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दास्ता की ज़ंजीरे

क़ाज़ी वाजिद की कहानी - प्रेमकथा

जब सभी लोग चाय नाश्ता कर चुके, तो हमारे माता-पिता ने फुसफुसाकर आपस में कुछ बातें की, तभी रजनी शालीन वेशभूषा में कमरे में दाख़िल हुई‌ और वे मुझे अकेला छोड़कर बाहर चले गए। पापा ने जाते-जाते फुसफुसाकर मुझसे कहा,' चल आगे बढ़ और उससे बात कर।'...'अरे पापा, अगर मैं घर जमाई नहीं बनना चाहता, तो कैसे ज़बरदस्ती उससे यह कह सकता हूं कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं।'
'यार! तुझे इससे क्या लेना-देना है। बेवकूफी मत कर। ज़रा दिमाग से काम ले।' यह कहकर मेरे पापा ने क़हर भरी नज़र मुझ पर डाली और कमरे से बाहर चले गए। तब तक रजनी मेरे करीब आ चुकी थी। मुझे लगा, इसने हमारी बातें सुन ली। मैंने सोचा, 'ख़ैर चलो, अब जो होगा, देखा जाएगा।' इसके बाद मैंने प्यार के लहजे में उससे बैठने को कहा। वह शरमाते हुए मुझ से कुछ फासला बना कर बैठ गई और मिठाई की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी। मैंने मन बहलाने लिए स्वयं से कहा, 'मेरी बातें सुनने के बाद भी यह रोमांटिक हो रही है, कहीं मिठाई में ज़हर तो नहीं है।'
मैं उसके लिए मुकम्मल अजनबी था मगर उसके बर्ताव में अजनबीपन में एक अजब-सी जान पहचान थी,जैसे बरसों या शायद सदियों के बाद आज वो मुझ से मिली हो...। एक अजीब सी नज़दीकी और अपनेपन का एहसास था। उसके बाद मैंने थोड़ी चालाकी बरतते हुए कहा, 'रजनी, आखिर अब हम अकेले हैं और अपने मन की बात कह सकते हैं।' यह कहकर मैं चुप हो गया।
वह अपने चेहरे पर झलक आई शर्म को छुपाने का प्रयास कर रही थी। उसका दिल इतनी ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था कि उसकी आवाज मुझे भी सुनाई दे रही थी...। उसका बदन भी बुरी तरह से कांप रहा था। मैंने स्वयं से कहा, इस बेचारी ने तो मुझे घर जमाई समझकर आमंत्रित किया था, पर मैंने नादानी से उसका दिल तोड़ दिया। मैं उस समय उसके सामने वैसा ही बैठा था जैसा एक असभ्य होता है। कुछ देर बाद उसने कहा, 'यहां घुटन महसूस हो रही है। हमारे माता-पिता इस कमरे के बाहर ही खड़े हुए हैं और हमारी बात-चीत सुनने की कोशिश कर रहे हैं, चलिए बाहर बगीचे में चलते हैं।' हमें बाहर निकलता देख वे जल्दी से बरामदे के एक कोने में जाकर खड़े हो गए। हम घर से बाहर निकल आए और घर के सामने बने बगीचे में एक पगडंडी पर चलने लगे। रजनी केे चेहरे पर चांद की रोशनी चमक रही थी। मैं बेवकूफों की तरह उसे घूर रहा था। मैंने उसके चेहरे पर झलक रही मधुरता और मासूमियत को महसूस किया, फिर एक गहरी सांस भरी और उससे कहा, 'लगता है नर कोयल गा रहा है, अपनी मादा को लुभा रहा है। पर, मैं भला किसी को क्या लुभा सकता हूं।' रजनी का चेहरा शर्म से लाल हो गया और उसने अपनी नज़रें झुका ली। हम दोनों बगीचे के उस पार सरोवर किनारे बैंच पर बैठ गए।
मैंने कहा, 'मैं बुरी तरह से एक लड़की के इश्क में डूबा हुआ हूं। उससे बेहद प्यार करता हूं। सवाल है कि वह मुझे चाहती है या नहीं? अगर वह मुझे नहीं चाहती, वह मुझ से प्यार नहीं करती तो समझिए मैं बर्बाद हो जाऊंगा मैं मर जाऊंगा और जानती हो वह लड़की कौन है? आप ही हैं वह ख़ास इंसान मेरे लिए। बताइए न? क्या आप भी मुझे चाहती हैं?'
