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नागपुर से हैदराबाद

नागपुर से हैदराबाद

अर्पण कुमार

तेलंगाना एक्सप्रेस लेट हो गई है। पौने दस बजे की जगह अब पौने बारह में चलेगी। मैं वेटिंग रूम में बैठा हुआ था। तभी एक परिचित चेहरे पर मेरी नज़र गई। ये त्रिलोकी साहू थे। मैंने धीरे से उनके कंधे पर हाथ रखा। वे पीछे पलटे और सहसा मुझे अपने सामने पा कुछ भाव-विह्वल हो आए। कुछ बोलते, इससे पहले मैंने ही उनसे पूछ लिया, "अरे त्रिलोकी साहब, इधर कहाँ?"

उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ, "क्या बात है प्रोफेसर। इतने वर्षों बाद आपसे इस तरह यहाँ नागपुर के वेटिंग रूम में मुलाकात होनी थी। आप कहाँ जा रहे हैं?"

अच्छा लगा कि हम दोनों हैदराबाद तक जा रहे थे।

कुछ देर तक औपचारिक बातें होती रहीं। तभी घर से एक फोन आया और मैं उसमें व्यस्त हो गया। बात कुछ लंबी हो गई। इस बीच मैंने पाया कि त्रिलोकी पहले की तुलना में काफी अशक्त हो गए हैं। उनकी बूढ़ी आँखें रह-रहकर वेटिंग रूम के इलेक्ट्रॉनिक सूचना पटल पर टिक जाती थीं। सूचना इतनी तेजी से बाईं ओर चली जाती कि कई बार उसी सूचना को पुष्ट करने के लिए उन्हें दो या तीन बार उसे देखना पड़ता। वैसे भी उनका स्वभाव इस उम्र में एक बार देखे या सुने को कहाँ सच मानता है! जब ट्रेन के आने में आधे घंटे का समय शेष रह गया था, त्रिलोकी वेटिंग रूम से बाहर निकल प्लेटफार्म नंबर चार पर आ गए। गाड़ी इस बार उद्घोषणा के अनुरूप आ गई थी। त्रिलोकी बी-3 के सामने ही खड़े थे। कुछ लोग उतरे और फ़िर अपना ब्रीफकेस लिए त्रिलोकी भी सीट नंबर 14 पर आ जमे। संयोग से मेरी सीट उनके सामने थी। सत्रह नंबर। मैंने देखा, अपनी आँखों पर से चश्मा हटा त्रिलोकी बाहर देखने लगे। मुझे बोध हुआ, अभी भी उन्हें दूर की चीजें एकदम साफ दिखती थीं।

कभी मैं बिलासपुर के एक कॉलेज़ में पढ़ाता था और कोई चारेक साल मैं उनके पड़ोस में रहा था। बाद में मैं नागपुर आ गया था। उनके जीवन के दो दुःखद अध्याय मेरे सामने ही घटित हुए थे।

ट्रेन नागपुर को छोड़ते हुए आगे भागी जा रही । इसके आउटस्कर्ट पर अपार्टमेंट और उसके खत्म होने के बाद हरियाली ही हरियाली। पटरी से लगे, उसके थोड़ा नीचे कभी जोहड़ रही जगह में भी हरीतिमा का कब्ज़ा है। कुछ देर में उभरे स्थल आते हैं तो कभी समतल मैदान । कुछ देर में बुटी बोरी स्टेशन आया। ट्रेन धड़धड़ाती हुई आगे बढ़ गई। इसके आगे एक नदी आई। त्रिलोकी की उत्सुक आँखों को उसका नाम नहीं दिख पाया। उन्हें याद हो आया वह कैसे राजेश्वरी को अपने जीवन की तरलता कहा करते थे। किसी ने नहीं देखा मगर लोहे के पुल को थरथराती ट्रेन जब आगे दौड़ती जा रही थी, दो बूंद त्रिलोकी की आंखों से निकाल उसकी गोद में आ गिरे। अपनी पत्नी को इतनी शिद्दत से प्यार करने वाले त्रिलोकी आज तक कभी भी अपनी पत्नी के बगैर बाहर नहीं निकले थे। यह पहला मौका था जब वे अकेले अपने छोटे बेटे के पास जा रहे थे। मगर अकेले कहाँ शायद त्रिलोकी को भी एहसास ना था कि उसकी पुलिसिया पत्नी की निगाहें अब भी उस पर इस बुढ़ापे में बराबर टिकी हुई है । वह अब भी उसे याद करते हुए जी रहे हैं।

