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नश्तर खामोशियों के - उपन्यास
Shailendra Sharma
द्वारा
हिंदी सामाजिक कहानियां
नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 1. बार-बार उमड़ आते उफान से मेरी आँखें गीली हो जाती थीं. और सच, मैं इतने दिनों बाद महसूस कर रही थी कि मैं अभी भी पत्थर नहीं हुई हूँ...मगर कैसी अजीब और कष्टदायक थी यह अनुभूति! सारा वातावरण उमस से भर आया था. एक तो वैसे ही डिसेक्शन हॉल में तीन घंटे काटने मेरे लिए मुश्किल हो जाते थे, ऊपर से उस दिन मेरे पिछले दिन बार-बार बड़ी बेशर्मी से सामने आ खड़े होते थे और भीतर कुछ पिघल-पिघल जाता था. डबडबाती आंखों से मैंने डेमोंस्ट्रेटर-कक्ष के पंखे की तरफ देखा...घर्र-घर्र-घर्र...वही मंद गति...वही मशीनी
नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 1. बार-बार उमड़ आते उफान से मेरी आँखें गीली हो जाती थीं. और सच, मैं इतने दिनों बाद महसूस कर रही थी कि मैं अभी भी पत्थर नहीं हुई हूँ...मगर कैसी अजीब और कष्टदायक ...और पढ़ेयह अनुभूति! सारा वातावरण उमस से भर आया था. एक तो वैसे ही डिसेक्शन हॉल में तीन घंटे काटने मेरे लिए मुश्किल हो जाते थे, ऊपर से उस दिन मेरे पिछले दिन बार-बार बड़ी बेशर्मी से सामने आ खड़े होते थे और भीतर कुछ पिघल-पिघल जाता था. डबडबाती आंखों से मैंने डेमोंस्ट्रेटर-कक्ष के पंखे की तरफ देखा...घर्र-घर्र-घर्र...वही मंद गति...वही मशीनी
नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 2. प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं की पहली क्लास थी. मैं बैठी थी वैसे ही - रोज़ की तरह खामोश,अपने को कहीँ भी एडजस्ट न कर पाने की झुंझलाहट और क्षोभ से त्रस्त. डिसेक्शन हॉल ...और पढ़ेसन्नाटा छाया हुआ था. कैसे लग रहे थे सब! रैगिंग और नई जगह के भय से त्रस्त, सफेद कपड़े, सीनियरों के डर से कटवाए गए छोटे-छोटे बाल. हाज़िरी शुरू हुई और जैसा कि मैं डर रही थी, रजिस्टर मुझे ही थमाया गया. उस पर झुक कर मैंने आवाज को भरसक संयत बनाते हुए पुकारा, स्टूडेंट्स, अटेंड टू योर रोल कॉल
नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 3. "डॉ साहब!" चपरासी सामने खड़ा था. "हाँ" मैंने नजरें उठाईं. "साहब, हम बिसरा गए, डॉ.साहब कहे थे कि आपसे कह दें कि तनख्वाह आ गयी है, उसे ले लें आप." दीवार घड़ी की ...और पढ़ेदेखा, सवा तीन हो रहा था. मेज पर से पर्स उठाकर उठ खड़ी हुई. गैलरी से देखा, सूरज को छोटे से बादल के टुकड़े ने ढँक लिया था. धूप हल्की हो उठी थी. कैंपस में लगे नीम के पेड़ से ढेर सारे फूल झड़ आये थे. एक अजीब-सी गतिहीनता, एक उदास सा ठहराव चारो ओर फैला था. लगा, क्योंकि खुद
नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 4. किसी स्कूटर के स्टार्ट होने के स्वर से जैसे में नींद से जगी. मरे हुए लम्हों को बार-बार अपने भीतर जिंदा करते हुए,मैं प्रिंसिपल ऑफिस पहुच गई थी. कैशियर के कमरे में पँहुची, ...और पढ़ेखड़े होकर नमस्ते की और कुर्सी पेश की. तनख्वाह रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने के बाद उसने मुझे छोटे से काम का अनुरोध किया, जो प्रोफेसर भारद्वाज ही कर सकते थे.प्रिन्सिपल ऑफिस से बाहर आते हुए मैं सोच रही थी जब मैं इनसे यह बात करूंगी तो ये क्या कहेंगे! झुक आएंगे मेरी तरफ, और आंखों में अजीब सा भाव लाकर(जो
नश्तर खामोशियों के शैलेंद्र शर्मा 5. उस साल एम.एस. सर्जरी के इम्तिहान दो महीने देरी से हुए थे. अना जुटा हुआ था.उसका कॉलेज में दिखना लगभग बंद हो गया था. घर पर भी बहुत कम आता था. जब भी ...और पढ़ेमेरा अंतर मचल उठता. उसकी तैयारी में, उसके साधनों में, उसके खाने-पीने में कोई कमी तो नहीं...जानने को मैं मचलने लगती. इम्तिहान के दिनों में उसकी भूख बिल्कुल गायब हो जाती थी. मैं लगभग रोज़ ही उसकी मनपसंद कोई-न-कोई चीज़ बना कर टिफ़िन, होस्टल भिजवा देती, शम्भू के हाथों. बदले में आते छोटे-छोटे चार-पांच लाइनों के पुर्जे...कॉपियों से फाड़े गए