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काशी बाई और शीला

‌‌‌क़ाज़ी वाजिद की कहानी - प्रेरक कथा

मेरे पिता तो अधिकतर घर पर रहते ही नहीं थे। घर आते थे, तो अपशब्द बकते हुए या बड़बड़ाते हुए, कभी हंसते हुए। हर व्यक्ति पर भरोसा कर लेते थे और हर एक से धोखा खाते थे।
...और मां! वो तो घर के आंगन तक पैर न रखती थी, जब तक कि बिल्कुल ज़रूरी नहीं हो जाता था। केवल मैं घर से बाहर निकलता था- स्कूल के लिए और दुकान की ओर दूध के लिए।
हम लोग निर्धन थे...खानदानी लोगों का गरीब हो जाने से बढ़कर बोझ है कोई? एक छोटे से गांव में समेट लिया था अपने आपको, जहां एक टुकड़ा भी जमीन का हमारा ना था...जगत के दूसरे कोने में जाकर बस गए थे अपने गरीबी को छुपाने के ख़्याल से। फिर भी ऐसी जगह आ पहुंचे जहां रिश्तेदार निकल आए... यह संबंधी गांव की सीमा पर रहते थे सबसे बड़े मकान में... हमारे विशालकाय पुराने महल के आगे कहां था यह मकान। पर कैसी कड़वी दिल को दुखाने वाली ईर्ष्या जगाता था हमारे मन में।
रघुवर चाचा दोहरी ठोड़ी, सख्त हाथों और बड़ी घनी भौहों वाले हमारे रिश्तेदार थे। हमें नौकरों की तरह रखने की व्यर्थ कोशिश कर चुके थे। नाराज़ थे कि पिताजी ने उनके साथ किसी तरह के गैर कानूनी काम करने से इनकार कर दिया था। जलते भी थे, क्योंकि उनके दादा के समय में ही उनका संबंध हमारे पुराने नवाबी खानदान से अलग हो गया था, जबकि हमारे खानदानी हिस्से में नवाबियत देर तक चलती रही थी।… मेरी मां काशी बाई की नानी बड़े ज़मींदार घराने की लड़की थी, जिनका सम्बंध संसार के मशहूर ख़ानदानो तक जाकर जुड़ता था। और रघुवर चाचा जो परचूनी की दुकान चलाते थे और उनकी पत्नी शीला देवी के पिता दलाली का काम करते थे।
मेरी मां कभी शिकायत नहीं करती थी । एकदम जड़-सी हो गई थी और बिना आह भरे जि़ंदगी का बोझ ढो रही थीं। लेकिन गांव में इसकी चर्चा थी कि मां के लकीरों वाले मख़मली बक्से के अंदर पुरानी छोटे छोटे-छोटे फूलों की कढ़ाई वाली ब्लाउज़ और बेशकीमती चीजें अब भी उनके बीते हुए दिनों की याद बनाए रखने के लिए रखी गई हैं।
गर्मियों में एक दिन भीषण लू चल रही थी थी, जो मां को लग गई। मां ने मुझसे पन्ना बनाने के लिए कच्चे आम लाने को कहा। गांव में कच्चा आम मिलता ही नहीं था, कभी-कभी पैसे से भी नहीं, क्योंकि आम तो बड़े बाजारों में शहरों में बेचने वाली चीज थी।... हां अगर मां अधिक बोलने वाली होती और पड़ोस की औरतों की चटपटी, बेबुनियाद बातों को सुन सकती थी, तो कच्चे आम के लिए मुझे जाना ही नहीं पड़ता। आमवालीयां घर पर ही पहुंचा जाती। पर ऐसा संभव नहीं था। और इसके लिए मुझे अहंकार भी था मां पर क्योंकि वह चाहे गरीब थी, पर सुंदर और अभिमानी थी।‌
मैं पूरे गांव का चक्कर लगा आया था, अपने हाथों में सफेद भूरे पैसे पकड़े, डरते हुए। हे भगवान! कहीं से कच्चे दो- चार आम मिल जाए।... मेरे सामने बड़ी-बड़ी टोकरियों में कच्चे आम की खरीद-फरोख्त हो रही थी, पर मेरे मांगने पर तेज़ आंखों वाली पैसे की लालची गांव की औरतें अपना हाथ झाड़ देती और दुखड़ा रोने लगती थी, 'बेटा है ही नहीं। दे नहीं सकते। तुले हुए हैं बड़े बाजार में बेचने जाना है, वहां आम के अच्छे पैसे मिल जाएंगे।'
मैं थका हुआ बड़बड़ाता हुआ घर पहुंचा, नहीं मिले, कोई नहीं देता।' मां की बड़ी-बड़ी काली आंखें और बड़ी हो गई, बस यूं चमकी। वे न बोली, न उन्होंने आह भरी, न उन के आंसू निकले।...फिर मेरे दिमाग में एक बहुत साहसी विचार पनपा,' मां !' मां ने मेरी तरफ आंखें उठाईं, मैंने अपना विचार उनके सामने रखा, मैं शीला चाची के यहां जाऊं?'
