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कृपया ध्यान दीजिए

कृपया ध्यान दीजिए

अर्पण कुमार

नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर कई घंटों से कमलेश माथुर बैठा हुआ था, अपने गंतव्य की ओर जानेवाली ट्रेन का इंतज़ार करता हुआ। बाकी दिनों की ही तरह उस दिन भी नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर गहमा-गहमी जारी थी। शाम से ही कमलेश इधर-उधर टहलता हुआ अब थक गया था। दुनिया भर की आवाज़ें और भागमभाग से वह आजिज़ आ चुका था। वह सोचने लगा…प्लेटफॉर्म पर आकर सिर्फ़ कुछ देर के लिए बैठो, कहीं मत जाओ। कुछ देर में ऐसा लगेगा कि आप पूरा देश घूम चुके हैं। ऐसा भी हो सकता है कि आप प्लेटफॉर्म से ही घर जाने का मन बना लें और घर से जिस अटैची के साथ निकले थे, उसी अटैची को लेकर वापस अपने घर आ जाएँ। बैठे-बैठे देशाटन करने के लिए प्लेटफॉर्म से बेहतर कोई स्थान नहीं। तरह तरह की जगहों तक जातीं और तरह तरह की जगहों से आतीं ट्रेनें और उनमें चढ़ते और उनसे उतरते भाँति-भाँति के लोगों। और इनकी सबकी ख़बर देतीं उद्घोषनाएँ। वह अपने इस अजीबोगरीब से ख़याल पर हँसकर रह गया। उसे अनाउंसमेंट सुनना बड़ा अच्छा लगता था।

‘अनाउंसमेंट केबिन’ से लगातार घोषनाएँ जारी थीं....कृपया ध्यान दीजिए। 12815 पुरी एक्सप्रेस, इलाहाबाद के रास्ते पुरी को जानेवाली कुछ ही देरी में प्लेटफॉर्म नंबर 10 पर आ रही है। अलग अलग ट्रेनों के आगम-प्रस्थान को लेकर उद्घोषनाएँ हो रही थीं, मगर जिस ट्रेन से उसे जाना था, उसका नाम नहीं लिया जा रहा था। कमलेश माथुर के कानों में चाहे-अनचाहे ये ध्वनियाँ अपनी पूरी स्पीड से आ रही थीं। बस कुछ नहीं आ रही थी तो स्वयं उसकी अपनी ट्रेन। धीरे-धीरे उसका धैर्य चुकने लगा। अँगीठी पर रखी केतली में मानो पानी धीरे-धीरे उबल रहा हो। मगर सिस्टम उसके भीतरी जज्बातों से निरपेक्ष था। वह अपने हिसाब से सक्रिय या निष्क्रिय रहता है। सिस्टम, जितना मूर्त है, उतना ही अमूर्त। वह जितना चमकीला होता है, उतना ही खुरदुरा। वह जितना आकर्षक है, उतना ही सांघातिक। वह जितना सुविधाजनक है, उतना ही कष्टदायक। तमाम विपर्ययों का समुच्चय है यह सिस्टम। चार्ली चैपलीन ने जीवन को लॉंग शॉट में सुंदर और क्लोज शॉट में बदसूरत कहा था। कमलेश को चैपलीन का यह रूपक, ऐसे सिस्टम के लिए इस समय, सर्वाधिक उपयुक्त लग रहा था।

नई दिल्ली के प्लेटफॉर्म नं. 16 पर बैठा कमलेश, तेज सर्दी के झोंकों से जूझ रहा था। एक अंग्रेजी पत्रिका के गट्ठर पर बैठा और अपने शरीर को सिकोड़े वह ठंड से बचने की कोशिश कर रहा था। उसकी बायीं तरफ़ दूर तक नई दिल्ली के प्लेटफॉर्म पसरे हुए थे। नॉन-स्टॉप उद्घोषणा की महिला आवाज़ हिंदी-अंग्रेजी में बारी-बारी से जारी थी...गाड़ी संख्या 12304 पूर्वा एक्सप्रेस, कानपुर सेंट्रल, मुगलसराय के रास्ते हावड़ा को जानेवाली, प्लेटफॉर्म नं. 16 पर खड़ी है। हम आपकी सफल, सुखद और मंगलमय यात्रा की कामना करते हैं। जब कोई लौह इंजन अपने तेज हॉर्न के साथ किसी ट्रेन में लगने को जा रही होती, तो उसके हॉर्न के शोर में उद्घोषिका की आवाज़ कुछ देर के लिए मानो थम सी जाती। मगर उस आवाज़ की खनक कुछ देर में वापस अपने पुराने अंदाज़ में वापस आ जाती... गाड़ी संख्या12304 पूर्वा एक्सप्रेस, कानपुर सेंट्रल, मुगलसराय के रास्ते हावड़ा को जानेवाली, प्लेटफॉर्म नं. 16 से जाने को तैयार है।

