Mere ghar aana jindagi book and story is written by Santosh Srivastav in Hindi . This story is getting good reader response on Matrubharti app and web since it is published free to read for all readers online. Mere ghar aana jindagi is also popular in जीवनी in Hindi and it is receiving from online readers very fast. Signup now to get access to this story.
मेरे घर आना ज़िंदगी - उपन्यास
Santosh Srivastav
द्वारा
हिंदी जीवनी
मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (1) ज़िंदगी यूँ हुई बसर तनहा काफिला साथ और सफर तनहा जो घर फूँके आपनो कबीर मेरे जीवन में रचे बसे थे। खाली वक्त कभी रहा नहीं। रहा भी तो कबीर के दोहे गुनगुनाती रहती । कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ घर फूंकने में मुझे गुरेज नहीं । मुंबई में 22 बार घर बदला । दो बार शहर बदले। खूंटे से छूटी गाय की तरह दोनों बार मुम्बई वापस। मोह वश नहीं, मोह तो मेरा हर चीज से हेमंत के साथ ही खत्म हो
मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (1) ज़िंदगी यूँ हुई बसर तनहा काफिला साथ और सफर तनहा जो घर फूँके आपनो कबीर मेरे जीवन में रचे बसे थे। खाली वक्त कभी रहा नहीं। रहा भी तो कबीर के ...और पढ़ेगुनगुनाती रहती । कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ घर फूंकने में मुझे गुरेज नहीं । मुंबई में 22 बार घर बदला । दो बार शहर बदले। खूंटे से छूटी गाय की तरह दोनों बार मुम्बई वापस। मोह वश नहीं, मोह तो मेरा हर चीज से हेमंत के साथ ही खत्म हो
मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (2) सातवें -आठवें दशक में जबलपुर संस्कारधानी ही था । वह मेरे स्कूल के शुरुआती दिन थे। मेरे बड़े भाई विजय वर्मा के कारण घर का माहौल बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों की मौजूदगी ...और पढ़ेचर्चामय था। शिक्षा साहित्य और कला तब शीर्ष पर थी। श्रद्धेय मायाराम सुरजन का जबलपुर की पत्रकारिता और साहित्यिक परिवेश में बहुत बड़ा योगदान है । आज भी सुरजन परिवार नींव का पत्थर बने मायाराम सुरजन के साहित्यिक कार्यों को पूरी आन बान शान से संभाले हुए हैं। सन 1945 में मायाराम सुरजन ने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स जबलपुर से प्रकाशित
मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (3) जिन खोजा तिन पाईयाँ सिविल लाइंस के विशाल बंगले को हमें शीघ्र ही छोड़ना पड़ा क्योंकि वहाँ हाईकोर्ट की इमारत बन रही थी । हम लोग रतन नगर कॉलोनी रहने आ ...और पढ़े। रतन नगर कॉलोनी नई बसी कॉलोनी थी। जो शहर से काफी दूर मेडिकल कॉलेज रोड पर थी। हमारा घर सड़क से ऊंचाई पर चट्टानों पर स्थित था। घर सिविल लाइंस के घर के बनिस्बत छोटा था लेकिन बहुत खूबसूरत और खुशनुमा था। घर के पिछवाड़े की बड़ी-बड़ी चट्टानों को उखड़वा कर रमेश भाई ने किचन गार्डन भी लगा लिया
मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (4) दुखिया दास कबीर है 30 अप्रैल 1999 बनारस का मणिकर्णिका घाट.... मैं छोटी सी तांबे की लुटिया में एहतियात से सहेजे अम्मा के अस्थिपुष्प गंगा की लहरों में विसर्जित कर रही ...और पढ़ेबचपन से ही वे मुझे अपना बेटा कहती थीं। उनकी इच्छा थी कि मैं ही उन्हें मुखाग्नि दूँ और मैं ही उनकी अस्थियां गंगा में प्रवाहित करूँ। कमर कमर तक पानी में खड़ी मेरे सब्र का बांध टूट गया था- "अम्मा तुम न कहती थीं कि मैं तुम्हारी बेटी नहीं बेटा हूँ। आज मैंने अपना अंतिम कर्तव्य पूरा किया । लेकिन
मेरे घर आना ज़िंदगी आत्मकथा संतोष श्रीवास्तव (5) गहरे पानी पैठ उम्र की बही पर सोलहवें साल ने अंगूठा लगाया । वह उम्र थी बसन्त को जीने की, तारों को मुट्ठी में कैद कर लेने की और बांह पसार ...और पढ़ेआकाश को नापने की। इधर मेरी हमउम्र लड़कियां इश्क के चर्चे करतीं, सिल्क, शिफान, किमखाब, गरारे, शरारे में डूबी रहतीं। मेहंदी रचातीं। फिल्मी गाने गुनगुनातीं। दुल्हन बनने के ख्वाब देखतीं। तकिए के गिलाफ पर बेल बूटे काढ़तीं। मैं कभी अपने को इन सब में नहीं पाती । मेरे अंदर एक ख़ौलता दरिया था जिसका उबाल मुझे चैन नहीं लेने देता