शादी की बात दिमाग में ठंडी हो गयी थी और दिनचर्या बिल्कुल सामान्य. तभी एक दिन रमेन्द्र का पत्र और शादी का निमन्त्रण एक साथ मिले. वे हत्प्रभ थे. उन्होंने जो सोचा था वह गलत था. प्रह्लाद की सूचना सही थी. लल्लू ने लिखा था, “बाबूजी, पुत्तन के विवाह का कार्ड साथ संलग्न है, जिससे आपको कार्यक्रम की जानकारी मिल जाएगी. आठ दिसम्बर को शाम पांच बजे तक बारात काकादेव पहुंच जाएगी. आप तैयार रहेंगे. बारात वहां पहुंचते ही मैं गाड़ी भेज दूंगा. पोते को आशीर्वाद देने आपको आना ही होगा. पिछले दिनों व्यस्तता इतनी अधिक रही कि चाहकर भी तिलक के लिए लेने नहीं आ सका. आप मेरी स्थिति समझ सकते हैं. अन्यथा न लेंगे. आठ दिसम्बर को तैयार रहेंगे---शाम पांच बजे के बाद कोई-न-कोई आपको लेने अवश्य पहुंच जाएगा.”

किंकर्तव्यविमूढ़-सा बैठे रह गए थे वे. पत्र और कार्ड हाथ में झूलते रहे थे. देर तक मन उद्विग्न रहा था. लेकिन, ’अपने जमाने से क्यों तौलते हो आज के समय को बाबू रघुनाथ सिंह!’ मन ने कहा था, ’विकास की गति तेज हो गयी है तो आदमी के पास समय स्वतः कम होता जाएगा. लल्लू के पास समय नहीं ही रहा होगा. रही बात तिलक की तो पता नहीं वह किस रूप में हुआ होगा. नहीं जा पाया तो अफसोस कैसा! अब वह आठ दिसम्बर को गाड़ी भेजेगा---तैयार रहूंगा.’ मन का उद्वेग ठंडा पड़ गया था.

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आठ दिसम्बर को दोपहर बाद ही वे तैयार होकर बैठ गए थे. नए पैंट-शर्ट के ऊपर ओवर कोट डाल लिया था. पास के नाई से शेव करवा आए थे.

शाम छः बजे दरवाजे पर एक एम्बेसडर आकर रुकी. धीरेन्द्र आया था.

“पन्द्रह मिनट में चलना है बाबूजी, आप तैयार हैं न! सात बजे का बैंड है.” धीरेन्द्र ने पैनी दृष्टि से उन्हें, फिर घूमकर मकान को देखा था.

“तैयार बैठा हूं. चलो---“ और पन्द्रह क्या वे पांच मिनट में ही कार में थे. उन्होंने धीरेन्द्र से तिलक के विषय में कोई बात नहीं की.

“धीरेन्द्र भी कितना मशीनी हो रहा है!” कार में बैठते हुए उन्होंने सोचा.

बारात एक लॉज में ठहरी थी. वे गाड़ी से उतरे तो लल्लू ने आगे बढ़कर पैर छुए. आशीर्वाद देते समय वे भावुक हो उठे. ’इस क्षण सावित्री को होना चाहिए था.” उन्होंने सबसे नजरें चुरा लीं.

पुत्तन एक कमरे में तैयार हो रहा था. औरतों ने उसे घेर रखा था. विनीता उन्हें देख कमरे से निकल आई और हाथ जोड़ प्रणाम किया. वे पुत्तन को आशीर्वाद देने जाने के लिए आगे बढ़े, लेकिन औरतों की भीड़ और वहां दूल्हे को लेकर चल रहे परिहास के कारण दरवाजे के पास ही ठिठक गए. क्षण भर रुके रहे, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया, पुत्तन ने उन्हें देखकर भी अनदेखा किया, ऎसा उन्हें लगा और इससे उन्हें एक और झटका लगा. वे मुड़े. पीछे कोई भी न था. सब इधर-उधर दौड़ रहे थे. युवक दो-चार के ग्रुप में गप्पें लड़ा रहे थे. धीरेन्द्र के बेटे और लल्लू के दूसरे बेटे ने देखा. आए और प्रणाम कर मित्रो के साथ जा खड़े हुए. उनकी आंखें रमेन्द्र और धीरेन्द्र को खोजने लगीं, लेकिन वे दिखे नहीं. ’व्यवस्था में लगे होंगे.’ सोचकर भीड़ से एक ओर हटकर खड़े हो गए. थोड़ी देर बाद प्रह्लाद आया, “बाबू जी आप यहां क्यों खड़े हैं. बारात चलने के लिए तैयार है. आइए. आपको किसी गाड़ी में बैठा दूं.”