कमलेश माथुर को भी पूर्वा एक्सप्रेस के प्लेटफॉर्म छोड़कर जाने का इंतज़ार था। उसके तन -मन पर थकान गहराती चली जा रही थी। उसे अपनी ट्रेन का इंतज़ार था, जिसमें अपनी लोअर बर्थ पर जाकर वह आराम से अपने पैर सीधा कर सके। वह सुबह से घर का निकला हुआ था। पहले ऑफिस और फिर वहीं से सीधा स्टेशन। वह अपना धैर्य खोता चला जा रहा था। उसे लग रहा था, प्लेटफॉर्म पर लगी हुई दूसरी ट्रेनें कब जाएँ और वहाँ पर उसकी निर्धारित ट्रेन आकर लगे। वह शायद भूल गया था, उसकी इच्छा से रेलवे का परिचालन नहीं हो रहा है। हाँ, पूर्वा एक्सप्रेस ज़रूर चली गई, मगर उसकी जगह कुछ देर में कोई दूसरी ट्रेन आकर रुक गई। भन्नाए कमलेश ने सिगरेट जला लिए और अपने भीतर के गुस्से को ठंडा करने का असफल सा प्रयास करने लगा। सामने से धुँधले दिखते रेलवे ओवरब्रीज के नीचे कुछ कुत्तों के आपस में लड़ने और भौंकने की आवाज़ आ रही थी। ओह...ये कुत्ते भी कितना भौंकते हैं। जब देखो, तब एक-दूसरे को काट खाने पर तत्पर रहते हैं। उनका शोर कुछ स्पष्ट सुनाई देने लगा। वे अब इस तरफ़ ही आ रहे थे। कमलेश ने ध्यान से देखा। उनकी एक जोड़ी सहवास में व्यस्त थी। शेष, कुत्ते उनके आस-पास मँडरा रहे थे और भौंक रहे थे। वे शायद अपनी भूख मिटाने को आमादा थे। कमलेश के शरीर में एक झुरझुरी सी हुई। उसे अनावश्यक भौकते कुत्तों में अपनी कंपनी के मालिक का चेहरा याद हो आया। वह बात-बात में कितना भौंकता है! घर जाने में छुट्टी देने के लिए भी कितना आनाकानी कर रहा था! बड़ी हील-हुज्जत के बाद किसी तरह वह मोटा भैंस मान पाया था। इस समय भी उसे, अपने सेठ की थुलथुल काया स्पष्ट दृष्टिगोचर हो गई थी और उसकी जनानी आवाज़ उसके कानों में पिघले शीशे की तरह उबल रही थी। तभी उसकी निगाह उस श्वान-टोली पर गई। हाँफती हुई कुक्कुरी पर अब एक दूसरा कुत्ता सवार था और अबतक भूखे अन्य कुत्ते अब उसपर भौंकना शुरू कर चुके थे। पहले वाला कुत्ता कहीं नज़र नहीं आ रहा था।

बीच-बीच में महिला की कंप्यूटर चालित आवाज़ को रोककर कर्कश, अनौपचारिक पुरुष आवाज़ जल्दी काम निपटाने के अंदाज़ में माईक पर प्रकट हो जाती और ट्रेन के आगमन-प्रस्थान संबंधी सूचना को एक झटके में सुनाकर फारिग हो जाती। मज़े की बात यह होती कि यात्रियों को उस लय-विहीन आवाज़ की मंशा साफ-साफ समझ में आ रही थी। वह कानों के पास ठक्क से लगती। उस आवाज़ की यह पहुँच ही शायद, उसकी सफलता थी। मसलन बिना किसी आरोह-अवरोह के उद्घोषक एक साँस में यह घोषणा कर रहा था....12502, पूर्वोत्तर संपर्क क्रांति, कानपुर सेंट्रल के रास्ते गुवाहाटी से आनेवाली, आज देर से आएगी।

