जल-समाधि Arpan Kumar द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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जल-समाधि

जल-समाधि

अर्पण कुमार

युद्ध क्या है ! राष्ट्रवाद के उन्माद में शहादतें होती हैं, दुश्मन और दोस्त तय किए जाते हैं। कई दोस्त मिलकर कई दुश्मनों को मारते हैं। जो दिनभर विजेता की तरह आगे बढ़ रहे थे, अचानक शाम होते होते पीछे हट रहे थे। बाउंड्री बनाई मिटाई जाती है। कभी नक्शे पर रणनीतियां बनाई जाती हैं, तो कभी उबड़ खाबड़ रास्तों पर टैंक दौड़ाए जाते हैं। हड्डी को कंपकंपाती ठंड में जहाँ रतजगा करना होता है, वहीं आत्मा तक को झुलसाती गर्मी में दिनभर यूनीफॉर्म पहने और कंधे पर बंदूक रखे चौकसी करनी पड़ती है।

हथियारों की सौदेबाजी होती है। बड़े बड़े वादों के बीच, बड़े-बड़े घोषणाओं के बीच कैसे छोटे-छोटे अरमानों के पौधे दबाए और कुचले जाते हैं । कई नन्हीं कोंपलें असमय बर्बाद हो जाती हैं । युद्ध कोई ढाई अक्षरों का शब्द नहीं बल्कि युगों युगों तक अपने प्रभाव से डराते रहने वाली एक हिंसक प्रक्रिया है, एक अप्रिय तथ्य है, एक बलात परिघटना है।

माउंटबेटन योजना और भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के मद्देनज़र भारतीय उप महाद्वीप दो हिस्सों में बँट गया। भारत और पाकिस्तान । इस विभाजन के दौरान एक करोड़ से अधिक लोगों ने पलायन किया। इसे दुनिया के कुछ बड़े पलायनों में से एक माना जाता है। मगर यह पलायन शांतिपूर्ण नहीं था। इस दौरान भारत-पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक हिंसा, बलात्कार, हत्या और लूट की सैंकड़ों घटनाएं हुईं जिनमें मानवता तार-तार हुई। दोनों ही देशों में लाखों लोग कई कई सालों तक अपरिचित और नई जगहों पर टेंटनुमा आवासों में अपने समय गुजारे। यह कहानी एक ऐसे ही परिवार की है। यह कहानी सिर्फ एक परिवार की न होकर ऐसे कई परिवारों की कहानी है।

गुरुमुख नाथानी के दादा श्याम लाल नाथानी मध्यप्रदेश के कटनी में रह रहे थे। वे यहाँ पाकिस्तान के सिंध प्रांत से भागकर आए थे। हर समय अपने गुरु झूलेलाल के स्मरणों में खोए रहनेवाले श्याम लाल के लिए अपने पुरखों की ज़मीन को अचानक छोड़ कर आना आसान न था।

गुरुमुख जब छोटा था, तब खाड़ी युद्ध हुआ था। टीवी पर महाभारत और रामायण की कल्पनाएँ मानो सच हो उठी थीं। लोग टीवी के परदे पर घर बैठे युद्ध की विभीषिकाओं के आक्रामक तेवर देख रहे थे। यह पूरी दुनिया को मानो युद्ध के प्रभाव में प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से लाने की कोशिश थी । गुरुमुख का किशोर मन अभी इतना वयस्क कहाँ हुआ था ! टीवी देखते देखते वह एक अपने दादा से कह बैठा " दादा जी !देखिए तो कितने पटाखे चल रहे हैं ! "

श्यामलाल का मन दुखी हो गया । बोले, " बेटा, ये पटाखे नहीं हैं। मनुष्य के पतन के आविष्कार हैं। ये सिर्फ़ शोर पैदा नहीं करते बल्कि हमें गूँगा, बहरा और अंधा बनाते चले जा रहे हैं। ये हमारी संवेदनाओं की तरलता को जला रहे हैं। हमारे भीतर की मनुष्यता को सोख रहे हैं।"

गुरुमुख ने अपनी उम्र से दो क़दम आगे बढ़कर अपने दादा से सवाल किया, " दादाजी, मैंने तो स्कूल में पढ़ा है कि दुनिया का कोई भी आविष्कार मनुष्य की भलाई के लिए होता है। फिर आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? फिर यहाँ पतन की बात कहां से आ गई!"

