कार्तिकेय और गणेश Arpan Kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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कार्तिकेय और गणेश

कार्तिकेय और गणेश

अर्पण कुमार

बिलासपुर की शुभम सोसायटी महाराणा प्रताप चौक से आगे गौरव पथ पर आए दिन गुलज़ार रहा करती थी। यह इलाका पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से विकसित हुआ था। शुभम सोसायटी में कोई खेल का बड़ा मैदान न था। अमूमन यहाँ की किसी भी सोसायटी में यह सुविधा नहीं थी। हाँ, इधर शहर के आउटस्कर्ट पर बन रही सोसायटियों में स्वीमिंग पुल और पूरे आकार के बैडमिंटन कोर्ट बनने लगे थे। मगर शहर के भीतर और उसके आसपास की सोसायटियों में लोगों को छोटे आकार के लिफ्ट और बैडमिंटन से ही काम चलाना पड़ रहा था। जो भी हो, कई अलग-थलग और संकुचित गलियों में अपने सिर धुनते मकानों की तुलना में नव-दंपत्तियों को ये अपार्टमेंट पसंद आ रहे थे। महिलाओं को कंपनी मिल जाया करती थी और बच्चों को खेलने के झुंड। वृद्ध-वृद्धाओं को भी अपने जैसे कुछ लोग मिल ही जाया करते थे। कामकाजी पुरुष देर रात तक घर लौटते और वे घर में आकर बस निढाल ही हो सकते थे। सुबह-सुबह उनमें से कुछ सोसायटी के अंदर आठ-दस चक्कर ज़रूर लगा लेते। कुछ को साइकलिंग का भी शौक था, जिसे वे छुट्टी के दिनों में ख़ास तौर से पूरा करते। शुभम सोसायटी के उत्तर-पूर्वी कोने में गणेश जी का मंदिर स्थापित था और उसी के पास एक छोटा सा बैडमिंटन कोर्ट था। बच्चे उसी कोर्ट में हर शाम बिना नागा किए खेला करते थे। बैडमिंटन कोर्ट में बैडमिंटन तो कम फुटबॉल और क्रिकेट अधिक खेले जाते थे। निश्चय ही जगह कम थी, मगर कम जगह में भी जब बच्चे खेलते, तब वह जगह कुछ बड़ी-सी हो जाया करती।

रणजीत सिंह के यहाँ दो बच्चे थे। एक नौंवी में और दूसरी सातवीं में। इन दिनों बच्चों की नानी अनुपमा सिंह भी उनके पास रह रही थीं। अनुपमा सिंह समस्तीपुर के एक गाँव में रहती थीं और अपनी लंबी-चौड़ी खेती-बाड़ी देखा करती थीं। उनका अपने इलाके में बड़ा सम्मान था। वे पुराने विचारों की थीं। जब वे अपने गाँव में होतीं, उनके यहाँ मेहमानों का आए दिन जमघट लगा रहता। बड़े से अपने घर में वे तथाकथित रूप से पिछड़ा माने जानेवाले उस गाँव में भी वे अपने अतिथियों की अधिक से अधिक सुविधाओं का ख़याल रखा करती थीं। उन्हें यही सब सिखाया गया था और उन्होंने अपने बच्चों को भी यही संस्कार दिए थे। विशाल से दुमंज़िले घर में उन्होंने अपने घर की छत पर कांक्रीट का ख़ूब बड़ा सा टैंक लगा रखा था। नीचे लगे मोटर से पानी ऊपर चढ़ता और फिर बड़े से उस टैंक में पानी भरता। पाँच कमरे नीचे और पाँच पहली मंज़िल पर। हर फ्लोर पर दो-दो शौचालय। वही अनुपमा सिंह अपने दो नवासों के साथ अपना बचपन जी रही थीं। वे प्यार से अपने दोनों नातियों को कार्तिकेय और गणेश कहकर संबोधित करती थीं। अनुपमा सिंह के दो बेटे और एक बेटी थी। अपने पति के गुज़र जाने के बाद उन्होंने बड़े धैर्य से अपने घर को सँभाला। अव्वल तो वे कहीं जाती-आती न थीं, मगर जब सुषमा ने उन्हें कई बार फ़ोन पर बुलाया और अपने पति से भी आग्रह करवाया तो वे अपनी बेटी के इस मनुहार को टाल ना पाईं। उन्हें अपनी इकलौती बेटी-दामाद के आग्रह में ईमानदारी की झलक दिखी। सुषमा भी कहीं न कहीं अपनी माँ के स्वाभिमानी चरित्र को जानती थी । अपने निजी जीवन में काफ़ी आगे बढ़ चुकने के बाद भी, सुषमा कहीं न कहीं अपनी माँ के आगे अब भी बहुत बेबाक नहीं हुई थी। फिर भी, उसे किसी तरह तो अपनी बात रखनी थी। उसने पति के माध्यम से कहा, “ माँ, ये टिकट कटवाने के लिए कह रहे थे। बोलो न. कब का कटवा दूँ?”