कमलेश, बैठे-ठाले प्लेटफॉर्म का मुआयना करने लगा। उसने देखा, हाथ की ठेलागाड़ी पर कागज़ में लिपटे सामानों की नौ-नौ मंज़िल करीने से एक-दूसरे के ऊपर सजी हुई थी। किसी-किसी ठेले पर ये सामान तीन-चार मंज़िल तक सजे हुए थे। कुछ ऐसे ही जैसे मुम्बई और अन्य जगहों पर, जन्माष्टमी के मौक़े पर बाल-गोपालों का झुंड अपने अपने मुहल्ले के हिसाब से मानव-मंज़िल पर बनाकर हवा में लटक रहे मक्खन के मटके को फोड़ा करता है। अपने पैरों में चमरौंधे जूते पहने और शरीर पर चादर ताने कोई व्यक्ति एक ठेले पर लेटा हुआ था। अपने हुलिए से अधेड़ दिखता वह श्रमिक इस वक़्त किसी भी तरह, अपनी नींद पूरी कर लेना चाह रहा था। श्रम-क्लांत शरीर को ठंढ में वह मामूली झिनी ऊनी चादर कुछ तो राहत दे ही रही होगी। सामानों से सजे अपने ठेले वह बेनाम मज़दूर अपनी पीठ की अकड़ को दूर कर रहा था, कमलेश को यह दृश्य एक साथ कारुणिक और राहतकारी दोनों लगा। कारुणिक इसलिए कि वह तसल्ली से और विधिवत सो नहीं सकता। वह कार्य के बीच में कार्य के साथ और अपने कार्य-स्थल पर ही सोया हुआ है। राहतकारी इसलिए कि चलो किसी भी हाल में, उसकी नींद पूरी तो हो रही थी।

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रात के सवा बज रहे थे और एक पॉलीथीन बीननेवाले ने पंद्रह और सोलह नं. के प्लेटफॉर्म के बीच से अपनी कुबड़ी आकृति को तेजी से घिसटते हुए अपनी पूरी निगाह अपने मतलब की प्लास्टिक सामग्री को छाँटने में डाल रखी थी। वह जिस तेजी से यहाँ तक आया था, उसी तेजी से आगे निकल गया। जाड़े की रात में गिरती ओस और कँपकँपाती ठंढ दिल्ली के इस ‘ब्रह्मराक्षस’ के पैर को थामने में हर तरह से असफल हो कहीं दूर पीछे घिसटती चली जा रही थी। लाल टोपी लगाए, जैकेट और जींस पहने, हाथ में एक वायरलेस सेट लिए एक रेलवेकर्मी किसी मजदूर सवारी को अपनी धौंसभरी आवाज़ में बेवज़ह डाँटता हुआ आगे बढ़ गया। एक जगह से दूसरी जगह को जाते-आते और जूट एवं नायलॉन के चद्दरों में लिपटे स्कूटर और बाईक पर भी कुछ सवारियाँ कमलेश की ही तरह बैठकर अपनी ट्रेन के आने का इंतज़ार कर रही थीं। तभी हाथ में कागज़ का एक पन्ना और कलम लिए, सिर पर मंकी कैप लगाए एक अधेड़ रेलवे-कर्मी आया और कमलेश के ठीक सामने ठेले पर लदे नौ-मंज़िले सामानों में से एक सामान को बाहर निकाल कर देखा और चलते बना। उसके साथ उसका एक सहायक भी घिसटता चला जा रहा था। दोनों रहस्यमय तरीके से किसी कानाफूसी में व्यस्त थे और उसे इस वक़्त किसी जासूसी फ़िल्म के किरदार नज़र आ रहे थे।

