उपहार Wajid Husain द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

उपहार

क़ाज़ी वाजिद की कहानी - प्रेम कथा

सैफ अपने अपने लहराते भूरे बालों, सुन्दर चेहरे- मोहरे और ग्रे आंखों के साथ आश्चर्यजनक रूप से आकर्षक था। आज़ादी से पहले उसके दादा का हाजी एंड संस नाम से सिविल लाइन में फर्नीचर का शोरूम था। वहां अंग्रेज़ अफसर और उच्च वर्गीय लोग फर्नीचर खरीदने आते थे। हाजी जी शहर के अमीरों में गिने जाते थे।
सैफ ने एक बार बिना किसी संदर्भ के मुझसे कहा, 'एक पुलिस के दरोगा ने मुझे शोरूम उपहार में दिया। मैंने उसकी ओर आश्चर्य से देखा, तो यह कहानी सुनाने लगा।
कैंट में एक फौजियों का अस्पताल था जिसमें इक्का-दुक्का अमीर सिविलियंस को भी सिफारिश के बाद भर्ती कर लेते थे। अंग्रेज़ों के शासनकाल मेंंअस्पताल के फर्नीचर की सप्लाई मेरे दादा की फर्म से होती थी। आज़ादी के बाद भी अस्पताल ने हमारी फर्म से ख़रीदारी जारी रखी, इसलिए मेरा वहां अक्सर जाना होता था।
एक सुंदर और सुनहरे बालों वाली लड़की को देखा, जिसे रोगी और स्टाफ सभी प्यार करते थे। जैसे ही मरीज़ उसकी आहट सुनते, बिस्तर से उठ जाते और अपने हाथ इस तरह फैलाते जैसे कोई बच्चा अपनी मां को देखकर हाथ बढ़ाता है। वे कहते, शबनम यहां आओ।' यहां तक की चिड़चिड़े लोग भी उसके चेहरे और मृदुल मुस्कान के आगे नतमस्तक हो जाते और वह जो कुछ करने को कहती, करने को तैयार हो जाते। इस मुस्कान के अलावा उसकी नीली आंखें इतनी सुंदर थी कि एक बार मैंने खुद से पूछा, 'इनमें ऐसा क्या है? क्योंकि जिस क्षण मेरी उससे मुलाकात हुई, मैं भी उसके आकर्षण की गिरफ्त में आ गया। ... उसने बतलाया, हाथ में फ्रैक्चर हो गया था इसलिए भर्ती हुई। ... मैंने कहा तुम्हें फौजियों की तीमारदारी करता देख, में नर्स समझता था। उसने कहा सिपाही हमारे वतन के लिए जो क़ुर्बानी देते हैं उसकी कोई बदल नहीं है। फिर भी मैं इनसे हंस-बोलकर इनका अकेलापन दूर करने की कोशिश करती हूंं। ...मेरे मुंह से निकला, 'बड़ा नेक काम करती हैं, आप।' और वह हंस पड़ी।
घर लौटने के बाद मैं उसके ख़्यालों में खोया रहा, रात को नींद भी उचटती हुई आई। मुझे डर सता रहा था कि कहीं सवेरे उसको डिस्चार्ज कर दिया तो ज़िंदगी भर मलाल रहेगा। और मैने मोटरसाइकिल अस्पताल की ओर दौड़ा दी। मैंने ठीक ही सोचा था, उसकी छुट्टी हो चुकी थी, वह गेट पर खड़ी मेरा इंतिज़ार कर रही थी। मुझे देखते ही उसका चेहरा खिल उठा, कहने लगी, आप सोचते, 'शबनम कितनी मग़रूर है, बगैर बतलाए चली गई।' मैंने उसे शायराना अंदाज में जवाब दिया, ऐसा तो नहीं सोचता पर ज़िंदगी में सिर्फ ताल रह जाती, लय ख़त्म हो जाती।' उसने कहा, 'ऐसा क्या है मुझ में, हमारी तो कुछ ही लम्हों की मुलाकात है?' मैंने भावुक होकर कहा, 'जाने क्यों लगता है, 'जन्म जन्मांतर का साथ है।' उसने मेरी आंखों में झांका फिर कहा, 'अब्बू आते होंगे, चलो हम अस्पताल और दुनिया को भुलाकर कुछ और बातें करें' और वह मुझे बाग में ले गई।
वहां बच्चे खेल रहे थे। हमें देखकर फुसफुसाने लगे। मैंने उससे पूछा, 'जानती हो, यह बच्चे किसके बारे में बात कर रहे हैं?' ... 'हमारे बारे में।' ... क्या तुम्हें पता है, 'क्या बोल रहे हैं?' ... वह कह रहे हैं, 'कि हम दूल्हा-दुल्हन हैं।' ... उसका चेहरा शर्म से लाल हो गया और उसके मुंह से निकला - 'शायद' तो तुम्हारा मतलब है कि इस पर तुम्हें एतराज नहीं है?' ...'किस बात पर?' ... 'वही जो बच्चे कह रहे हैं -अगर इनकी बातें सच हो जाए तो? मतलब हम शादी कर ले तो?'
