ज़िन्दगीनामा - कृष्णा सोबती Arpan Kumar द्वारा पत्रिका में हिंदी पीडीएफ

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ज़िन्दगीनामा - कृष्णा सोबती

आलेख

ज़िंदगीनामा : पंजाबी ज़िंदगी का एक अमिट आख्यान

अर्पण कुमार

कृष्णा सोबती न सिर्फ़ हमारे समय की सर्वाधिक वरिष्ठ रचनाकारों में से एक हैं, बल्कि इसके आगे नए-पुराने कई लेखकों में लेखन-मात्र को सर्वाधिक समर्पित वही नज़र आती हैं। कृष्णा सोबती हिंदी की एक ऐसी लेखिका हैं, जिनके लिए उनका लेखन ही उनका जीवन है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि हिंदी गीतों के पार्श्व-गायन में जो स्थान लता मंगेशकर का है, हिंदी साहित्य में वही स्थान कृष्णा सोबती का है। साधना और संकल्प के स्तर पर कोई चाहे तो दोनों में कई समानताएं ढ़ूंढ़ी जा सकती है। कृष्णा सोबती के गद्य में गज़ब क़िस्म की एक कशिश है। एक ऐसा खिलंदड़ापन जो उनके मिज़ाज़ में है और जो उनकी भाषा में भी नज़र आती है। जीवन जीने की उनकी जो अनूठी और अपारंपरिक शैली है, वही अनूठापन और नवीनता उनके लेखन में दृष्टिगोचर है। जीवन भर भाषाई साहित्य के मान सम्मान और सरोकारों के लिए संघर्षरत सोबती का लेखन हिंदी के पाठकों के लिए हमेशा ही पठनीय और उल्लेखनीय रहा है। सोबती का लिखा हर बार उनकी सीमाओं के आगे जाता है और उनके लेखक के नए रूप से हमॆं अवगत कराता है। आधुनिक हिंदी कथा-जगत में महत्वपूर्ण स्थान पर विराजमान सोबती ने इसके लिए निरंतर अपने कथाकार को माँजने का अनूठा प्रयास किया है और वे अपने इस प्रयास में सफल दिखती हैं। उन्होंने एक से बढ़कर एक उपन्यास रचे हैं और उनकी परस्पर तुलना नहीं की जा सकती। हर बार किसी नए विषय के साथ वे अपने पाठकों के समक्ष प्रकट होती हैं। यद्यपि उनके उपन्यास एक से बढ़कर एक हैं और वे उनकी सृजन-पंक्ति में समान रूप से देदिप्यमान हैं, फिर भी अगर किसी एक कृति को उनका ‘मैग्नम-ओपस’ कहा जा सकता है तो वह उनका उपन्यास ‘ज़िदगीनामा’ ही ठहरता है। जिस किसी को पंजाब के विभिन्न राग-रंग देखने हों, उत्सवों की मिठास और लोग-बाग का जमघट देखना हो, तो उसे इस उपन्यास को निश्चय ही पढ़ना चाहिए। पूरे परिवेश का प्रतिनिधि चित्रण यहाँ हो सका है। इस उपन्यास के कथावस्तु में अविभाजित पंजाब का सौंदर्य और उसकी गर्माहट जब देखने को मिलती है तो यहीं पर सियासी राजनीति और भाई और भाईचारे को तकसीम करनेवाली सोच हमें कितना पीड़ा पहुँचाती है, हमॆं यह भी महसूस होता है। ‘मित्रो मरजानी’ से लेकर ‘ज़िंदगीनामा’ तक की यात्रा में एक चीज जो कृष्णा के लेखक के साथ चली है, वह है उनके भीतर की पंजाबियत और ज़िंदादिली का ज़िंदा रहना और साथ ही उन्हें अपने शब्दों में उसी ठसक और ज़ज़्बे से प्रस्तुत करने की उनकी ज़िद का होना । कृष्णा सोबती ख़ुद स्वयं के बारे में लिखती हैं, “अजीब सर्द-गर्म, मिट्टी की तासीरवाली यह तस्वीर मेरी, खुद मुझे ही हैरान परेशान करती रही है। दूसरों की निगाह से अपने को देखती हूँ, तो एक मगरूर घमंडी औरत, चमक दमक वाला लिबास और अपने को दूसरों से अलग समझने वाला अंदाज़। अपनी नज़र से अपने को जाँचती हूँ तो एक सीधी-सादी ख़ुद्दार शख़्सियत। वक़्त और ख़ुदा दोनों ही जिसपर ज़्यादा मेहरबान नहीं- फिर भी अपने जिगरे के ज़ोर से ज़िंदादिल।”

कृष्णा सोबती के प्रस्तुत उपन्यास ‘ज़िंदगीनामा’ (1979 में प्रकाशित और 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित) पर चर्चा कर लेने से पूर्व इस शब्द पर हुए कानूनी विवाद पर थोड़ी चर्चा कर लेना भी समीचीन होगा। जब 1984 में अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘हरदत्त का ज़िदगीनामा’ प्रकाशित हुई तो इसपर कृष्णा सोबती ने मुकदमा दायर कर दिया कि ‘ज़िंदगीनामा’ शब्द पर उनका कापीराइट है। खुशवंत सिंह ने अमृता प्रीतम के पक्ष में गवाही दी और कोर्ट में कहा कि कृष्णा सोबती के पहले भाई नंद लाल गोया द्वारा 1932 में प्रकाशित कृति में ‘ज़िदगीनामा’ शब्द का उपयोग किया गया है। यद्यपि कोर्ट का निर्णय अमृता प्रीतम के पक्ष में रहा, मगर इस निर्णय को आने में लगभग छब्बीस वर्ष लगे। ख़ैर, इस विधिक तथ्य और इसपर आए फ़ैसले से इतर इतना तो कहा ही जा सकता है कि एक लेखक किस तरह एक शब्द विशेष को लेकर इतना सजग और समर्पित हो सकता है! निश्चय ही हर लेखक अपने लिखे के प्रकाशित हो जाने के बाद उससे किसी न किसी रूप में निस्संग होता है या होने की कोशिश करता है। ऐसा होना भी चाहिए और यह कृष्णा सोबती पर भी लागू है। मगर अपने लिखे हुए को लेकर इतनी एकनिष्ठता और उसकी विशिष्टता को लेकर उन दिनों दिखी उनकी ज़िद को परंपरित दृष्टिकोण से हटकर देखे जाने की ज़रूरत है। यह कॉपीराइट से आगे एक लेखक की अपनी रचना के साथ भरोसे और एकमेवता की भावना की भी कहानी है। हाँ, इस मुक़दमे का असर यह हुआ कि इस उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित होने में कोई चालीस वर्ष लग गए। ‘हार्पर पेरेनियल’ से प्रकाशित इस उपन्यास का अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद नीलकंवर मणी और मौयना मज़ूमदार ने किया है। इस अनूदित पुस्तक के कवर पर अपनी टिप्पणी देते हुए अशोक वाजपेयी ने इसे ‘संक्षिप्त महाभारत’ की संज्ञा दी। प्रस्तुत उपन्यास में कहावतों और मुहावरों का जिस वैभव के साथ प्रयोग हुआ है, निश्चय ही पंजाबी से इतर अंग्रेज़ी सहित उनका अन्य भाषाओं में प्रस्तुतिकरण अनुवाद के दौरान कई बार इतना आसान नहीं रह पाता है मगर यह चुनौती साहित्यिक कृतियों के साथ पहले भी रही है। हाँ, ‘ज़िंदगीनामा’ जैसे विशद और टिपिकल जीवन-चरित का अनुवाद, तनी हुई रस्सी पर बिना गिरे चलने सरीखा है और यह चुनौती, किसी अनुवादक-लेखक के लिए आवश्यक भी है। उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास का पंजाबी में अनुवाद पंजाबी भाषा के प्रसिद्ध लेखक गुरदयाल सिंह ने किया, जिसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया। 'दाढ़-तले बवा उठना' (पृष्ठ 192),'कंवारी के सौ चाव और ब्याही के सौ मामले' (पृष्ठ 386) आदि पंक्तियों को लोक-परिवेश में सहज ही प्रयुक्त होता हम देखते हैं।

‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास पर आगे चर्चा करने से पूर्व इसके ‘बैक-कवर’ पर दी गई टिप्पणी को यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। स्वयं उपन्यास के बारे में यह टिप्पणी अपने पाठकों को पहले से काफ़ी कुछ बताती चलती है, ‘ज़िंदगीनामा : जिसमें न कोई नायक। न कोई खलनायक। सिर्फ लोग और लोग और लोग। जिन्दादिल। जाँबाज। लोग जो हिन्दुस्तान की ड्योढ़ी पंचनद पर जमे, सदियों गाजी मरदों के लश्करों से भिड़ते रहे। फिर भी फसले उगाते रहे। जी लेने की सोंधी ललक पर जिन्दगियाँ लुटाते रहे। ज़िंदगीनामा का कालखंड इस शताब्दी के पहले मोड़ पर खुलता है। पीछे इतिहास की बेहिसाब तहें। बेशुमार ताकतें। जमीन जो खेतिहर की है और नहीं है, यही जमीन शाहों की नहीं है मगर उनके हाथों में है। जमीन की मालिकी किसकी है? जमीन में खेती कौन करता है? जमीन का मामला कौन भरता है? मुजारे आसामियाँ। इन्हें जकड़नों में जकड़े हुए शोषण के वे कानून जो लोगों को लोगों से अलग करते हैं। लोगों को लोगों में विभाजित करते हैं। ज़िंदगीनामा : कथ्य और शिल्प का नया प्रतिमान, जिसमें कथ्य और शिल्प हथियार डालकर जिन्दगी को आँकने की कोशिश करते हैं। ज़िंदगीनामा के पन्नों में आपको बादशाह और फकीर, शहंशाह, दरवेश और किसान एक साथ खेतों की मुँडेरों पर खड़े मिलेंगे। सर्वसाधारण की वह भीड़ भी जो हर काल में, हर गाँव में, हर पीढ़ी को सजाए रखती है।’

इस उपन्यास की शुरूआत एक लंबी कविता से होती है। इस कविता में मानो सोबती ने यह संकेत दे दिया है कि इस कृति के भीतर उनके पाठक क्या पा सकते हैं! पूरे उपन्यास का सार और सौंदर्य इन पंक्तियों में एकबारगी समाहित कर दिया गया है। उपन्यास में पद्यात्मक गद्य को इस प्रकार अनुस्यूत किया गया है कि पाठक उससे बँधा रह जाता है। न सिर्फ वाक्य-विन्यास के स्तर पर गद्य के प्रचलित ढाँचे को तोड़ा गया है, बल्कि शब्दों के चयन और उसके काव्यमय प्रभाव को लेकर भी लेखिका के भीतर कई अनायास प्रयत्न हमें दिखते हैं। धरती को माता के रूप में अरसे से चिह्नित किया जा रहा है, मगर वह माता अल्हड़ और मादक भी है, इसे सोबती की निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है :-

‘गलबहियों-सी

उमड़ती, मचलती

दूधभरी छातियों-सी

चनाब और जेहलम की धरती

माँ बनी

कुरते के बन्द खोलती

दूध की बूँदे ढरकाने को’।

उचित ही दूध भरी छातियाँ एक संतुष्ट और संपूर्ण स्त्री के मातृत्व का गौरव है। आगे इसी कविता में वे आगे मेहनतकश स्त्रियों का क्या बिंब खींचती हैं :-