उधर से अनुपमा सिंह की तल्ख़ आवाज़ आई, “कैसी बात कर रही हो सुषमा! क्या शहर में रहते हुए तुम हमारे पुराने संस्कार और आदिम मान्याताएँ भूल गई? क्या हमारे यहाँ बेटी-दामाद के घर का अन्न-जल भी ग्रहण किया जाता है!”

“मगर माँ, आजकल इतना कहाँ चल पाता है! क्या अक्षरशः इनका पालन करना संभव है!” सुषमा ने हिम्मत बटोरते हुए कहा।

“अरे मेरी प्यारी बेटी, इतना तो मैं भी जानती हूँ। मगर जितना संभव हो, उतना तो किया जाए। नहीं समझी तुम!” कुछ देर पहले गरजती अनुपमा को मानो अपने कहे के अतिरेक का सहसा भान हो आया था। सुषमा मन ही मन अपनी माँ के तकिया-कलाम को सुन हर्षित हुई। वह समझ रही थी, माँ अपने गुस्से को कुछ-कुछ संतुलित करने का प्रयास कर रही थीं।

“ठीक है, माँ। जैसी तुम्हारी इच्छा। वहाँ तुम्हें टिकट लेने में दिक्कत होगी, ये तो इसलिए ऐसा कह रहे थे।”

“अरे नहीं बेटी, अब अपना गाँव भी पहले जैसा कहाँ रहा! बिजली आ गई। सरकारी पानी आ गया। नए लड़कों के हाथों में मोबाइल आ गया । किसी को भी बोल दूँगी। वह टिकट ले लेगा।”