नदी के आगे खेत ही खेत। खेतों में खड़ी फसल। दो मजबूत बैल हल सहित खेत की मेड़ को पार कर रहे थे। संभाले नहीं संभल रहे थे, बुज़ुर्ग किसान से। घास चरती गाय और उसके गले में बंधी पीतल की घंटी। ट्रेन सिंदी से गुजर रही है। साढ़े बारह बज रहे हैं। किसी ने त्रिलोकी के कानों के बिल्कुल पास आकर कहा, "आओ चाय पीते हैं।" त्रिलोकी चौंके । अरे यह तो राजेश्वरी की आवाज है । फिर अपनी तंद्रा से बाहर आए। चायवाला चाय चाय की आवाज़ लगाता आगे बढ़ चुका था। त्रिलोकी ने उसे आवाज दी और एक कप चाय माँगा। मुझसे पूछे। मैंने मना कर दिया। अपनी जेब से बीस का नोट चायवाले को दिया। 10 का नोट वह वापस करने लगा कि त्रिलोकी ने इशारे से ही उसे अपने पास रखने को कहा। त्रिलोकी अपनी पत्नी की याद में मगन थे और चाय की 'सीप' लेने लगे। मुझे उनका यह पत्नी-प्रेम बड़ा अच्छा लग रहा था। उन्हें यूँ अशक्त देख तो कभी स्मृतियों में जाकर ऊर्जावान होकर लौटता देख मैं स्वयं पुलकित हो रहा था। मुझे लगा, जबतक हमारे पास ऐसा एक भी त्रिलोकी हो, हमरी आस्था 'विवाह' संस्था में बनी हुई होनी चाहिए।

हरे रंग से पटे खेत मे बैल ओर उन्हें हाँकते किसान दोनों सफ़ेदी में एक दूसरे से प्रतियोगिता कर रहे हैं। तुलजापुर तुळ पार हो रहा था। त्रिलोकी ने अपनी कलाई घड़ी की ओर देखी। घड़ी 12 बजकर सैंतीस मिनट बजा रही थी। वे कुछ देर के लिए कहीं खो गए। वे शुरू से समय के पाबंद रहे हैं। शादी में मिली घड़ी पुरानी हो गई थी और राजेश्वरी जानती थी कि समय बताते हुए वे एक एक मिनट और कई बार आधे मिनट तक का भी ज़िक्र करते हैं। सो त्रिलोकी के पचपनवे जन्मदिन पर राजेश्वरी ने यह डिजिटल घड़ी उन्हें भेंट करती हुई उनके कानों में धीरे से कहा था, " लो, अब एक एक सेकंड का हिसाब कर लिया करो। हम दोनों के मिलन का भी।" और चुस्त पुलिसिया अंदाज़ में अपने यौवन में लौटती उसने उनकी कनपटी को चूम लिया। फिर काफ़ी देर तक मियाँ-बीवी दुनिया भुलाए एक-दूसरे से सुख-दुःख साझा करते रहे। इस ट्रेन में अपनी पत्नी की कमी उन्हें कसमसाती रही। घड़ी को देर तक देखते रहे और उनकी आँखें नम हो आईं। मैंने उन्हें कुरेदा, "क्या बात है त्रिलोकी साहब? किसी की याद आ रही है क्या?"

वे मुझसे छिपाते रहे। प्रकटतः बोले, " किसी चीज़ को देर तक देखो ना, तो आँसू आ ही जाते हैं। मेरे एक दोस्त ने ऐसा करने को कहा है। इससे आँखों का अच्छा व्यायाम होता है।"

मैं क्या बोलता। सहमति में अपना सिर हिला दिया।

कुछ देर बाद त्रिलोकी स्वयं बोले, " प्रोफेसर साहब, यह देखिए सेलू रोड स्टॆशन पार हो रहा है। ठीक 12 बजकर बयालीस मिनट पर।"