श्यामलाल ने अपने पाठानी कुर्ते की सलवटों को ज़रा ठीक करने की कोशिश करते हुए उसे समझाने की कोशिश की, “ देखो गुरुमुख, मनुष्य लगातार गिरता चला जा रहा है। हर अगला युद्ध हमें कुछ और अधिक जानवर बना जाता है। जो जिंदगी हम किसी को दे नहीं सकते उसे लेने का हमें हक किसने दिया!”

गुरुमुख ने तो अभी किशोरावस्था में क़दम रखा ही था। दादा जी की बातों को कितना समझ सका और कितना नहीं, इसका ठीक ठीक अंदाज़ा लगाना ज़रा मुश्किल था। मगर श्यामलाल युद्ध से जुड़ी बातें करते-करते जाने कब अपने अतीत की ओर चले जाते और फिर वहाँ की एक-एक चीज़ों को याद करने लगते। हैदराबाद की हवेली का एक एक कोना उनकी आँखों के आगे घूम जाता। उनकी पत्नी को कटनी की आबोहवा शायद जमी नहीं या फिर वे कोई चिड़िया बनकर अपनी हवेली के आँगन, ओसारे और उसकी छत पर फुदकना चाहती हों और अब ऐसा करना इस जन्म में नामुमकिन होता देख शायद अपने प्राण त्यागने में ही भलाई समझी हो, जो भी कारण रहा हो, कटनी आने के साल-भर के भीतर वे ऐसी गिरीं की फिर उठ न सकीं। उस समय श्यामलाल की बहू गौरी अपने भावावेग पर काबू न पा सकी थी और बोली, “बाबूजी, हमारी सेवा में ही शायद कोई कमी रह गई थी। ...”

वह आगे कुछ बोलती, उसके पहले ही श्यामलाल ने उसकी आँखों से बहते आँसुओं को पोंछते हुए कहा, “रो मत मेरी बच्ची। तुम तो सचमुच ही गौरी हो। इसमें तुम्हारा कोई कसूर नहीं है। उसे तो यहाँ कभी जी लगा ही नहीं। समुद्र के किसी बड़े जहाज पर बेमन से मँडराने वाली वह कोई पक्षी थी। उसे तो अपने वतन जाना ही थी। वह वहीं कोई गौरैया के रूप में अपने घर में इधर-उधर फुदक रही होगी। शादी के बाद जब पहली बार वह उस हवेली में आई थी, तबसे ही उसने उस घर को अपना मंदिर बना लिया था। बाकी सिन्धी परिवारों की तरह हमारे यहाँ भी श्रीराम और श्रीकृष्ण की मूर्ति के साथ-साथ शिव-दुर्गा और गुरु नानक की मुर्ती को वह एक समान भाव से पूजा करती थी। और हाँ, साई भाजी पुलाव के साथ परोसा उसका फ्राई भिन्डी दही क्या कमाल का संयोग हुआ करता था!”

