समीक्ष्य संग्रह : 'लिटन ब्लॉक गिर रहा है'
समीक्षक : अर्पण कुमार
पहाड़ वही नहीं रहे जो सुमित्रानंदन पंत के समय थे। पंत के ‘अप्रस्तुत विधान’ से लेकर लीलाधर जगूड़ी की सपाटबयानी तक पहाड़ कविता में ख़ूब बदले हैं और कहानियों एवं उपन्यास में भी। ‘पहाड़ पर लालटेन’ (मंगलेश डबराल का काव्य-संग्रह) का बिंब आज पहाड़ों में सिमेंट फैक्ट्री तले कहीं धूल-धूसरित हो चुका है। आज पहाड़ों पर लिखना सिर्फ उनके वैभव और उनकी हरीतिमा का चित्रण करना मात्र नहीं हैं। कई मायनों में उनकी समस्याएं मैदानी समस्याओं से अधिक उलझी हुई और त्रासद हैं। आज़ादी के बाद विकास के नाम पर ‘देशी अंग्रेज़ों’ ने देश के संसाधनों की लूट खसोट में कोई कमी नहीं छोड़ी। वन से लेकर नदियों तक, पहाड़ से लेकर घाटियों तक, हर जगह अनियंत्रित और अदूरदर्शी नीतियों ने पहाड़ को सुविधाएँ कम दी, उसके अपने मूल मिज़ाज को अधिक बिगाड़ा। पहाड़ों की इसी बिगड़ती पारिस्थितिकी के बीच रोजगार और बेहतर जीवन की तलाश में उसके लोगों का पलायन हुआ और गाँव-कस्बे वीरान हुए।
पहाड़ी परिवेश पर कई साहित्यकारों ने अपने अपने हिसाब से काफ़ी कुछ लिखा है। फिर चाहे निर्मल वर्मा हों या शेखर जोशी, शैलेश मटियानी हों या मनोहर श्याम जोशी, रस्किन बांड हों या हिमांशु जोशी, पंकज बिष्ट हों या गंगाप्रसाद विमल, हरिसुमन बिष्ट हों या शैलेय, हर रचनाकार के पास हमें पहाड़ों की कई स्मृतियाँ, कहानियाँ और जीवन-दृश्य देखने को मिलते हैं। ये सभी लेखक चाहे जहाँ रहें हों, पहाड़ी इलाके से इतर कितना कुछ लिख लें, इनकी रचनाओं में पहाड़ गाहे-ब-गाहे अवश्य आ जाते हैं। वर्तमान में शिमला में रह रहे हमारे समय के महत्वपूर्ण कथाकार एस.आर. हरनोट के प्रस्तुत संग्रह 'लिटन ब्लॉक गिर रहा है' को इसी कड़ी में देखने की ज़रूरत है, जिसकी कहानियाँ पहाड़ी-परिवेश को पूरी व्यापकता और समकालीनता में उठाती हैं। संग्रह की सभी कहानियाँ किसी न किसी रूप में पहाड़-केंद्रित हैं और वे वहाँ की जीवन-शैली की प्रति-सृष्टि कही जा सकती हैं। पर्यावरण से संबंधित समस्याओं और इधर फूले-फले वन माफियाओं की अंर्तकथाओं पर बेहद संवेदनशील रूप में लिखी गई बहुचर्चित कहानी ‘आभी’ इस संग्रह में है। हाल ही में आई ख़बर के मुताबिक बेंगलूरू स्थित जैन विश्वविद्यालय ने बीकॉम, बीएससी और बीबीएम के छात्रों के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए 2016-2019 तक के हिंदी पाठ्यक्रम में इस कहानी को शामिल किया है। लेखक ने एक दुर्लभ पक्षी ‘आभी’ के माध्यम से पर्यावरण मुद्दे को संवेदना और स्मृति से जोड़कर एक बेहतर कहानी रची है।
पहाड़ी अंचल की स्थानिकता की महक हमें हरनोट की भाषा में स्पष्ट दिखती है। उनकी कहानियों में पर्यावरण के प्रति सरोकार नज़र आते हैं तो हाशिए के संघर्ष को वहाँ खूब अभिव्यक्ति भी मिली है। कहानी में वर्णित परिवेश जीवंत होकर हमारे सामने आता है और उनके पात्र अपने स्वाभाविक रूप में विकसित होते हैं। वे अपने पात्रों में भीतर तक पैठने की कोशिश करते हैं। मसलन, ‘हक्वाई’ कहानी का नायक ‘भागीराम’ अपनी उम्र कितनी और किस प्रकार बताता है, कहानीकार इसका प्रामाणिक चित्रण कुछ इस प्रकार करता है:- "वह सहत्तर कम तीन का हो गया था। ऐसे ही वह अपनी उम्र बताया करता। सीधे सीधे कभी सतासठ नहीं कहता। वह कोशिश तो करता, पर सतासठ बोलने में उसे दिक्कत होती।" अपने कथा-प्रदेश की पृष्ठभूमि को बहुस्तरीय और गझिन बनाने में हरनोट का कहानीकार कोई कसर नहीं छोड़ता। हमारे समाज में जातीय श्रेष्ठता का जो दंभ है और जातीय स्तर पर एक-दूसरे को हीन समझने की जो मानसिकता है, वह एम.