कमलेश जिस जगह बैठा हुआ था, वहाँ पर अमूमन ट्रेन का आखिरी हिस्सा ‘वैगेज ब्रेक’ आकर लगा करता था और इसीलिए प्लेटफॉर्म पर ये सामान उसके आस-पास बिखरे हुए थे। प्लेटफॉर्म पर और पटरियों के आसपास लोहे के खंभों पर लगी ट्यूबलाईट पर और इक्के-दुक्के मगर शान से खड़े मास्ट-लाईट पर भी धुंध की छाया गहराती चली जा रही थी। नई-दिल्ली-डिब्रूगढ़ राजधानी एक्सप्रेस अपने लाल डिब्बे की भव्यता के साथ सरकती हुई एक दिशा से दूसरी दिशा की तरफ़ जा रही थी। वह ट्रेन खाली थी और किसी प्लेटफॉर्म के किनारे न लगकर बीच में रुकी हुई थी। कुछ देर में वह बैक होने लगी। पटरियों के ऊपर प्लेटफॉर्म को एक दूसरे से जोड़नेवाली ओवरहेड पुल पर लोगों का आगमन अब काफ़ी थम चुका था। प्लेटफॉर्म नं. 16 पर ठीक-ठाक भीड़ थी, जिसे संपूर्ण क्रांति के आने का इंतज़ार था, मगर संपूर्ण क्रांति थी कि आए नहीं आ रही थी। दिल्ली की धुंध और उसके प्रदूषण में तर-बतर आकाश के किसी अदेखे तारे की शक्ल लिए जयप्रकाश नारायण की नज़र भी शायद नई दिल्ली के इस प्लेटफॉर्म नंबर 16 पर टिकी हुई हो। संपूर्ण क्रांति के उनके पहरूओं ने उनके नाम को जीवित रखा हुआ था मगर उस नाम में अर्थ की अब कोई छाया नहीं रह गई थी। स्वयं उनके अनुयायी नेता न सिर्फ़ उनके दिखाए रास्ते से अलग हो गए थे बल्कि सार्वजनिक जीवन में उनकी काफ़ी भद्द पिट रही थी। घोषणा हुई...पटना को जानेवाली संपूर्ण क्रांति अभी भी तकनीकी देखरेख में यार्ड में है।

कमलेश माथुर की आँखें उनींदी हो रही थीं। मगर घोषणाओं की आवृत्ति और ठंडी हवा की चोट रह-रह कर उसकी आँखें खोल दे रही थीं। वह अपने आसपास देखने लगा। यही कोई दस मिनट की झपकी के बाद, इस बार फिर उसकी आँखें फिर खुलीं। दो ठेलों के बीच में रहकर एक श्रमिक पहले ठेले के बाएँ हैंडल और दूसरे ठेले के दाएँ हैंडल को पकड़े बखूबी से दोनों ठेलों को ठेलता हुआ आगे बढ़ता चला जा रहा था। कमलेश ने अनमने मन से घड़ी की ओर नज़र डाली। डेढ़ बज रहे थे। मन ही मन उसे बड़ा आक्रोश आया। क्या मज़ाक है! उसकी ट्रेन जाने कब आएगी! तभी एक खाकी पुलिसकर्मी अपनी ड्यूटी को किसी तरह निपटा लेने की भूमिका में अपने डंडे सहित चहलकदमी करता हुआ इस तरफ़ आया और प्लेटफॉर्म पर लगे सफ़ेद बोरों में मोटे-मोटे गट्ठरों की तीन-मंज़िला सेट को एक निगाह मारता हुआ आगे बढ़ गया। तभी सामानों के गट्ठर की छत पर एक भूरे रंग का कुत्ता आकर बैठ गया और अपने मुँह को अपनी पूँछ से लगाकर सो गया। वह वही कुत्ता था, जो कुछ समय पूर्व सहवास का आनंद ले रहा था। उसने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया था। इस वक़्त, वह सिर्फ़ और सिर्फ़ आराम करना चाह रहा था। उसे एक मन किया कि वह उसे भगा दे, मगर जाने क्या सोचकर वह चुप बैठा रहा। कमलेश की पीठ के पीछे बैठे दो लोग चाय की तलाश में पीछे की ओर प्लेटफॉर्म के मुख्य हिस्से पर चले गए और कमलेश अपनी अकड़ी हुई पीठ के साथ वहीं खड़ा रहा। कुछ देर तक बंद रही घोषणा अब पुनः शुरू हो गई थी।

कमलेश को जाने क्या सूझा, वह प्लेटफॉर्म से बाहर निकल, अजमेरी गेट की तरफ़ जाने लगा। रात के पौने दो बज रहे थे। पूरी तरह से अपने शरीर को पैक किया हुआ वह आसमास का मुआयना ले रहा था। तभी अपने होठों से बीड़ी लगाते हुए और अपने शरीर पर मैला कुचैला शॉल ओढ़े हुए एक अधेड़ ने उसकी ओर एक इत्मीनान भरी निगाह से देर तक देखा। वह देखना कम घूरना अधिक था। या यूँ कहें कि वह घूरना कम निरखना अधिक था। या इसे ऐसे कहें कि वह निरखना कम और व्यक्ति के भीतर झाँकना अधिक था। कमलेश ने उसे निराश नहीं किया और आँखों ही आँखों में उससे सवाल किए। कमलेश द्वारा दिखाई गई रुचि से उसकी बाछें खिल गईं। वह शॉल ओढ़े हुए ही खड़ा हो गया। उसने नशा कर रखा था। इसलिए कुछ लड़खड़ाया। मगर कमीशन के लोभ ने उसमें एक त्वरित ऊर्जा का संचार कर दिया। वह कमलेश के भीतर की वासना की आग को जगाना चाह रहा था और उसके सामने कोई मादा-बोटी फेंकना चाह रहा था।