वह हंसी और मेरी तरफ देखने लगी। मैंने उसका हाथ पकड़ा और कहा, 'दूसरा हाथ भी दो।मैंने उसके दोनों हाथ चूमें और उसके चेहरे की ओर देखकर कहा, 'कहते हैं कि बच्चे और मूर्ख सच ही बोलते हैं।'
तभी अब्बू आ गए। वह सौदागर थे, समझ गए, 'मुझे उनकी बेटी से प्रेम हो गया है और उनकी बेटी को मुझसे।' मैंने उन्हें अपना परिचय दिया, मैं हाजी जी फर्नीचर वालों का पौत्र हूं, फर्नीचर सप्लाई के लिए यहां आता हूं।' दादा का नाम सुनते ही उनकी बांछें खिल गई। 'बड़ी मछली बिना चारा लगाए जाल में फंस गई थी।' और उन्होंने मुझे घर आने की दावत दे दी।
अगली शाम मैं उनके घर गया। बात-चीत में पता चला, शबनम की मां का इंतिकाल कई साल पहले हो चुका था। मेरे लिए खाना उसने अपने हाथों से बनाया था। खाना खाने के बाद मैंने शबनम से कहा, 'मुझे लगता था, जनाब को बातें बनाने की महारत हासिल है, आप तो खाना भी लज़ीज़ बनाती हैं। उसने कहा, 'इंसान के जज़्बात की कद्र करना कोई आपसे सीखे।' फिर मैंने सौदागर से अपने दिल की बात कही। उसे मैं पसंद तो बहुत था, लेकिन वह हमारी सगाई का नाम तक सुनने को तैयार नहीं था। उसने कहा, 'मेरे बच्चे मेरे पास जब आना, जब तुम्हारे पास दस हज़ार रुपये महर के हों। फिर सोचेंगे। मुझे ख़ामोश देखकर शबनम मेरी कोई मजबूरी समझ गई थी, उसके आंसू निकल आए। चलते समय उसने मुझे एक रुमाल दिया, जिस पर मेरा नाम कढ़ा हुआ था। वह दरवाज़े पर खड़ी रही, जब तक मैं उसकी आंखों से ओझिल नहीं हो गया।
बेकार है आपका आकर्षक होना अगर आप अमीर नहीं है। आपके आकर्षक से अच्छी है आपकी स्थाई आय। आधुनिक जीवन के कुछ महान सत्य हैं जिसे मैंने अनुभव नहीं किया था। बेचारा सैफ। ... क्या करता। मैंने शोरूम गिरवीं रख दिया। सौदागर को महर की रकम अदा कर दी और निकाह करके शबनम को घर ले आया।
हमारी शादी के बाद का समय बहुत अच्छा था। फिर भी उसकी आंखों में एक काली छाया थी, जो कभी-कभी उस बादल की तरह गहरी हो जाती, जो फूटना चाहता हो। एक बार मैंने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा। उसने बिना उत्तर दिए अपनी आंखें मुझ पर टिका दी। मैंने प्रश्न दोहराया। उसने मेरे गले में बाहें डालते हुए कहा, 'मैं जब भी आप से शोरूम जाने के बारे में कहती हूं, आप जाने का वादा करते और हर बार किसी बहाने टाल जाते हैं। मेहरबानी करके आप शोरूम जाया करें।' मैने उसे बतलाया, 'इस राज़ को छुपाने की क़सम खाई थी। तुम्हारी उदासी देखकर राज़ से पर्दा हटाना पड़ेगा। मैंने आपके अब्बू से कहा था, 'मैं आपकी बेटी से