सी.डी. के कार्यालय में भागीराम की उपस्थिति में असहज हो रहे एक अधिकारी के चित्रण में लेखक ने बख़ूबी वर्णित किया है। यहाँ पर भागीराम की उपस्थिति और उसके शरीर के गंध से एक अधिकारी को परेशान दिखाया गया है। दरअसल, यह गंध वास्तविक से अधिक काल्पनिक है जो स्वयं उस अफसर की रूढ़ और परंपराग्रस्त मानसिकता का द्योतक है, कहानी इसे सहज ही हमारे सामने स्पष्ट करती है। दलित-विमर्श पर यह एक सशक्त कहानी कही जा सकती है, जिसका चरित्र तमाम विपरित परिस्थितियों में भी हार नहीं मानता। 'माँएं', लोककथा के तत्वों को समेटी हुई एक ऐसी कहानी है, जो क्रमशः कथा-कोलाज का रूप ले लेती है। यह हमारे समाज में जननी और लड़की के रूप में स्त्रियों की कारुणिक स्थिति को प्रस्तुत करती है। आए दिन अखबारों में छपनेवाली ख़बरों को आधार बनाकर लिखी गई यह कहानी अपनी समग्रता और प्रस्तुति में पाठकों को प्रभावित करती है। 'जूजू' कहानी में अन्तर्निहित व्यंग्य हमारे वर्तमान समय में बच्चों के लालन पालन की हमारी कृत्रिमता पर करारा तंज कसती है। आज कई घरों में बच्चों को उनकी माँ के दूध से वंचित रखा जा रहा है। दिखावे के कार्यों और व्यस्तताओं के बीच बच्चों को समुचित समय न देने और उन्हें माँ के दूध से वंचित रखने के क्या दुष्परिणाम हो सकते हैं, यह कहानी इस ओर इंगित करती है।
'गाली' कहानी के नायक मुश्की राम का चरित्र चित्रण बेहतर रूप में किया जा सका है। ‘उद्भावना’ में प्रकाशित 'गाली' एक प्रतीकात्मक कहानी है, जिसमें पंचायत का प्रधान जब उसे कई बार नेता कहकर संबोधित करता है तो अंततः चिढ़ते हुए एक दिन वह उसकी हत्या कर देता है। मगर इस बीच प्रधान द्वारा अपने पद और रूतबे के कई दुरूपयोग और उसके पर्यावरण-प्रतिकूल कदमों का प्रसंग भी चलता है। अतिरंजनापूर्ण अंत के साथ पूरी होती इस कहानी में मुश्की राम की ईमानदार सनक और आदर्श के लिए समर्पित उसके जीवन के कई रंग हमें यहाँ देखने को मिलते हैं। 'लिटन ब्लॉक गिर रहा है' इस संग्रह की शीर्षक कहानी है और बदलते शहर में पुरानी और जर्जर होती एक महत्वपूर्ण इमारत ‘लिटन-ब्लॉक’ के गिराए जाने के प्रसंग को लेखक ने बड़ी आत्मीयता से उठाया है और इसके बहाने वे संस्कृतियों की आवाजाही को, स्वतंत्रता-पूर्व और उसके बाद के क़िस्सों को शिमला जैसे एक पर्वतीय और महत्वपूर्ण रहे शहर के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं। लिटन-ब्लॉक के गिराए जाने की प्रक्रिया में वे अलग-अलग काल-खंडों में उसके इस्तेमाल की विभिन्नता की रोचक चर्चा करते हैं। यथार्थ के साथ स्मृति, कल्पना और इतिहास का सुचिंतित सम्मिश्रण, हरनोट के कहानीकार की एक ख़ास विशेषता है। हाशिए पर रह रहे लोगों / अवर्णित घटनाओं, अचिह्नित इमारतों आदि के बारे में लिखना साहित्य का धर्म है और उसकी पक्षधरता भी। हरनोट का साहित्य-धर्म इन कहानियों के मामले में खंडित होता नहीं दिखता है।
