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प्यार और दोस्ती

क़ाज़ी वाजिद की कहानी - प्रेमकथा

डाक्टरी की परीक्षा पास करने के बाद मेरी नियुक्ति मसूरी के सरकारी अस्पताल में हुई। छुट्टी के दिन भीषण ठंड के कारण मेरा चित ठीक नहीं था इसलिए बदमिजाज़ी से चिंता का पहाड़ लिए, एक बस में बैठ गया जो मैदान की ओर जा रही थी। परन्तु बस में आई तकनीकी खराबी के कारण मुझे रास्ते में उतरना पड़ा। उस समय मेरा मन, कभी लौटने को, तो कभी बस के ठीक होने तक रुकने को कहता। तभी मुझे देवदार के वृक्षों के बीच से आते हुए प्रकाश में एक अद्भुत-सा मकान दिखा। वहां से आती किसी लड़की के गाने की मधुर आवाज़ ने मेरा मन मोह लिया। वहां पहुंच गया, मकान को धेरे मक्का के खेतों में एक लड़की भुंटे तोड़कर टोकरी में डाल रही थी और लोक गीत गा रही थी‌। घाधरा चोली पहने हुए थी। खूबसूरती के साथ गरिमामय भी थी। मैं उसके मधुरमय संगीत में खो गया। उसकी नज़र मुझ पर पड़ी, तो ठिठक गई, बोली, 'क्या चाहिए।' मैं सकपका गया और कहा, 'भुंटा।' उसने टोकरी में से भुंटा निकाला और कुंडेली में रखे कोयलो पर भूनकर मुझे दे दिया। मैं भुंटा खाने लगा और वह मुझ से बतियाने लगी। वह इतनी अच्छी बातें कर रही थी, मन कर रहा था सुनता रहूं। तभी किसी ने मालती कहकर उसे पुकारा। आई, कहकर वह घर में जाने लगी। मैंने कहा, 'पैसे तो लेती जा।' उसने मेरी आंखों में झांक कर कहा, 'एक भुंटे के क्या पैसे लेना।' मैं उसकी कजरारी आंखों की गिरफ्त में आ गया और उसकी ओर खिंचा चला गया। मैंने उससे कहा, 'मालती मैं सरकारी अस्पताल में डॉक्टर हूं, कोई परेशानी हो तो डॉक्टर गौरव के पास चली आना।' उसने कहा, 'न-बाबा-न! मुझे नहीं आना। तुम सूई से छेदोगे।' उसकी मासूमियत भरा लहजा देखकर मैं हंसी को नहीं रोक सका।
डाक्टरी के उबाई पेशे में खुलकर हंसने का सौभाग्य मुझे वर्षों बाद प्राप्त हुआ था। वह मेरे ख्यालो और खुआबो में हर समय रहती थी। मैंने उसे भुलाने के बहुत जतन किए पर गलियों में बाजारों में भुंटे बेचने वालियों को देखकर वह फिर से याद आती थी।
छुट्टी के दिन बेचैन मन को करार देने के लिए अद्भुत मकान पर पहुंच गया। मकान बंद था। भुंटे के पेड़ों को भेड़ें चर रही थी। दूर तक वीरानी छाई हुई थी। तेज़ हवा में अजीब सी आवाजें चारों ओर गूंज रही थी।... कभी गाने की कभी बजाने की।
मैंने नानी को कहते सुना था, खंडहरनुमा मकान में प्रेत आत्मा रहती हैं, जो गीत गाकर लोगों को आकर्षित करती हैं। मुझे लगा, 'डॉक्टर गया काम से।' पर नानी का गुर काम आ गया, हनुमान चालीसा पढ़ता हुआ कार तक पहुंच गया।
दूसरे दिन एक एन जी ओ के निमंत्रण पर मैं देहरादून जा रहा था। वहां स्लीप पैरालिसिस बनाम भूत प्रेत विषय पर एक सेमिनार अटेंड करना था। रास्ते में मौसम के मिजाज बिगड़ गए। तूफानी वर्षा और भूस्खलन होने लगा। मैं न आगे जाने न पीछे जाने की स्थिति में था। मैं एक बस स्टॉप पर अपनी गाड़ी में शरण लिए हुए था। भूख प्यास से मेरा बुरा हाल था, नींद से मेरी आंखें मिच रही थी।
