गुडनाइट माइनस लव यू
अर्पण कुमार
पहले लोग बड़ी संख्या में कोई न कोई किताब पढ़ते थे। उस पर परिवार के सदस्यों तो मित्रों के बीच चर्चा किया करते थे। कई उत्साही पाठक उस पर अपनी प्रतिक्रिया पत्र के माध्यम से उसके लेखकों को भेजा करते थे। आज यह सिलसिला थमा तो नहीं, मगर कम ज़रूर हुआ है। अब फेसबुक पर लोग पोस्ट पढ़ते हैं और बात करने का मन करे तो चैट करते हैं। जिनसे निकटता कम है, उनसे टेक्सट-चैट और जिनसे निकटता अधिक है, उनसे वीडियो-चैट। निकटता बढ़ाने के और टेक्स्ट से वीडियो पर आने के प्रयास हरदम चल रहे होते हैं। आजकल पत्र लेखन की जगह चैटिंग ने तेजी से ली है। वैसे तो यह चौबीसों घंटे उपलब्ध है, मगर इसकी पूरी अदा गहराती रात में ज़्यादा नज़र आती है, जब दोनों तरफ़ से अरमान जवान और रंगीन हो उठते हैं। रात के यही कोई ग्यारह बजे के बाद एक वर्चुअल दुनिया सृजित होती है, जिसमें लोग अपनी वर्तमान दुनिया से परे एक दूसरी दुनिया में जाकर विचरण करने लगते हैं। स्टूडेंट्स से इतर इसमें प्रोफेशनल भी होते हैं, जो अपने ही जैसे किसी और प्रोफेशनल से कई चीज़ें साझा करना चाहते हैं। कुछ बताते हैं तो बहुत कुछ छुपाते हैं। कई बार पहचान और लिंग बदलकर भी बातचीत होती है। जो भी हो और जिस भी तरह से होता हो, इसमें मज़ा दोनों पक्षॉं को ख़ूब आता है। हाँ, यह संवाद तब तक है जब तक कि दोनों में से किसी एक को नींद ना आ जाए। जो जगा हुआ है, वह चाहे तो चैटिंग के लिए कोई दूसरा ऐसा पार्टनर ढूँढ़ सकता है, जो उसकी ही तरह जगा हुआ हो। कोई मिल जाए तो ठीक अन्यथा आराम से सो जाएँ। सुबह सभी को ऑफिस जाना है। दिल्ली जैसे महानगर में पच्चीस तीस किलोमीटर से कम दूरी पर अमूमन किसी का ऑफिस होता भी कहाँ है!
यह कहानी भी ऐसी ही किसी चैटिंग के बीच से उठ कर यहाँ आ गई है। या फिर, चैटिंग करते दो विवाहित वयस्कों के बीच की गर्माहट के कुछ सूत्रों को यहाँ इस कहानी में रखा गया है। इस कहानी के दोनों पात्र कभी प्रेमी रह चुके हैं और अब दिल्ली के अलग-अलग कोनों में अपने परिवार के साथ व्यस्त हैं। दोनों का प्रेम परवान तो नहीं चढ़ा, मगर एक-दूसरे को कोसने की जगह दोनों एक दूसरे के दोस्त हो चुके हैं। मन की किसी ऐसी उद्दात्त अवस्था तक पहुँचना आसान नहीं होता है, मगर मन को भारी रखने से भी क्या होगा! इधर समय बदला है और बदलते समय के साथ स्त्री-पुरुष के संबंधों में कुछ नए क्षितिज भी उत्पन्न हुए हैं। सो, आज की पीढ़ी पुरानी चीज़ों को नए चश्मे से देखने लगी है। कहानी के ये दोनों पात्र, उस नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व कर लेते हैं।
…......