'जी, आपको ही चाहती हूं।' रजनी ने बुदबुदाकर होंठों ही होंठों में कहा।'
'ऐसा क्या देखा मुझ में आपने?' मैने कहा।
'जब से मैं यूनिवर्सिटी से पढ़कर गांव लौटी हूं पापा हर दिन मेरे विवाह के लिए किसी न किसी घर जमाई को आमंत्रित करते हैं। पापा की शर्त है ...दामाद घर जमाई बने और ससुर की आज्ञा का पालन करें।' घर जमाई बनने वालों में होड़ मची है, जिसमें अधिकारियों से लेकर संपन्न व्यापारी तक शामिल है। मैं हैरान हूं आप घर जमाई नहींं बनना चाहते हैं। जिस समय मैं कमरे में आई थी, मैंने आपको अपने पापा से यह कहते सुन लिया था। उसी समय मैंने आपको भगवान मानकर अपने मन मंदिर में विराजित कर लिया और आपकी पूजा करने लगी।'
'रजनी, यह सच है क्या? कहीं इमोशनल होकर तो आपने हामी नहीं भर दी।'
मैं बदहवास होकर बेंच के चारों ओर भागने लगा 'अरे यह सब मज़ाक है, रजनी। यह प्यार- व्यार, ये शादी-वादी सब फालतू की चीजें हैं। ज़मीन जायदाद के मामले हैं ये सब और इन्हीं मामलों की वजह से हमारा रिश्ता तय किया जा रहा है। आपसे शादी करने से तो बेहतर है कि मैं अपने गले में एक भारी पत्थर लटका लूं। उन्हें आख़िर क्या हक है, वो हमारी ज़िंदगियों के साथ खिलवाड़ करें। वो लोग हमें अपना गुलाम समझते हैं क्या? जब मर्जी हुई जिस किसी के खूंटे से बांध दिया। नहीं, हम यह शादी नहीं करेंगे चाहे कुछ भी हो जाए। हमने अभी तक उनकी सारी बातें मानी थी, पर अब मैं नहीं मानूंगा। मैं अभी जाकर उनसे कहता हूं कि आपसे शादी नहीं कर सकता। बस बात यहीं खत्म हो जाएगी।' आप भी कह दीजिए कि करण एक सरकारी अफसर है परंतु साधारण परिवार से है। वह मुझे वह सुविधाएं नहीं दे सकेगा जिसकी मैं आदि हूं।
अचानक ही वह धीरे से बोली, 'मेरी ज़िंदगी सिर्फ एक इनसान की तावेदार है। सिर्फ वही इनसान मेरी खुशी की जिम्मेदारी ले सकता है।' रजनी ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा, 'उसके लिए मेरे मन में एक ख़ास जगह है, एक ख़ास एहसास है। सच-सच कहूं तो मैं आपसे मोहब्बत करती हूं। यदि आप नहीं मिले तो मैने जो समय साथ गुज़ारा हैं, वो पूरे जीवन को रौशन करने के लिए काफी हैं।'
मैंने उसका हाथ पकड़ा और कहा, ' दूसरा हाथ भी दो।' मैंने उसके दोनों हाथ चूमे और उसकी ओर देखकर कहा, 'तुम्हारी आखों में सच्चाई झलक रही है।'
हम बहुत खुश थे, हमने अपना सही जीवन साथी तलाश लिया था। मोहब्बत के इज़हार से ज़्यादा ज़रूरी घर की तरफ चलना था। हम घर पहुंचे तो देखा कि हम दोनों के मां-बाप वहीं हमारा दरवाजे़ पर इंतिज़ार कर रहे थे।
‌‌‌‌ रजनी ने पापा को बताया, करण शादी करना चाहता है परंतु घर जमाई नहीं बनना चाहता है। उनके माथे पर बल पड़ गए पर शिष्टाचारवश वह हमारे सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गए।
रजनी हिकारत से हंसी, फिर बोली, यह अंत है हमारे प्यार का...।'
'नहीं रजनी नहीं, दासता की ज़ंजीरों से मुक्त होने तक मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा।'
... रजनी सरोवर के पास घूमती फिरती विरह व्यथा का अनुभव करती। फिर अतीत में खो जाती। रजनी की दशा देखकर उसकी माता को मन-ही-मन चिंता होने लगी। रजनी की माता फिर एक दिन राममूर्ति बाबू से बोली, 'तुम्हारी एक ही लड़की है, वह जैसे बिना इलाज के मरी जा रही है।'...डॉक्टर आया देख-सुन कर बोला बीमारी- बीमारी कुछ नहीं है। राममूर्ति बाबू विरक्त होते हुए बोले, 'यह तो बड़ी कठिन बात है। ज्वर नहीं खांसी नहीं, बिना बात के यदि मेरी लड़की मर ही जाए। माता सूखे मुंह से बोली, मेरी रजनी इस तरह से क्यों घूमती रहती है?
