क़ाज़ी वाजिद की कहानी - बिछड़े दोस्त
सड़क एकदम सूनसान थी। पिछली रात के हुए हादसे से सारा वातावरण सहमा हुआ था। लग रहा था, आतंक और भय हवा में घुला हुआ है। एक बड़े नेता की उसके सुरक्षा कर्मियों ने हत्या कर दी थी। उसके बाद मारकाट का वो तांडव शुरू हुआ जिसने मानवता को शर्मसार कर दिया था। जगह-जगह पर जले हुए टायरों, टूटी हुई बोतलों के टुकड़े और पत्थर पड़े थे। कुछ दुकानें, जो लूट ली गई थी, उनका टूटा हुआ सामान और फर्नीचर जला पड़ा हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो अभी कुछ समय पहले ही यहां कोई युद्ध हुआ हो या भयंकर तूफान आकर गुज़र गया हो। इस सबके बीच एक हवा चल रही थी जिसमें एक ही गूंज थी, देशभक्ति का तमगा उसे ही मिलेगा, जो बेगुनाहों की जान लेगा और माल लूटेगा। तमगा लेने वालों में होड़ मची थी, जिसमें मंत्री, सरकारी मशीनरी और साधारण व्यक्ति सभी सभी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे थे।
इन सबसे बेखबर वह अपने कंधे पर अपने वज़न से भी भारी जाल रखे, अपनी धुन में चला जा रहा था। तभी बिल्लू कहकर किसी ने दर्द भरी आवाज़ से उसे पुकारा। इस नाम से तो उसे बच्पन की दोस्त रज्जो पुकारती थी। आवाज़ की ओर तेज़ी से बढ़ा। रज्जो अपने बाप दादा की जिंदगी भर की कमाई एक पोटली में लपेटे और अपनी अस्मत को फटे वस्त्रों में समेटे झाड़ियों में दुबकी बैठी थी। बिल्लू ने अपने अंगोछे से उसका तन ढक दिया। दंगाइयों का शोरगुल गूंज रहा था ढूंढो- ढूंढो, यहीं कहीं छुपी है।' वह समझ गया, रज्जो उसी वर्ग की थी जिसके साथ यह सब हो रहा था।
वह कुछ पल के लिए बचपन की यादों में खो गया। गर्मियों की कड़क धूप चारों तरफ फैलना शुरू हुई थी। वह ट्यूबवेल का ठंडा पानी पीने एक फार्म हाउस गया था। उसने वहां अपने से छोटी लड़की को तितलियां पकड़ते देखा। डांटने के लहजे में चिल्लाया, 'मर जाएंगी।' लड़की सहम गई, उसने जो तितलियां पकड़ी थी, उन्हें छोड़ दिया। इस बात सेे लड़की के पापा इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने लड़के को गले लगा लिया, लस्सी पीने को दी। वह जान चुके थे कि लड़का मछुआरे का है, जिनकी बस्ती नदी किनारे बसी है। हालांकि उन्हें अपनी बेटी का मछुआरो के बच्चो के साथ खेलना पसंद नहीं था। फिर भी उन्होंने इस लड़के को अपनी बेटी के साथ खेलने से मना नहीं किया। कुछ समय बाद दोनों में ऐसी दोस्ती हुई लड़की का नाम रजनी था, लड़का उसे रज्जो कहने लगा। लड़के का नाम बिलावर था, उसे लड़की बिल्लु कहने लगी।--- फिर एक दिन रज्जो की बुआ भटिंडा से आई। उन्हें यह दोस्ती रास न आई, भाई से बोली, 'इस जंगली बेल को नहीं उखाड़ा, तो रज्जो के गले चढ़ जाएगी और तेरी नाक कट जाएगी।' एक दिन लड़का फार्म हाउस पहुंचा, उसे लगा पिछले एक वर्ष में जो नहीं बदला था, वो बुआ के आते ही एक सप्ताह में बदल गया। रज्जो मचलती रही, पर बुआ ने उसे बिल्लू के साथ खेलने नहीं दिया। इस तरह दोनों दोस्त बिछुड़ गए। इस बीच लड़के के अब्बा बाढ़ में बह गए। मां की जिम्मेदारी उसके कंधों पर आ गई, जो वह मछुआरा बनकर निभाने लगा।
