Papa, Aap ek jagah tik kar kyo nahi rahte books and stories free download online pdf in Hindi

पापा, आप एक जगह टिक कर क्यों नहीं रहते!

पापा, आप एक जगह टिक कर क्यों नहीं रहते!

अर्पण कुमार

जिस नए स्कूल में कुछ मुश्किल से सुयश का एडमिशन हुआ था, वहाँ हो रही आवधिक परीक्षाओं में क्रमशः उसका रिजल्ट गिरने लगा। वह अपनी उम्र से अधिक चिड़चिड़ा हो गया था। उसके मनोजगत की गाड़ी मानो किसी रिवर्स गियर में चली जा रही हो। स्कूल-शिक्षक और होम-ट्यूटर के प्रश्नों का उत्तर भी वह बड़े अनमनस्क भाव से देने लगा था। यह उसके प्रसन्नचित्त स्वभाव के विपरीत था। दिल्ली में तो वह कितना ख़ुशमिज़ाज और पढ़ाई से लेकर खेलकूद तक सभी में अव्वल आनेवाला स्कूल-पड़ोस का एक स्टार-ब्यॉय था। घर में सभी परेशान थे, क्योंकि दिल्ली में हमेशा अपनी क्लास में अव्वल रहनेवाला सुयश अब अहमदाबाद के स्कूल में आकर पिछड़ने लगा था। पिछले साल की तो बात है। दिल्ली के मॉडर्न स्कूल में उसके क्लास-टीचर, सब्जेक्ट टीचर से लेकर प्रिंसिपल तक सभी उसकी हृदय खोलकर प्रशंसा किया करते थे। पढ़ाई के साथ-साथ अभिनय और पेंटिंग में भी उसकी प्रशंसनीय भागीदारी रहा करती थी।

नई जगह पर आकर जब बड़ों को अपने आसपास के लोगों और परिवेश से समायोजन करने में कई तरह के पापड़ बेलने पड़ जाते हैं, सुयश तो ख़ैर आठ साल का एक बच्चा ही था। क्या सोसाईटी और क्या स्कूल...सभी जगह उसे अपरिचय के कई घेरों में रहना पड़ रहा था। वह अपने पुराने दोस्तों को भूल नहीं पा रहा था या फिर इसे यूँ कहें कि अहमदाबाद के अपने नए सहपाठियों और पड़ोस के बच्चों में वह अपने पुराने मित्रों की छवि देख रहा था। ऐसा न होने पर वह निराश हो रहा था और उसकी खीझ अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त हो रही थी। रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा और खान-पान के एक भिन्न परिवेश में उसे रहना पड़ रहा था। शुरू के कुछ महीनों में उसे नाना प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड़ा। कुछेक के बारे में वह घर में बताता तो कुछेक के बारे में नहीं। कई ऐसी भी उलझने होतीं, जिसे बाल-मन स्वयं ही नहीं समझ पाता तो उसे दूसरों के सामने अभिव्यक्त कैसे करे!

बस से सुयश और सौरभ को उतारने जाती मनीषा को सुयश का उतरा चेहरा देख बड़ी तकलीफ़ होती। मगर संकोची स्वभाव की मनीषा अगले दिन के बेहतर होने की उम्मीद में बस के स्टॉफ या स्कूल के विद्यार्थियों से कुछ नहीं कह जाती । कई बार अच्छाई कमजोरी मान ली जाती है तो कई बार उस कमजोरी से आपके सामनेवाला परास्त भी हो जाता है। धीरे-धीरे लोगों ने उस अच्छाई का मान रखना शुरू किया।