संतोष शरण लेखक है और एक मल्टीनेशनल कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर के पद पर कार्यरत है। वह पहले एक लेखक है या फिर इंजीनियर या पहले इंजीनियर और उसके बाद लेखक, यह कहना ज़रा मुश्किल है। हाँ, इतना अवश्य है कि इंजीनियरिंग उसकी दीक्षा है और लेखन उसका स्वभाव। लेखन की कल्पना को वह प्रोग्रामिंग में इस्तेमाल कर लेता है और प्रोग्रामिंग के कई पैटर्न को साहित्य में उतार लाता है।
संतोष विवाहित है, मगर जब कभी वह अपनी गृहस्थी के संजाल से बाहर आता है, तब-तब कुछ अतीतजीवी हो जाता है। सुहानी से अपने संबंधों को लेकर किसी दार्शनिक सा वह सोचने बैठ जाता है। वैसे भी लंबी, छरहरी उसकी काया पर उसके सिर के सुदीर्घ बाल और उ सके चेहरे की बेतरतीब दाढ़ी उसे आज भी एक स्वप्नजीवी पुरुष की श्रेणी में सरलता से ला खड़ा करती है। उसकी बड़ी-बड़ी और तरलदार आँखों पर ही तो सुहानी फिदा हो गई थी। वह कहा करती थी, "संतोष, ये जो तुम्हारी आँख़ें हैं न, दुनिया की किसी भी लड़की को अपने में डुबा सकती हैं।"
संतोष, सिगरेट का कोई कश लेता हुआ, बस उसकी बातों पर होंठ के किसी एक कोने से ज़रा सा मुस्कुरा देता। यह एक ख़ास बात थी उसके व्यक्तित्व में कि बड़े से बड़े प्यारे अवसर पर भी वह खुलकर हँस नहीं पाता था। मज़ाक-मज़ाक में उसके दोस्त उस पर तंज़ कसते , "अरे भाई, विश्वामित्र तो मेनका की अदाओं पर अपना तप भंग कर चुके थे, मगर अपना संतोष तो अपनी मेनका की प्यारी-प्यारी सी बातों पर खुलकर हँस भी नहीं पाता है। जाने किस मिट्टी का यह बना है यार!"
तभी समूह में दूसरे दोस्त ने अपनी आँखें नचाते हुए फब्ती कसी, "कुछ भी हो भाई लोग, लड़कियाँ तो फिर भी इसके लिए ही मरती हैं।"
सदा की तरह, संतोष अपने दोस्तों के हँसी-मजाक पर बस एक नामालूम सी हँसी हँसकर रह गया।
............
मगर वह शायद कोई दूसरा ही दौर था, जो जितनी तेजी से आया, उतनी ही तेजी से बीत भी गया। संतोष प्रेम के ख़ुमार में पड़ा और कई तरह की अड़चनों का सामना भी किया। पहले तो दोनों के परिवार, अपनी -अपनी ज़िदों पर अड़े रहे और दोनों परिवारों के सदस्यों के तारों को सुलझाते हुए प्रेमी-प्रेमिका ख़ुद ही उनमें उलझकर रह गए। अपने टूटे दिल से संतोष अपनी नौकरी के चिर-परिचित ढर्रे पर चलता हुए ज़िंदगी के भारी-भरकम पहिए के नीचे पिसता रहा। अपने संकेद्रित दर्द और बिखरे-बिखरे से ख़यालों को वह अपनी रचनाओं में उड़ेलने लगा। समय बीतता गया और वह अपने शब्दों की दुनिया में क्रमशः व्यस्त होता चला गया। दोनों की शादी नहीं होनी थी और अंततः नहीं ही हुई।
***
बीच में कई वर्षों का गैप रहा। सब अपनी-अपनी गृहस्थी को बनाने-जमाने में लगे रहे। दोनों की अपनी-अपनी नर्सरी हो गई थी और दोनों को अपने कई शुरुआती वर्ष उस नर्सरी को ही देने थे। बाद में जब फेसबुक, व्हाट्स अप और ऐसे ही दूसरे सुविधाजनक चैटिंग प्लेटफॉर्म जब सर्व-सुलभ हुए तब लोगों ने अपने पुराने दोस्तों से जुड़ना शुरू किया। प्यार की पुरानी लगन पर दोस्ती का नया कलेवर चढ़ चुका था। संतोष और सलोनी के साथ भी यही हुआ। इधर-उधर की, दुनिया-जहान की बातें हुईं। फिर, दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे के परिवार में भी झाँकने लगे। इसमें भी उन्हें भीतर ही भीतर कुछ तृप्ति के भाव तो ज़रूर महसूस होते थे। संतोष के लिए आख़िरकार यह भी कुछ कम नहीं था कि वह अपनी किसी पुरानी महिला दोस्त से दस पन्द्रह मिनट की चैटिंग कर ले पा रहा था। ख़ासकर वह दोस्त जब सलोनी हो, उसकी पूर्व-प्रेमिका। वह मन ही मन मुस्कुराकर रह गया। उसे लगा, कोई एक्स-गर्लफ्रेंड, एक लेखक से उसके लिखने के बारे में कुछ पूछ ले यह भी कम कहाँ है! वह भी एक डि-ग्लैमराइज्ड और लो-प्रोफाइल संतोष जैसे लेखक से। जी हाँ, संतोष ख़ूब सारे पैसे कमाता है मगर वह बिल्कुल ज़मीन से जुड़ा एक व्यक्ति है। वह आगे भी ऐसा ही बना रहना चाहता है। उसका स्वभाव ही कुछ ऐसा है। इंजीनियरिंग उसका पैशन है। वह इसे किसी फैशन में बदलना नहीं चाहता। देर रात संतोष और सुहानी एक साथ ऑनलाइन दिखते हैं। फिर क्या, बात एकमेव शुरू हो जाती है।
संतोष, "कैसी हो सुहानी?"