कुछ दंगाई आ चुके थे। बिल्लू चिल्लाया, ' रज्जो मै इन्हें रोकता हूं, तू भागकर मेरी बस्ती चली जा।' ---'नहीं मैं तुझे अकेला छोड़कर नहीं जा सकती।'---'तुझे मेरी कसम चली जा।' रज्जो नदी के किनारे मछुआरों की बस्ती की ओर भागने लगी। जब तक वह ओझल नहीं हुई, बिल्लू ने दंगाईयो को रोके रखा। फिर नदी में छलांग लगा दी और तैरता हुआ रज्जो के पास पहुंच गया।
रज्जो के माता पिता का कुछ पता नहीं चला। उसका फार्म हाउस भी जला दिया गया था।कुछ दिनों में माहौल कुछ शांत हुआ तो वे भटिंडा के लिए निकल पड़े जहां रज्जो की बुआ रहती थी। कई दिन की दुश्वारियां के सफर के बाद वे भटिंडा पहुंच गए। रज्जो के मम्मी-पापा भी बचते बचाते भटिंडा पहुंच चुके थे। रज्जो के मिलने की उम्मीद वे छोड़ चुके थे। जवान लड़की के इस तरह बिछुड़ने के गम ने उनकी रगों का ख़ून जमा दिया था। --- रज्जो को बिल्लू के साथ सही सलामत देखकर उनकी खुशियां लौट आई। उन्होंने दोनों को गले लगा लिया। फिर बिल्लू से कहा, 'बेटा तूने मेरी बेटी को बचाकर हम पर जो एहसान किया है, जीवन भर तेरी गुलामी करेंगे फिर भी बदल नहीं होगा।' बिल्लू ने कहा ऐसा मत कहिए, 'यह मेरी बचपन की दोस्त है, मैंने दोस्ती निभाई है। फिर उसने रज्जो के पापा को वह पोटली दी, जो वह साथ लाई थी।
रज्जो के पापा ने कहा, 'बेटा तू किस मिट्टी का बना है, करोड़ों की दौलत भी तेरा ईमान नहीं डिगा पाई।' उसने संक्षिप्त उत्तर दिया, 'ईमान तो डिगा था परंतु एक बात ने मुझे रोके रखा। देश के बंटवारे के समय रज्जो के दादा ने गैरों का दंश झेला था। इस समय उसके पापा अपनों का दंश झेल रहे हे। मैं नहीं चाहता कि रज्जो को अपने दोस्त का दंश झेलना पड़े।' तभी बुआ ने खाट पर दरी और चादर बिछा दी और कहा, 'पुत्तर पैर ऊपर करके आराम से बैठ जा, बहुत थका हुआ लग रहा है।' बिल्लू ने कहा, 'जंगली बेल को दूर ही रखिए, गले पर चढ़ गई तो नाक कट जाएगी।' बुआ ने शर्मिंदा होकर कहा, 'पुत्तर मुझे माफ कर दे, बरसों पहले कहीं मेरी बात अभी तक दिल से लगाए बैठा है।'
फिर उसने हाथ जोड़कर कहा, 'क्षमा कीजिए, मुझे चलना होगा, मेरा जाल झाड़ियों में पड़ा है। मेरे पास वही अब्बा की निशानी है और मां का पेट भरने का साधन भी है।' ---एक बार फिर रज्जो का दिल उसे रोकने के लिए मचलता रहा, पर रोक नहीं सकी। उसकी पीड़ा उसकी आंखों से साफ झलक रही थी। हालांकि अब उसे बुआ का डर नहीं था, परंतु एक मछुआरे को जीवन साथी बनाकर परिवार को एक और दंश नहीं देना चाहती थी। सुबकती रही, जब तक वह उसकी आंखों से ओझिल नहीं हो गया।
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