"जी", मैं इस बार संक्षिप्त ही रहा।

मैं अपने एक दूसरे सहयात्री पवन कुमार से बात कर रहा था। वह महेंद्रगढ़ का था। वह बता रहा था, "हमारी तरफ़ कपास के पौधे काफ़ी बड़े हो गए। इधर देर से लगाया मालूम होता है।"

मैने प्रश्नवाचक दृष्टि में पवन की ओर देखा। वह समझ गया। मेरे बिना आगे पूछे बताने लगा, " राजस्थान से लगे हरियाणा में कपास उपजाते हैं।"

पवन पच्चीस का है। नेवी में। 18 पार करते ही नौकरी में आ गया है। शादी अभी की है। झुंझनू में।

अपनी डायरी में आदतन मैं नोट करता जा रहा था...कपास से भरे खेत। भूरे रंग के ख़ूब चौड़े नथने वाले दो बैल सुस्ताते नज़र आए। एक छोटी नदी हमने और पार की। साफ सुथरा और सांवला पानी।

मैं कुछ कुछ लिखे जा रहा था। मुझे व्यस्त देख त्रिलोकी ने मानों ख़ुद से ही कहा, "सेवाग्राम 12 पचास पर। ट्रेन यहाँ भी नहीं रुकी।"

इस बीच कुछ देर के लिए मेरी आँख लग गई। नींद टूटी तो मैंने देखा, त्रिलोकी मेरी ओर मुस्कुराते हुए बोल रहे थे, "उठिए, एक चौवन हो रहे हैं। आप सोते हुए कुछ बड़बड़ा रहे थे।"

मैं मुस्कुराकर रह गया। कुछ झेंप भी गया। बाहर देखने लगा।अमूनन अपनी ही उदासी में काले दिखनेवाले बबूल भी इस मौसम में हरे दिख रहे हैं। उनपर फूल खिले हुए हैं। कुछ देर में किसी स्टेशन के आने का भान हुआ। यह भाँदक था। तभी मेरे बगल से आवाज़ आई, "दो बजकर एक मिनट पर भाँदक आया।" यह त्रिलोकी थे। उनकी आवाज़ सुनने के लिए अब उनकी ओर देखना ज़रूरी नहीं था।

मेरे एक फोन का डिस्पले खराब हो गया था। मैं उसकी मेमो में लिखने की जगह अपनी डायरी में लिख रहा था। पवन ने पूछा, "सीधे मोबाइल में क्यों नहीं लिखते!"

पवन ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया था। मैंने अपने बैग से अपना मोबाइल निकाला और उससे कहने लगा, " ये देखो। इसका डिस्पले और टच दोनों खराब है। सर्विस सेंटर वाले इसे 'कॉंबो' बोलते हैं। छह हजार देकर बदलवाया । मगर अगले दिन फिर ख़राब।"

पवन बताने लगा। मुझे कुछ तसल्ली देते हुए, "मल्टी मीडिया सेट नहीं बनवाना चाहिए। खुल जाने पर वे ठीक नहीं चलते। कोई न कोई परेशानी देते ही रहते हैं।" वह गंभीर बना रहा। आगे बोला, "क्या करेंग़े सर, अब मोबाइल और नेट के बगैर रहा भी नहीं जाता न! "

मैं चुपचाप उसे सुनता रहा। वह मेरे ही कष्ट और उलझन को वाणी दे रहा था।

इस बार मैंने पहल की, "यह विवेकानंद नगर स्टॆशन आया है। दो बजकर 20 मिनट। अभी हम महाराष्ट्र में ही हैं।"

मैंने चुटकी ली, " ये लीजिए त्रिलोकी साहब, मुझे भी आपकी आदत लग गई।"

त्रिलोकी चुप हो गए। ऐसे बोले मानो खुद को ही कह रहे हों, "ईश्वर करे, ऐसी आदत किसी को न लगे। न किसी के समक्ष ऐसी भीषण स्थिति आए।"

वे वातानुकूलित खिडकी के बाहर किसी शून्य में तकने लगे। मैंने जान-बूझकर उन्हें उनके एकांत के साथ रहने दिया। उनके जीवन की ट्रेजेडी से मैं अनभिज्ञ नहीं था।

त्रिलोकी बिलासपुर में तिफरा में रहते हैं। दो बेटे थे, जिसमें एक ने अपने कमजोर क्षणों में आत्महत्या कर ली थी। तब वह बी.टेक की तैयारी करने कोटा गया था।