कुछ ही देर में कमलेश, जी.बी. रोड के चिर-परिचित बदनाम माने जानेवाले मुहल्ले में था। छोटे छोटे कमरे, सीलन से भरे। अस्थाई रूप से सस्ते और पतले प्लाईवुड से किए गए पार्टीशन। यहाँ रात जवान थी। कुछ लोग अपने दैहिक तनाव में घूमते और कुछ उसे फ्लश करके बाहर आते दिख रहे थे। उसे भी एक खोखे के पर्दे के आगे खड़ा कर उसका दलाल यह कहता चला गया, “अभी एक आदमी अंदर है। जैसे ही वह आएगा, तुम चले जाना।” कुछ सशंकित सा वह इधर उधर देखने लगा। वह एक सँकरी सी गैलरी में खड़ा था। उसके दाएँ-बाएँ तरफ़ ऐसे कई खोखे थे। डिब्बेनुमे हर कमरे के दरवाज़े पर कोई न कोई आदमी खड़ा था और हर कोठरी के अंदर का तापमान बढ़ा हुआ था। आसपास खड़े लोग एक-दूसरे से नज़रें चुरा रहे थे। उसे ऐसे कोठों पर एक-दूसरे से नज़रें चुराते लोगों के दृश्यों से जुड़ी कई फ़िल्में याद आ रही थीं। कमलेश को भिड़काए दरवाज़ों के भीतर से थकी स्त्री के हाँफने की आवाज़ आ रही थी। उसे ओवरब्रीज के नीचे हाँफती और जीभ निकालती कुक्कुरी का हुलिया याद हो आया। आसपास दिखते और खोखों से निकलते पुरुषों के चेहरे, कुछ देर पहले प्लेटफॉर्म के आसपास घूमते कुत्तों से मेल खाते नज़र आने लगे। कमलेश डर गया। इस खोखे तक आते हुए उसे कई ऐसे ही खोखे पार करने पड़े। उस सीलन भरी गैलरी में एक मटमैला और धूल चढ़ा आदमकद शीशा था। उसके ऊपर पीले रंग का एक बल्ब जल रहा था। कमलेश को यह हिम्मत नहीं हुई कि वह इस शीशे में अपने चेहरे को देख सके। उसे डर था कि इस वक़्त उसका चेहरा भी उन्हीं कुत्तों में से किसी एक सा भयानक दिख रहा होगा! वह अंदर तक काँप गया। इसी उधेड़बुन में वह अपने निर्धारित खोखे तक आ चुका था। और यह क्या, जिस खोखे के आगे खड़ा था, उसका दरवाज़ा खुला और एक अधेड़ हँसता हुआ और अपने पैंट की बेल्ट कसता हुआ बाहर निकला। कमलेश ने अंदर झाँका। वहाँ एक कम उम्र की असमिया लड़की थकी-उनींदी आँखों से उसकी ओर देखकर मुस्कुराने की बेजा कोशिश कर रही थी। उसे बाहर के श्वान-झुंडों के किसी एक पर जबर्दस्ती पिल पड़ने के दृश्य याद हो आए। कमलेश हँस नहीं पाया। वह दरवाज़े से लौट गया। उस नन्हीं जान के पास जाने की उसकी ताकत नहीं रह गई थी। तब तक वह ऐजेंट कमलेश के लिए एक शरीर ढूँढ़ चुका था। वह यंत्रचालित सा पैसे भी दे चुका था। शरीर भोगने का अलग और उसकी कमीशनखोरी का अलग। इन सबकी चिंता किए वह झटपट तेज कदमों से दौड़ता हुआ सीधे स्टेशन पर आकर रुका। उसकी गाड़ी ट्रेन पर लग चुकी थी। वह अपनी निर्धारित सीट पर जाकर बैठ गया। उसकी साँस अभी भी तेज चल रही थी।

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