शुरू में क्लास के बच्चे, स्कूल के टीचर और स्कूल-ट्रांसपोर्ट-बस के स्टॉफ सभी से एडजस्टमेंट करके चलना आसान नहीं था! मगर सुयश अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहा था। कुछ सीनियर बच्चे शुरू में उसे चिढ़ाते थे, मगर उनसे उलझने की बजाय वह शांत ही बना रहता। उसकी कुछ आदतों पर बस के कंडक्टर और स्कूल के दूसरे विद्यार्थी अपनी ओर से कुछ तीखे कमेंट कर देते। सुयश के चेहरे को लक्ष्य कर कुछ बच्चे उसे ‘चाइनीज़’ कह कर चिढ़ा देते। एक दोपहर, स्कूल-बस से उतरकर तमतमाया हुआ घर के भीतर आया और ड्राइंग रूम के एक कोने में अपना बैग पटक दिया। उसका चेहरा एकदम लाल हो रखा था। किसी कारण से उस दिन मनीषा सोसायटी के गेट तक उसे लाने नहीं जा पाई थी। वह सीधे अपनी माँ के पास आया। अपनी मासूमियत में दोनों आँखों के कोर को अपनी उँगलियों से खींचकर और अपनी आँखों को बड़ा कर उसने अपनी माँ से पूछा, “मम्मी, मुझे देखो। मैं सचमुच चाइनीज लगता हूँ। ऐसा है न!”

मनीषा को अपने बच्चे की इस अदा पर बड़ा प्यार आया और उसने हँसकर अपने बेटे को गले से लगा लिया। मगर, मनीषा ने सुयश के सवाल का कोई जवाब नहीं दिया। वह उस दिन अपने पति से यह बात करते हुए रात में भी देर तक खिलखिलाती हुई हँसती रही। हाँ, सुयश की उलझन जस की तस बनी रही। मनीषा जानती थी, बच्चों के पास कई उलझने होती हैं। एक के बाद दूसरी आ जाती हैं और फिर वह दूसरी उलझन को सुलझाने में पहली को भूल जाता है। एक क्षण-विशेष में बड़ी सी लगनेवाली समस्या, बाद में ऐसे छू-मंतर हो जाती है जैसे वह कभी थी ही नहीं। बाद में कभी, बच्चे के साथ उसे शेयर करो तो उसे भी हँसी आ जाती है।

नए स्कूल में एडमिशन के बाद उसने हर जगह दुगुनी मेहनत की और अपने मृदु स्वभाव से पूरे स्कूल में एक ख़ास मुकाम बनाई। ख़ैर, धीरे-धीरे स्थितियाँ सामान्य हुईं। जिनसे झगड़ा हुआ, उन्हीं से दोस्ती हुई। साल के पूरा होते-होते वह अहमदाबाद में अच्छे तरीके से एडजस्ट हो गया था। साथ में, उसने अपने छोटे भाई को सँभालने में भी काफ़ी मेहनत की। उसके साथ स्कूल में, स्कूल-बस में, सोसायटी में हर जगह हिमालय की तरह खड़ा रहा। सुयश ज़्यादातर अपनी माँ मनीषा से ही पढ़ाई किया करता था। ऐसे में, स्कूल की आए-दिन की घटनाओं को भी वह अपनी माँ से ही शेयर करता।