पत्नी राजेश्वरी पुलिस महकमे में थी और एक जानी मानी खुर्राट पुलिस अफसर के रूप में जानी जाती थी। मगर वर्दी के पीछे की सख्ती अपनी जगह थी और माँ का दिल अपनी जगह। बड़े बेटे के इस कदम से वह ऐसी आहत हुई कि उसके बाद बमुश्किल उसने 06 साल बिताए होंगे। पुलिस इंस्पेक्टर से आगे का प्रमोशन भी वह बार बार टलती रही। उसके अंदर डर कुछ ऐसा समाया अपने दूसरे बेटे को वह बिलासपुर से बाहर कहीं भेज ही नहीं पाई। अनिमेष ने वहीं रहकर तैयारी किया और 'कोनी' के इंजीनियरिंग कॉलेज से कंप्यूटर में बीटेक कर कुछ समय तक इधर-उधर अन्य परीक्षाओं की तैयारी करता रहा। ख़ाली समय में बिल्डिंग मैटेरियल की दुकान पर अपने पिता का हाथ भी बँटा लेता। मगर इसमें उसकी कोई रुचि नहीं थी। बिलासपुर में उसकी डिग्री का कोई उपयोग नहीं हो रहा था। ममतामई राजेश्वरी अपने बेटे को समझाती हुई बोली, "अनिमेष तुम यहीं रहो। पापा की दुकान संभालो। मैं नौकरी करती हूँ। तुम्हें कुछ और करने की जरूरत नहीं है। यह पुश्तैनी काम संभाल लो, यही काफी है।"

राजेश्वरी के भीतर अपने पहले बेटे के खोने का डर बड़ा गहरा था। अनिमेष भिषेक स्वयं अपने बड़े भाई को बड़ा मिस किया करता था। मगर माँ के भीतर वह डर अब एक आतंक का रूप ले चुका था। अनिमेष को यह आतंक अब खटकने लगा था। वह ज़ोरदार ढंग से इधर उधर सॉफ्टवेयर कंपनियों में आवेदन करने लगा।

राजेश्वरी की विह्वल माँ अपनी ज़िद और अव्यवहारिकता को शायद समझ नहीं रही थी। अनिमेष अब बड़ा हो गया था और एक दिन यह भी आया कि उसने हैदराबाद जाने का अपना अटल निर्णय सुनाया।

राजेश्वरी की बातों का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। वह काफी फ्रस्टेट हो चुका था। त्रिलोकी को आगे आना पड़ा। उन्होंने अपनी पत्नी को समझाया, "राज, हम एक बेटा खो चुके हैं। दूसरा नहीं खो सकते। बिलासपुर का फैलाव अनिमेष के लिए अब कम पड़ रहा है । उसे हैदराबाद जाने दो।"

अपने पति की बातों का आशय समझते हुए राजेश्वरी चुप ही रही। और एक शाम मियां बीवी दोनों अपने लाडले को बिलासपुर स्टेशन पर छोड़ आए। वह पहले नागपुर और फिर हैदराबाद चला गया। उस रात राजेश्वरी त्रिलोकी के कंधे से लगकर देर रात तक रोती रही। मगर यह क्या हुआ! महीने भर के भीतर दुश्चिंताओं का यह कैसा बवंडर राजेश्वरी के मन-मस्तिष्क पर छाया कि एक दिन ऑफिस के लिए तैयार होते वक्त उसे दिल का दौरा पड़ा। आनन-फानन में त्रिलोकी उसे अस्पताल ले गए मगर डॉक्टर ने उसे मृत घोषित कर दिया।

***

चंद्रपुर स्टेशन आ गया है। दो बजकर छब्बीस मिनट। जूट के थैले में चूड़ी के स्टैंड और चकला/तवा बेचने वाली ऐसी कंपार्टमेंट में आ गई है। ख़ूब उपयोग में आने से छिजे हल्के हरे रंग की साड़ी में। दुबली सांवली काया। सागवान की लकड़ी का बना चूड़ी स्टैंड 280 रुपए में। मैंने उसकी कलाई की ओर देखा। अच्छा लगा, दोनों ही हाथों में सस्ती ही सही, उसने ढेर सारी चूड़ियाँ पहन रखी थी। नाक में चौड़े डिजाइन का लॉग भी। आसपास की महिलाओं ने रुचि दिखाई। मगर मेरी रुचि खरीददारी में बदल नहीं पाई।

