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भगवान् के चौबीस अवतारों की कथा - उपन्यास
Renu
द्वारा
हिंदी पौराणिक कथा
अचिन्त्य परमेश्वर की अतर्क्स लीला से त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा जब सृष्टि-प्रवाह होता है तो उस समय रजोगुण से प्रेरित वे ही परब्रह्म परमात्मा सगुण होकर अवतार ग्रहण करते हैं। वस्तुतः यह जगत् परमात्मा का लीला-विलास है, लीलारमण का आत्माभिरमण है, इसलिये भगवान् अपनी लीला को चिन्मय बनाने के लिये अपने ही द्वारा निर्मित जगत् में अन्तर्यामी रूप से स्वयं प्रविष्ट भी हो जाते हैं ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।’ वे परम प्रभु अजायमान होते हुए भी बहुत रूपों में लीला करते हैं ‘अजायमानो बहुधा विजायते।’ उनकी यह लीला उनके अपने आनन्द-विलास के लिये होती है, जिसके फलस्वरूप भक्तों की कामनाएँ भी पूर्ण हो जाती हैं। भगवान का अपने नित्य धाम से पृथ्वी पर लीला-अवतरण ही 'अवतार’ कहा जाता है। कल्प भेद से भगवान् ने अनेक अवतार धारणकर अपने लीला-चरित से सन्तजन-परित्राण, दुष्टदलन और धर्मसंस्थापन के कार्य किये हैं। उनके अनन्त अवतार हैं, अनन्त चरित्र हैं और अनन्त लीला-कथाएँ हैं। यहाँ उनमें से चौबीस प्रमुख अवतारों का संक्षिप्त निदर्शन प्रस्तुत किया जा रहा है—
अचिन्त्य परमेश्वर की अतर्क्स लीला से त्रिगुणात्मक प्रकृति द्वारा जब सृष्टि-प्रवाह होता है तो उस समय रजोगुण से प्रेरित वे ही परब्रह्म परमात्मा सगुण होकर अवतार ग्रहण करते हैं। वस्तुतः यह जगत् परमात्मा का लीला-विलास है, लीलारमण का आत्माभिरमण ...और पढ़ेइसलिये भगवान् अपनी लीला को चिन्मय बनाने के लिये अपने ही द्वारा निर्मित जगत् में अन्तर्यामी रूप से स्वयं प्रविष्ट भी हो जाते हैं ‘तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्।’ वे परम प्रभु अजायमान होते हुए भी बहुत रूपों में लीला करते हैं ‘अजायमानो बहुधा विजायते।’ उनकी यह लीला उनके अपने आनन्द-विलास के लिये होती है, जिसके फलस्वरूप भक्तों की कामनाएँ भी पूर्ण हो
(२) श्रीवराह-अवतार की कथा— ब्रह्मा से सृष्टिक्रम प्रारम्भ करने की आज्ञा पाये हुए स्वायम्भुव मनु ने पृथ्वी को प्रलय के एकार्णव में डूबी हुई देखकर उनसे प्रार्थना की कि आप मेरे और मेरी प्रजा के रहने के लिये पृथ्वी ...और पढ़ेउद्धार का प्रयत्न करें, जिससे मैं आपकी आज्ञा का पालन कर सकें। ब्रह्माजी इस विचार में पड़कर कि पृथ्वी तो रसातल में चली गयी है, इसे कैसे निकाला जाय, वे सर्वशक्तिमान् श्रीहरि की शरण गये। उसी समय विचारमग्न ब्रह्माजी की नाक से अंगुष्ठ प्रमाण एक वराह बाहर निकल पड़ा और क्षणभर में पर्वताकार विशालरूप गजेन्द्र-सरीखा होकर गर्जन करने लगा। शूकररूप
कमठ (कच्छप) अवतार की कथाजब दुर्वासा जी के शाप से इन्द्रसहित तीनों लोक श्रीरहित हो गये। तब इन्द्रादि ब्रह्माजी की शरणमें गये। ब्रह्मा जी सबको लेकर अजित भगवान् के धाम को गये और उनकी स्तुति की। भगवान् ने उनको ...और पढ़ेयुक्ति बतायी कि दैत्य और दानवों के साथ सन्धि करके मिल-जुलकर क्षीर-सिन्धु को मथने का उपाय करो। मन्दराचल को मथानी और वासुकी नाग को नेती बनाओ। मन्थन करने पर पहले कालकूट निकलेगा, उसका भय न करना और फिर अनेक रत्न निकलेंगे, उनका लोभ न करना। अन्त में अमृत निकलेगा, उसे मैं युक्ति से तुम लोगों को पिला दूंगा। देवताओं ने
श्रीनृसिंह-अवतार की कथाजब वराहभगवान् ने हिरण्याक्ष का वध कर डाला था, तब उसकी माता दिति, उसकी पत्नी भानुमती, उसका भाई हिरण्यकशिपु और समस्त परिवार बड़ा दुखी था। दैत्येन्द्र हिरण्यकशिपु ने सबको समझा-बुझाकर शान्त किया, परंतु स्वयं शान्त नहीं हुआ। ...और पढ़ेमें प्रतिशोध की ज्वाला धधकने लगी। फिर तो उसने निश्चय किया कि तपस्या करके ऐसी शक्ति प्राप्त की जाय कि त्रिलोकी का राज्य निष्कण्टक हो जाय और हम अमर हो जायँ। निश्चय कर लेने पर हिरण्यकशिपु ने मन्दराचल की घाटी में जाकर ऐसा घोर तप किया कि जिससे देवलोक भी तप्त हो गये। देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्माजी ने जाकर
श्रीवामनावतार की कथा—भगवान् की कृपा से ही देवताओं की विजय हुई। स्वर्ग के सिंहासन पर इन्द्र का अभिषेक हुआ। परंतु अपनी विजय के गर्व में देवता लोग भगवान् को भूल गये, विषय परायण हो गये। इधर हारे हुए दैत्य ...और पढ़ेसावधानी से अपना बल बढ़ाने लगे। वे गुरु शुक्राचार्यजी के साथ-साथ समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे, जिससे प्रभावशाली भृगुवंशी अत्यन्त प्रसन्न हुए और दैत्यराज बलि से उन्होंने विश्वजित् यज्ञ कराया। ब्राह्मणों की कृपा से यज्ञ में स्वयं अग्निदेव ने प्रकट होकर रथ-घोड़े आदि दिये और अपना आशीर्वाद दिया। शुक्राचार्यजी ने एक दिव्य शंख और प्रह्लादजी ने एक दिव्य