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स्थानांतरण के साथ सिर्फ ऑफिस और घर नहीं बल्कि बच्चों का संसार भी बदल जाता है। वह संसार जो वे घर में और घर के बाहर परस्पर मिलकर अपने कच्चे मन के कच्चे रंगों से रंगते हैं। सर्वेश पांडेय अहमदाबाद के अपने फ्लैट में चहलकदमी करता हुआ उस दिन यही सब सोच रहा था। सर्वेश अहमदाबाद की इस सोसायटी को छोड़ अपने परिवार सहित जयपुर जा रहा था। बमुश्किल डेढ़ साल भर के भीतर ही। स्थानांतरण और पदोन्न्ति पर एक साथ। कितना कुछ बदल रहा था,एक बार फिर से। अभी कुछ समय पहले ही तो वे दिल्ली से अहमदाबाद आए थे। और अब फिर जयपुर की ओर रुख। सर्वेश बालकनी में बैठा सामने निर्माणाधीन बहुमंजिला इमारत के तीन अलग-अलग ब्लॉकों को देखने लगा। उसे बड़ा अच्छा लगा यह काम बेधड़क चलता हुआ अपने निश्चित मुकाम की ओर तेजी से पहुँच रहा है। जब वह यहाँ आया था, तब ज़मीन की नींव खोदी जा रही थी और शुरू-शुरू में उसे संदेह हुआ कि उसके घर में जाने कितनी धूल आएगी, कितना शोर होगा! उसके अपने कैंपस का अहाता कुछ बड़ा था और उसकी चहारदिवारी भी कुछ ऊँची थी। खिड़कियों में शीशे के पैनल लगे थे। उसे लगा दो तो आवाज़ काफी कम हो जाती थी। धूल तब घर में कम ही घुस पाती थी। सर्वेश खुद उस निर्माण-प्रक्रिया को जब-तब शाम की चाय के साथ बालकनी में बैठकर देखने लगा था और क्रमश: उसे इस निर्माण-कार्य में रुचि भी होने लगी थी। अब जब वह यहाँ से जा रहा है तो यह इमारत कोई आठ-दस मंजिल की बनकर तैयार खड़ी है। महज डेढ़ वर्ष पूर्व जब वह यहाँ आया था, उस इमारत का कोई अस्तित्व नहीं था और आज जब वह यहाँ से जा रहा है तो कितनी विशाल और भव्य इमारत का ढाँचा उसके सामने खड़ा है। सर्वेश सोचने लगा...देखते-देखते हमारे आस-पास कितना कुछ बदल जाता है। दोपहर तक मूवर्स-पैकर्स वाले ने उसके सारे सामान एक जादुई अंदाज़ से उठा डाले और उसके देखते ही देखते उसके सामान अलग-अलग कार्टूनों के पैकेट में तब्दील हो गए। अगर उस पर मार्क न किया हो तो उनमें से अधिकांश पैकेट के भीतर क्या है, उसके या उसकी पत्नी के लिए यह बताना मुश्किल हो जाए। ख़ैर, जिस रफ्तार से वे आए थे उसी रफ्तार से सामान उठा चंपत भी हो गए। अब कुछ घंटों के लिए भर-पूरा फ्लैट एकदम खाली हो गया था। मनीषा कहने लगी, “देखिए तो अपने ही घर में बिना सामान के यूँ बैठना कितना अजीब लगता है!”

“हाँ, मानो हम घर में नहीं किसी रेलवे-प्लेटफार्म पर बैठे हों।” सर्वेश ने धीमी आवाज़ में अपनी पत्नी से कहा।

घर के सदस्य अपने-अपने तरीके से इस शहर को अलविदा कहने की तैयारी कर रहे थे। उसे याद आया उसकी पत्नी, नीचे के फ्लैट की अपनी सहेली से इस बीच दो बार चाय लाकर उसे पिला चुकी है। चाय के साथ मिठाई और ढोकले भी आए थे। आधा भरा गैस का सिलेंडर एजेंसी को सरेंडर करने से पूर्व मनीषा ने कल ही उसे अपनी सहेली के यहाँ रखवा दिया था और उससे खाली सिलेंडर ले लिया था। जाने के अंतिम दिन तक छोटी-छोटी बातों पर पूरे हिसाब-किताब से चल रही थी मनीषा। बच्चे नीचे कैंपस में अपने दोस्तों के साथ खेलने चले गए थे। सुयश का जन्मदिन भी प्री-पोन कर, एक महीना पहले ही मना लिया गया। सोसायटी में दोनों भाइयों ने इतनी सारी बर्थ–डे पार्टियाँ अटेंड की थीं कि सुयश अपना जन्म-दिन मनाए बिना इस शहर को छोड़ने को तैयार ही नहीं था। वह ग़लत भी कहाँ था! आज से कोई महीना भर बाद ही तो उसका जन्म-दिन आने वाला था। वह जाने कितनी बार कह चुका था, “पापा, मेरा बर्थ-डे इतनी देर से क्यों आता है!”

