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अर्पण कुमार की कविताएँ

अर्पण कुमार की कविताएं : -

नदी...

नदी के किनारे
खिले हैं कुछ फूल

मैं तट की इस तरफ़ खड़ा
देख रहा हूँ उनके रंग
महसूस रहा हूँ उनकी खुशबू

जाने को कभी
जा सकता हूँ उस तरफ़
मगर मेरी मर्यादा
मुझे इसकी
अनुमति नहीं देती
मैं उन फूलों को छूकर
उन्हें अपवित्र नहीं
करना चाहता।

मैं बस
उस ओर से आते पानी को
अपने चुल्लू में भरकर
उसे अपने होंठों
से लगा लेता हूँ
मुझे मेरा वांछित
मिल जाता है।..............

पिता के कंधे से लगकर

एक

पिता
अकेले मेरे नहीं हैं
मगर जब भी
सर रखती हूँ
उनके कंधे पर
वे मेरे होते हैं
पूरे के पूरे

मेरी बाकी चार बहनें भी
यही कहती हैं मुझसे

सोचती हूँ
पिता एक हैं
फिर पाँच
कैसे बन जाते हैं!....

दो

यौवन की
केंचुली उतर आती है
मेरा बचपन
मेरे सामने होता है

पिता के कंधे से
जब लगना होता है
यही चमत्कार
बार बार होता है।....

तीन

पिता हैं अगर पर्वत
तो उससे निकली
मैं एक नदी हूँ

गंगा,
हुगली कहलाए
या पद्मा
उसका स्रोत
हिमालय ही रहेगा। .....

चार

हम पाँच बहनों को
बड़ा करते पिता
खर्च बेहिसाब हुए
मगर
हम नदियों को
अपने साथ कुछ ऐसे
लपेटे रहे
कि पंजाब हुए।….......

आवारगी

पहन पैंजनी थिरकती भावना में मैं हूँ
भूलती कभी भटकती गणना में मैं हूँ
कोई दूसरा इसे शायद ही समझ पाए
विहंसती तुम्हारी मूक वेदना में मैं हूँ

तेरी अलसायी थकी आँखों में मैं हूँ
तुझसे निर्वासित तेरी यादों में मैं हूँ
विस्मृति में भी जो भुलाए न भूले प्रिय
पुलकती सशंकित साखियों में मैं हूँ

शब्द दर शब्द तुम्हारी अनुरक्ति में मैं हूँ
श्याम बादल को चिरती दामिनी में मैं हूँ
तुम्हारी शोख़ी से शहतूत का रस टपके
गगन खिले चाँद की फाल्गुनी में मैं हूँ

ज़िंदगी में ग़र मिलना न अपना हो सका
ज़रा मत सोचो कि ज़ुल्म यह कैसा हुआ
प्रेम की टीस तो होती है प्रेम से भी घनी
वियोग आख़िर संयोग से यूँ नहीं बड़ा हुआ

जैसा भी जिया तुम्हारा ही नज़राना हुआ
जो न जी सका वो कोई अफ़साना हुआ
तुझसे कुछ लौ ऐसी लगी मेरी आवारगी!
मेरा मैं देखो मुझसे कैसे बेगाना हुआ ....................

आँखें

आँखें हैं कि पानी से
भरी दो परातें
जिनमें उनींदी तो
कुछ अस्त व्यस्त सी
चाँदनी
तैरती है चुपचाप
पीठ तो कभी
पेट के बल,
सतह पर तो
कभी सतह के नीचे,
कदंब की एक टहनी
हटाकर जिनमें
कोई दीवाना चाँद
डूबा रहता है
देर तक

आँचल फैलाए दूर तक
और बैठी हुई
बड़ी ही तसल्ली से
रात्रि
जिनकी कोरों मे
काजल लगाती है,
जिनकी चमक से
सबेरा
अपना उजास लेता है,
जिनके पर्दों
पर टिककर
ओस अपने आकार
ग्रहण करते हैं,
रात की रानी
झुककर जिनपर
अपना सुगंध
लुटाती है

ये वही परात हैं
जिनकी स्नेह लगी
सतह पर
रात्रि अपना
नशा गूँथती है,
ये वही परात हैं,
दुनिया के सारे
सूरजमुखी
बड़े अदब से
दिन भर
जिनके आगे
झुके रहते हैं
और साँझ होते ही
दुनिया के सारे भँवरे
जिनकी गिरफ़्त में
आने को
मचलने लगते हैं ......

कल-कल करते
झरने का
सौंदर्य है इनमें
छल-छल छलकते
जल से
भरी हैं ये परात,
ये परात
दुनिया की
सबसे खूबसूरत
और ज़िंदगी से
मचलती हुई परात हैं
ये परात हैं तो मैं हूँ
कुछ देखने की
मेरी लालसा है

मेरी महबूबा की पलकें,
इन परातों के
झीने और
पारदर्शी पर्दे हैं
जब वह अपनी
पलकें
उठाती है,
परात का पूरा पानी
मेरी चेतना पर आ
धमकता है
मैं लबालब हो
उठता हूँ
पोर पोर
मेरा पूरा देहात्म
चमक उठता है
जिसकी प्रगल्भ
तरलता में

सोचता हूँ,
क्या है ऐसा
इन दो परातों में
कि दुनिया की
सारी नदियों का पानी
आकर जमा हो गया है
इनमें ही
कि पूरे पानी में
बताशे की मिठास घुली है
और बूँद बूँद में जिसकी
रच बस गई है
केवड़े की खुशबू..................

तुम्हारी बतकही

अपने होंठों पर
जब जीभ फिराता हूँ
स्वाद आते हैं
तुम्हारी बतकही के
कितना मादक है
तुम्हारे शब्दों को यूं
मिसरी की तरह उतारना
अपने भीतर

बरसाती अंधेरी रातों में
जब मैं घूमता हूँ
आवारा शहर की
काली चमकती सड़कों पर
ये तुम्हारे ही शब्द हैं
किसी बौद्ध भिक्षुणी के से
जो बुदबुदाते हैं मेरे होंठों से
विरह और मोहभंग की
लंबी रात को छोटी कर जाते हैं
तुम्हारे अनकहे ये शब्द
उच्चरित होकर अस्फुट
मेरे होठों पर ...........

दो काव्य-संग्रह‘नदी के पार नदी’ (2002) , नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली एवं ‘मैं सड़क हूँ’ (2011) , बोधि प्रकाशन,जयपुर से प्रकाशित। ‘पोले झुनझुने’काव्य-संग्रह, नॉटनल पर ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध। 'पच्चीस वर्ग गज़' उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। कविताएँ, कहानियाँ, गज़लें, लघुकथाएँ, समीक्षात्मक आलेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित। दूरदर्शन/आकाशवाणी से कविताओं/कहानियों का प्रसारण। कुछेक संकलनों में कविताओं का चयन। .....
मो. 9413396755
बी-1/6, एसबीबीजे अधिकारी आवास
ज्योति नगर, जयपुर
पिन 302005

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