गौरी ने देखा, उन हँसती बूढ़ी आँखों से आँसू बहने लगे थे। इस बार गौरी की बारी थी। अपने ससुर के आँसुओं को पोंछती हुई बोली, “ आप भी न पापाजी, एकदम से बच्चे बन जाते हैं। बिल्कुल गुरुमुख की तरह।”

श्यामलाल भी मुस्कुरा दिए। उस बूढ़े चेहरे पर निर्मलता की एक अलौकिक आभा साफ नज़र आ रही थी।

गौरी इठलाती हुई स्कूल पढ़ती कोई बच्ची बन गई। नखरे दिखाती हुई और अपनी आँखें मटकाती हुई बोली, “पापाजी, आपने मम्मी जी की तो ख़ूब तारीफ़ कर दी। मगर मैं? क्या मुझे कुछ नहीं आता! क्या मैं सिंधी समाज के व्यंजन-परंपरा से बिल्कुल अनभिज्ञ हूँ? बोलिए, बोलिए?”

श्यामलाल ने अपने गुरु झूलेलाल को स्मरण किया और उनके प्रति मन ही मन कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा, “बेटी, तुम्हारी जैसी रूपमती और गुणी बहू तो नसीब वालों को ही मिलती है।” फिर पुराना कोई स्वाद स्मृति से मानो जिह्वा पर पुनः अवतरित हो गया हो, उसे याद करते हुए और चटखारे लेते हुए अपने बहू की प्रशंसा में कसीदे पढ़ने लगे, “ ये जो गौरी है न, वह इमली डालकार बेसन की कढ़ी ऐसी बनाती है न कि बस अपनी ऊँगलियाँ चाटती रह जाओ। और हाँ वह मामूली कढ़ी नहीं होती। उसमें कई तरह की सब्ज़ियाँ डाली जाती हैं”। और फिर श्यामलाल उसे किसी उत्साही बच्चे की तरह गिनाने भी लगे, “बैंगन, कद्दु, सूरन, भिंडी, आलू और न जाने क्या क्या!”

“बस कीजिए बाबूजी, ऊपर आसमान से अम्माजी भी देख रही होंगी। क्या सोचेंगी, उनके जाते ही आपने पार्टी बदल ली| पत्नी की छोड़ बहू की तरफ़दारी करने लगे”

गौरी शर्माती हुई रसोई की ओर भाग गई। जाते-जाते बोली, “ मैं आपके लिए चाय बनाकर लाती हूँ|”

***

एक दिन गुरुमुख ने अपने दादा से पूछा, 'दादाजी, इतने सारे बम फटने से प्रदूषण भी तो होते होंगे। वायुमंडल भी सांस लेने लायक नहीं बचता होगा।"

"हाँ बेटा, यह तो है ही। पहले ही नफरतों ने यह दुनिया रहने लायक नहीं छोड़ी है और दूसरे आयुधों के दिनोदिन बढ़ते इस्तेमाल ने तो इस पृथ्वी को नरक ही बना छोड़ा है। युद्ध एक हलचल है। इसमें सबका परिवार नष्ट हो जाता है । कोई खुश नहीं रहता है। न जीतनेवाला और न हारनेवाला। तुम्हें याद है, जिन पायलटों ने हीरोशामा और नागाशाकी पर परमाणु बन गिराए थे, उन्होंने आत्महत्या कर ली थी| और जो लोग अपने परिजनों को किसी युद्ध में खोए बैठे हैं कई बार उनकी याद में जिंदा लोगों की हालत भी मृतप्राय हो जाती है|”

गुरुमुख को तभी उसकी मम्मी ने बुला लिया। धुंधलका हो गया था और उन्हें शौच के लिए बाहर जाना था। घर का दरवाज़ा अंदर से बंद करने को कह वह पड़ोस की दूसरी दूसरी स्त्रियों के साथ बाहर चली गई । इन सभी स्त्रियों के पति अपने अपने व्यवसायों को लेकर संघर्षरत थे । दुकानें जमा रहे थे और परिवार को किसी तरह पटरी पर लाने की कोशिश कर रहे थे।