‘ऐसे

अनोखे अलबेले पंजाब के

दूधिया घरों में

राँगली पीढियों पर बैठीं रानियाँ

घूँ-घूँ चरखा काततीं

तकलों पर महीन सूत निकालतीं

भरी-भरी गहराई देहें

मोटे-गाढ़े खद्दर-पट्ट में लिपटीं

मेहनत-महारानियाँ।‘

उल्लेखनीय है कि इस उपन्यास का प्रथम संस्करण 1979 में आया, जिसका पेपरबैक्स संस्करण 2004 में प्रकाशित हुआ। इस सुदीर्घ उपन्यास में पंजाब की मिट्टी में बसी जिजीविषा और कर्मठता को भली-भाँति अभिव्यक्त किया गया है। यह उपन्यास अविभाजित पंजाब के गुजरात जिले में स्थित शाहपुर गाँव की कहानी कहता है। इसकी शुरूआत में शाहनी और शाह के बीच के जिस दांपत्यपूर्ण रिश्ते की गर्मजोशी को दिखाया गया है, संतान के लिए लालायित दंपत्ति की कसक को भली-भाँति शब्द प्रदान किए गए हैं| बाद में उनके यहाँ उत्पन्न उनके पुत्र ‘लाली’ के माध्यम से पात्रों की हसरतों और कहानी दोनों को विस्तार मिलता है और उसके इर्द-गिर्द भी कथा के कुछ सूत्र संरचित और विकसित हुए हैं। कह सकते हैं कृष्णा की भाषा में वह सबकुछ है, जो एक समर्पित लेखक की भाषा में हम तलाशते हैं और जिसे आदर्श के रूप में हिंदी के साहित्यिक-इतिहास में देखा जाएगा। एक लेखक होने के नाते सोबती समाज में आ रहे बदलावों पर नज़र रखती हैं। उनकी वैयक्तिक चेतना जाग्रत है और उनका लेखक वंचितों / शोषितों के पक्ष में खड़ा दिखता है। एकदम प्रत्यक्ष तो कभी प्रच्छन्न रूप में। अपनी मिट्टी से गहरे जुड़ी सोबती के यहाँ विद्रोह के स्वर भी अपने वतन, परिवेश और परंपरा से आसक्त गहरे अनुरक्ति भाव से निकले आते हैं। स्त्रियों के बीच की छेड़छाड़ में जहाँ उनके स्त्री-पात्र उन्मुक्त और खिलंदड़ नज़र आते हैं, वहीं उनके गहरे भीतर उदासी और उबाल के कई घटक दिखते हैं। अपेक्षाकृत परदा-मुक्त समाज में प्रदत्त तमाम प्रतिष्ठाओं और पंजाब जैसे प्रदेशों के अपेक्षाकृत खुले माहौल में भी आर्थिक और सामाजिक निर्णय से जुड़ी विभिन्न परिस्थितियों में स्त्री की बेबसी को सहज ही देखा जा सकता है। बाह्य और आंतरिक स्तरों पर उनके पात्रों के भीतर का यह अंतर्द्वन्द्व उनके रचनाकार की एक बड़ी विशेषता है। यह संयोग नहीं है कि ‘ऐ लड़की!’ और ‘मित्रो मरजानी’ जैसी उनकी कृतियों का इतना सशक्त मंचन हो सका है। नामवर सिंह ठीक ही लिखते हैं, “ कृष्णा सोबती की तलवार उनकी कलम है।”

कृष्णा सोबती की भाषा निश्चय ही एक प्रयोगधर्मी भाषा है। भाषा को अपने कथ्य के हिसाब से एक कुशल मदारी की तरह वे नचा लेती हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि एक लेखक किसी कुशल मदारी से कम नहीं होता। भाई-बहन की प्यार भरी तकरार से शुरू होता यह उपन्यास क्रमशः पूरे पंजाब को हमारे सामने ला छोड़ता है। प्रकृति चित्रण ऐसा कि मानो सारे दृश्य आपके सामने प्रकट हू-ब-हू प्रकट हो रहे हो। वे वर्णित दृश्यों को, आपसी छेड़छाड़ और हँसी-मज़ाक को, रोशनी को, उजाले को, चांदनी आदि सब कुछ को मानो अपनी भाषा में बांध लेना चाहती हैं। ‘ज़िंदगीनामा’ की भाषा पूरे परिवेश की सुंदरता और रागात्मकता, नृत्य और गीत गायन को समाहित कर लेने की भाषा है। यहाँ लड़कियों के शर्माने का भी वर्णन क्या खूब अंदाज़ से किया गया है! मसलन निक्की बेबे द्वारा कुछ कहे जाने पर लड़कियों का शर्माना कैसा होता है : ‘सिर पर किड़े और मीडियों के जाल बिछाए कंवारियां शरमा शरमा हंसने लगीं।’ (पृष्ठ 19, ज़िंदगीनामा)।

इसी तरह लालाजी जब कहानी कह रहे हैं तो वहाँ स्मृतियां हैं, शास्त्र हैं और तमाम दूसरे संदर्भ हैं और है लोक-कल्पना और सर्जना भी। उन्हें सुनते हुए हर उम्र के लोग अपने अपने हिसाब से उस में कुछ न कुछ जोड़ते चले जा रहे हैं। इसी पंचायत से कई सारे पात्र निकलकर हमारे सामने आते चले जाते हैं। उनकी कहानियाँ, उनकी सोच, उनके यात्रा विवरण भी हमे सुनने-देखने को मिलते हैं। वह समय, जब गाँव में किसी बड़े-बुजुर्ग के मुख से ऐसी लंबी कहानियाँ का दौर चला करता था और तमाम लोग उन्हें सुनने के लिए एकजुट होकर बैठा करते थे, तब कहानियों के बीच में आपसी हास-परिहास का दृश्य भी ख़ूब बनता था, जिसे कृष्णा सोबती ने पंजाब की पृष्ठभूमि में पूरी जीवंतता के साथ पुनर्सृजित किया है। जिस तरह ‘मैला आँचल’ में रेणु ने कोशी-अंचल की भाषा और उसके ऊँघते-मिज़ाज़ को बखूबी उतारा, उसी तरह ‘ज़िंदगीनामा’ में कृष्णा ने पंजाबी के चटख रंग से हमारा परिचय कराया। जिस तरह ‘मैला आँचल’ की आंचलिकता कइयों के लिए उसके रसास्वादन में सीमा का काम करती है, उसी तरह पंजाबी के कई शब्द और मुहावरे ज़िंदगीनामा के पाठकों को जहाँ तहाँ कुछ देर के लिए रोकते प्रतीत होते हैं। मगर जब पाठक इन अंशों पर कुछ धैर्य के साथ रुकता है और फिर पढ़ता है तो उसे पाठकीय आनंद का अपूर्व रस भी प्राप्त होता है, जिसे रोलां बार्थ. ‘प्लेज़र ऑफ़ टेक्स्ट’ संज्ञा से नवाज़ते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यही आंचलिकता इन दोनों उपन्यासों की एक बड़ी ताकत है। शाहनी का चरित्र बहुत सशक्त रूप में उभरा है। एक जगह अलस्सुबह शाहनी के डर को व्याख्यायित करते हुए लेखिका लिखती हैं "शाहनी के पाँव ऐसे भारी हुए कि किसी ने तन मन की सत्या खींच लिया हो।" (पृष्ठ 26, ज़िंदगीनामा)।

यहाँ जीवन के सभी रंग सहज ही देखने को मिलते हैं। राह चलते घर गृहस्थी के कई सारे काम निपटाने हों, स्त्रियों की आपसी चुहलबाजी की छौंक हो या फिर किसी जवान लड़की की सुंदरता को बरबस निहारने और स्वयं ही बलखाते जाने के प्रसंग हों, कृष्णा सोबती की कलम से कुछ भी छूटता नहीं है। एक जगह का यह प्रसंग देखें, "साहनी ने साग-सब्जी झोली में डलवा टुक अलिए की धी फ़तेह को देखा। चिट्टा दूध कश्मीरी रंग। पीडा गदराया बदन। ओढ़नी तले जवानी का थर बँधा हुआ। देख कर जी की भूख उतरे।" (पृष्ठ 27, ज़िंदगीनामा)।

ऐसे कई चित्रणों में कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘मित्रों मरजानी’ की नायिका ‘मित्रो’ की याद बरबस आ जाती है। कृष्णा, स्त्रियों की कामुकता, दैहिकता और उसकी यौनिकता को स्त्री की जिस निगाह से देखती हैं, वह दृष्टि विरल है और उन्मुक्त भाव से किया गया उसका चित्रण पाठकों को आलोड़ित भी करता है। वहाँ निःसंदेह बोल्डनेस और मादकता है, मगर यह सब कुछ रागात्मकता की चादर तले यूँ प्रस्तुत है कि वह कहीं से अश्लील नहीं जान पड़ता। ऐसे ही शाहनी की चाल के इस चित्रण को देखिए :- “तावली तावली लोहारों की गली से हवेली जा निकली” (पृष्ठ 27, ज़िंदगीनामा)।

जब कम्मो, बाबो से शाहनी के बहाने कुछ सुनाने को बोलती है तब बाकी लड़कियां भी उसकी हाँ में हाँ मिलाती हैं और 'हीर' सुनाने की ज़िद करती हैं। इस समवेत आवाज़ को कृष्णा की लेखिका 'गुच्छा भर आवाजों' को चहक़ने जैसा दर्ज़ करती हैं। (पृष्ठ 33, ज़िंदगीनामा)।

यहाँ हँसी है तो मिस्री जैसी और अगर धीरे धीरे किसी चाल को रूपायित करना हो तो उसके लिए 'तावली तावली' कहा गया है। सब्जी बेचने वाली फतेह देखिए अपनी सब्जियों के लिए किस तरह आवाज लगा रही है, “ले लो री नरम मुलायम टिंडे, कनके की सोहली मूलियाँ!" (पृष्ठ 27, ज़िंदगीनामा)।

कृष्णा सोबती उस पीढ़ी की लेखिका हैं, जिनके यहाँ बदलते भारत की कई ज़िंदा तस्वीरें सहज ही मौज़ूद हैं। उन तस्वीरों में बनते आदर्श हैं तो बिगड़ते यथार्थ भी और इन्हीं के बीच साँस लेता, दुबकता-सुबकता बेहतर मानवीय समाज का स्वप्न मौज़ूद है। सोबती ने अपनी उन्हीं स्मृतियों और स्वप्नों को शब्दों में ढालने की एक महत्वपूर्ण कोशिश की है। स्त्री मात्र के किसी फॉर्मूलाबद्ध लेखन की सीमा का अतिक्रमण करते हुए उनके लिखने का उद्देश्य सिर्फ़ स्त्री समस्याओं को उठाना भर नहीं है, बल्कि इसके आगे उनके यहाँ समाज की समग्रता को और विभिन्न कालों में उपस्थित समस्याओं को चिन्हित करने का स्पष्ट प्रयत्न दिखाई देता है। निश्चय ही कोरे स्त्री-विमर्श तक केंद्रित महिला साहित्यकारों के समक्ष वे एक बड़े मानदंड या कहॆं चुनौती के साथ खड़ी नज़र आती हैं। यहीं पर यह एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उनके स्त्री-पात्र, ऐसे दूसरे वाद-आधारित रचनाकारों से अधिक सशक्त और जीवंत हैं। उनके पूरे लेखन-जगत में जीवटता से भरे ऐसे कई स्त्री-पात्रों को सहज ही देखा जा सकता है।

अपने इस उपन्यास में लोक-परिवेश को सफलतापूर्वक प्रस्तुत करने के लिए कृष्णा सोबती ने वहाँ के बुल्लेशाह और शाह लतीफ़ जैसे संतों/लोक-रचयिताओं पदों/पंक्तियों का जगह-जगह पर अवसरानुकूल प्रयोग किया है। जान-बूझकर उस समृद्ध खाजने से उन पंक्तियों को चुना गया है, जिनके माध्यम से कभी पात्रों के मनोजगत को चित्रित किया जा सके तो कभी कथा-परिस्थिति को समुचित ढंग से रूपायित करने में जिनका सहयोग लिया जा सके। शाहजी और राबयाँ के बीच पनपते आकर्षण को बयान करती और अपरिभाषेय से दिखते और किसी चौखटे में न आनेवाले संबंध को बयान करते और पात्रों के मन तक पहुँचते और उनकी आत्मा को अभिव्यक्त करती बुल्लेशाह की यह सूफ़ियाना 'काफ़ी' अपने आप में कथा-सूत्र को न सिर्फ़ गति प्रदान करती है, बल्कि वातावरण को गझिन भी बनाती है : -