सुहानी, "ठीक हूँ। अपनी कहो?"
संतोष, "नौकरी और थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना भी। और तुम्हारा?"
सुहानी , "मेरा तो ऐसा ही चल रहा है यार। आधे अधूरे काम रहते हैं मेरे। घर आने के बाद कुछ करने की हिम्मत नहीं होती। पता नहीं उम्र बढ़ गई है या मैं लेजी हो गई हूँ।"
संतोष, "लाइफ़ के अलग-अलग फेज़ हैं सुहानी। मैं ख़ुद कई बार काफ़ी निराश हो जाता हूँ। जैसा और जितना सोचा था वैसा और उतना कुछ भी नहीं हुआ।"
सुहानी की स्मृति में पुराने संतोष का चेहरा सहसा कौंध गया। उसे वह लंबे कद और चौड़ी छाती वाला युवक बरबस याद आ गया, जिससे उसने अपनी ज़िंदगी का पहला प्यार किया था। सुहानी कुछ इमोशनल सी हो गई। उसने आगे लिखा, "सब हो जाएगा। डोंट वरी। निराश होने से कुछ भी हासिल नहीं होता।"
माहौल की गंभीरता को भांपते हुए, थोड़ा रुककर सुहानी ने पहले एक स्माइली भेजा और आगे हल्के-फुल्के ढंग से लिखा, "अरे संतोष, अपनी कोई नई किताब-विताब तो लाओ न यार ! हम भी तो पढ़ें कुछ तुमको ।"
संतोष, "मेरा दूसरा काव्य संग्रह 'गलीचे पर जमती धूल' पढ़ा था क्या?"
सुहानी,"हाँ।"
संतोष ने हैरानी जताई, "कब? संग्रह कैसा लगा?"
सुहानी, "तुमने ही तो दी थी यार। फिर वापस भी ले ली थी। अच्छी थी। लिखते रहो संतोष।"
संतोष कुछ देर के लिए झेंप गया। फिर सहज होते हुए आगे लिखा, कुछ औपचारिक होता हुआ, "मेरी कविताएँ भी तो पत्र पत्रिकाओं में आती रहती हैं। उन्हें देख पाती हो?"