मगर अब एक महीने का इंतज़ार करना मुश्किल था। स्कूल से दोनों बच्चों के एस.एल.सी.बन कर आ गए थे और वहाँ जयपुर में अच्छे स्कूल भी तो देखने थे। कितना मुश्किल हो गया है इन दिनों, बच्चों को स्कूल में दाखिला कराना। सर्वेश अंदर ही अंदर घुटकर रह गया। एक तो अच्छे स्कूल में एडमिशन ही कितना दुभर है और फिर जो अच्छा दिखता है, क्रमशः उसकी खामियाँ भी प्रकट होने लगती हैं। दुनिया भर का डोनेशन, ट्यूशन-फीस और डेवलपमेंट फंड आदि में पैसा पानी की तरह बहाओ, और इसके बावज़ूद भी वहाँ एडमिशन के लिए जाने किस-किस को फोन करो और किस-किस से सिफ़ारिश कराओ। और इसके बाद अगर साल-दो-साल में ट्रांसफर हुआ तो नए स्कूल में बच्चों के एडमिशन के लिए फिर वही प्रक्रिया दुहराओ। अचानक से सर्वेश के मुँह का स्वाद कसैला हो उठा। उसे चाय की तलब हुई। पत्नी नीचे के फ्लैट में रहनेवाली अपनी सहेली के यहाँ से दुबारा चाय बनवा लाई। सर्वेश को चाय के प्याले और पत्नी के साथ से बड़ी राहत महसूस हुई।

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सुयश को अपना बर्थ-डे प्री-पोन करने के लिए तैयार करना भी आसान नहीं था। शुरू-शुरू में तो वह इसके लिए भी तैयार नहीं था। सौरभ ने उसे कई तरीके से समझाया। बीच में अपने बेटे के अड़ियल रवैए पर उसे गुस्सा भी आया, मगर धैर्य का परिचय देते हुए वह शांत ही बना रहा। मनीषा को तो शुरू में यकीन नहीं था मगर जब सुयश मान गया तो वह भी अपने पति की ‘कनविंसिंग-कैपेसिटी’ का लोहा मान गई। उस दिन सेलीब्रेशन के बाद हँस कर कहने लगी, “आप कुछ भी कर सकते हैं, पांडेय जी।”

सर्वेश पांडेय अपनी पत्नी के मुख से अपनी प्रशंसा सुन मुस्कुराए बगैर नहीं रह पाया। सोचने लगा...क्या वास्तव में उसमें ऐसी कोई योग्यता है! या फिर पंडिताइन उसका दिल रखने भर के लिए ऐसा बोल देती है।

मगर यह हँसी-ठिठोली एक गुमसुम और सांय-सांय करती उदासी के ऊपर तिर रही थी। मनीषा भी अंदर-ही-अंदर बेहद उदास थी। उसे दिल्ली की तुलना में यह शहर कुछ ज़्यादा ही अच्छा लगा था। एक बेहतर घर, आस-पड़ोस, बाजार...सबकुछ । लोग भी सरल और ख़ुशमिज़ाज। वह सर्वेश से कहने लगी, “आपको शायद कम अंतर पड़ता हो जी, मगर हमें और हमारे बच्चों को तो घर और उसके अड़ोस-पड़ोस से बहुत फर्क पड़ता है।”

मनीषा एक माँ और गृहिणी थी। जब घर और परिवेश दोनों सही हो तभी उसके लिए किसी शहर के अच्छे-बुरे होने का कोई मायने है।

सर्वेश सोचने लगा, कम ही समय में जिस अहमदाबाद को उसका परिवार इतना इंज्वॉय करने लगा था, अब उसे उसी शहर को छोड़कर जाना पड़ रहा है। आख़िरकार सर्वेश पांडेय को उनका बहुप्रतीक्षित प्रोमोशन मिला था और पदोन्नति के साथ ट्रांसफर का पलीता तो जगजाहीर ही है। पत्नी को तो ख़ैर थोड़ा-बहुत इससे मतलब भी होता कि उसका कौन सा पोस्ट है, वहाँ सुविधाएँ क्या-क्या हैं, आगे क्या संभावनाएँ हैं वगैरह वगैरह। मगर बच्चे तो बच्चे ठहरे। उन्हें सिर्फ अपने खेलकूद, पढ़ाई और मस्ती से मतलब होता है। दोनों बेटे सुयश और सौरभ अपने-अपने तरीके से परेशान थे। सुयश को अपनी सोसायटी के बच्चों को छोड़ने का दुःख था। सौरभ के लिए उसकी पुरी दुनिया सुयश पर ही आकर समाप्त हो जाती थी। ऐसे में, जब सुयश दुखी था तो जाहिर है कि सौरभ भी उतना ही परेशान था।