प्यार करता हूं, आप निकाह करने की इजाज़त दे दीजिए। उन्होंने कहा था, 'मेरे बच्चे मेरे पास जब आना, जब तुम्हारे पास दस हज़ार महर के हों। फिर सोचेंगे। हालांकि मेरे दादा की गिनती शहर के धनी लोगों में थी परंतु उत्तराधिकार में मुझे एक शोरूम और कुछ नगदी ही मिली थी। मैं गमगीन हो गया, दस हज़ार रुपए महर के अदा करने की पोज़ीशन में नहीं था। फिर मैंने उसके गले में बांहें डालते हुए कहा, 'तुम मेरे लिए कितनी क़ीमती हो और मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं। मैंने महर की रक़म अदा करने के लिए शोरूम गिरवी रख दिया था।'
एक मुस्कुराहट उसके उदास चेहरे पर फैल गई। ... और उसने कहा, 'आपने मेरे लिए इतनी बड़ी कुर्बानी दी और ज़िक्र भी नहीं किया। अब्बू ने रिवायत के नाम पर अपनी बेटी का सौदा किया, कैसे बाप हैं वह? छी।'
मैंने सूदखोर का रुपया मय सूद के लौटा दिया, फिर भी उसने शोरूम नहीं लौटाया। अब वह सूद-दर-सूद देने को कहता था। एक दिन मैंने उससे कुछ सख्ती से शोरूम वापस करने को कहा, तो गुंडागर्दी करने लगा। मैं उसके डर से स्टेशन के वेटिंग रूम में छिप गया। रात को बाहर निकला और एक रिक्शा वाले को घर का पता समझाकर चलने को कहा। कुछ दूर चलने के बाद रिक्शा वाला हांफने लगा और उसके शरीर से पसीना चूने लगा। मैंने उससे कहा, 'कुछ देर सस्ता लो।' वह गद्दी पर टिक गया, एक हाथ से हैंडल पकड़ लिया और दूसरे हाथ से पसीना पोछने लगा। कुछ देर बाद वह फिर उचक कर पैडिल मारने लगा। उसकी पीड़ा देख मुझे उस पर दया आ गई। मैं रिक्शा से उतर गया और मैंने अपनी जेब टटोली। मुझे अपनी जेब में एक रुपया और कुछ सिक्के मिले। 'बेचारा, मैंने मन- ही- मन सोचा, उसे इनकी ज़रूरत मुझसे ज़्यादा है, पर इसका मतलब है कि पंद्रह दिन तक मुझे बिना रिक्शा के पैदल चलना होगा। मैंने रिक्शा वाले के हाथ में वह रुपया सिरका दिया। रिक्शा वाला चौक उठा और उसके मुरझाए चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कुराहट दौड़ गई। उसने कहा, 'श्रीमान धन्यवाद।'
अचानक लैंप पोस्ट की रोशनी में मैंने उसे पहचान लिया। लड़खड़ाती ज़ुबान से कहा, 'छोटे कुंवर, आप अपने दादा के साथ हाथी पर बैठकर हमारे शोरूम पर फर्नीचर ख़रीदने आते थे, ऐसा क्या हो गया जो आपको रिक्शा चलाना पड़ रहा है?' उसने रूंधे गले से कहा, 'ज़मींदारी निकल जाने के बाद आमदनी न के बराबर रह गई, ख़र्च की आदत नहीं जाती। हवेली को छोड़कर सभी कुछ गिरवीं रखा हुआ है। मैंने दरोगा की परीक्षा पास कर ली है। इंटरव्यू के ख़र्च के लिए रिक्शा चला रहा हूं। आपके दिए पैसे से इंटरव्यू का ख़र्च निकल जाएगा। किसी को भी यह सब पता नहीं है, आपने इस बारे में बता दिया तो मुंह दिखाने के क़ाबिल नहीं रह जाऊंगा।'