सुषमा को अच्छा लगा। वह वापस अपने पुराने दिनों में पहुँच गई। उसे अपने गाँव ‘कल्याणपुर’ में ये परिवर्तन बड़े प्रीतिकर लगे। वह मानो चालीस वर्ष की प्रौढ़ा न होकर चार वर्षों की कोई बालिका हो गई। उसे तब के अपने गाँव की कई छवियाँ याद हो आईं। घर के अहाते में वो अमरूद के पेड़ पर चढ़कर धमा-चौकड़ी करना, आसपास की सहेलियों के साथ पूरे गाँव की परिक्रमा करना, दुपहरी में कहीं किसी सहेली के यहाँ बैठकर घंटों कैरमबोर्ड तो लुडो खेलना। सरस्वती पूजा में भी कई सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रुचि रखना। मगर यहाँ छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र की तरह वहाँ उन दिनों गणेश चतुर्थी का कोई विशेष माहौल नहीं होता था। आजकल पटना और उसके आसपास कुछ-कुछ जगहों पर गणेश की प्रतिमाएँ बिठायी जाने लगी हैं। मगर इन राज्यों की तरह तो अब भी धूम-धाम नहीं है। जगह-जगह पर घूमते रहने से व्यक्ति की आदत, तुलनात्मक विश्लेषण करने की हो जाती है। यह काम सुषमा ज़्यादातर अपने पति और अपनी सहेलियों के साथ किया करती । कई बार वह डायरी भी लिखा करती। उसमें भी इन बातों को जब-तब वह दर्ज़ कर लिया करती । इतिहास में पीएचडी और बी.एड. सुषमा को भारतीय संस्कृति से बड़ा लगाव था। पति एक बैंक में अफसर थे और उनका चार-पाँच सालों के अंतराल पर ट्रांसफर हुआ करता था। बच्चों की ख़ातिर सुषमा ने कोई स्थायी नौकरी नहीं की। मगर जिस शहर में जाती, वहाँ किसी अच्छे पब्लिक स्कूल में वह पढ़ाने लगती। उसकी डिग्री और उसके सुदीर्घ शैक्षणिक अनुभवों को देखते हुए उसे बच्चों के पढ़ाने का काम आसानी से मिल जाया करता। उसके पति रणदीप कई बार हाईवे पर कार चलाते हुए या किसी समुद्र में मोटर बोट से यात्रा करते हुए मज़ाक में ही सही अपने ईश्वर को याद करते और बुदबुदाते, “ देखो भगवन्, अगर रोक सको तो हमारे परिवार पर तेज़ी से आती किसी अनहोनी की आँधी या सरकती आती किसी विपत्ति की लहर को रोक लेना। और अगर वह तुम्हारे हाथों में नहीं हो तो कम से कम मेरी सुषमा को ज़रूर सही सलामत रखना। मुझे चाहे अपंग बना दो या मार दो, चलेगा, मगर जब तक मेरे दोनों बच्चे स्वावलंबी नहीं हो जाते, सुषमा को कुछ नहीं होना चाहिए।”

सुषमा प्यार से अपने पति को झिड़क देती, “ चुप रहिए, कुछ भी बोलते रहते हैं। आप तो नब्बे पार जाएँगे। मेरा हृदय कहता है। अपने बड़े बाबूजी की तरह। और हाँ, आज यह भी सुन लीजिए, मैं इतना भी नहीं कमाती हूँ कि आप मेरे भरोसे रह सकें। सुन लिए, अब उसी भगवान की ख़ातिर, चुप हो जाइए।”

आँखों ही आँखों में सुषमा ने अपने पति को हँसी-ठिठोली करते हुए बरज दिया ।

उस दिन 05 सितंबर था, जब अनुपमा सिंह, अपनी बेटी के घर, पहली बार, बिलासपुर आईं। शिक्षक दिवस के दिन। सुषमा को लगा, उनकी माँ नहीं, उनके बचपन का गुरु उनके पास आया है। उसके दोनों बच्चों को भी उसकी ही तरह, उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। इस साल, यहाँ 13 सितंबर को गणेश चतुर्थी थी। पूरा शहर इसकी तैयारी में व्यस्त था। शहर का अधिक से अधिक परिवार अपने सामर्थ्य के अनुसार अपने घरों में गणेश जी को स्थापित करने की तैयारी कर रहे थे।

अनुपमा सिंह अपने दोनों नवासों के साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहती थी। उन्हें उनकी माँ की ही तरह परियों और जंगलों की कहानियाँ सुनाना चाहती थी। उन्हें तो अपने बच्चों को ऐसे ही पालना आता था। और उनके दोनों बेटे और यह बेटी अपने-अपने क्षेत्र में बिल्कुल सफल भी हुए । उन्हें आश्चर्य होता, उनके नवासों को इन कहानियों में कोई विशेष रुचि न थी। वे या तो बाहर खेलने जाते या टीवी देखते। और इन दोनों से ऊपर जब मौका मिलता, वे मोबाइल में घुस जाते। किसी न किसी गेम में व्यस्त हो जाते। और तो और वे उनके पुराने-से मोबाइल में भी कोई न कोई गेम तलाश लेते। उन्हें अपनी नानी से अधिक मानो उनका मोबाइल प्रिय था। अनुपमा जी को यह सब अच्छा न लगता, मगर वे मन मसोस कर रह जातीं।