मैंने देखा, त्रिलोकी कंबल ओढ़ लेट गए, मगर उसके नीचे से वे उन्हीं फैले सामानों की ओर देख रहे थे। वे अपने चेहरे के भावों को आसपास के सहयात्रियों से छुपाना चाह रहे थे। मैंने उन्हें बैठाया और पानी पिलाया। बोला, " दिल की बात कह लिया कीजिए त्रिलोकी बाबू। मन हल्का हो जाएगा।"

त्रिलोकी ने अपने भर्राए गले से कहा, " राज खुद पैसे कमाती थी। मगर शृंगार आदि के सामान लड़कर मुझसे लिया करती थी। आज होती, तो यहीं पर इन सस्ते सामानों के लिए भी सातों आसमान उठा लेती।"

मैं उनकी आँखों में देखता रहा। बाहर की सारी नमी मानो उनकी आँखों में समा आई थी।

***

बाबूपेठ 2.34 पर। बल्हारशाह, दो बजकर चवालीस मिनट पर। ट्रेन के दाहिने काफ़ी दूर तक खेत हैं। उसके आगे पहाड़ दिख रहे हैं, जो अभी तो हमारे संग संग ही चल रहे हैं।

17 नंबर बर्थ पर सपरिवार चल रहे एक सज्जन ने ऑन लाइन खाना मँगाया है। साढ़े चार सौ रुपए का। अंडा कढ़ी समेत कई व्यंजन सफ़ेद पॉलीथिन में डिलीवरी ब्य़ॉय़ रखकर चला गया है। चौदह नंबर सीट पर नींद से उठकर त्रिलोकी पूछते हैं, "चाय लाओगे?"

डिलीवरी वाला उन्हें समझाता है, "यह ऑन लाइन ऑर्डर है।"

मैंने भाँप लिया कि उन्हें कुछ समझ मे नहीं आया है। कंबल ओढ़कर वे वापस लेट गए।

मेरे ही बर्थ पर बैठा पवन ऑनलाइन अपनी पत्नी से व्हाट्स अप पर वीडियो टॉक कर रहा है। ख़ुद बोलने की जगह हँस रहा है और हाथ हिला रहा है देर तक।

"बिना शक्कर की चाय का एक दौर लगवाओ", त्रिलोकी पुनः बोलते हैं। मानो अपने आप से। या फिर अर्धनिद्रा में अपनी पत्नी को कह रहे हों।

मगर यह ट्रेन का एक हॉकर है। चिकन बिरयानी का रट लगाए आगे बढ़ता चला जा रहा है। शायद वह परिणाम से परिचित है। रूखा जवाब देता है, "बोलता हूँ।"

केलेवाले आए। मैंने भाव पूछा। बीस रुपए में चार केले। मुझे याद है, जयपुर में बीस इस पच्चीस के एक किलो खरीदता था।

इस बीच एक और नदी को हमने पीछे छोड़ दिया है। नीले टीशर्ट और लोअर में एक दूसरा यात्री चिप्स खा रहा है। चिप्स के पैकेट के खोलने की आवाज़ तो आ रही है, मगर चबाने की नहीं आ रही। हल्की मूँछ और बड़ी आंखों वाले ये उसके स्वाद को इंज्वाय करने में तल्लीन है। ऑनलाइन से आया खाना साइड स्टूल पर रखा हुआ है। पवन हेडफोन लगाए हरियाणवी गीत सुन देख रहा है।

विहीर गाँव तीन चौदह पर। विरुर, तीन बीस पर। त्रिलोकी पुनः बुदबुदाए। मानो अपनी अदृश्य पत्नी को महसूस रहे हों और उसे मिनट मिनट अपडॆट रखना चाहते हों। मैंने बीस रुपए में बिस्कुट का एक पैकेट खरीदा। दो बच्चे खेलते हुए मेरे बर्थ के पास आए। दोनों के माता पिता बुलन्दशहर के हैं। तेरह महीने वाले बच्चे का अभी मुंडन हुआ है। उसके पिता ने कहा, "इसके बाल गंगा मैया ले गईं।" दूसरा लड़का सवा दो सालों का है। बड़ा वाला उसके बाल रहित सिर पर अपनी उंगलियां गड़ा रहा है। छोटे के पिता डर रहे हैं कहीं सिर से ख़ून न आ जाए। वे मुझे उसका पाँव दिखते हैं। उसपर इस बच्चे के नाखून की खरोच है। बड़े की माँ बोलती है, "यह चंपी करता है।"