श्यामलाल जैसे बुजुर्ग घरों में बैठे रहते और अपनी हालत पर तरस खाते रहते। भारत-पाक विभाजन को कोसते हुए एक दिन श्याम सुंदर अपनी बहू से कहने लगे , "अच्छा होता बहू कि हम आजाद ही नहीं होते! कम से कम अपने इलाके में सुख चैन से रह तो रहे होते। इससे अच्छा तो यही था कि हम गुलाम ही रहते! इस आजादी ने हमें क्या दिया! हमसे हमारा घर बार, खेत खलिहान, जमीन जायदाद, दुकानें सब छीन लीं। हम कम से कम पाकिस्तान में ठीक से रह तो रहे थे। दो जून की रोटी इज्जत के साथ खा तो रहे थे। इस तरह हमारी स्त्रियों को घर से बाहर मौके-बेमौके निकलना तो नहीं पड़ रहा था। हम आज यहाँ एक-एक पैसे के मोहताज बने हुए हैं। क्या मैं यही दिन देखने के लिए जिंदा हूँ! हमारी बहू-बेटियां इस तरह वहाँ मौके-बेमौके बाहर तो नहीं जाती थीं! आज हम एक एक पैसे के मोहताज बने हैं । इस आजादी ने हमें क्या दिया ! इससे तो लाख भली गुलामी ही होती है|”

गौरी क्या बोलती वह चुपचाप अपने कमरे में चली गई ! वह अपने ससुर की हताशा को समझ रही थी।

जब कभी और जहाँ भी युद्ध की बात होती, श्यामलाल नाथानी इन बातों को दोहराते। उनके पुराने घाव हरे हो जाते। उन्हें पाकिस्तान से भारत आए अरसा हो गया था, मगर अभी भी उनका दिल पाकिस्तानी हैदराबाद की उन्हीं गलियों में ही रमा रहता। खाड़ी युद्ध के दिनों में टीवी के सामने बैठे हुए वे चुपचाप युद्ध से जुड़े समाचारों को सुनते रहते। उनके भीतर अतीत और वर्तमान का अपना युद्ध जाने कब से ज़ारी था।

गौरी नाथानी अपने ससुर का बड़ा आदर करती थी और हरदम उनकी छोटी-मोटी ज़रूरतों का ध्यान रखती थी।

आसपास के सभी लोग वे अभी टेंटनुमा घरों में थे। सार्वजनिक शौचालाय की व्यवस्था थी मगर आए दिन उसमें जाम लगा रहता था। कोई आधा किलोमीटर की दूरी पर एक तालाब था जिसके आसपास की झाड़ियों में स्त्री-पुरुष निवृत्त हुआ करते थे। एक मूक समझौते की तरह स्त्रियों का क्षेत्र अलग और पुरुषों का क्षेत्र अलग था। मगर शहर के कुछ शोहदे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते थे। वे इधर-उधर ताक-झाँक में लगे रहते थे। शहर से कुछ बाहर स्थित तालाब तक रास्ता झाड़-जंगलों से भरा हुआ था। महिलाएँ इसलिए समूह में जाया करती थीं। तड़के सुबह और गोधूली में। मगर हर समय कोई नियम कहाँ सधा रह पाता है! आए दिन कभी कोई तो कभी कोई इन कामों के लिए पकड़ा जाता, उसे डाँटा-पिटा जाता मगर हर रात मच्छरों की नई फौज की तरह उनकी संख्या बढ़ती ही चली जाती। उसमें नए मच्छर शामिल होते जाते। जितनी गंदगी साफ करो, नए सिरे से गंदगी का अंबार जमा हो जाता। आसपास के ये टेंटनुमा घरों में रहनेवाले रिफ्यूजी लोग आए दिन अपमान का घूँट पीकर रह रहे थे। शहर के कुछ नामी-गिरामी घरों के बिगड़ैल बच्चों ने भी इधर की गलियाँ नापनी शुरू कर दी थीं। देखने-दिखाने के लिए प्रशासन की ओर से कुछ धड़-पकड़ होती, मगर वे नाकाफ़ी थीं। उनका कोई सार्थक प्रभाव पड़ता दिख नहीं रहा था। आसपास के लोग भी इस टोली को एक तरह से बाहरी मानकर स्वयं को इनसे अलग-थलग मानकर चल रहे थे।