सुहानी, "कहाँ देख पाती हूँ! बता दिया करो यार, जब भी आए।"
संतोष, "ओके।"
सुहानी, "चलो यार, अब मैं चली सोने।"
संतोष ने तब तक एक पंक्ति लिख ली थी। डिलीट करने से अच्छा उसे भेज देना ही लगा। उसने लिखा, "'जन-सरोकार' के हालिया अंक में मेरी लिखी एक समीक्षा आई हुई है सुहानी। पढ़ कर बताना।"
"ओके। पढ़ कर बताऊंगी। चलो बाय... सो जाओ। मैं भी सोने जा रही हूँ। फिर ज़ल्दी ही बात करते हैं संतोष।"
"थैंक्स सुहानी।"
"थैंक्स फॉर व्हाट? नो थैंक्स बिटवीन द फ्रेंड्स।"
संतोष ने इधर से स्माइली फेंकी।
"बाय एंड गुड नाईट संतोष।"
"तुमसे अच्छी बातचीत हो जाती है सुहानी।" इस बातचीत से कुछ संतुष्ट होता हुआ संतोष ने टिप्पणी की।
"गुड नाइट।" इसके आगे आदतन "लव यू" लिखता संतोष रुक गया। कुछ देर के लिए अभ्यस्त उँगलियाँ, अतीत के किसी बर्फ-खंड से छुआ गई थीं। मगर शीघ्र ही वह अपने वर्तमान में लौट आया था। संतोष सहसा उस दुनिया और मनःस्थिति से वापस आ गया। कुछ सेकंड्स में ही उसे ऐसा लगा मानो टाइम मशीन से यात्रा कर वह वापस अपने वर्तमान में आ गया हो। उसकी कल की प्रेमिका सुहानी आज किसी और की पत्नी है। और वह स्वयं भी तो दो बच्चों का पिता है। रूमानियत पर यथार्थ की लगाम कस गई। 'लव यू' को मिटाते हुए उसे अपनी पूर्ववर्ती प्रेम कहानी का अधूरापन कचोट रहा था। मगर वक़्त की मार सहता और शब्दों व भावनाओं की दुनिया में डूबता उतरता संतोष अब नीलकंठ बन चुका था। गृहस्थी को सँभालते-सँभालते वह स्त्रियों के कई दृष्टिकोणों और उनके आतंरिक संघर्षों को समझने लगा था। अपने लिए सुहानी का इतना सोचना और उसे यह विशेष समय देना अब संतोष को अच्छा लगने लगा था। इतने वर्षों में वह स्वयं को यह तसल्ली देने में कामयाब हो चुका था कि सलोनी उसके लिए नहीं बनी थी और वह भी शायद उसके लिए नहीं उपयुक्त नहीं था।
अंत में स्क्रीन पर सूचना आ जाती है कि सुहानी साइन ऑफ कर के चली गई है। उसने फेसबुक मैसेंजर पर फ़िलहाल संवाद की उपलब्धता छोड़ दी है।
एक युवा लेखक और उसकी पुरानी महिला दोस्त के बीच इतनी ही बातचीत हो पाती है। चार साल के बी-टेक कोर्स में कभी दोनों साथ थे। दोनों का एक दूसरे के प्रति हल्का लगाव था जो क्रमशः प्रेम की परवान चढ़ा। मगर दो वर्षों तक की संतोष की सुदीर्घ बेरोजगारी और उसकी लेखकीय आवारगी के बीच व्यावहारिक सुहानी ने उससे किनारा करना ही मुनासिब समझा। इस बीच 12 साल गुजर गए। अब दोनों की अपनी घर- गृहस्थी है। दिल और दिमाग के किसी कोने में एक दूसरे के प्रति जो थोड़ी बहुत गर्माहट शेष है, उसी के तहत दोनों एक दूसरे की खोज खबर ले लेते हैं। फोन पर कम, चैटिंग पर अधिक। कदाचित दोनों जानते हैं, फोन से अधिक सहज वे चैटिंग में ही रहेंगे। सोने से पहले सुहानी जब-तब, मन-मुताबिक चैटिंग कर लेती है। इस बीच जब संतोष ऑनलाइन होता है, वह उससे बात करता है।
कभी यह आज की दुनिया है और इसी दुनिया में संतोष लगातार कुछ न कुछ लिखता चला जा रहा है। उसे निराशा घेरती है मगर फिर आशा की एक नई सुबह के साथ वह अपने काम पर चला जाता है। अपने स्वास्थ्य की क़ीमत पर तो कभी किसी तरह समय चुराकर वह लैपटॉप पर या मोबाइल पर अपने विचारों को दर्ज़ करता चला जाता है। वह विधा के किसी पारंपरिक स्वरूप को लेकर बहुत फसी नहीं होना चाहता है। वह वरिष्ठ लेखकों की ठकुरसुहाती में अपनी ऊर्जा और अपनी मौलिकता भी गँवाना नहीं चाहता है। हाँ, उसे अपने जिए हुए को दर्ज़ करना पसंद है। उसे लगता है, अगर उसके पास अभिव्यक्त करने के लिए कुछ है, तो उसे ज़रूर अभिव्यक्त करना चाहिए। बेरोजगारी अब रही नहीं। अपने परिवार को पूरी सुख सुविधाएँ देता है। मगर भीतर की आवारगी बीच-बीच में फन उठाती है। संतोष मन ही मन अपने मिज़ाज़ पर मुस्कुरा उठता है। वह सोचता है, साहित्य के बीहड़ में उसके पात्र नहीं, वह स्वयं विचरता है।
***