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“पापा, आपका इतना ट्रांसफर क्यों होता है?” सुयश अपने पिता से अपने होठों को घुमाकर हल्के अंदाज़ में मगर चुभता हुआ यह सवाल पूछा।

सर्वेश कुछ देर के लिए किंकर्त्वयविमूढ़ हो गया। उसके गले से तत्काल कोई आवाज़ नहीं निकली।

“कितना मन लग रहा था यहाँ! मगर आपने सबकुछ खत्म कर दिया!” सुयश बेधड़क बोले जा रहा था। पिता की चुप्पी ने उसके सामने एक खाली सड़क छोड़ रखी थी, जिसपर उसकी प्रश्नाकुलता का घोड़ा सरपट दौड़ता चला जा रहा था।

ख़ैर, कुछ देर में सर्वेश प्रकृतिस्थ हुआ। वह एकदम से कोई व्यावहारिक बात करना चाह रहा था, मगर बेटे के मासूम चेहरे को एकबारगी देख वह पीछे हट गया। वह सुयश को नाख़ुश नहीं करना चाहता था। फिर क्या जवाब दे! तत्काल उसे यही सूझा, ”कोई बात नहीं बेटा, हम फिर से यहाँ आ जाएँगे।”

सुयश की आँखों की पुतलियाँ सहसा एक सुखद रोमांच में अतिरिक्त रूप से चौड़ी हो गईं। सर्वेश के मन में दूर-दूर तक यह ख़याल नहीं था कि उसकी इस बात पर सुयश के अंदर आशा की कोई ऐसी बलवती नदी बहने लगेगी। वह दो बच्चों का पिता अवश्य था मगर बाल-मनोविज्ञान की बीहड़ दुनिया से उसका वास्ता नया-नया ही था।

“सच पापा, तो क्या हमारे ये दोस्त तब तक यहीं रहेंगे? और क्या हम एक-दूजे से फिर मिल सकेंगे? क्या हम फिर इसी सोसायटी में रहेंगे?”

सर्वेश को यह उम्मीद दूर-दूर तक नहीं थी कि उसकी इस बात को सुयश इतनी गंभीरता से ले लेगा। वह सोचने लगा कि हम जो बोलते हैं, बच्चे उसे सच मानकर चलते हैं। वे अपनी कल्पना और बड़े के आश्वासन दोनों को सच ही मानते हैं। सर्वेश स्वयं कुछ पलों के लिए अपने बचपन की दुनिया में खो गए। मगर तभी...

“बोलो न पापा, क्या हम फिर यहीं रहेंगे!” सर्वेश को भी इस सोसायटी को छोड़ने का दुख अचानक कुछ ज़्यादा सालने लगा। कई बार बच्चों की संवेदना से व्यक्ति स्वयं भी दूर तक प्रभावित होता है। यहाँ बिताए गए एक-एक क्षण रिवाईंड होकर उसके मस्तिष्क में घूमने लगे। उसे याद आया, एक दिन जब उसके दोनों बच्चे बाहर से खेलकर आए तो वह उत्सुकतावश अपने छोटे बेटे सौरभ से पूछ बैठा, “बेटे, यहाँ तुम्हारे कौन-कौन से दोस्त हैं?”

वह नाम गिनाना शुरू करता उसके पहले इस पूरी बातचीत में उसका बड़ा बेटा सुयश कूद पड़ा और जोर-जोर से साँस लेकर बोलने लगा...प्रतीक, गौरव, ज्योत्सना,.....।

सर्वेश अपने दोनों बेटों को मूकभाव से देखता रह गया। फिर मानों अचानक उसे याद आया कि यह सवाल तो मूल रूप से किसी और के लिए किया गया था। उसने पुनः अपना वही सवाल सौरभ से पूछा , “तुमने बताया नहीं बेटा कि तुम्हारे यहाँ कौन कौन से दोस्त हैं!”