मां ने पलक भी न झपकाई, हालांकि मैंने बहुत बड़ी बात कह दी थी।...शीला चाची से हमने कभी कुछ नहीं मांगा था, चाहे भूख से हम मर ही क्यूं न रहे हो। उनके पास एक बड़ा बाग था। मां तेज़ बुख़ार् से कराहते हुए बोली,'जा।' मैंने मेज़ से पैसे उठाएं और तेज़ी से भागा। फिर एक बार दरवाज़े पर ठिठका, रूका, मां की और फिर से मुड़ कर देखा,'जाऊं?-'जा'
पूरे रास्ते मेरा दिल धड़कता रहा कहीं कुत्ते न पकड़ लें।... मगर रास्ते भर इतने खूंखार कुत्तों से सामना नहीं हुआ, जितना रिश्तेदारों के अहाते में। एक नौकरानी सामने से आई और उसने मुझे कुत्तों से बचाया। 'शीला चाची कहां हैं?' भड़कीले कपड़े पहने वह नौकरानी शायद कुछ उदास-सी थी और कुछ गुस्सा भी। 'उधर हैं पशुओं के बाड़े की ओर।' गुर्राकर बोली।
... मैं सहमा सा बाड़े की तरफ बढ़ा... अचानक में रुक गया, मानो बर्फ का छोटा-सा पुतला बनकर रह गया हूं। बाड़े में से अजीब सी आवाजें आ रही थी। 'छोड़ो मुझे।' शीला चाची की आवाज़ सुनाई दी, पर ऐसे, जैसे चिल्लाना चाह रही हों। कुछ झगड़ा सा सुनाई दिया।...' विधायक जी!' शीला चाची हांफते हुए बोली, कमीने बदमाश!
कोई मर्दानी हंसी सुनाई दी ... मै पहचानता था वह आवाज़। विधायक राजू दद्दा की थी, जो मैंने स्कूल में वार्षिक उत्सव में सुनी थी। 'क्या चाहते हो?' फुसफुसाकर चाची बोली। 'आओ ना।' विधायक बोला। फिर शांति हो गई। मैं ऐसा खड़ा रहा, मानो एक प्रतिमा। पर मुझे इस बातचीत का एक भी शब्द समझ न आया। 'जाने दो।' फुसफुसाकर फिर से चाची बोली। 'आओ, अगर नहीं आई तो पुलिस से पकड़वा दुंगा। मुझे तेरे सभी गैरकानूनी धंधों की खबर है। उम्र भर जेल की चक्की पीसेगी। मुझे पागल न बनाओ...'
बाड़े में हलचल हुई और चाची तेजी से बाहर दौड़ी। जब उन्होंने डरते हुए, फटी फटी आंखें लिए दरवाजे़ पर कदम रखा तो फौरन उनकी निगाह मुझ पर पड़ी। समझी कि मैंने सब कुछ देख, सुन और समझ लिया। इससे वे बेहद डर गई। 'क्या चाहिए?' मेरी और कातिलाना नज़र डालती हुई बोली। 'मेरी म...म...मां ने।' मैं हकलाते हुए बोला, आपको सलाम भेजा है और कुछ कच्चे आम आपसे लाने को कहा है।'-'नहीं है।' वह चिल्लाई। लगा, जैसे मैं लड़खड़ा कर गिर जाऊंगा। वह घर की तरफ बढ़ गई।...