"मैं सूरज अगन जलाऊँगी

मैं प्यारा यार मनाऊँगी ।

सात समुंदर दिल के अंदर

मैं दिल से लहर उठाऊँगी ।

मैं प्यारा यार मनाऊँगी ।

मैं बादल हो-हो जाऊँगी ।

मैं भर -भर मेंह बरसाऊँगी।

न मैं ब्याही न मैं क्वाँरी

पर बेटा गोद खिलाऊँगी

इक दूणा अचरज गाऊँगी

मैं प्यारा यार मनाऊँगी।"

इन पंक्तियों का सान्दर्भिक प्रयोग वातावरण को गझिन बनाने में सहायक है। जहाँ कहीं इनकी पंक्तियों में अर्थ-व्याख्या की ज़रूरत लेखिका को महसूस होती है, वहाँ वे किसी श्रोता-पात्र से कुछ कहलवा देती हैं और तब वक्ता पात्र उसकी व्याख्या कर देता है। फिर समझ आने पर श्रोता मंडली में से कोई उसके पीछे के प्रसंग को भी अपने तईं समझने और उसे सबके बीच रखने की कोशिश करता है। कृष्णा सोबती ने अपने इस उपन्यास में हिंदी के व्याकरण और वाक्य निर्माण की संरचना को भी तोड़ने का कुछ प्रयास किया। कृष्णा सोबती के गद्य में कई जगहों पर कर्ता, कर्म और क्रिया की सांचाबद्ध परिपाटी टूटती दिखती है। उनके गद्य में कई जगहों पर कविता का सा साँचा निर्मित होता है। इससे उनका गद्य, भाषा और शब्द के स्तर पर ही नहीं बल्कि अपने भाषाई संरचनात्मक स्वरुप में भी अनूठा और खिलंदड़ हो उठता है। यहाँ यह गौर करना जरुरी है कि खिलंदड़ होना कृष्णा सोबती के साहित्य की एक ऐसी विशेषता है जो उनके कथ्य और उनकी कहन के अंदाज़ दोनों पर समान रुप से लागू होता है। और यह खिलंदड़ापन कुछ ऐसा है कि कृष्णा सोबती इसके माध्यम से बहुत कुछ साध लेती हैं। स्त्रियों के विरोध के तेवर हों, समाज में हाशिए पर रह रहे लोगों को महत्व देना हो या फिर उन्हें उनके हक़ के लिए तैयार करना हो, सोबती का लेखक यह सब अपने इसी खिलंदड़ी अंदाज़ में निपटा लेता है। अपनी इस पूरी कोशिश में कृष्णा समाज की परंपरा और परिपाटी को अपने कंधों पर जिस तरह उठाए दिखती हैं, ऐसा लगता है कि इनके बग़ैर उनके लेखन को वह अपेक्षित समग्रता और बाँकपन नहीं मिल पाएगा, जो उनके स्वयं के लिए बनी कठिन लेखकीय कसौटी के लिए आवश्यक है। मसलन, शाम में गाँवों-कस्बों में दीया-बाती करने की जो परंपरा है, उसका चित्रण कृष्णा ने किस तरह किया है उसे इन पंक्तियों में देखा जा सकता है, 'त्रिकाल बेला शाहनी ने दिवटों में तेल डाल बाती की। एक दूजे को लौ दिखाई और हाथ जोड़ सिर नवाया :-

‘दीवा जले

दुश्मन टले

रिज़क का छींटा

अंदर पड़े

दीपक तेल

बिछुड़े मेल

चाची महरी ने लौ को हाथ जोड़े माथे से छुआ लिया :

संध्या पड़ी उतारनी

मेरे सगले दोक्ख निवारणी'

(पृष्ठ 30, ज़िंदगीनामा)।

उक्त प्रसंग में हम देख सकते हैं कि गाँव-जवार की लोक परंपराओं को कितनी आत्मीयता से यहाँ प्रस्तुत किया गया है! एक तरफ शाहनी है तो दूसरी तरफ महरी। दीया-बाती के इस प्रसंग में दोनों को समान रुप से आस्थावान और महत्वपूर्ण दिखला कर कृष्णा सोबती ने समाज के भीतर की रागात्मकता और तब मौज़ूद रिश्तों के साझेपन को छूने की कोशिश की है। एक दूजे को महत्व देने की यह परंपरा जब टूटने लगती है, तो समाज में कई समस्याएं आ खड़ी होती हैं। पात्रों के संवाद पंजाबियत से भरे हुए हैं और बड़े टटके जान पड़ते हैं। हाज़िरजवाब भी। शाहनी और करतारो के बीच की बातचीत को ज़रा देखें :-

शाहनी ने पुचकारा –“उठ करतारो, त्रिकलां उतर आई।दिलबाग को साथ ले जा और बुलावा पूरा कर आ।”

“दिलबाग से माथा कौन खपाएगा शाहनी! दोनों कानों ऐ डोरा है।”

चाची ने झिड़का, "चुप री, डोरा है तो कौन रास्ते में उसने अर्जी-परचा करना है!जा।"

ऐसे जाने कितने दिलचस्प प्रसंग इस उपन्यास में भरे पड़े हैं! यहाँ बूढ़ी स्त्री और जवान लड़कियों के बीच के संवाद की मुखरता को भी कई जगहों पर देखा जा सकता है। स्त्रियों की मजलिस को चित्रित करने में, उनके सौंदर्य और उनके यौवन को अपनी कलम से नक्काशी करने में कृष्णा का कोई जवाब नहीं, मगर उनकी स्त्रियां में विलासिता या ठहराव नहीं है या उनका सौंदर्य अलसाया और आरामतलब से भरा सौंदर्य नहीं है। प्रकटतः विपथगामी दिखते उनके कई स्त्री-पात्रों के संघर्ष और जीवटता को कोई नकार नहीं सकता। ऐसे ही ‘ज़िंदगीनामा’ की स्त्रियाँ, गाँव की मेहनतकश स्त्रियां हैं। वे चरखे चलाती हैं, दूध जमाने, दही-लस्सी बिलोने से लेकर रसोई और कई दूसरे कार्य करती हैं और उन सभी कामों के बीच आपस में हँसी मज़ाक करती हैं, एक दूसरे के दिल को पढ़ती हैं और अपने आसपास की कुँवारियों की शादी ब्याह की चिंता करती हैं।

"नाक कानों से दमकती नई ब्याहियाँ। भर जवानी में गोता मारने को तैयार चुलबुली शोख मुटियारें और और उठती उम्रें खिलखिल करती कंवारियां।"

(पृष्ठ 32, ज़िंदगीनामा)।

यहाँ गुच्छा भर आवाजें हैं तो खिड़खिड़ हँसती लड़कियाँ हैं, घूं-घूं करते चरखों के हत्थों का संगीत है तो सहज ही तुक्केबाजी करती प्रतिभा है। जब शानो की माँ बच्चों को भगाती है, तो भागते हुए बच्चे उसे चिढ़ाते हुए गाते हैं :

"आने वाले लोहड़ी पर

शानो की माँ

गोदी में

बच्चड़ा खिलाएगी"

तो वह शरमा जाती है। इसका वर्णन कृष्णा सोबती देखिए किस तरह करती हैं, "शानो की माँ के तेवर धुलकर थानों में पसर गए। झूठ-मूठ का गुस्सा दिखाया- "अरे कुछ शरम करो! लाज करो!"

(पृष्ठ 38, ज़िंदगीनामा)।

यहाँ शर्माना है तो निक्का निक्का। माएँ अपने बच्चों को स्तनपान नहीं करातीं, बल्कि दूध ‘चुँगाती’ हैं। कृष्णा का लेखक निश्चय ही स्त्रियों के सामूहिक परिवेश और उनके सामूहिक सौंदर्य को रचने में खूब रमता है। कह सकते हैं कि ‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास में कृष्णा सोबती ने सामूहिकता को एक बड़ा क्षितिज प्रदान किया है। भाषा और भाषा के तेवर कृष्णा सोबती की ताक़त हैं। फिर चाहे वह ‘मित्रो मरजानी’ की आक्रामक भाषा हो या ‘हम हशमत’ के चुटीले तेवर हों, ‘डार से बिछुड़ी’ की कशिश हो या ‘ज़िंदगीनामा’ का बाँकपन, सोबती हर जगह अपनी कलम से बखूबी मनचाहा काम लेती हैं। कृष्णा सोबती के लेखन का मूल्यांकन किसी लैंगिक सीमा में बँधकर नहीं किया जा सकता। वे किसी श्लोगन से परे सहज रूप से अपने मूल मिज़ाज़ के अनुरूप लिखती हैं। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि वे स्त्री-लेखन के बदलावों और उसमें समाहित विषयों की साक्षी अवश्य रही हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या आज का स्त्री-लेखन पुरुष लेखन के दबाव में है, कृष्णा सोबती बतलाती हैं, “हमारा स्त्री लेखन, पुरुष प्रधान लेखक के नियंत्रण में नहीं, वह अपनी पुरानी पारिवारिक चौखट के दबाव में से निकलने की प्रक्रिया की अभिव्यक्ति कर रहा है। स्त्री अपनी दैहिक सीमाओं से उभर कर अपने व्यक्तित्व की खोज में है। आर्थिक स्वतंत्रता के साथ उसका आत्मविश्वास बढ़ा है और गृहस्थी के बाहर का बड़ा आकाश भी ज़्यादा निखरा है, जो उसे नई संज्ञा, नई भाषा दे रहा है।”

अंग्रेज़ी में लिखे अपने एक लेख ‘A total commitment to writing’ में निरुपमा दत्त लिखती हैं, “ WHENEVER an unbiased literary history of the Twentieth Century is written, it will be remembered as the century of the woman writer. Even though the literary woman dates back to the ancient times, it is this century that saw the woman writer come into her own and wield the pen with a confidence that was long denied to her. And this is a phenomenon that cuts across countries and cultures. And this is not to be judged by just numbers but the quality and the literary merit of their writings. These were writers who could break through the given sexist politics of literature and make a place for themselves as writers who happened to be women.In India, this century sees the rise of the woman fiction writer. We have Asha Purna Devi (Bengali), Ismat Chughtai and Qurratulain Hyder (Urdu) and Krishna Sobti (Hindi) as the pioneering writers in their respective languages who paved the way for many other writers to follow. The importance of Krishna, lies merely not in the fact that she chose a language, which spreads over a large region of the country. Or that she came from the then Hindi-speaking state of Punjab, but the fact that she could tell a story like none other conscious of the history of the century that she was born to. It is the very pulse of the times that she has captured through the everyday people and their lives. And this, while experimenting with language and coming out a winner always.Of course, to Krishna's credit go many firsts.”