तीन बजकर पचास मिनट पर सिरपूर कागज नगर आया। अब आंध्रप्रदेश आ चुका है। स्टेशनों के नाम तेलगू में लिखे जाने दिखने लगे।

नेवी में कार्यरत पवन के दो और साथी आ गए हैं। तीनो हरियाणवी में बात कर रहे हैं। पोस्टिंग, असाइनमेंट आदि को लेकर।एक रोहतक का और दूसरा झज्जर का है।

दाएं बाएं दोनो तरफ साउथ सेंट्रल रेलवे (एस.सी.आर.) के खंभे खेतों में गड़े हैं। ऊपर नीचे लाल और बीच मे सफेद। रेलवे का सीमांकन बताते हुए।

मैंने गौर किया। बड़े बच्चे की माँ खूब गोरी चिटी सुंदर है। पांवों में पाजेब। पीले रंग के क्लचर से जूड़ा कैसे हुए। बीच मे सफेद रंग के बेल बूटे। सजग इतनी कि शरीर का हर हिस्सा एकदम ढक हुआ। बच्चा तैयार नहीं था। उसे अपने पास पकड़ पहले उसे मिडल बर्थ पर लेटाया। बाद में उसे अपनी छाती से लगा मोबाइल पर गाने सुनने लगी। दोनों कानो में सोने के दो दो रिंग। पूरे सफर बच्चे की देखभाल का ज़िम्मा उसी के भरोसे है।

बीब्रा नदी के ब्रीज से गुजरना हुआ। 'रचनी रोड' हम सवा चार बजे। स्टेशन लगभग सुनसान। गाड़ी रुकी भी नही। वैसे भी इस एरिए में स्टेशनों पर भीड़ कम दिखती है। चार बाईस पर बेल्लम पल्ली स्टेशन आया। एक बड़ा स्टेशन । ट्रेन रुकी। जिन्होंने खाना मँगवाया था, अब जाकर वे नीचे उतरे। मेज़ पर रखा खाना उनके परिवार के सभी सदस्य खा रहे हैं। फेमिली हेड साथ में चाय भी पीता चला जा रहा है।

मंचिर्याल' स्टेशन शाम चार इकतालीस पर पहुँचना हुआ। पेद्दूम्पेट चार इक्यावन पर और रामगुंडम चार चौवन। राघवपुरम पाँच बजाकर सात मिनट।

मैंने अपनी डायरी में लिखा...इस समय दोनों तरफ पहाड़ दिख रहे हैं। शाम के सवा पाँच बज रहे हैं। खेतों में धान रोप दिए गए हैं। उनमें पानी भी ख़ूब है। बगुले अपनी फ़िराक़ में हैं। जगह जगह बिजूका लगे हुए हैं। एक पतली लकड़ी पर पुराने बनियान को टांग दिया गया है। कुछ जगहों पर उसे झंडे के रूप में भी प्रयोग में ले गया है। तब एक साथ कतार में कई झंडे लगा दिए गए हैं। अभी अभी एक नदी के पुल से गुजरना हुआ। पूरी नदी में जगह जगह झाड़ उग आए हैं। बरसात के उस मौसम में भी उसमें रेत ही रेत है। पानी नहीं है। तीन चार बाइक उसमे खड़े हैं। नदी के ऊपर सड़क मार्ग के लिए भी पुल बन रहा है। पानी न होने से नदी वर्तमान में सड़क की तरह काम मे लाई जा रही है।

उप्पल पाँच बजकर तैंतालीस मिनट पर। काजीपेट टाउन शाम छह बजे पहुँचना हुआ। यहाँ रेल पथ मशीन का सौटेललाइट लोको है। यहाँ से सामने गुंबदाकार पहाड हैं, जिसके ऊपर टेलीफोन का टावर और एक पुरानी इमारत है। तभी एक सुंदर एम एस सी पास लड़की का फोटो मोबाइल में दिखाते हुए पवन ने अपने साथी को बोला , "देखो , क्या प्रोपर्टी है!"