मैं उबलता हुआ घर लौटा। दरवाजे़ पर देर तक खड़ा रहा, जब तक दरवाज़ा खोलने की हिम्मत मुझ में नहीं आ गई। मां ने तेल की लालटेन जला ली थी।...मैंने पैसे मेज़ पर रख दिए और बड़बड़ाया, वे नहीं दे सकती, उनके पास नहीं है।' मां सीधी खड़ी हो गई, सख्त बन गई।..माथे पर पसीना अच्छे से पोछा और बस कहा, ठीक है।'
उदास बोझिल शाम थी।...मैं एकटक लालटेन की बत्ती को ताकता जा रहा था। जब किसी ने दरवाज़ा ज़ोर से खटखटाया 'सुरेश, सुरेश!' हमें सुनाई दिया।' काशी बाई!' मां चिल्लाई 'तुम हो क्या?'
'मैं हूं। भगवान के लिए अंदर आने दो।' मां ने उनको अंदर आने दिया। मैं पलंग पर सहमा-सा लेटा रहा। एक माचिस के जलने की आवाज सी आई, पर वह जली नहीं। चाची डरी हुई आवाज़ में फुसफुसाने लगी, 'अरे मत जलाओ, अगर मेरी मौत नहीं चाहती। मेरे लिए पलंग ले आओ। मेरा वक्त आ गया है।' मां ने पिताजी का पलंग बिछा दिया, चाची उस पर लेट गई। केवल एक दफा अचानक चिल्ला पड़ी, 'हाय मुझे छुओ मत, दर्द होता है।...' रोते-रोते उछल कर बैठ गई, 'मुझे बुरी तरह से पीटा। तुम्हारे अलावा और किसी के पास जाती तो इस बात का पूरे गांव में ढिंढोरा पिट जाता।'... धीमे धीमे सिसकती रही चाची, मैं पगली बेवकूफ! रंगे हाथों पकड़ी गई।' 'बोली, केवल तुम्हारे पास आ सकती थी। अगर कहीं और जाती तो मेरा अंत हो जाता। तुम्हारे अलावा कोई भी मेरा हाल सब जगह सुना देता।' कराहती रहीं, सिसकती रहीं और रोती रहीं, 'मैं जानती थी, तुम्हारे पति घर पर नहीं है और इसके अलावा तुम तो वैसे भी जानती ही हो।'-'मैं।'...'क्या।'मां बोली।
'बताया नहीं बच्चे ने?' मैं शायद चक्कर खाकर पलंग से गिर ही जाता। मां बोली, उस रोबीली शांत आवाज़ में, जिससे मैं भी कांपता था और पिताजी भी घबरा जाते थे, 'मेरा बच्चा ऐसी बातें नहीं करता।' शीला चाची एकदम शांत हो गई। उसके आगे एक शब्द नहीं बोली, न रोई, न सिसकी।... सुबह जब सोकर उठा, सब कुछ तरतीब से लगा था। मां काम में लगी थी, मैंने कपड़े पहने और नाश्ते का इंतजार करने लगा। उसी समय शीला चाची की नौकरानी अंदर आई।...मुस्कराते हुए बोली, 'मेरी मालकिन ने एक पेटी आम भेजा है।'...
'ठीक है रज्जो, अपनी मालकिन से मेरा धन्यवाद कहना...और रुको, उनके लिए यह कान के बुंदे लेती जाओ, यादगार के लिए पहन लें।' मां ने मखमली बक्सा खोला और उसमें से सबसे खूबसूरत बुंदे निकाल कर दे दिए।
मैं इंतजार में था कि फिर से एक बार जी भर के आम खाउंगा। पर मां ने वह पेटी उठाई और शांति से, आराम से, आम कूड़े के ढेर पर डालना शुरू कर दिए। हमारी छत पर जो बंदर बैठे रहते थे, शायद उनके लिए। मेरा रंग फीका पड़ गया...मां ने मेरी तरफ देखा। चौक गई और हाथ एक क्षण को ढीला पड़ गया। आमों को फेंकने की गति मद्धम पड़ गई। अंत में लंबी -सी आह भरी। जैसे उनके हृदय को चोट-सी लगी। दुख भरे खूबसूरत चेहरे पर एक आंसू ढलक आया। बोलीं, 'बेटा स्कूल जाने का समय हो गया।'
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