राममूर्ति बाबू कुछ देर सोचकर चिंतित होते हुए बोले, 'उस शहरी बाबू ने लली पर ऐसा जादू कर गया, किसी दूसरे से विवाह के लिए हामी नहीं भरती, अब तुम्ही बताओ, घर जमाई नहीं होगा तो इस संपत्ति को मेरे बाद कौन संभालेगा?'
एक दिन दोपहर के समय घर के सब लोग मिलकर रजनी के विवाह की बातें कर रहे थे। इसी समय वह खुले बाल, अस्त- व्यस्त वस्त्र धारण किए, सूखे गुलाब के फूल को हाथ में लिए, चित्र की भातिं आ खड़ी हुई। रजनी की मां कन्या को देखकर तनिक हंसती हुई बोली, 'ब्याह हो जाने पर यह सब कहीं अन्यत्र चला जाएगा।' इस बार रजनी ने गर्दन घुमाई फिर बोली, 'विवाह मैं नहीं करूंगी।' ... 'विवाह नहीं करेगी?'... 'नहीं।'
रजनी पूर्ववत गंभीर मुंह किए हुए बोली- किसी प्रकार भी नहीं।- क्यों?- चाहे जिसे हाथ पकड़ा देने का नाम ही विवाह नहीं है। मन का मिलन न होने पर विवाह भूल है।- माता चकित होती हुई रजनी के मुंह की ओर देखती हुई बोली, 'हाथ पकड़ा देना क्या बात होती है। पकड़ा नहीं देंगे तो क्या लड़कियां स्वयं ही देख-सुनकर पसंद करने के बाद विवाह करेंगी?'...'अवश्य!'
'पापा ने करण को बैरंग लौटा दिया क्योंकि वह मुझसे प्यार करता था, पापा की संपत्ति से नहीं।' आंखें उठाकर चीत्कार करने लगी, 'मैंने धर्म को साक्षी मानकर उसे अपने पति के रुप में स्वीकारा। इस संसार में उसे छोड़कर कोई भी पुरुष मुझे स्पर्श नहीं कर सकता।'
रजनी की चीत्कार बाहर तक जा पहुंची। क्या हुआ, क्या हुआ, क्या हो गया, कहते हुए राममूर्ति बाबू दौड़ते हुए आए। रजनी मूर्छित होकर पलंग के समीप पड़ी हुई थी। माता रो पड़ी, 'मेरी रजनी को क्या हो गया? डॉक्टर को बुलाओ, पानी लाओ, हवा करो इत्यादि‌' ...बहुत देर बाद आंखें खोलकर रजनी धीरे-धीरे बोली, 'मैं कहां हूं?' उसकी मां उसके पास मुंह लाती हुई बोली, 'तुम मेरी गोदी में लेटी हो।' रजनी गहरी सांस छोड़ती हुई धीरे-धीरे बोली-ओह तुम्हारी गोदी में? मैं समझ रही थी कहीं अन्यत्र स्वप्न में उसके साथ बही जा रही थी? पीड़ा-विचलित आंसु उसके कपड़ों पर बहने लगे।
रात को माता रजनी के पास बैठ कर बोली, बेटी किसके साथ विवाह होने पर तुम सुखी हो जाओगी?' रजनी आंखें बंद करके बोली सुख-दुख मुझे कुछ नहीं है, वही मेरे स्वामी हैं- करण! मेरा करण। वही जो मुझे देखने आया था। चंद लम्हों में मैंने उसे मन प्राण, जोवन सब कुछ दे डाला। इस जन्म में न पा सकूं तो अगले जन्म में अवश्य पाऊंगी।
रात में ही उसकी मां राममूर्ति बाबू से बोली- करण के साथ हमारी रजनी का जिस तरह विवाह हो सके, वह करो।
दूसरे दिन सवेरे ही राममूर्ति बाबू करण के घर जा पहुंचे। उसके पापा से बोले, 'करण ने मेरे मस्तिष्क को दासता की ज़ंजीरों से मुक्त कर दिया। समधी जी बरात लेकर आइए और अपनी बहू को ब्याह कर ले जाइए।' कुछ दिनों बाद धूमधाम से हमारा विवाह संपन्न हुआ। रजनी के पापा के चेहरे पर खुशी भरा तेज साफ झलक रहा था।
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