सौरभ ने अपनी धीमी लयात्मक आवाज़ मे नाम गिनाना शुरू किया, प्रतीक, गौरव...’।

कुल मिलाकर यह कि वह कुछ देर पहले कहे सुयश के दोस्तों की सूची को ही दुहरा रहा था। उसने बारी-बारी से दोनों बेटों की आँखों में देखा। सर्वेश और सुयश दोनों उसे अपनी ओर देखता देख शैतानी और निर्दोषता में मुस्करा दिए। कुछ देर बाद सौरभ ने मासूमियत भरे लहजे में कुछ इस तरह से जवाब दिया कि वह सुयश के समक्ष अपने सारे हथियार ख़ुशी-ख़ुशी से स्वयं डालता हुआ कह रहा हो, “पापा, जो सुयश के दोस्त हैं न, वही मेरे भी हैं।”

बड़े भाई के समक्ष छोटे भाई का ऐसा आत्मसमर्पण या उसके साथ एकमेवता का ऐसा दृश्य देख सौरभ के लिए किसी अलौकिक दृश्य से कम न था। दोनों भाइयों के बीच ऐसा प्यार देख, उसके भीतर के पिता को बड़ी तृप्ति मिली।

मनीषा चाय लेकर आ गई। दोनों बालकनी में बैठ गए। सौरभ का निर्दोष चेहरा और कुछ देर पहले हँसते हुए उसके द्वारा दिया गया जवाब...अभी भी सर्वेश के ज़ेहन में चल रहा था। चाय की चुस्की लेते हुए उसने मनीषा को पूरी बात बतलाई। मनीषा भी मुस्कुराए बगैर न रह सकी। उसके चेहरे पर मातृसुलभ आभा दौड़ पड़ी। सौरभ ने उससे कहना शुरू किया, "देखो मनीषा, यह बच्चों का अपना विशिष्ट मनोविज्ञान है, जहाँ एक बच्चे की दुनिया को दूसरा बच्चा सहर्ष अपना लेता है। यह भाईचारे से अधिक उनका बचपना है। ये दो भाई तो हैं मगर उससे बढ़कर दो बच्चे हैं। बड़े भाई का दोस्त छोटे भाई का भी दोस्त हो जाता है। और यह उसके लिए कहीं से कमतर होना नहीं होता है। वह उसे स्वाभाविक रूप में ही ले रहा होता है। दो वर्षों के अंतराल पर पैदा हुए ये दोनों बच्चे, एक-दूसरे के मित्र भी हैं। दोनों अपनी नींद, अपना बिस्तर, अपना खेल, अपना मनोरंजन, अपनी लड़ाई, अपना स्वाद सबकुछ साझा कर लेते हैं। सौरभ का थोड़ा शर्माकर भी यह मानना कि सुयश के ही दोस्त उसके भी दोस्त हैं, यह कहीं से दोस्त बनाने की उसकी अयोग्यता नहीं थी बल्कि यह उन दोनों का अपना एकात्म था, जिससे शायद वे दोनों स्वयं भी अपरिचित हों।"

मनीषा भी उस पल भावुक हुए बगैर न रह सकी। बोली, "अजी, ऐसा हो भी क्यों नहीं! आख़िर दोनों ने एक माँ की सुविधाओं को भी तो साझा किया है। आपको कुछ याद है, सुयश देर तक मेरी छाती का दूध पिया करता था और सौरभ के हिस्से कम दूध मिलता था। किस मुश्किल से हमने सुयश को उसका दूध छुड़ाया था। बड़ा होने के कारण, आख़िरकार उसने अपने छोटे भाई के लिए त्याग तो किया ही न!"

.........