खुद्द्दार और कभी संपन्न रहे श्यामलाल को यह सब बड़ा नागवार गुज़रता, मगर वक़्त ने उनके पैर और हौसले दोनों तोड़ दिए थे। उस रात भी यही हुआ। अमावस्या की रात थी। सुबह से ही गौरी का पेट खराब चल रहा था। कुछ रोकथाम की कुछ कोशिशों के बावज़ूद भी उसे कई बार जाना पड़ रहा था। पति तो स्टेशन के पास एक छोटे से किराने दुकान को चलाने में जो सुबह जाता, तो फिर देर रात को ही लौटता। ससुर से अपनी प्यारी बहू की दशा देखी नहीं जा रही थी। मगर वे लाचार थे। ....विभाजन में इस तरफ आते वक़्त किसी ने उनपर कुल्हाड़ी से प्रहार कर दिया था। उस समय तो किसी तरह उसपर पतली धोती बाँध सपरिवार उन्हें भारत की सीमा में प्रवेश करने की हड़बड़ी थी। जब उनका उद्देश्य सफल हो गया और परिवार वालों ने ज़िद की तब वे लँगड़ाते हुए किसी तरह डॉक्टर के पास गए। लंबा इलाज़ चला, मगर सेप्टिक के बढ़ते खतरे को देखते हुए उनका पैर घुटने तक काटना पड़ा। जवानी के दिनों में तो लाठी के सहारे कुछ काम-धाम करते रहे मगर अब बुढ़ापे का शरीर पहले जैसा नहीं रह गया था। सो वे ज़्यादातर घर के अंदर रहते। गुरुमुख को बुलाकर एक जाननेवाले की दुकान पर बहू के लिए दवाई लाने भिजवाया मगर मानो उस दवाई से मानो कोई ख़ास फायदा न हुआ। उस रात गौरी का पति दुकान के लिए सामान लाने जबलपुर चला गया था। रात साढ़े आठ बजे वह तालाब की ओर जाकर नौ बजे तक घर लौट चुकी थी। सारे काम निपटाकर और ससुर के पास पानी का जग रखकर गौरी, गुरुमुख के साथ देर तक बातें करती रहीं। आदतन अपनी माँ से दो-तीन कहानियाँ सुनकर वह भी सो गया। गौरी की आँख भी लग गई। मगर पेट के गुड़गुड़ ने उसे जल्द ही जगा दिया और ‘प्रेशर’ बर्दाश्त से बाहर हुआ देख धीरे से बाहर की ओर निकल गई।

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अपराधी अपराध करके निकल चुका था। रात अपनी लहू रोती रही। सुबह तक कोहराम मच चुका था। मुँह अँधेरे तालाब की ओर फारिग होने निकली स्त्रियों ने वह भयानक मंज़र देखा। निष्प्राण देह जगह जगह से चोटिल थी और पानी पर तैर रही थी। सूर्योदय से पहले ही गौरी अपने दरवाज़े पर आ चुकी थी। मगर नाथानी परिवार के लिए वह सूर्योदय नहीं सूर्यास्त था। जड़-मूर्ति नाथानी परिवार की तीन पुरुष-पीढ़ियाँ उसके पास बैठी हुई स्त्रियों की तरह बिलख बिलख रो रही थीं। लोग तरह तरह की बातें बना रहे थे। पुलिस अपनी औपचारिकताओं में जुटी थी। किसी की श्यामलाल से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी। वे सिर्फ बुदबुदा रहे थे मानो स्वयं को दिलासा दे रहे हों…मेरी बहू पवित्र है। गौरी निष्कलंक है। उसने जल-समाधि ली है।

***