इसे हिंदी में यूँ समझा जा सकता है, “जब कभी बीसवीं शताब्दी का पूर्वाग्रहमुक्त साहित्यिक इतिहास लिखा जाएगा, इसे महिला लेखकों की शताब्दी के रूप में याद किया जाएगा। हालाँकि इनका अस्तित्व प्राचीन काल से है, मगर बीसवीं शताब्दी एक ऐसी शताब्दी है, जहाँ वे अपनी पूरी रौ में दिखती हैं और कलम का इस्तेमाल अपने पूरे विश्वास और तेवर के साथ करती हैं। ऐसा तेवर इसके पूर्व देखने में नहीं आया था। और यह परिदृश्य विश्व के सभी देशों और संस्कृतियों में देखा गया है। और हाँ, यहाँ सिर्फ संख्या की बात नहीं की जा रही है बल्कि उनका लेखन साहित्यिक मापदंड पर खरा उतरता है और उसमें वे सभी गुण हैं जो किसी बड़ी साहित्यिक कृति में होने चाहिए। ये वे लेखिकाएं हैं, जो साहित्य की कथित सेक्स-राजनीति के दलदल से बाहर खड़ी दिखती हैं और अपना स्थान किसी लैंगिक सीमा से आगे जाकर एक लेखक का बनाती हैं, जो संयोग से एक स्त्री है। भारत में यह शताब्दी, महिला क़िस्साग़ों के उत्थान के रूप में नज़र आती हैं। आशापूर्णा देवी (बांग्ला), इस्मत चुगतई और कुर्रतुल ऐन हैदर (उर्दू), कृष्णा सोबती (हिंदी) जैसे कुछ ऐसे नाम हैं जो अपनी भाषाओं में शीर्ष स्थानों पर खड़ी नज़र आती हैं और जिन्होंने अपने बाद की पीढ़ी के लिए काफी काम किया है। कृष्णा सोबती का महत्व सिर्फ इस तथ्य में नहीं है कि उन्होंने अपने लेखन के लिए एक ऐसी भाषा का चयन किया, जो भारत के एक बड़े हिस्से में बोली जाती है या फिर वे तब के हिंदी भाषी राज्य पंजाब से आती हैं बल्कि इसके आगे यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि वे अपने तईं इस प्रकार कहानियाँ कह पाती हैं, जिसे उनकी शताब्दी का कोई दूसरा लेखक नहीं कह पाया। यह समय का स्पंदन है, जिसे उन्होंने आम लोगों के जीवन के बीच जाकर पकड़ा और यह उनकी दक्षता रही कि उन्होंने अपनी भाषा के साथ ख़ूब प्रयोग किए और सफल भी रहीं।”

मुझे परवीन शाकिर का यह शे’र सहसा याद आ रहा है :-

‘किस कोंपल की आस में अब तक वैसे ही सरसब्ज़ हो तुम

अब तो धूप का मौसम है बरसात गुज़र गयी जानां’

इस शे’र के सहारे कृष्णा सोबती से पूछा जा सकता है कि आख़िर क्या बात है कि भारत-पाक विभाजन के अरसे बाद उन्हें अविभाजित पंजाब की खुशबू, अपनी स्याही से हम सबके सम्मुख रखने की ज़रूरत पड़ी! मगर वहीं यह ख़याल भी आता है कि यह रचना अगर उनके ज़ेहन में ही दम तोड़ देती और कागज़ पर नहीं उतर पाती तो साहित्य जगत का कितना बड़ा नुकसान होता! कृष्णा के भीतर की रागात्मकता और उसमें विहित पंजाबियत की यह सोंधी खुशबू उनके इस उपन्यास में हर जगह महसूसी जा सकती है। यहाँ आज़ादी-पूर्व भारत के ग्राम्य परिवारों और उनमें अंतर्निहित विशाल कौटंबिक—भावना को देखा-समझा जा सकता है। ऐसे ही प्रकृति चित्रण का कमाल कई जगहों पर हमें इस उपन्यास में सहज ही देखने को मिल जाता है। सावन का यह चित्रण देखिए :-

'सावन की जल-बिम्बियाँ यह आ और वह जा! फणकारे मारते पनीले मींह ऐसे घिर घिर आए ज्यों गाज़ी मरदों के लश्कर ! बादल गरजें-कड़कें कड़ाकों से मानो फ़ौजों की टुकड़ियाँ। बिजली लप्प लप्प चमकें ज्यों तलवारें ! चमा-चम्म ! झमा-झम्म! (पृष्ठ 106, ज़िंदगीनामा)।

और तेज होती बारिश में घर निकलने को आतुर आगे बच्चों से खचाखच भरे मदरसे की गतिविधियों का यह चित्रण भी कितना जीवंत है :-

'मदरसे में बैठे बच्चों ने हाथी जैसा मंडराता बादल जुम्मेवाले खू पर देखा तो दबादब बस्ते संभालने लगे।' (पृष्ठ 106, ज़िंदगीनामा)।

रेणु की तरह कृष्णा सोबती भी शब्दों के माध्यम से गत्यात्मकता को बख़ूबी हमारे समक्ष रख पाती हैं। बच्चों की भगदड़ पर मौलवी जी की धौंस : 'ओए रानी खाँ के ढेके' और फिर उनकी आवाज़ की उपमा किस तरह दी गई है, ' मौलवीजी की आवाज़ में ऐसा टंकार कि अभी दिन उघड़ा हो।' (पृष्ठ 107)।

अब देखिए कि किसी की आवाज़ से दिन भी निकल सकता है। यह चमत्कार कृष्णा सोबती की भाषा में ही संभव है। इसी तरह छोटे बच्चों की शैतानी और उनकी तुकबंदी की सरलता में भी उनका लेखक खूब रस लेता है। एक उदाहरण देखिए :-

'लायक से बढ़िया फ़ायक

अगड़म से बढ़िया बगड़म

हाजी से बड़ी हज्जन

मूत्र से बड़ा हग्गन।'

(पृष्ठ 107, ज़िंदगीनामा)।

बच्चों की शैतानियों और उनकी छेड़छाड़ को अभिव्यक्त करने में कृष्णा का मन थकता नहीं है। देखिए उन्हें किस तरह पाठ याद कराया जा रहा है : -

पक्षियों में सैयद : कबूतर

पेड़ों में सरदार : सीरस

पहला हल जोतना : न सोमवार ना शनिवार

गाय भैंस बेचनी : न शनीचर ना इतवार

दूध की पहली पाँच धारें : धरती को

नूरपुर शहान का मेला : बैसाख की तीसरी जुम्मेरात को

या फिर

शमाल में कोह हिमाला

जुनूब में तेरा लाला

मशरिक में मुल्क ब्रह्मा

मग़रिब में तेरी अम्मा :)

(पृष्ठ 107, ज़िंदगीनामा)।

मगर यह उपन्यास सिर्फ प्रकृति चित्रण या बालसुलभ चेष्टाओं के विवरण मात्र तक स्वयं को सीमित नहीं करता। यहाँ कत्ल होते हैं, घरों में डकैतियों को अंज़ाम दिया जाता है और थानेदार की उपस्थिति मात्र से घबराते और उससे बचते लोग भी नज़र आते हैं। ज़मींदारों द्वारा मज़दूरों और श्रमिकों के शोषण की कहानी है और स्वयं श्रमिकों के भीतर इस परिघटना को देखने के पीछे पीढ़ीगत विभिन्नता है। गाँवों में प्रचलित होशियारी और सयानेपन के क़िस्से हैं, स्त्रियों के वैधव्य का रुदन-राग है और इसके बावजूद अपने देह-राग से स्पंदित होता स्त्री-शरीर भी है। कहने की ज़रूरत नहीं कि सोबती का मन अपने स्त्री-पुरुष पात्रों के बीच के आकर्षण को रेखांकित करने और उन्हें उभारने में ख़ूब रमा है। ख़ासकर राबयाँ के सौंदर्य चित्रण में कृष्णा सोबती की कलम ने तो मानो कमाल ही कर दिया है। इस उपन्यास के अलग-अलग हिस्सों में क्रमवार उसकी सुंदरता को चित्रित किया गया है। कभी गाती हुई राबयाँ तो कभी मैले दुपट्टों वाले सूट में शर्माती राबयाँ। कभी किसी अवसर पर अपने संकोच से दुहरी होती राबयाँ तो कभी स्वयं अपने भीतर के संकोच को तोड़ती और बाहर निकल आती साहसी राबयाँ। शाहजी जब राबयाँ के गाने की प्रशंसा करते हैं तो राबयाँ खुश होती है और शर्माती भी है। छोटी छोटी प्रशंसाओं से आगे बढ़ते हुए ही शाहजी और राबयाँ का यह संबंध आगे बढ़ता है। स्त्री के मन में गहरे पैठ रखनेवाली कृष्णा इसे एक संशय के रूप में शाहनी के मन में काफ़ी पहले देख लेती हैं। मगर यह वह शुरूआती दौर है कि देखिए किस तरह उसे हवा हवाई कर दिया जाता है:- ‘पसार में जा लकड़ी की पेटी खोलिए तो लड़की के लिए शाह जी की तरीफ़ सुन अपने जियरे को घुड़क दिया - "मुड़ री, इस छोटी सी कंजक से द्वैत कैसा!"

(पृष्ठ 115,ज़िंदगीनामा)।

जो राबयाँ शाहनी के बच्चे की देखभाल करती है और जो बाद में शाहजी को मन ही मन चाहने लगती है और शाहजी भी जिसके आकर्षण से बचे नहीं रह पाते हैं, उसी राबयाँ को लेकर उपन्यास के उत्तरार्ध में शाहनी के भीतर की खलबलाहट को समझा जा सकता है। मसलन, उपन्यास का यह अंश देखा जा सकता है :--

“राबयाँ पैड़ियों से नीचे उतर गई तो शाहनी ने अपनी देवरानी से कहा, "जेठ तुम्हारा लड़की के सवैए-क़ाफ़िए ऐसे मग्न होकर सुनता है, ज्यों लड़की के मुँह से फूल झरते हों।"

इस पर देखिए देवरानी क्या कहती है, "जिठानी, यही हाल तुम्हारे देवर का। लड़की मरजानी में रोशनाई भी तो बहुत। जो पोथी उठाती है, पढ़ लेती है। लाली से ही सुन, ऐसी-ऐसी कहानियाँ सुनाता-कहता है! यही सिरमुन्नि सिखाती है उसे।" (पृष्ठ 321, ज़िंदगीनामा)।

उपन्यास के परवर्ती हिस्सों में हम देखते हैं कि राबयाँ को लेकर शाहनी और उसकी देवरानी दोनों में ईर्ष्या के पनपे बीज बेतरतीब झाड़ियों की शक्ल में आकार लेने लगने लगते हैं। यह भी कम रोचक नहीं कि लाली शाह (शाह-शाहनी के बेटे) के मदरसे जाने के प्रसंग को सोबती ने विस्तार से बताया है और वहाँ राबयाँ लाली शाह के साथ साए की तरह हर पल नज़र आती है। चाची महरी के अधूरेपन को कृष्णा ने बड़ी बारीकी से दिखाया है। वह सिर्फ शरीर से ही अधूरी नहीं है ( माँ नहीं बन सकती ) बल्कि उसके प्रेम भी अधूरे हैं। बावजूद इसके वह अपनी स्मृतियों को खूब-खूब जीना चाहती है। उसके मनोजगत का एक चित्रण :-

'चाची ने करवट ली- कर्त्ता तेरे रंग! कभी चित्त-चित्ते में भी था कि मुड़ इस बैठके सोऊंगी। कहाँ दार जी, कहाँ शाह जी! सपने की न्याई ओझल हो गए! चल री महरिए, जब तक श्वासस है, पिछलियां याद करती रह!'

छोटी छोटी बातों को सौंदर्य की वक्रता देनेवाली और गद्य में पद्य का मुहावरा रचनेवाली कृष्णा सोबती स्त्रियों और लड़कियों के बीच की जानेवाली छेड़छाड़ का कोई मौक़ा नहीं छोड़ती, फिर चाहे चुनरी रँगने का मौक़ा हो या कोई और दस्तूर।

'दुपहरीं ख़ुले कोठों पर मुटियारें रंगरेजनें बन गईं। कुंडों में रंग और घोल और नारंगी जाने लगी।

यहीं पर अलग अलग रंगों के मिश्रण से बननेवाले रंगों की जानकारी भी विस्तार से दी गई है। गाँवों में कई जगहों पर दुपट्टे रंगने के एक प्रचलित कार्य को उन्होंने अपनी भाषा से एक विशेष भंगिमा प्रदान कर दी है। नमाज़ के दौरान शाहदाद खाँ के क़त्ल का क्या ख़ूब चित्रण उपन्यास के इस अंश में देखने को मिलता है :-

ख़बरों में ख़बर शाहदाद के क़त्ल की। अचानक पिंडों में ऐसी तरथल्ली मची की रहे नाम रब्ब का!