अद्भुत मकान यहां से पास ही में था। तभी आकाशीय विद्युत की चमक में मुझे मालती दिखी। उसने मुझसे कहा, 'प्रियतम मेरे साथ चलो तुम्हें सभी सुख प्राप्त होंगे।' मैं उसके पीछे चल दिया।अद्भुत मकान पर पहुंचकर उसने कहा, 'अरे! मकान की चाबी तो खो गई, अब क्या होगा?' वह ठंड से कांप रही थी। मैंने अपना ओवरकोट उतार कर उस पर डाल दिया। उसने मुझसे कहा, 'तुमने भुंटे बेचने वाली से प्यार किया है, तुम्हें पता लगेगा मैं वह नहीं हूं, तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे।' मैंने कहां, 'मालती, तुम्हारे गाने की आवाज ने मेरा मन मोह लिया है, तुम क्या हो इससे मुझे कोई लेना देना नहीं है।' उसने कहा, 'मैं कैसे भरोसा करूं? मर्द औरत को रिझाने के लिए झूठ का सहारा लेते हैं‌। यदि तुम मुझसे प्यार करते हो तो जो मैं कहुंगी वह करोगे।'...'कहकर देखो।' 'पहाड़ से छलांग लगाओ।'... उसके कहते ही मैं पहाड़ से कूद गया। गिरते समय मैंने मां को चीख़कर पुकारा जिससे मेरी आंख खुल गई। मेरा दिल बुरी तरह धड़क रहा था। मैंने कार के शीशों से इधर उधर देखा, कार वही खड़ी तूफान से हिल रही थी। इसका मतलब मैं कहीं गया ही नहीं था और यह सारी घटना स्वपन में हुई थी।
दूसरे दिन मैं सेमिनार में पहुंचा। सभी को अपना-अपना कोई भयावह अनुभव सुनाना था। मैंने अपना कल का अनुभव सुनाया। भूत प्रेत में विश्वास करने वाले पक्ष ने एक स्वर में कहा, 'मालती प्रेत आत्मा थी, आपको हनुमान चालीसा ने बचाया।'... डॉक्टर पक्ष का उत्तर था, 'इसे स्लीप पैरालिसिस कहते हैं। यह एक ऐसी अवस्था होती है जिसमें इंसान के दिमाग व शरीर के बीच तालमेल नहीं रहता। व्यक्ति भीतर से सचेत होता है पर शरीर को हिला नहीं पाता। यह अवस्था कुछ सेकेंड या कुछ मिनटों तक रह सकती हैै। हालांकि यह स्थिति गंभीर नहीं है पर बार बार होना परेशान कर सकती है।'
सेमिनार समाप्त होने के बाद मैं अपनी कार स्टार्ट कर रहा था तभी एक डॉक्टरनी आई, जो हुबहु मालती लग रही थी। उसने मुझ से कहा, 'सर आप मुझे रास्ते में ड्राप कर दें तो बहुत मेहरबानी होगी।' ओपचारिक बातचीत के बाद उसने कहा, 'डॉक्टर गौरव, सेमिनार में आपने कहानी सुनाई, तो पलभर को मुझे लगा, आपने वास्तव में पहाड़ से छलांग लगा दी।'
रास्ते भर वह लगभग मौन रही। फिर एकाएक चिल्लाई, रुको-रुको, मेरा घर आ गया। मैंने तेज़ी से कार के ब्रेक लगाए। अद्भुत मकान सामने था। मैं चलने लगा तो उसने हंसते हुए कहा, 'डॉ गौरव, आप बिना चाय पिए चले गए तो मालती को प्रेत आत्मा ही समझते रहेंगे।' मैं डरता हुआ उसके पीछे हो लिया। घर में पुराने ज़माने का फर्नीचर था, पर करीने से लगा हुआ था। दीवारों पर चित्रकारी और किवाड़ों पर नक्काशी ईसा युग जैसी थी। छतें खपरैल की थीं। हॉल में आतिश दान सुलग रहा था। कमरों में झाड़ फानूस लटक रहे थे। वह मुझे एक मोंढे पर बिठाकर खपरैल नुमा कमरे में चली गई। कुछ समय बाद लौटी तो वही घाघरा चोली पहने हुए थी, जो उसने मेरी पहली मुलाकात के दिन पहनी थी। उसके हाथो में एक ट्रे थी जिस पर अंग्रेजों के जमाने का एक टी-सैट था जिसमें चाय और और केक था। मैने चाय पी ली पर दहशत में मुझसे केक नहीं खाया गया।
फिर वह मेरे बहुत पास आई और धीरे से बोली, 'यह मकान अंग्रेज़ का था। मेरे दादा ने मोल ले लिया। मैं छुट्टियों में यहां आती हुं, कुछ दिन रुकती हुं, फिर देहरादून चली जाती हुं।
उसकी बातें सुनकर मैंने कहा, 'तुम्हारी पहेलियों ने मेरे शरीर का खून सुखा दिया।' उसने कहा, 'साइकोलॉजिस्ट डाक्टर सिंहा मेरे पापा हैं। वह इसी तरह लोगों का डर दूर करते हैं।
मैने हंसते हुए कहा, 'आप डॉक्टर हैं, मैं भुंटे वाली समझता रहा।' हम दोनो हाथों में हाथ डालकर बहुत देर तक हंसते रहे। धीरे धीरे हमारी मुलाकात दोस्ती में बदली, फिर प्यार में, और एक दिन हम शादी के बंधन में बंध गए।
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