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1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की - उपन्यास
Priyamvad
द्वारा
हिंदी महिला विशेष
1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की प्रियंवद (1) ‘‘तुम्हें कैसे पता ‘‘ ? ‘‘ क्या ‘‘ ? ‘‘ कि वह मर गए हैं ‘‘ ? अभी सर्दियाँ शुरु हुयी थीं पर ठंड बहुत थी। बूढ़ी हडिड्यों वाले जल्दी पड़ने वाली इस साल की सर्दियों को कोस रहे थे। शाम से ही गीला कोहरा नीचे उतरने लगता था जो सुबह तक बना रहता। जब तक रहता, बेहद ठंडा और घना होता। इसमें पहले पेड़ा की शाखें सफेद होतीं, फिर मकानों की छतें, फिर सड़कें, नदी, घाट और फिर नावें। अक्सर यह इतना घना होता कि सड़क किनारे लगे
1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की प्रियंवद (1) ‘‘तुम्हें कैसे पता ‘‘ ? ‘‘ क्या ‘‘ ? ‘‘ कि वह मर गए हैं ‘‘ ? अभी सर्दियाँ शुरु हुयी थीं पर ठंड बहुत थी। बूढ़ी हडिड्यों ...और पढ़ेजल्दी पड़ने वाली इस साल की सर्दियों को कोस रहे थे। शाम से ही गीला कोहरा नीचे उतरने लगता था जो सुबह तक बना रहता। जब तक रहता, बेहद ठंडा और घना होता। इसमें पहले पेड़ा की शाखें सफेद होतीं, फिर मकानों की छतें, फिर सड़कें, नदी, घाट और फिर नावें। अक्सर यह इतना घना होता कि सड़क किनारे लगे
1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की प्रियंवद (2) ‘‘पर ये सब वाक्य तो बिल्कुल सिलसिले से हैं। एक तयशुदा तरीके से स्पष्ट और निश्चित अर्थ दे रहे हैं‘‘? ‘‘हाँ...पर यहीं तक। इसके बाद वह खिड़की से ...और पढ़ेकर पलंग पर बैठ गए। कुछ देर बाद थकी और टूटी आवाज मे बोले ‘दुनिया अब आखरी क्रांति की ओर बढ़ रही है। इसके बाद धरती पर मनुष्यों के लिए कभी कुछ नहीं बदलेगा। इसलिए कि मनुष्य खुद गुलामी से प्यार करने लगेगा। उस तानाशाह को मसीहा की तरह देखेगा जो उन्हें बिना यंत्रणा दिए कैद में रखेगा। इसलिए भी
1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की प्रियंवद (3) ‘‘मुझे सुनाओगे‘‘ ? कंबल वाले की आवाज में वही पहले वाली गिडगिड़ाहट लौट आयी थी, जैसी खून के बारे मे पूछते समय थी। उसने एक बिस्किट उठा कर ...और पढ़ेउसकी तरफ सरका दी। चश्मे वाले ने प्लेट से एक बिस्किट उठा लिया। ‘‘वास्तव में वे पंक्तियाँ नहीं थीं। कुछ सू़त्र थे जिन्हें वह कविता में बदलना चाहते थे और यही नहीं हो पा रहा था। वह यहीं पर गलती कर रहे थे। कविता उनके अंदर खुद जन्म नहीं ले रही थी। वह उसे बना रहे थे, जैसे रसायन मिला
1934 के न्यूरेम्बर्ग में एक जवान होती हुयी लड़की प्रियंवद (4) चश्मे वाला कुछ नही बोला। उसने केक का पैकेट लपेट कर मेज पर रख दिया। उसके चेहरे पर थकान और उदासी थी। ऊब और वितृष्णा भी थी। घृणा ...और पढ़ेछाँह भी थी। घृणा किसके लिए थी, साफ नही था। ‘‘मेरा काम खत्म हो चुका है। मैं जाना चाहता हूँ‘‘ वह टूटी आवाज में बोला,,,इस हद तक टूटी कि लगा शायद वह रो देगा। कंबल वाले ने उसकी वितृष्णा देखी। शायद घृणा भी। वह धीरे से बोला। ‘‘मैं मज़हबी नहीं हूँ‘‘ ‘मुझे पता है। मज़हबी होते तो लाश उठाने और