काँगड़े के ज़लज़ले में भी ऐसे भूभ्भल-भू न मचे थे जैसे लप्प-लप्प मचे थे पोठी वाले शाहदाद खाँ के क़त्ल पर! अंधेर साईं का लोको, शाहदाद ख़ुफ़तार की नमाज़ को मसीत में सिजदे में बैठा ही था कि क़त्ल हो गया।शाहदाद भतीजे जफ़र के साथ पहली क़तार में खड़ा था। दस बारह नमाज़ी पिछली कतार में हे। आले में चिराग़ जल रहा था। सबसे आगे थे इमाम साहिब। सिज़दे में घुटने टेके ही थे कि शाहदाद की गर्दन पर पीछे से टोका पड़ा और वह चीख़ मार कर गिर पड़ा -"हाय, ओ मार दिया वैरियों ने..."

"पकड़ो... पकड़ो...दौड़ो..." मस्जिद में भगदड़ मच गई।

(पृष्ठ 97, ज़िंदगीनामा)।

आगे का विवरण भी देखिए, 'उधर वारदात की खबर थाने पहुँची इधर शाहदाद दुनिया से कूच कर गए। उधर पिछली क़तारवालों के जूते उठे, इधर इमाम साहिब ख़िलाफ़-बयानी के हिज्जे करने लगे!' (पृष्ठ 97, ज़िंदगीनामा)।

एक क़त्ल के कितने पक्ष हो सकते हैं, उन सबका यहाँ चित्रण किया गया है। उसका अलग-अलग लोगों पर कैसा प्रभाव पड़ता है, कृष्णा ने चंद शब्दों में ग्रामीण समाज के तत्काल घबराते मानस को भली-भाँति प्रस्तुत किया है। इस चित्रण को और अधिक प्रभावी बनाते लोगों में व्याप्त भय और संशय को, क़त्ल के पीछे रोटी सेंकते और अपने हिसाब से बयान देने के निहित स्वार्थ का कृष्णा संकेत देती चलती हैं। अपने इस उपन्यास में सोबती ने अपने बचपन में देखे पंजाब को पुनर्प्रस्तुत किया है। यहाँ आप उस पंजाब से रू-ब-रू हो सकते हैं, जो आज देखने को नहीं मिलता और जिसकी ख़ुशबू विभाजन के बाद कहीं खो सी गई है। कइयों को तब यह अहसास नहीं था कि आज़ादी हम इन क़ीमतों पर मिलेगी। कहा जा सकता है कि ‘ज़िंदगीनामा’, पंजाबी ग्राम्य संस्कृति का अकुंठित चित्रण है। यहाँ इतिहास है और संस्कृति भी, बीसवीं शताब्दी के शुरूआती समय की राजनीति है तो उस समय की सामूहिकता और पर्व-त्यौहार भी। लोहड़ी और बैशाखी हैं तो महिलाओं द्वारा चरखा चलाने और कपड़े रंगने के क़िस्सों का ज़िक्र भी। शाहजी का बैठक वह जगह है, जहाँ दुनिया भर से ख़बरें आती रहती हैं। उनपर ख़ूब बहस-मुबाहिसें होते हैं। कभी अंग्रेज़ों के बनाए क़ानूनों की चर्चा होती है तो कभी बंगाल में चल रहे स्वतंत्रता-आंदोलनों की तो कभी विश्वयुद्ध की। और जब कुछ न हो, तो पंजाबी गीत-संगीत का खज़ाना खुल जाता है। लाहौर, काबुल और बासरा की स्त्रियों से लेकर कृषिगत नीतियों की चर्चा सबकुछ समाहित है यहाँ। कह सकते हैं कि यहाँ प्रस्तुत पंजाब, सोबती के लिए सिर्फ एक नॉस्टलेजिया भर नहीं है, बल्कि जब एक लेखक के रूप में वे पीछे मुड़कर अपनी स्मृतियों की दुनिया में लौटती हैं तब वे आज के हिसाब से अपने विगत के पंजाब को भी देखती हैं। यद्यपि आज से कल की कोई तुलना नहीं की गई है, मगर आज उस दौर को जीते हुए सहज ही वहाँ अबतक हुए बदलावों को भी देखा समझा जा सकता है। लेखक स्वयं इस बहाने अपनी वैयक्तिकता के सूत्र भी तलाशता नज़र आता है। एहसास होता है कि इसे लिखते हुए कृष्णा सोबती भी अपने जीवन का आनंद लिए चलती हैं। निश्चय ही किसी एक जगह पर इतने सारे पात्रों का जमावड़ा किसी लेखक के लिए एक बड़ी चुनौती का सबब बन सकता है और उसका लिखा अपने निर्वहन में गड्ड मड्ड हो सकता है मगर यह सोबती की कलम का सोहबत है कि यहाँ ऐसा कुछ भी नहीं होता। सभी कहानियाँ आपस में कमोबेश गुँथी हुई है और उनके मूल में या कहें केंद्र में शाह और शाहनी हैं। मदरसे में एक साथ पढ़ने वाले संसारचंद और शाह जी की बातचीत बड़ी दिलचस्प है। कभी संसारचंद पढ़ने में शाह जी से पीछे रहते थे। आज वही संसारचंद थानेदार बन गए हैं और अंग्रेज़ी सरकार के साथ मिलकर स्वतंत्रता सेनानियों को पकड़ने में लगे हुए हैं। संसार चंद अपनी नमक का हक़ अदा कर रहे हैं तो शाह जी अपना देश प्रेम निभा रहे हैं। एक प्रसंग देखें :- "बात यह है कि सरकार सौ सैंकड़ा या हज़ार लाख बंदों से नहीं डरती। ख़तरा खाती है तो बगावत के बीज से।"

इसपर शाह जी हंसते हुए जवाब देते हैं, "बीज तो बादशाहो उगते उगते ही उगेगा!" (पृष्ठ 359, ज़िंदगीनामा)।

अपने मूल्यों और अपने वतन की आज़ादी से समझौता न करने वाले शाह जी बेशक नौकरी ना करते हों मगर अपने थाने थानेदार दोस्त से मदरसे की तरह आज भी बीस ही पड़ते हैं। स्त्रियों और लड़कियों की बातचीत में किसी भी तरह के विषय शामिल हो जाया करते हैं। ऐसी ही एक बातचीत में देखिए महावारी को लेकर शाहनी कैसे राबियाँ से बात करती है, " क्यों री कुड़, कितने दिनों में नहाती हो?"

राबयाँ हंसी-नित नहाती हूं शाहनी जी!"

शाहनी छन भर को रुकी, फिर कहा- "क्यों री जिंदगानी से होने लगी न!"

राबयाँ कुछ न बोली।

जैसे समझी न हो।

"पूछती हूं, रुत से होने लगी न!"

"जी,शाहनी!"

शाहनी ने लड़की को नई चितवन से देखा, फिर कहा- "दिनवार शरीर में माँदगी हो तो भले नागा कर लिया कर।"

बाद में जब बिंद्रादई आती है तो राबयाँ को घूरती हुई बोलती है, “खुम्बी बनी चटकती रहती है!"

जब राबयाँ रेशमा-चन्नी के साथ नीचे उतर गई तो बोली,"मुखड़ा देख जनानी की आंख नहीं झपकती, मरदों की कौन कहे! अलिया धियों की शादी-ब्याह कर सुरख़रू हो तो भला!" (पृष्ठ 197, ज़िंदगीनामा) ।

राबयाँ के सौंदर्य का ज़िक्र इस उपन्यास में बार बार आता है। और जब जब उसका जिक्र होता है, साए की तरह वहाँ शाह जी भी खड़े दिखते हैं और शाहनी के भीतर का संशय कुछ और बढ़ जाता है। एक जगह राबयाँ की सुंदरता कुछ इस तरह चित्रित हुई है :- "तारों की छांह मंजी पर बैठी राबयाँ आप ही चनाब की कोलक लहर बन आई। चाँद की चान्ननी में गूँथे सिर की मींडियाँ नुकीले नाक को अनूठी फबन दें। सिर पर की नटखटी दुपट्टी ऐसी अल्हड़ बन टूंगी रही जैसे मुँडेर पर कोई कुंज आ बैठी हो।" (पृष्ठ 335, ज़िंदगीनामा)।

कहने की ज़रूरत नहीं कि अपने इस उपन्यास में सोबती ने अपने बचपन में देखे पंजाब को पुनर्प्रस्तुत किया है। यहाँ आप उस पंजाब से रू-ब-रू हो सकते हैं, जो आज देखने को नहीं मिलता। जो बहुत पहले भारत-पाक के झगड़े में कहीं खो गया और जिसकी ख़ुशबू विभाजन के बाद कभी टीस तो कभी स्वप्न के रूप में रह रहक़र हमारे सामने आ जाती है। कइयों को तब यह अहसास नहीं था कि आज़ादी हमें इन क़ीमतों पर मिलेगी। मगर अघोषित रूप से विभाजन से पहले का काल-खंड रखकर कृष्णा ने मानो बँटवारे की परिघटना को कुछ देर के लिए नकारने का काम किया है और आज भी उस विशाल परिवेश को राजनीतिक और रणनीतिक सीमाओं से आगे जाकर उसकी भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषाई एकमेवता पर देखने की कोशिश की है। या फिर यह कि अपने लेखन से कृष्णा ने इतिहास और वास्तविकता से इतर या उससे आगे जाकर स्मृतियों और रागात्मकता को ही अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया है। अपने अस्तित्व पर इतराते और अपनी समस्याओं को सुलझाते और हार न मानते पंजाब के विभिन्न रंगों को यहाँ सहज ही देखा जा सकता है। इस मायने में ‘ज़िंदगीनामा’, पंजाबी ग्राम्य संस्कृति का अकुंठित चित्रण ठहरता है। यहाँ इतिहास है और संस्कृति भी, बीसवीं शताब्दी के शुरूआती समय की राजनीति है तो उस समय की सामूहिकता और पर्व-त्यौहार भी। लोहड़ी और बैशाखी हैं तो महिलाओं द्वारा चरखा चलाने और कपड़े रंगने के क़िस्सों का ज़िक्र भी। ज़रा इस पंक्ति पर ग़ौर करें, ‘...मौलादादजी हँसते हँसते आप ही दस-बीस साल छोटे हो गए-'खालसाजी, यह कोई बहादुरी तो न हुई। उस डोडी की भी क़ीमत तो पड़ती!’ (पृष्ठ 295, ज़िंदगीनामा)।

अब हँसने मात्र से किसी के चेहरे पर इतनी निर्दोषता और यौवन आ जाता है कि उसकी उम्र एक दो दशक छोटी हो जाती है। कृष्णा सोबती की दृष्टि कितनी बेधक और उनका निरीक्षण कितना सूक्ष्म है और उनके लेखक-ह्रदय में रागात्मकता कितनी भरी हुई है, इसे इस पंक्ति में देखी जा सकती है। चूँकि यह उपन्यास आज़ादी से पूर्व का है, अतः इसमें सहज ही स्वतंत्रता संघर्ष के कई किस्से पात्रों के मुख से कहलाए गए हैं। कई पात्रों में देश की आज़ादी को लेकर जोश और समर्पण देखे जा सकते हैं, जिन्हें गाँव की विभिन्न बैठकों में हुई रोचक और जीवंत चर्चाओं में देखा जा सकता है। कुल मिलाकर यह एक संपूर्ण उपन्यास कहा जा सकता है, जिसमें परिवार और परिवेश है एवं उस दौर की ज्वलंत समस्याएं हैं और इन सबके बीच खुशियों के लिए हर दम तैयार पंजाबियत है। समस्याएं वहाँ भी हैं मगर उनके बीच छोटी-छोटी बातों में खुश होने के उनके उपक्रम काबिल-ए-तारीफ़ हैं। आज़ादी हेतु किए जा रहे संघर्षों में एक साथ कई सारी चीजें चल रही थीं। कुछ लोग एक ही चीज़ के पक्ष में खड़े थे तो कुछ लोग उसके विरोध में । हम यहाँ भी यही स्थिति देखते हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं कि कृष्णा सोबती के लेखन में एक सहज प्रवाह है। उनकी भाषा बनावटी नहीं है मगर प्रभाव कारी है। बनावटी इसलिए नहीं है कि वह सायास और भाषाई गंभीरता लाने मात्र के उद्देश्य से कुछ नहीं लिखतीं। और प्रभावकारी यूँ है कि उनके कथ्य में इतनी विविधता और जीवंतता है और उनके पात्र इतने बातूनी और मानवीय संवेगों से ओत-प्रोत हैं कि उनकी बातों में अपने आप वक्रता और मुहावरेवाज़ी आती चली जाती है। पाठक इस तरह एक विशेष किस्म की ऊष्मा से इस तरह चालित होने लगते हैं कि वे उन परिघटनाओं को एकदम प्रत्यक्ष मान बैठते हैं। इस अर्थ में सोबती अपनी कलम से कैमरे का काम करती हैं, जहाँ पाठक शब्दों को पढ़ते कम, उन्हें देखते अधिक हैं। संवादों की तनातनी (तनाव) और दृश्य-निर्माण की यह प्रवीणता, उनके कथ्य को प्रवाह देती है। मसलन ताया तुफैल सिंह बुखार में पड़े-पड़े भी अपने बचपन के दोस्त ख्वाज़ा अहमद को याद कर हंस सकते हैं और जब बेबी उस से हँसने का वज़ह पूछती है तो तुफैल उससे मज़ाकिया अंदाज़ में ये पंक्तियां सुनाते हैं :-