बाकी वर्षों की तरह इस वर्ष भी शुभम सोसाइटी में गणेश चतुर्थी बड़े धूमधाम से मनाई जा रही थी। लगातार पांच दिनों तक फंक्शन था और हर रात बच्चों और बड़ों के लिए कुछ न कुछ प्रतियोगिताओं का आयोजन था और रात्रिभोज भी सामूहिक रूप से हो रहा था।

रणजीत और सुषमा के दोनों बच्चे अपने को अब बड़े की तरह ट्रिट किया करते थे। उत्कर्ष नौवीं क्लास में आ चुका था और और हर्ष क्लास सेवन में था। अपने अपने हिसाब से मस्ती और पढ़ाई के बीच वे संतुलन साधने का प्रयत्न किया करते। कई बार इस कोशिश में चारों खाने चित्त गिर भी जाते। उत्कर्ष इन दिनों अपनी इमेज को लेकर बड़ा सजग हो गया था। उसे अपनी नानी अनुपमा का किंचित गँवई रूप कहीं न कहीं अपने दोस्तों के बीच अखरने लगा था। वह अपने बचपन के चित्रों को भी अपने फेसबुक पेज पर लगाने से बचना चाहता था। उसके अंदर प्रदर्शन की ऐसी चाहत थी की अपनी उम्र से ख़ुद को ज़्यादा समझने लगा था। वह अपनी माँ के मोबाइल पर जबर्दस्ती कर अपना फेसबुक-पेज बना चुका था। हर्ष भी कहीं ना कहीं अपने बड़े भाई के नक्शे-कदम पर चल रहा था। रणजीत अपने बच्चों के बदलते व्यवहार को समझ रहे थे मगर ज्यादा कुछ बोलने की उनकी आदत न थी । माँ सुषमा जब-तब कुछ बोल देती मगर अब बड़े बच्चे कई बार उससे सवाल जवाब करने लगे थे।

नीचे सोसायटी की पार्टी में जब बाकी बच्चों ने अपनी दादी और नानी के साथ डांस किया तो सुषमा ने धीरे से अपने दोनों बेटों को अपने पास बुलाकर कहा, “ तुम दोनों भी अपनी नानी के साथ डांस करो।”

पहले से ही शर्मीले इन दोनों बच्चों को यह गवारा ना हुआ। उन्हें यह लगने लगा था कि उनकी नानी उनके दोस्तों की शहरी दादी और नालियों की तुलना में कहीं कमतर है। जब वे उनके साथ डांस करेंगे, तो उसकी जग-हँसाई होगी। बड़ा बेटा चुप रहा। छोटे बेटे ने बिंदास सुना दिया, “मम्मी, नानी बिल्कुल देहात की हैं। ठेठ गांव की । मैं उनके साथ डांस नहीं करूंगा।”

पास ही बैठी अनुपमा सिंह ने इस वार्तालाप को सुनकर भी अनसुना कर दिया। उनकी आँखें भर आई थीं। अपने आँचल के कोर से उन्होंने अपनी आँखों को पोंछ लिया।

ठीक दो दिनों बाद स्कूल में पेरेंट्स टीचर की मीटिंग थी। सुषमा ने तय किया कि इस बार मीटिंग में माँ भी चलेंगी। वे बच्चों के स्कूल को देख लेंगी। इस बार बड़े बेटे ने मोर्चा सँभाल किया, “ मम्मी, नानी रस्टिक हैं। वे हमारे स्कूल नहीं आ सकतीं|”

पहले से ही तिलमिलायी सुषमा को गुस्सा आ गया। उसने उत्कर्ष के गाल पर एक तमाचा लगा दिया। भुनभुनाता हुआ वह फ्लैट से बाहर निकल गया। लिविंग रूम में अखबार पढ़ रही नानी ने पूछा, “क्या हुआ बेटे?”