हरनोट को पहाड़ी अंचल विशेष का कहानीकार उसी तरह कहा जाना चाहिए जिस तरह प्रेमचंद को ग्रामीण परिवेश का कहानीकार माना जाता है। यद्यपि हरनोट की सभी कहानियों में गरीबों और प्रवासितों के संघर्ष को, ईमानदार श्रमजीवी की जिजीविषा को केंद्र में रखा गया है, फिर भी इस संग्रह की कुछ कहानियाँ मसलन ‘हक्वाई’ और ‘आस्थाओं के भूत’ दलितों की समस्याओं को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं। ‘हक्वाई’ पर पूर्व में चर्चा हो चुकी है। हमारे समाज और हमारी शैक्षणिक व्यवस्थाओं में और हमारे धार्मिक स्थलों पर जिस तरह दलितों को एक किनारे रखा जाता है, उन्हें दुत्कारा जाता है और उन्हें हर संभव पीढ़ी दर पीढ़ी पिछड़ा बनाए रखने की साजिश की जाती है, ‘आस्थाओं के भूत’ कहानी में हरनोट ने इससे जुड़े कुछ पहलुओं को भली-भांति पकड़ने की कोशिश की है। कुल मिलाकर, समाज के भीतर आते बदलाव को, बदलती लोक-चेतना को एक स्कूली बच्चे के माध्यम से प्रभावी रूप में चित्रित किया गया है। ‘आस्थाओं के भूत’ शीर्षक कहानी हरनोट की कहन-कला के प्रति हमें आश्वस्त करती है। कहानी भीतर कहानी के रचाव का सफलतापूर्वक निर्वहन किया गया है। लोक कथाओं के तत्व, लोक जीवन के रंग और सहज कथा वाचन का अंदाज़ हरनोट को उनकी जड़ो से जोड़कर रखता है। वे सही मायनो में पहाड़ी अंचल के एक सजग और प्रकृतिस्थ कहानीकार नज़र आते है। हरनोट की कहानियों का समाजशास्त्र हमें साहित्य और समाज के रिश्ते को घनीभूत होता दिखाता है। चूँकि हरनोट ने पहाड़ को बड़े करीब से देखा है, अतः पहाड़ों में सीमेंट फैक्ट्री, डैम, विकास के नाम पर पेड़ों की कटाई, लोगों में पीढ़ियों से जमे अंधविश्वास के गर्द-ओ-गुबार आदि हर पहलू पर उनकी नज़र गई है। वे जब वर्तमान की बात करते हैं तो उसके साथ ही उनकी नज़र उसके अतीत के संदर्भों पर भी समान रूप से जाती है। ऐसे में उनकी कहानियों में काल परिधि अपेक्षाकृत बृहत्त हो जाती है। दूसरे, जीवनानुभव की मौलिकता और घटनाओं एवं दृश्यों को ठीक ठीक पकड़ने की उनकी कोशिश भी हमें उनकी कहानियों में दिखती है। इससे उनकी कहानियाँ सजीव हो उठती है। यह जीवंतता चित्रण के स्तर पर वहाँ भी नज़र आती है, जहाँ कहानियों का अंत कुछ फार्मूला-बद्ध या फिर विचार-जनित दिखता है। मतलब यह कि उनकी जिन कहानियों में विचारों का सप्रयास आरोपण है, वहाँ भी पाठक उबते नहीं। हर कहानी को एक प्रोजेक्ट की तरह लेकर उसे लिखने वाले हरनोट अपनी कहानियों में कथा के सभी अपेक्षित तत्वों के समावेशन पर पर्याप्त मेहनत करते हैं। फिर चाहे वह कला पक्ष हो या भाव पक्ष।