मैंने उससे कहा, मैं क्या किसी को बतलाउंगा, मेरी हालत तुम से भी बदतर है‌। निकाह के ख़र्च के लिए शोरूम सूदख़ोर के पास गिरवीं रख दिया था। उसका रुपया मय सूद के लौटा दिया, अब वह सूद-दर-सूद देने को कहता है। आज मैंने उससे शोरूम वापस करने को कहा, तो धमकी देकर चला गया। मैं उसके डर से वेटिंग रूम में छिपा रहा, अब घर जा रहा हूं।
छोटे कुंवर ने भावुक होकर कहा, 'फिर भी आपने मुझे एक रुपया दे दिया। आप मेरे प्रेरणा स्रोत हैं।' मैंने उससे कहा, 'मुझे भी तुमसे बहुत ऊर्जा मिली।' फिर उसने ज़मींदारों वाले लहजे में कहा, 'दरोगा बन गया तो सारी गुंडागर्दी निकाल दूंगा। आप चिंता न करें, शोरूम उसका बाप भी वापस करेगा।'
घर का दरवाज़ा खुला था। घर में शबनम को बिस्तर पर न देखकर चिंतित हो गया। तभी स्टोर में से दिये की धीमी रोशनी आती देख तेज़ क़दमों से वहां गया। सिलाई मशीन और फैले हुए सिले- अनसिले कपड़े देख कर समझ गया, 'छोटे कुंवर की तरह मेरी पत्नी भी सिलाई करके घर का ख़र्च चलाती है।' उसे लगा, उसकी चोरी पकड़ी गई, इस अंदाज़ में वह कपड़े समेटते हुए उठी और कहा, 'मैं खाना लगाती हूं, तब तक आप मुंह- हाथ धो लीजिए। मैंने उसका यह रूप देखा तो भावुक होकर कहा, 'मैं तुम पर घर की तंगी की झुंझलाहट उतारता था। तुमने लाख समझाया पर मैंने मेहनत करने में बेइज्जती समझी और अपना रवैया नहीं बदला। मैं तुमसे सारी कमियों और गलतियों की माफी मांगता हूं।' इतना कहकर मैंने उसका हाथ थाम लिया। उसने काफी समय बाद फिर मुझे उस वक्त की निगाहों से देखा जब उसने मुझे जान से भी ज़्यादा चाहा था। तभी उसकी आंखों से बेसाख़्ता आंसू बहने लगे। मुझे अब कोई भी काम करने में शर्म नहीं आती थी। मैने शबनम को बुटीक खुलवा दिया और व्यापार करने लगा। एक ख़ुशहाल जीवन के लिए जो कुछ चाहिए, मेरे पास था।
कुछ दिनों बाद एक सिपाही आया। उसने सिर झुकाकर मुझसे कहा, 'मैं आपको एक ख़शख़बरी दे रहा हूं। कुंवर साहब के पौत्र दरोगा बन गए हैं। उन्होंने मुझे आपको यह पत्र देने का काम सौंपा है।' और उसने एक मोहर बंद लिफाफा मेरी और बढ़ा दिया। लिफाफे के बाहर लिखा था, 'छोटे भाई की ओर से बड़े भाई को उपहार।' और भीतर थी शोरूम की चाबी।
348 ए, फाइक एंक्लेव, फेस 2, पीलीभीत बाईपास, बरेली (उ प्र) 243006 मो:9027982074 ई मेल wajidhusain963@gmail.com