"फज़ल अहमद की गोलियां

ज्यों लच्छमन के बाण

पहली गोली खाय के

निकल जाएंगे प्राण।"

यह वही ताया तूफैल सिंह हैं जो कलकत्ता से हो आए हैं और उन्हें सुनने के लिए 'लोगों की भूकहें सूख जाती हैं' मगर जब कई दिनों तक मजलिस में वे नहीं पहुंचते हैं तो एक दिन हवेली से बुलावा आता है और फिर वे बीमारी की हालत में भी वहाँ चले जाते हैं, इस पर प्रतिक्रिया आती है, ' शुक्र है , शुक्र है। लो जी ,आन पहुंचे हैं सरदार कलकत्त सिंह। चंगे नखरे सीख के आए हो शहरियों से।' (पृष्ठ 255, ज़िंदगीनामा)।

अंग्रेजों द्वारा जंग छेड़े जाने पर बात-बात में ही फतेह अली ने तहसीलदार से भरी मज़लिस में यह कहा, "बात यह है बादशाहो कि हकूमत को बीच-बीच में यह ठेसरे-मेसरे करने पड़ते हैं। आख़िर तोपखाने हकूमत ने मक्खियां मारने के लिए तो नहीं रखे हुए! किसी से आपने छेड़छाड़ की, किसी ने आपसे करवाई। अपना वज़न भारी देखा तो भवकी दे दी। दाँव लग गया तो गिच्ची पकड़ ली।" (पृष्ठ 315, ज़िंदगीनामा)।

इस पर शाहजी ने फतेहअली की हाँ में हाँ मिलाते हुए देखिए जी कहा, " बराबर चौधरी साहिब, हकूमत के ही दो ज़रूरी काम हुए-जहाँगीरी और जहाँदारी।" (पृष्ठ 315, ज़िंदगीनामा)।

गाँव में शहर वालों के प्रति कैसी भावना होती है, उनमें शहर को लेकर कैसी उत्सुकता होती है और उनके प्रभाव में अपने साथियों के बदल जाने का उनमें कैसा अंदेशा होता है, उसे इन पंक्तियों में हम देख समझ सकते हैं। इसी प्रकार इस उपन्यास में नट परिवारों की आवारगी और उनके पुरुषार्थ को भी देखा जा सकता है। वे कैसे अपने घुमक्कड़ी जीवन को यहाँ वहाँ भटकते हुए जीते हैं! गदहों पर रखे उनके सामान भी सोबती की नजरों से छुपते नहीं। जब उपयुक्त जगह पाकर गदहों पर पड़े सामान नीचे उतारे जाते हैं, तब देखिए गदहों को लेकर सोबती क्या लिखती हैं, "दोनों गधे सुर्खरू हो पहले ढीले पड़े, फिर पीठ हल्की हुई जान हिनकने लगे।" (पृष्ठ 235, ज़िंदगीनामा)।

यह ‘हिनकना’ सिर्फ गदहों का नहीं है, यह उन नट परिवारों का हिनकना भी है जो अपनी आवारगी में भी खुश रहना जानते हैं। उनके बड़े-बुजुर्ग, उनकी स्त्रियाँ, उनके बच्चे आपस में क्या हँसी मज़ाक करते हैं, कैसे बांसों और लुगड़ियों के सहारे अपनी दुनिया बसा लेते हैं, सोबती यह सब चित्रित करती हैं।

यहाँ जीवन के सभी रंग सहज ही देखने को मिलते हैं राह चलते घर-गृहस्थी के काम करने हैं,स्त्रियों की आपसी चुहल बाजी हो या फिर किसी जवान लड़की की सुंदरता को बरबस निहारना कुछ भी कृष्णा सोबती की कलम से कुछ भी छूटता नहीं है। एक जगह का यह प्रसंग देखें, "साहनी ने साग-सब्जी झोली में डलवा टुक अलिए की धी फ़तेह को देखा। चिट्टा दूध कश्मीरी रंग। पीडा गदराया बदन। ओढ़नी तले जवानी का थर बँधा हुआ। देख कर जी की भूख उतरे।" (पृष्ठ 27, ‘ज़िंदगीनामा’)।

पात्रों के बीच आपसी संवादों में कृष्णा इस तथ्य को भी रखवाती हैं कि फ़ौज में भर्ती होने वालों में संख्या के हिसाब से सबसे अव्वल रहने वाला प्रांत पंजाब है और उस पंजाब के ये चार जिले सबसे अधिक अपने सिपाही भेजते हैं: शाहपुर, गुजरात, जेहलम और रावलपिंडी। ‘ज़िंदगीनामा’ पढ़ते हुए बार-बार यह एहसास तीव्रतर होता चला जाता है कि उपन्यासकार की भाषा निश्चय ही एक खिलंदड़ी भाषा है। भाषा को अपने कथ्य के हिसाब से एक कुशल मदारी की तरह सोबती नचा लेती हैं। उन्हें पढ़ते हुए लगता है कि एक लेखक किसी मदारी से कम नहीं। भाई बहन की तकरार से शुरू होता यह उपन्यास क्रमशः पूरे पंजाब को हमारे सामने ला छोड़ता है। प्रकृति चित्रण ऐसा कि मानो सारे दृश्य आपके सामने प्रकट हो गए हो । वह दृश्यों को छेड़ छाड़ को रोशनी को उजाले को चांदनी को मानों सब कुछ ही अपनी भाषा में बांध लेना चाहती है। ‘ज़िंदगीनामा’ की भाषा पूरे परिवेश की सुंदरता और रागात्मकता, नृत्य और गीत गायन को समाहित कर लेने की भाषा है। यहाँ लड़कियों के शर्माने का भी वर्णन क्या खूब अंदाज़ से किया गया है! मसलन...निक्की बेबे के कहने पर लड़कियों का शर्माना कैसा होता है, “सिर पर किड़े और मीडियों के जाल बिछाए कंवारियां शरमा शरमा हंसने लगीं।" (पृष्ठ19।, ज़िंदगीनामा)।

ऐसे चित्रण में कृष्णा सोबती के उपन्यास मित्रों मरजानी की याद आ ही जाती है। कृष्णा स्त्रियों की कामुकता और उसकी यौनिकता को स्त्री की ही निगाह से देखती हैं और उन्मुक्त भाव से उसका चित्रण करती हैं। वहाँ बोल्डनेस भी है और मादकता भी मगर सब कुछ रागात्मकता की चादर तले। भाषा का जादू रचने में और उससे एक जीवंत फिजां रचने में उनकी कुशलता का कोई शानी नहीं है। मसलन शाहनी जैसी एक प्रौढ़ा और धन-मान-प्रेम से युक्त एक प्रौढ़ा की चाल का यह विवरण देखें..”तावली तावली लोहारों की गली से हवेली जा निकली।” (पृष्ठ 27, ज़िंदगीनामा)।

जब कम्मो बाबो से शाहनी के बहाने कुछ सुनाने को बोलती है तब बाकी लड़कियां भी उसकी हाँ में हाँ मिलाती हैं और 'हीर' सुनाने की ज़िद करती हैं। इस समवेत आवाज़ को कृष्णा की लेखिका 'गुच्छा भर आवाजों' को चहक़ने जैसा दर्ज़ करती हैं। (पृष्ठ 33, ज़िंदगीनामा)।

यहाँ हँसी है तो मिस्री जैसी और अगर धीरे धीरे किसी चाल को रूपायित करना हो तो उसके लिए 'तावली तावली' कहा गया है। सब्जी बेचने वाली फतेह को देखिए...अपनी सब्जियों की बिक्री के लिए किस तरह आवाज लगा रही, “ले लो री नरम मुलायम टिंडे, कनके की सोहली मूलियाँ!" (पृष्ठ 27)
मतलब यह कि घर से लेकर रास्ते तक, श्रमिकों के श्रम के शोषण से लेकर घरों में होनेवाली डकैती तक, मियाँ-बीवी की आपसी कलह से लेकर और उनके बीच अंतरंग क्षणों के चित्रण तक, विवाहेतर संबंधों और उनके आकर्षण तक, भारत और भारत-पार की युगीन समस्याओं तक...हर जगह अवलोकन की सजीवता और चित्रण की जीवंतता देखने को मिलेगी। कृष्णा सोबती उस पीढ़ी की लेखिका हैं, जिनके यहाँ बदलते भारत की कई तस्वीरें सहज ही मौजूद हैं। उन्होंने ने अपनी स्मृतियों को शब्दों में ढालने की एक महत्वपूर्ण कोशिश की है। उनका लेखन स्त्री मात्र का लेखन नहीं है। उनके लिखने का उद्देश्य सिर्फ़ स्त्री समस्याओं को उठाना भर नहीं है, बल्कि इसके आगे उनके यहाँ समाज की समग्रता को और विभिन्न कालों में उपस्थित समस्याओं को चिन्हित करने का स्पष्ट प्रयत्न दिखता है। पूरे उपन्यास में पंजाबी कहावतों और बुल्लेशाह, शाह लतीफ़ जैसे लोक-सर्जकों के शब्दों का सान्दर्भिक प्रयोग वातावरण को गझिन बनाने में सहायक है। जहाँ कहीं इनकी पंक्तियों में अर्थ-व्याख्या की ज़रूरत लेखिका को महसूस होती है, वहाँ वे किसी श्रोता पात्र से कुछ कहलवा देती हैं और वक्ता पात्र उसकी व्याख्या कर देता है। फिर समझ आने पर श्रोता मंडली में से कोई उसके पीछे के प्रसंग को भी अपने तईं समझने और उसे सबके बीच रखने की कोशिश करता है। निश्चय ही जिसे जॉन ड्रायडन ‘गौड्स प्लेंटी’ (God’s plenty) कहता है और जिसका मुख्य आशय दुहरावविहीन प्रकृति की विविधता से है, वह दक्षता और विविधता हमें कृष्णा जी के लेखन में स्पष्ट तौर से देखने को मिलती है। वे हर बार नई तैयारी और साँचे के साथ हमारे समक्ष आती हैं। उनकी भाषा और उनकी कहन का अंदाज़ हर बार हमें चौंकाता है। चाहे कहानियाँ हों, उपन्यास या संस्मरण, वे अपने लेखन में यथासंभव दुहराव से बचती नज़र आती हैं मानो अपने पहले बनाए गए साँचे को तोड़ नया और उससे बेहतर साँचा तोड़ती हों। प्रस्तुत उपन्यास में भी एकदम नए बनाए गए साँचे की भाषिक-निर्मिति, उनके लेखकीय व्यक्तित्व को अपने तईं पुष्ट ही करती है। पंजाब के विभिन्न त्योहारों का भी खूब जिक्र किया गया है। मसलन, बैसाखी पर वर्णित यह चित्रण देखिए...'दिलों में जीने की रीझें जगा वैसाखी के ढोल ऐसे गूँजने लगे ज्यों हाथ-पैरों में ताज़े खून लहराने लगे हो! पीपल, बोढ़, कीकर, फलाह और नीम के सजरे सोहले पात धूप में यूँ चमकें-दमकें ज्यों दूध- पीते बच्चों के मुखड़े कहानियों पर जा लगे हों! अलग-अलग कसारोंवाली पकी फसलें बहुरंगी झलक मारें ऐसी कि हल्के- गूढ़े रंग की ओढ़नियां धूप में सूखने फैली हों।" (पृष्ठ 84, ज़िंदगीनामा)।