मैंने त्रिलोकी की आँखों में देखा। उन्हें इस भाषा पर सख्त ऐतराज़ था। वे कुछ बोलना चाह रहे थे। मगर सफ़र में अनावश्यक पंगे करने का कोई मतलब नहीं था। मैंने उन्हें इशारों से चुप रहने को कहा। स्टेशन से ही लगा इलेक्ट्रिक एवं डीजल दोनों लोको शेड हैं। साढ़े छह बजे घनापुर से निकलना हुआ। यहीं पर नए चढ़े टीटी भी हमारे बोगी से बाहर निकले। फूल स्पीड में। कुछ कुछ ताव में भी। मैने नोट किया, कई टीटी दारोगा की तरह व्यवहार करते हैं। सफेद पेंट और शरीर पर काला कोट । बाएं हाथ में आरक्षण चार्ट का बंडल और दाएं हाथ मे एक कलम। चाल ऐसी कि कोई हेड डॉक्टर अस्पताल के बार्ड में राउंड पर निकला हो। छह बैयालीस पर रघुनाथ पल्ली पार करना हुआ। मैं त्रिलोकी जी को बताने लगा, "पल्ली वही है जो छत्तीसगढ़ में पाड़ा है या महाराष्ट में पेट है।"

उनकी आँखों में जिज्ञासा की कुछ चमक आई। मैंने बाहर देखा। सूर्यास्त हो चुका था। यह अंधेरे से पहले की रौशनी थी।

हरियाणवी युवक काजीपेट उतर गए। वे विशाखापत्तनम जाएंगे।

छह बावन पर जनगाँव। सात दस के बाद बाहर देखना मुश्किल हो गया था। त्रिलोकी बात करने के उद्देश्य से आगे बोले, "अभी पौने आठ बज रहे हैं। अमूमन आधे घंटे में हम सिकन्दराबाद होंगे।"

आगे बोले, 'ऐसे तो जाना मैं टालता ही हूँ। मगर इस बार बेटे बहू ने बड़ी ज़िद की। सो जा रहा हूँ। राजेश्वरी को गुजरे चार साल हो गए हैं। उसके बगैर बिलासपुर का घर काटने को दौड़ता है। यह तो दुकान को संभालना होता है, वरना..."

त्रिलोकी बीच में ही चुप हो गए।

उधर से फोन आया, मगर त्रिलोकी कहने लगे, "अरे परेशान मत हो बेटे। हम आ जाएंगे। तुम्हारी मम्मी नहीं है न, इसलिए तुम्हें कोई दिक्कत उठाने की ज़रूरत नही है। "

मैं सिर्फ सुन रहा था, मगर हवा में उदासी की ध्वनि चारों ओर फैल गई थी।

बेटे-बहू ने खाने का ज़िक्र किया होगा। इधर से कहने लगे, "अरे नहीं बेटा, भूख नहीं है। बस दो रोटी लेंगे। हाँ करेला और खीरा ज़रूर रखना।"

फिर कुछ देर बाद कहने लगे, " अच्छा बेटे! स्टेशन आ ही रहे हो तो एक सादा पान ले लेना। मज़ा नहीं आ रहा है।"

त्रिलोकी कैसे बताते, वह इस पूरे रास्ते उसकी माँ को ‘मिस’ कर रहे थे। इसका गवाह मैं था। मगर उसे यह बताने के लिए मैं उपलब्ध नहीं था। ट्रेन के रुकते ही मैंने विश्वविद्यालय के गेस्ट हाउस के लिए ऑनलाइन टैक्सी बुक कर ली थी। कल सुबह एक सेमिनार में मुझे पर्चा पढ़ना था। मुझे उसकी तैयारी करनी थी। विषय था " भारत का वर्तमान सामाजिक ढाँचा और हमारा परिवार"। रास्ते में मैं सोचता रहा...त्रिलोकी सिर्फ़ मेरे पूर्व-पड़ोसी नहीं हैं, बल्कि इस विषय के वे जीवंत नायक भी हैं।

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