वह बड़बड़ाया, “ सब कुछ की जड़ में तो आप ही हैं। .... मुझे बेटा मत कहो|”

एक रौबदार व्यक्तित्व की स्वामिनी अनुपमा को लगा कि शहर के एक फैंसीनुमा फ्लैट में वे सिमट कर रह गई हैं। वे जिन बच्चों के लिए यहाँ आई हैं, उन्हें उनसे कोई मतलब नहीं हैं। उलटा, वे तो उन्हें टाट में लगे किसी पैबंद सा देख रहे हैं। ऐसा तिरस्कार सहना उनके स्वभाव में नहीं था, मगर बेटी-दामाद और नातियों का मोह उन्हें खींच लाया था। उन्होंने निश्चय कर लिया। वे शीघ्र अति-शीघ्र बिलासपुर छोड़ देंगी। अपने गाँव चली जाएँगी। वे रात भर सोचती रहीं। उन्हें अपने नातियों के ऐसे रुखे व्यवहार का बहुत बुरा लगा था। सुबह-सुबह सुषमा से इतना ही कहा, “बेटी, मुझे गाँव में बहुत काम है। मुझे वहाँ जल्दी जाना होगा। काफ़ी दिन हो भी गए। अब जाना चाहती हूँ।

“अभी-अभी तो आई हो माँ। पहली बार तो तुम्हारे कदम हमारे घर पड़े हैं।अभी रुक जाओ न!” अनूपमा से ज़िद करते हुए कहा।

अनुपमा को नहीं मानना था।सो नहीं मानी। बोलीं , “ अरी मेरी पगली बेटी, मैं फिर आऊंगी।अभी जाने दो।” उन्होंने दो हज़ार रुपए सुषमा के हाथों में पकड़ाए और बोलीं, “दामाद जी को देकर मेरा टिकट कटवा बनवा लेना। मुझे रविवार को यहाँ से चले जाना है|”

सुषमा के अंदर की बच्ची अपनी माँ से भी डरती थी| उसने रुपए अपने पति को दे दिए और उन्होंने रविवार को यहाँ से पटना जानेवाली एक्सप्रेस की टिकट काट दी।

रविवार का दिन भी आ गया। अनुपमा जी अपने दामाद के साथ स्टेशन चली गईं।

सुषमा अपनी माँ के कमरे को साफ कर रही थी। तभी उसे, उनके तकिए के नीचे एक टिकट मिला जो आज से लगभग पंद्रह दिनों बाद का था। सुषमा को समझ में नहीं आया कि जब माँ के पास उनके जाने का टिकट पहले से था तो फिर उन्होंने नए टिकट क्यों बनवाए! वे समय से पहले क्यों चली गईं!

ठीक उसी समय उसके पास उसके दोनों बच्चे भी आ गए। शायद वे भी अपनी नानी के यूँ जाने से पश्चाताप की अग्नि में जल रहे थे। उन्होंने अपनी मम्मी को साफ़-साफ़ सारी बातें बता दीं। वे किस तरह बीच-बीच में अपनी नानी का मजाक उड़ाया करते थे और संभवत यह सब उन्हें बहुत बुरा लगा और वे समय से पहले इस घर को छोड़कर चली गईं।

आनन-फानन में सुषमा अपने दोनों बच्चों को लेकर स्टेशन पहुँचीं। सीधे अपनी माँ के बर्थ पर आ गई। दोनों बच्चे पहली बार अपनी नानी के पाँवों में झुके थे। वे अपनी नानी को सॉरी बोले जा रहे थे और उनसे घर लौट चलने की ज़िद कर रहे थे। ट्रेन सीटी दे चुकी थी। अनुपमा जी ने उन्हें अपनी छाती से लगाया और ट्रेन से नीचे उतर गईं। ट्रेनचल चुकी थी। अनुपमा जी ने अपने नवासों के गालों को सहलाते हुए कहा, “ चलो, मेरे कार्तिकेय-गणेश, घर चलो। तुम जीते, मैं हारी।”

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