दोनों बच्चों में खोए सर्वेश ने एक भरपूर नज़र मनीषा पर डाली। जब से ट्रेन चली है, खिड़की से बाहर वह किसी शून्य में निहारे जा रही थी। सर्वेश ने उसकी हथेली को अपनी हथेली में ले लिया। पति के अंदर की भावना मानों चुपचाप पत्नी तक पहुँच गई। वह अपने पति के कंधे से लगकर सुबकने लगी, “इतने कम समय में बड़ा मोह हो गया जी इस शहर से।”

“पापा, आप यहाँ आओगे तब हम फिर उसी सोसायटी में रहेंगे....” सुयश सहसा उचक कर पूछ रहा था।

“नहीं, वहाँ तो नहीं बल्कि उसके अगल-बगल के किसी सोसायटी में आकर ज़रूर रह सकते हैं।”

“तो क्या मैं रोज शाम वहाँ खेलने जाउँगा....” सुयश चहक रहा था।

“हाँ, तुम अपनी साइकिल से जाया करना। मैं तुम्हारे लिए एक नई साइकिल ला दूँगा।”

सुयश चुपचाप अपने पापा को देखने लगा मानों पूछ रहा हो अभी-अभी तो मेरी नई साइकिल आई है, फिर...

“तब तक तुम बड़े हो जाओगे न बुद्धू! ऊँची साइकिल लानी पड़ेगी। यह साइकिल छोटी हो जाएगी ना!“, अपने बेटे की असमंजस को समझता हुआ सुयश ने अपनी ओर से स्वयं जोड़ा।

अपने बड़े होने और नई साइकिल मिलने के ख़याल से सुयश कुछ देर के लिए आत्मविभोर हो गया। मगर फिर अपने सवालों की बिखरी कड़ियों को जोड़ने लगा।

”तो क्या मेरे ये दोस्त मुझे मिल जाएँगे?”

“क्यों नहीं, कुछ तो मिल ही सकते हैं।”

“वापस कब आओगे पापा? ” सुयश अपनी बर्थ पर खड़ा हो सर्वेश के गले से झूलने लगा था।

“पाँचेक साल तो लग ही जाएँगे बेटा।”

मनीषा को न चाहकर भी हँसी आ गई। धीरे से अपने पति के कानों में फुसफुसाई, “सुयश भी जाने कैसे-कैसे ख्यालों में रहता है! कैसे-कैसे भ्रम में जीता है!”

“अच्छा है मनीषा। हम सब में भ्रम की ऐसी दुनिया बनी रहे ताकि हमारे अंदर की तरलता जीवित रहे। क्योंकि वास्तविकता तो मानों आज कठोरता का पर्याय हो गई है। अगर हमारा बेटा इन विचारों में मशगूल है तो समझो उसकी मासूमियत ज़िंदा है।”

मनीषा कुछ नहीं बोली। बस, अपने पति की हथेली को कुछ और सख्ती से दबाए रखी। सुयश को पास बुलाकर मनीषा ने उसका माथा चुम लिया। सौरभ सो रहा था। उसके माथे को सहलायी और उसके सिर को अपनी गोद में रख लिया। ट्रेन की रफ़्तार कुछ धीमी हो चली थी मानों वह भी ममता के इस माहौल को भरपूर अपने अंदर जज्ब करना चाह रही थी। नीचे साबरमती बह रही थी। खिड़की से ही मनीषा ने उसे प्रणाम किया। लोहे के पुल पर धड़धड़ाती गुज़रती ट्रेन की कुछ तेज़ आवाज़ ने सौरभ की नींद खोल दी। वह जाग गया। सर्वेश नदी की ओर मुख किए और अपने दोनों हाथ जोड़े प्रार्थना में कुछ बुदबुदा रहा था। अपने पिता की देखा-देखी उसी मुद्रा में सुयश ने भी अपने हाथ जोड़ लिए। उसकी नज़र अपने छोटे भाई सौरभ पर भी पड़ी, जो जाग कर उसकी ओर ही देखे चला जा रहा था। बड़े भाई की भूमिका में तत्काल आता हुआ सुयश ने सौरभ को खड़ा करवाकर उससे भी हाथ जुड़वा लिए। सुयश कुछ उल्लसित हो कह रहा था, “सौरभ! पापा कह रहे थे हम यहाँ फिर आएँगे।”

ट्रेन की चाल वापस तेज हो गई थी और साबरमती के इस ओर से दिखता अहमदाबाद क्रमशः दूर छूटता चला जा रहा था।

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