अब इस चित्रण को अगर अद्भुत चित्रण न कहा जाए तो किसे कहा जाए! इसके आगे का अंश भी कितना जीवंत है," घोनी का लाल कसार। डागर का कलिक्खन लिए हरा। बिना कसार की मोनी। किसी पर रुत की पीलाई। किसी पर पकने की ललाई। माढ़ीवाली खेतियों में बाढी करने वाले जट्ट जने चलते- फिरते पेड़ों से दीखते। कट-कट दूधिया कनकों के ढेर लगने लगे।" (पृष्ठ 84, ज़िंदगीनामा)। ऐसा लगता है, मानो हम लंबी गद्य कविता से गुजर रहे हों। खेतों में कार्यरत कर्मदीन जैसे मेहनतकश की बात कितनी मायने रखती है, "बीबी रानी, जट्ट-जटुंगरों को ज़रदे-पुलाव नहीं चाहिए। उन्हें तो चाहिए मोटी तगड़ी रोटियाँ और गला हरा करने को घी-शक्कर!" (पृष्ठ 85, ज़िंदगीनामा)। भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए ‘पंजाबी’ भाषा के कई प्रयुक्त शब्द अद्भुत हैं। यह किसी लोक-भाषा का अपना प्रभावकारी सौंदर्य है, जिसका जादू पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है। मसलन, शाहनी के मौसेरी भाइयों के बनाव-ठनाव को देखकर लोगों के भीतर हो रही प्रतिक्रियाओं का यह चित्रण देखिए :- "शाहनी की भिंभरवाली मौसी से पुत्र मिट्ठचंद और रूपचंद अपनी बहनू शाहनी को मिलने आन पहुंचे तो भाइयों का रियासती बाना देख लोग अश-अश कर उठे। जम्मू फ़ौज के बांके ऐसे बन-ठन फबें मानो महलों के राजकुमार हों। रियासत की जागीरदारी टुकड़ी के लश-लश करते सवार घोड़ो पर से उतरें तो गाँव में घूमें मच गईं। मुंह-माथा गोभी के फुल्ल सा गुटा हुआ। सिर पर डोगरी पागें और बांकी चालें। यूँ जापें ज्यों यूसुफ़ों की जोड़ी हो!" (पृष्ठ 269, ज़िंदगीनामा)।

इसी तरह अलिये की बेटी बड़ी बेटी फ़तेह का शेरा के साथ भागने के प्रसंग और उसके समवेत प्रभाव को बड़े ही सशक्त रूप में चित्रित किया गया है। इसी अलिये की छोटी बेटी राबयाँ का शाह जी के साथ प्रेमाकर्षण का चित्रण, इस उपन्यास का कलात्मक उत्कर्ष है। गुलजारी के उसके ही भाई बाली द्वारा टोहके से की गई हत्या के प्रयास और गुलजारी को बचाने के ग्रामीणों के सामूहिक प्रयत्न एवं ऐसे ही दूसरे कई प्रसंगों में कृष्णा का सजग और अचूक निरीक्षणकर्ता लेखक मानो दृश्य-दर-दृश्य सबकुछ अपने पाठकों को बताता चलता है। वह जितना वातावरण-निर्माण को लेकर सजग है,उतना ही अपने पात्रों के भीतर मचते हाहाकार को समझने और उनके भीतर के बदलते मनोभावों को पकड़ने में भी कोई कोर-कसर छोड़ना नहीं चाहता है। शाहजी और राबयाँ के बीच के आकर्षण को अंत तक लाकर उसे अनुत्तरित छोड़ दिया गया है मानो लेखिका कहना चाह रही हों कि कुछ रिश्तों का हश्र विशाल समुद्र में अकेले तिरते किसी नौका सरीखा होता है, जिसके डूबने या किनारे लगने की बात करना ही बेमानी है। वो बस लहरों के थपेड़े खाकर ऊभ-चुभ करते हैं। यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि उपन्यास में जिन जिन जगहों पर शाहजी और राबयाँ के मनोभावों को पकड़ने की कोशिश की गई है,वे बहुत ही मजबूती से और उतने ही संवेदनशीलता से चित्रित हुए हैं। सोबती के दूसरे महिला किरदारों की तरह राबयाँ ताकतवर है और वह स्वयं आगे बढ़ कर अपनी मोहब्बत को लोगों के सामने रखती है।

यद्यपि इस उपन्यास में किसी तिथि या किसी वर्ष का प्रत्यक्ष ज़िक्र नहीं है, फिर भी जिस तरह की घटनाओं का यहाँ वर्णन है, जिन युद्धों की यहाँ बात की गई है, स्वतंत्रता संग्राम की जिन मुख्य घटनाओं का ज़िक्र किया गया है, उससे स्पष्ट होता है कि यह उपन्यास ब्रिटिशकालीन पंजाब या कहें अविभाजित पंजाब के गुजरात में स्थित एक गाँव ‘शाहपुरा’ की कहानी कहता है और इस बहाने पूरे परिवेश को उसकी पूरी जीवंतता और पारदर्शिता के साथ उठाता है। स्पष्टतः आजादी के संघर्षों का विवरण देना इस उपन्यास का लक्ष्य नहीं है और न ही उसे केंद्र में रखकर इसे लिखा गया है। मगर, जैसाकि जाना जाता है, एक बड़ी कृति में उसके समय की अनुगूंज जरूर विद्यमान रहती है, 'जिंदगीनामा' में भी वहाँ हमें यह अनुगूँज सुनाई पड़ती है। यह उपन्यास गुरु गोबिंद सिंहजी की जिन पंक्तियों से शुरू होता है, गुरु गोबिंद सिंह की उन्हीं पंक्तियों के साथ समाप्त भी होता है। वे पंक्तियाँ हैं :-

‘चूँ कार अज़ हमाँ हीलते दरगुज़श्त

हलालस्त बुर्दन ब-शमशीर दश्त’

(जब दूसरे सब रास्ते कारगर न हो सकें तो जुल्म के ख़िलाफ़ तलवार उठा लेना जायज़ है।)

हम देखते हैं कि इस उपन्यास में स्वतंत्रता संग्राम की एक अंतःधारा शुरू से लेकर अंत तक विद्यमान रही है और यह उपन्यास अपने समय से संवाद करता हुआ उस राजनीतिक जनतांत्रिक चेतना को अपना समर्थन प्रदान करता है और आज़ादी की भविष्यवाणी के विश्वास के साथ समाप्त होता है। उपन्यास के अंत में गंडा सिंह शाहजी से संवाद करते हुए अपनी बातें रखते हैं, " ...होगा अब यह कि ग़दरी और इन्कलाबियों ने मिलकर सरकार का झाड़ा-मूत्र बंद कर देने हैं। भावें टोंबू लिखवा लो शाहजी, हकूमत का पट्टा देसी रियाया के हाथों में पहुँचकर रहेगा। एक बार तख़्त-ताज से हौली हुई सरकार, फिर खलकत अपनी नहीं रुकती। नारा एक ही बुलंद हो के रहेगा- आवाज़े-ख़लक को आवाज़े-खुदा समझो।" (पृष्ठ 392, ज़िंदगीनामा)।

समय का पहिया यहाँ निरंतर अग्रसर है और युगीन बड़ी घटनाओं का जिक्र उस पहिए पर सवार अग्रसर होता रहता है। इस उपन्यास को 'डॉक्यूमेंट्री नॉवल' की श्रेणी में रखा जा सकता है, क्योंकि इसमें समय का जीवंत दस्तावेजीकरण किया जाना संभव हो सका है। इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ कहानी और घटनाक्रम को वर्णन से अधिक संवादों में प्रकट और विकसित किया गया है। इसकी घटनाएं कुछ टूटी-फूटी और बिखरी-बिखरी इसलिए लगती हैं कि यहाँ लेखिका ने वर्णन शैली से अधिक संवाद शैली का इस्तेमाल किया है। ‘ज़िंदगीनामा’ हिंदी के उन कुछेक उपन्यासों में से एक माना जाएगा, जिसमें लेखक की ओर से वर्णन अपेक्षाकृत कम से कम है। हिंदी में प्रेमचंद को विभिन्न ग्राम्य प्रसंगों और समस्याओं का चितेरा लेखक माना जाता है। मगर संवादों की सघनता और दृश्य प्रस्तुति के सूक्ष्म विवरणों को देखा जाए तो इतनी जीवंतता और दृश्य दृश्य विविधता उनके यहाँ भी नहीं है। शाहनी के जिन मौसेरे भाइयों के आने का यहाँ जिक्र किया गया है, उससे आगे उनके खाना खाने तक, गाँव की लड़कियों और स्त्रियों द्वारा उन्हें निहारने और बाद में पुरुषों की बैठक में उनकी उपस्थिति तक और इसी बहाने गुजरात और जम्मू के विभिन्न ऐतिहासिक प्रसंगों की चर्चा तक कृष्णा सोबती लिखती चली जाती हैं। लिखती चली जाती हैं। दृश्य इतने जीवंत है और संवाद परस्पर ऐसे आबद्ध हैं कि लगता है पाठक कोई उपन्यास नहीं पढ़ रहा, बल्कि कोई फिल्म देख रहा हो। जब कभी इस उपन्यास पर जब कभी फिल्म बनेगी तो निश्चय ही पटकथाकार और संवाद लेखक को बहुत कम मेहनत करनी पड़ेगी। राजेंद्र यादव ने अपनी पुस्तक 'आदमी की निगाह में औरत' में कृष्णा सोबती पर लिखे अध्याय 'व्यक्तित्व की खोज : कृष्णा सोबती' में लिखा है, "गालियां और चुनौती....यानी हिंदी की सबसे भीषण कहानी 'यारों के यार'। इस कहानी को सिर्फ इसलिए इतनी चर्चा हुई कि पुरुष जिन मर्दानी गालियों को लिखित रूप में जबान पर लाने की हिम्मत नहीं कर पाते, डॉट और डैश लगाकर जिनका संकेत भर कर देते हैं, उन्हें कृष्णाजी ने धड़ल्ले और बेबाकी के साथ लिखा है।"