“प्रह्लाद एक बात बताओ.” रहस्यमय स्वर में उन्होंने पूछा, “बेटियां-दामाद नहीं दिख रहे.”

“कोई नहीं आए बाबूजी.” कुछ रुककर प्रह्लाद धीमे स्वर में बोला, “शायद निमन्त्रण ही देर से भेजा गया था. कल दोनों के फोन आए थे कि वे लखनऊ सीधे रिसेप्शन में पहुंचेंगे---.”

वे बोल नहीं पाए. सोचते रहे, ’कहीं ऎसा तो नहीं कि जानबूझकर निमंत्रण देर से भजा हो लल्लू ने.’ लेकिन अभी, ’मैं भी क्या ऊल-जलूल सोचने लगता हूं.’ वे प्रह्लाद के साथ गाड़ी में बैठने के लिए आगे बढ़ गए.

बारात जब लड़की वालों के दरवाजे पहुंची, भीड़ बढ़ गयी थी. बेटे के परिचितों की संख्या देखकर वे प्रसन्न थे, लेकिन भीड़ में वे अपने को खोया हुआ पा रहे थे. परिचित चेहरे दिखते भी तो क्षण में ही गुम हो जाते. प्रह्लाद ने उन्हें एक कुर्सी पर बैठा दिया. वे घंटा भर से अधिक वहां बैठे रहे. इस मध्य लड़की को उसके पारिवारिकजन और सहेलियां ले आईं और जयमाला कार्यक्रम के बाद लोग फोटो खिंचवाने लगे तो वे सोचने लगे कि उन्हें बुलाने कोई आएगा. ’आखिर दूल्हे के बाबा के साथ फोटॊ तो होनी ही चाहिए.’ लेकिन कोई नहीं आया.

फोटो खिंचते रहे और वीडियो फिल्म बनती रही. वीडियो की फ्लैश एकाध बार उनकी ओर भी चमकी, लेकिन तब उन्होंने चेहरा घुमा लिया था.

फोटॊ कार्यक्रम प्रारंभ होने के साथ ही लोग भोजन के लिए उमड़ने लगे थे. उनके पेट में भी चूहों की धमाचौकड़ी जारी थी. वे इन्तजार करते रहे कि कोई तो आएगा उन्हें भोजन के लिए ले जाने, लेकिन सभी व्यस्त थे. किसी को उनकी उपस्थिति का जैसे भान ही नहीं था. भोजन करके लोग छंटने लगे थे. दस बजे से ऊपर का समय हो रहा था. इतने समय तक तो वे सो जाते हैं.

’किसी ने लड़की वालों से परिचय भी नहीं करवाया. जैसे मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है. फिर मैं यहां बैठा किसलिए हूं? उठो बाबू रघुनाथ सिंह---’ मन ने धिक्कारा---’भोजन तो किसी ढाबे में भी मिल जाएगा और नहीं भी मिलेगा तो क्या एक रात बिना खाए नहीं रह सकते! उठ ही जाना चाहिए अब.’ एक दृढ़ निर्णय मन में उपजा और वे उठ खड़े हुए. तभी उन्हें याद आया कि बारात के लिए तैयार होने में सुबह से ही वे इतना खोए रहे थे कि उन्हें चिड़ियों के लिए दाना डालने का ध्यान ही नहीं रहा था.

’चिड़ियां आज भूखी रहीं---वे आई होंगी---बैठी होंगी---इन्तजार भी किया होगा—फिर निराश हो उड़ गयी होंगी—हे भगवान---यह मैंने क्या किया!’ अपराध भाव से वे भर उठे.

’जाते ही मुझे चिड़ियों के लिए दाना डालना चाहिए---आज भूखी रही हैं—हो सकता है कल सुबह जल्दी आ जाएं’

उनके पैर बाहर जाने के लिए उठे. उन्होंने एक नजर मंच की ओर डाली जहां पुत्तन होने वाली पत्नी के साथ बैठा था और लल्लू और विनीता उसके पास खड़े हंसते हुए फोटो खिंचवा रहे थे. लड़की की सहेलियां दूल्हा-दुल्हन को भोजन करवाती खिलखिला रही थीं.

वे पंडाल से बाहर आ गए.

बाहर कड़ाके की ठंड थी. उन्होंने ओवर कोट की जेबों में हाथ डाले और अंधेरी सड़क पर उतर गए.

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