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वीर शिरोमणिः महाराणा प्रताप । - उपन्यास
Manish Kumar Singh
द्वारा
हिंदी कविता
वीणापाणि नमन है तुमको, मेरे कंठ में कर लो वास।देकर ज्ञान पुंज हे माता, निमिष में संशय कर दो नाश।।हे गौरी-शिव शंकर के सुत, मुझ अज्ञानी का ध्यान करो।कर दो विवेक की वर्षा अब, और प्रभु मेरा अज्ञान हरो।।वीरों की गाथा लिखने को, काली को शीश झुकाते हैं।जिनको ग्रीवा की माला में,बस नर के मुण्ड लुभाते हैं।।भारत वीर भोग्या वसुधा, जिसकी मिट्टी भी चंदन है।जिसके वीरों ने धरती पर,वारा कुबेर का कंचन है।।आर्यों की वसुंधरा भारत, वीरों की अदभुत थाती है ।उस भरतभूमि को है प्रणाम, देवों को भी जो भाती है।।जब वीर और साहसी शब्द, अन्तर्मन् में बस जाते
वीणापाणि नमन है तुमको, मेरे कंठ में कर लो वास।देकर ज्ञान पुंज हे माता, निमिष में संशय कर दो नाश।।हे गौरी-शिव शंकर के सुत, मुझ अज्ञानी का ध्यान करो।कर दो विवेक की वर्षा अब, और प्रभु मेरा अज्ञान हरो।।वीरों ...और पढ़ेगाथा लिखने को, काली को शीश झुकाते हैं।जिनको ग्रीवा की माला में,बस नर के मुण्ड लुभाते हैं।।भारत वीर भोग्या वसुधा, जिसकी मिट्टी भी चंदन है।जिसके वीरों ने धरती पर,वारा कुबेर का कंचन है।।आर्यों की वसुंधरा भारत, वीरों की अदभुत थाती है ।उस भरतभूमि को है प्रणाम, देवों को भी जो भाती है।।जब वीर और सा
सांगा को मिली पराजय अब, भीतर ही भीतर खाती है।बाबर से बदला लेने को,हर पल ही जलती छाती है।।प्रण उसने कठिन लिया ऐसा, प्रतिशोध नहीं जब तक लूंगा।सिर पर पगड़ी अब तब जाये, महलों में पग भी तब दूंगा।।अगणित ...और पढ़ेलगे थे तन पर, वह था पूर्णतः शक्ति हीन।पर बदले को ऐसे तड़पे, जैसे तड़पती जल बिन मीन।।जब उसने सुुना कि बाबर ने, अब चंदेरी को घेरा है।मेदनी राय से मित्रता है, बाबर भी बैरी मेेेरा है।।चाकर से तत्क्षण बतलाया, हमने मन में यह ठाना है।मुझको चंदेरी मदद हेतु ,रण में अवश्य ही जाना है।।अतः देर अब करो नहीं तुम,
चित्तौड़ दुर्ग जीता अकबर, राणा के चक्षु हुये थे सुर्ख।उदयसिंह के हाथों फिसला,धोखे से रणथंभौर दुर्ग।।सुरजन ने पीठ छुरा भोंका, गढ़ सौंपा जाकर अकबर को।तलवार नहीं पकड़ी उसने, लड़ने न दिया था लश्कर को ।।पुनः नये साहस से राणा ...और पढ़ेशक्ति संंचय में जुटे हुये थे।आजादी पर आंच न आये,इसीलिये वह डटे हुये थे।।उदयसिंह ने गोगुंदा में, उदयपुर नगर को बसा दिया। पुत्र प्रताप कुछ बड़े हुये, प्रण आजादी का उठा लिया।।भाला, बरछी,तीर चलाना, नहीं रहा प्रताप का सानी ।उनके किस्सों को सुन-सुन कर, अकबर को होती हैरानी।।पिता-पुत्र ने लक्ष्य था ठाना,हम मुगल वंश का नाश करें।नामोनिशान इन यवनों का, भारत
जब दिनकर नभ में आते हैं,तम का प्रभाव तब मिटता है।या दिख जाये जब केहरि तो, भेड़ों का दल कब टिकता है।।जग में प्रताप ने जन्म लिया, मुगलों का मान मिटाने को।आजादी की बलि वेदी पर, अपना सर्वस्व लुटाने ...और पढ़ेको रण करना ही है,इन निर्मम मुुगल अमीरों से।हम मुक्त करें निज धरती को,परवशता की जंजीरों से।।हर घड़ी कौंधते थे विचार, कैसे कलंक यह धुल जाये।बन्धन सारे भरतभूमि के, कैसे मुझसे कब खुल पायें।।कैसे चित्तौड़ गुलाम हुआ, हमसे थी कैसे चूक हुई।कब जंग खा गयीं तलवारें, शेरों सम गर्जन मूूक हुई।।धरती का ऋण जो मुझ पर है,उसको इस तरह चुकाना