संग्रह की कहानी 'लोग नहीँ जानते थे उनके पहाड़ खतरे में हैं' हरनोट के कहानीकार की एक बड़ी उपलब्धि है। हालांकि इस कहानी में एकाधिक जगहों पर चित्रण लंबा हुआ है, मगर यहीं पर यह रेखांकित करना ग़लत न होगा कि इससे पाठक पहाड़ी अंचल की अंतरंगता को बख़ूबी समझ पाता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि समाज में परिवर्तन अवश्यंभावी है और वह अक्सरहां हमें दिखता भी है, मगर यह परिवर्तन मैदानी इलाकों से अधिक पहाड़ी इलाकों में परिलक्षित होता है। हरनोट इसी परिवर्तन के कहानीकार हैं। चाहे पहाड़ों को तोड़ने का उपक्रम हो, गांवों को नष्ट करने या उन्हें उजाड़ बनाने की प्रक्रिया हो, वहाँ औद्योगिकीकरण और महत्त परियोजनाओं के नाम पर अदूरदर्शी गतिविधियाँ का संचालन हों, हरनोट हर चीज पर बारीक नज़र रखते हैं। गांव से शहरों की ओर बढ़ती आमद और गाँवों-शहरों में बदलते निवास-मानचित्र को वे बड़े करीब से देखते हैं। इस तरह से हरनोट प्रवासन के चितेरे कहानीकार ठहरते हैं। उनके यहाँ पहाड़ों में प्रचलित शब्दों का सौंदर्य और उनके मुहावरे उनकी भाषा को आंचलिक चटख रंग प्रदान करते हैं। स्थानीय स्तर पर प्रयुक्त होने वाले कई शब्द कहानी में अपने तईं देशज सौंदर्य की छटा बिखेरते हैं। पहाड़ों के कई शब्द मसलन ‘ढांक’, ‘मेख’, ‘किल्टा’, ‘चरांद’ ‘गूर’, ‘माहू’, ‘बावड़ी’, ‘बीही’, ‘गौंच’, ‘सुख सांद’ आदि का प्रयोग हमें उस परिवेश के कुछ और क़रीब ले जाता है। इनके बहाने पूरी पहाड़ी संस्कृति हमारे सामने पुनर्प्रस्तुत हो उठती है। कहानी का परिवेश एवं चित्रित लोकजीवन कुछ अधिक प्रामाणिक हो उठता है। ‘शहर में रतीराम’ शीर्षक कहानी में बदलते गाँव और बदलते शहर दोनों को भलीभाँति अभिव्यक्त किया गया है। रतीराम एक साथ दो अलग अलग छोरों पर जीता है और अपने परिवार के भीतर के ऊहापोह को बदलते जीवन मूल्यों के सन्दर्भ में अपने तईं कहीं गहरे महसूसता है।
उल्लेखनीय है कि ये सभी कहानियाँ देश की कई महत्वपूर्ण हिंदी पत्रिकाओं में पूर्व में प्रकाशित और चर्चित हैं। हरनोट ने अपनी कहानियों के माध्यम से पहाड़ों में छीजते जीवन को, वहाँ घटती जाती सरलता और बढ़ती जाती यांत्रिकता को बख़ूबी उठाया है। यह कहना ग़लत न होगा कि हरनोट का कहानीकार सिर्फ कहानी कहना जानता है। वे अनावश्यक वाग्जाल से बचते हैं। कह सकते हैं कि हरनोट की कहानियों में जीवन संपूर्णता में अभिव्यक्त हुआ है और उनका कहानीकार सामाजिक राग-रंगों से संपृक्त है।
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समीक्ष्य पुस्तक : 'लिटन ब्लॉक गिर रहा है'
लेखक : एस.आर. हरनोट
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, पंचकूला
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समीक्षक- संपर्क :
अर्पण कुमार, बी-1/6, एसबीबीजे अधिकारी आवास, ज्योति नगर, जयपुर, राजस्थान
पिन: 302005
मो: 0-9413396755 : ई-मेल :
‘नदी के पार नदी’ और ‘मैं सड़क हूँ’ काव्य संग्रह प्रकाशित और चर्चित। तीसरा काव्य-संग्रह ‘पोले झुनझुने’ और पहला उपन्यास ‘पच्चीस वर्ग गज़’ नौटनल पर ई-पुस्तक के रूप में उपलब्ध और शीघ्र प्रकाश्य। आकाशवाणी दिल्ली और जयपुर से कविताओं-कहानियों का प्रसारण। महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षाएँ, गज़लें, आलेख आदि प्रकाशित।दूरदर्शन के जयपुर केंद्र से कविताओं का प्रसारण। हिंदी अकादमी, दिल्ली से पुरस्कृत। कई पुस्तकों के आवरण पर इनके खींचे छायाचित्रों का प्रयोग।
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