ज़िंदगीनामा’ के भी कई पात्र आपस में गाली-गलौज करते हैं, एक-दूसरे से चिढ़ते हैं, अन्याय का प्रतिकार करते हैं और इन सबके बीच अपनी ज़िंदगी को भरपूर जीने की तमन्ना रखते हैं और उस क्रम में अपनी जीवटता का परिचय देते हैं। सच में, ज़िंदगीनामा, ज़िंदगीमात्र की कहानी है, जीवनोत्सव का पुनर्प्रस्तुतिकरण, है, अपनी सीमाओं और रूढ़ियों के बीच सामूहिकता का उत्सव है, लोकगीतों के भंडार की जन-जन तक पहुँच का आख्यान है और बदलते मौसमों और बदलती स्थितियों के बीच पनपते-विकसित होते पात्र-बहुल की भौतिक और यथार्थजन्य उपस्थिति है और है ढेर सारी रवायतों और बंदिशों के बीच उन्मुक्त बहती नदियों की ऊष्मा और रफ़्तार। यहाँ गृहस्थी है, विवाहेतर संबंधों का आकर्षण है, लोक लाज और परंपराएँ हैं और उनके बीच और उनसे निकलने की कोशिश करती ढेर सारी ज़िंदगियाँ हैं। हर ज़िंदगी के अपने-अपने क़िस्से हैं। क़िस्सों भीतर क़िस्से हैं। इस उपन्यास की खासियत यह है कि इसमें कई सारे पात्र हैं जो अपनी परंपराओं से आबद्ध हैं और फिर भी अपनी नवीनता और मौलिकता को लेकर सजग और प्रयत्नशील हैं। शाहजी जो अपने गाँव में लोगों को सूद पर पैसे देते हैं और जिनके यहाँ श्रमिकों और सेविकाओं का भरपूर आना-जाना है, कहीं ना कहीं पितृसत्तात्मक समाज की धूरी के रूप में चित्रित किए गए हैं। मगर यही शाहजी लोगों की विपत्तियों में काम आते हैं। बीमारी से लेकर क़त्ल के मामले तक, किसी की आबरू बचाने से लेकर आपसी झगड़ों में सुलह करवाने तक वे अपने लोगों के साथ हरदम खड़े नज़र आते हैं। इन्हीं शाहजी की बैठकी में दुनिया-जहान की कहानियाँ सुनाई जाती हैं, ग़दर में जुटॆ लोगों की प्रशंसा में कसीदे गढ़े जाते हैं। उनका मुख्य कार्य गाँव और समाज की सामाजिक एवं आर्थिक व्यवस्था क्रम को बनाए रखना है। उनके भीतर के अंतर्द्वंद को कृष्णा ने बखूबी चित्रित करने की कोशिश की है। कई बार यह व्यवस्था स्वयं शाहजी को भी अपने मन का करने से रोकती है या फिर यह कहें कि उन्हें विचलित होने से बचाती है। कई बार वे स्वयं अपने ही बनाए नियमों और आदर्शों के गुलाम बनते दिखते हैं और उनके भीतर का पुरुष उनसे विद्रोह करना चाहता है। अपनी उम्र से आधे वय की एक लड़की की ओर उनके आकर्षण को और शाहनी के भीतर पैदा होती स्त्रियोचित संशय को कृष्णा के लेखक ने बख़ूबी उभारा है। वह लड़की सामाजिक हैसियत के हिसाब से उनकी जाति की तुलना में निम्नतर जाति से ताल्लुक रखती है और उसे उनके घर में उनके बच्चे की सेवा टहल के लिए बुलाया गया है। चाची मेहरी अमीर सरदारों की बेटी है और अपने पति की मृत्यु के बाद अपने सुविधा संपन्न ससुराल से विलग शाह जी के परिवार में रह रही है। उसे शाह गणपत से प्यार हो जाता है और वह उसकर साथ भाग जाती है, मगर बच्चे उत्पन्न न कर सकने के कारण उसका परिवार बस नहीं पाता है। इसी चाची मेहरी का झुकाव उसके देवर साहिब सिंह के प्रति भी हमें देखने को मिलता है। ऐसी ही कुछ और जोड़ियाँ हमें देखने को मिलती हैं।

अविभाजित पंजाब के गुजरात में स्थित जिस गाँव के माध्यम से यहाँ पंजाबियत और पंजाबी संस्कृति को अविकल रूप से प्रस्तुत किया गया है, दरअसल अपने बचपन और अपनी किशोरावस्था में देखे गए माहौल को ही काल्पनिक रंग देते प्रस्तुत करने की अपनी कोशिश में सोबती ने उन तथ्यों के साथ कल्पना की एक अद्भुत उड़ान भरी है, जिसमें जीवनाननुभव के साथ जीवन पार के दर्शनों का सही रूप में समामेलन संभव हो सका है। कुल मिलाकर यह कि ये सभी चरित्र ऐसे हैं, जो हमारे आसपास के और सच्चे जान पड़ते हैं। वे अपने गुणों और अपनी कमजोरियों के बीच अपना जीवन जी रहे हैं। इन्हीं सामान्य से दिखते चरित्रों के अस्तित्व को आधुनिकता और परंपरा दोनों ही दृष्टियों के बीच रचा और विकसित किया गया है। किसी आधुनिकता और स्त्री-पुरुष विमर्श के घालमेल से परे ये बस अपनी ज़िंदादिली को जीते हैं और इनके जीने के ढब में ही इनका दर्शन छुपा हुआ है। ज़ाहिर है, सोबती कभी भी किसी वाद को अपने पात्रों पर आरोपित करती हुई कुछ नहीं लिखती हैं। उनके सृजित चरित्र इतने पावरफुल होते हैं कि उनकी अनूठी जीवन-शैली और उनकी बेलौस सोच उन्हें ‘बोल्ड’ बना जाते हैं। उल्लेखनीय है कि यह ‘बोल्डनेस’, पश्चिम से आयातित ‘बोल्डनेस’ नहीं है, बल्कि यह हमारी ही जातीय और सामूहिक अवधारणा से निकला हुआ साहस और आत्मविश्वास है। वे स्वयं मानती हैं, “किसी भी रचना की प्रामाणिकता केवल लेखक की जीवन-दृष्टि से ही जुड़ी-बँधी नहीं होती। उसकी रचनात्मक उड़ान का सामर्थ्य पात्रों की माँस-मज्जा, मिज़ाज़ स्वभाव और हड्डी की मजबूती में भी छिपा रहता है।” यह बात उनके उपन्यासों और उनकी कहानियों के पात्रों पर पर समान रूप से लागू हैं। इतने सारे पात्रों को लेकर बगैर किसी स्पष्ट कथा के ‘ज़िंदगीनामा’ जैसे एक सुदीर्घ उपन्यास की रचना, उनके लेखक की एक लंबी छलाग भी कही जा सकती है। ऐसा जीवन-मात्र के प्रति उनकी गहरी आस्था और तदनुरूप काव्यात्मकता और रागात्मकता के निर्वहन के कारण ही संभव हो सका है। ‘‘आदमी की निगाह में औरत’ पुस्तक में राजेंद्र यादव लिखते हैं, “कृष्णा सोबती की सारी कथा-यात्रा से गुजरते हुए मुझे कभी-कभी ऐसा लगता है जैसे अलग-अलग समय में उन्होंने अलग-अलग रचनाएँ नहीं कीं, एक ही रचना के विभिन्न अध्याय लिखे हैं, जगहें, काल और परिवेश।”

यद्यपि इस लेख में ‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है मगर इसके बावजूद कृष्णा सोबती के लेखन को लेकर और उनके इस उपन्यास का संदर्भ लेते हुए भी राजेंद्र यादव से सहमत हुआ जा सकता है। राजेंद्र यादव द्वारा दिए गए उदाहरण से इतर या उससे आगे मैं कोई और उदाहरण देना चाहूँगा। ज़ाहिर है, ‘ज़िंदगीनामा’ के किसी पात्र को लेकर ही। क्या हमें ऐसा नहीं लगता कि इस उपन्यास की शाहनी ‘सिक्का बदल गया’ की शाहनी से मेल खाती है! अंतर बस कालावधि और कथा-प्रसंग का है। उपन्यास में आज़ादी से पहले की शाहनी है, जिसके साथ वैभव, परिवार और संतान (बेशक कुछ देर से सही) के सभी सुख हासिल हैं और कहानी की शाहनी को बँटवारे के बाद वह सबकुछ छोड़कर पाकिस्तान से भारत आना पड़ता है। शाहनी के जीवन के दोनों रंगों में से एक पूर्ववर्ती रंग या सुख-संपदा से लकदक करती शाहनी का चित्रण, कहानी और उपन्यास में करीब एक जैसा है। ऐसा मानने में कोई हर्ज़ नहीं होना चाहिए कि यह उपन्यास सामूहिक स्मृतियों की एक महागाथा है, जिसमें श्रव्य और दृश्य का भेद मिट गया है। यह उपन्यास जितना पढ़ा जा सकता है, उतना देखा भी जा सकता है। पंजाब के रग-रग में बसे मौखिक आख्यानों का इस्तेमाल लेखिका ने अपने तईं बेहतर रूप से किया है और उनके पात्रों का व्यक्तित्व किसी नैतिक आग्रहों/पूर्वाग्रहों से परे अकुंठ्य भाव में प्रकट हुआ है। अगर एक बड़े स्वप्न के साथ कुछ बेहतर रचने की कोशिश की जाती है तो उसमें भाषा के साथ ऐसे प्रयोग अवश्यंभावी है। लांजाइनस का ‘औदार्य भाव’ जहाँ इसके रचाव के मूल में है तो भाषा का वैभवपूर्ण उठान इसे महाकाव्यात्मक ऊँचाई प्रदान करता है। इसे पढ़ते हुए पाठकों में ‘साधारणीकरण’ का भाव कुछ ऐसा जगता है कि पंजाब जैसे विशेष प्रांत की यह कहानी पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की कहानी बन जाती है।

आधुनिक उपन्यासों को मुख्यतः दो धाराओं में बाँटा जाता है, पहला वर्णनप्रधान उपन्यास और दूसरा सूक्ष्म अनुभवपरक उपन्यास। मेरी राय में सोबती के दूसरे उपन्यासों सहित ‘ज़िंदगीनामा’ उपन्यास इन दोनों धाराओं के कहीं बीच अपनी जगह बनाता है। सर्जनात्मक भाषा का उन्मेष शुरू से उनके लेखन में रहा है। हाँ, बौद्धिक मात्र होने से उनके पात्र बचते रहे हैं और किसी वाद या समीकरणबद्ध लेखन का मुरीद उनका लेखक नहीं है। उनके लेखन में अगर कुछ है तो वह है गहरी अनुरक्तिभाव से भरे एक लेखक का समाजोन्मुख दृष्टिकोण। अगर उनके लिखने के उद्देश्य का कोई ‘सिग्नेचर ट्यून’ निकल सकता है तो वह उनका लेखकीय सरोकार है जो बतलाता है कि परंपरा और इतिहास के गड्डमड संकुल में व्यक्ति कैसे अपना जीवन गरिमामय ढंग से और पूरी संतुष्टि के साथ जी सकता है। उस दिशा में किया जानेवाला उसका संघर्ष सोबती के लेखक के लिए निश्चय ही असंदिग्ध महत्व रखता है। व्यक्तित्व की विशिष्टता का चित्रण उनका मुख्य लेखकीय कर्म है और अपने पात्रों के मनो-शारीरिक स्वतंत्रता की वकालत उनका ध्येय। घर और समाज के भीतर की शख्सियतों की बहुलता के प्रति उनका सम्मान है और कदाचित उसे लेकर सजग और उन्मुक्त और बीहड़ आकर्षण ‘ज़िंदगीनामा’ जैसे बहुलपात्रों वाले उपन्यास की रचना का उद्देश्य भी है। आज की यांत्रिक और महानगरीय संस्कृति के चौखटों में बंद और वातानुकूलित कमरों में लिखनेवाले लेखकों के लिए यह एक अप्रत्यक्ष चुनौती या संदेश भी है कि कैसे एक बेहतर रचना, लोक और लोक-राग के बीच और उनपर केंद्रित करके लिखी जा सकती है। और यह भी कि लिखना हरदम प्रतिक्रियाशील होना नहीं है। लिखना सहज रूप से एक आवश्यक और आह्लादकारी कार्य भी हो सकता है।

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‘नदी के पार नदी’ और ‘मैं सड़क हूँ’ काव्य संग्रह प्रकाशित और चर्चित। तीसरा काव्य-संग्रह ‘पोले झुनझुने’ नौटनल पर ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध और पहला उपन्यास ‘पच्चीस वर्ग गज़’ शीघ्र प्रकाश्य। आकाशवाणी दिल्ली और जयपुर से कविताओं-कहानियों का प्रसारण। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षाएँ, गज़लें, आलेख आदि प्रकाशित। दूरदर्शन के जयपुर केंद्र से कविताओं का प्रसारण। हिंदी अकादमी, दिल्ली से पुरस्कृत। कई पुस्तकों के आवरण पर इनके खींचे छायाचित्रों का प्रयोग।

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