वह कौन था Sharovan द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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वह कौन था

वह कौन था ? / कहानी

एक सत्य घटना पर आधारित कहानी /शरोवन

***

'अरे यह थापा है बड़ा ही काम का आदमी. हम स्टूडेंट्स की तो बहुत ही हेल्प कर देता है. बहुत इमानदार भी है, मगर उसमें दो ही कमियाँ हैं. एक तो पीता बहुत है और दूसरा आज तक इंटर पास नहीं कर सका है. हाईस्कूल में उसने पंचवर्षीय योजना पूरी की थी और अब इंटर में भी पांच सालों में पास नहीं हो सका है. हर साल प्राइवेट फार्म भरता है. तू उसके लिए बस एक रंगीन बोतल का प्रबंध कर लेना.'

***

 

'मे आई कम इन सर ?'

'?'- ग्यारवीं कक्षा के छात्र राकेश प्रसाद को कक्षा के बाहर दरवाज़े पर खड़े देख अध्यापक श्री किशन धनगर ने जब देखा तो सहसा ही एक सशोपंज में पड़ गये. वह जानते थे कि उनकी कक्षा के इस छात्र राकेश प्रसाद का नाम एक सप्ताह पहले ही वे फीस समय पर न भरने के कारण, अपने रजिस्टर से काट चुके हैं. हांलाकि, वे ऐसा करना नहीं चाहते थे, पर विद्दयालय के नियमों और क़ानून से वे भी जुड़े हुए थे, वे करते भी क्या? उन्होंने कुछ न कुछ सोचते हुए राकेश को अंदर आने के लिए कहा कि,

'यस. यू मे कम इन.'

तब राकेश अंदर आया और चुपचाप उनके सामने खड़ा हो गया. वे उससे कुछ और कहते इससे पहले ही राकेश जैसे अपराधबोध की भावना से ग्रस्त होकर उनसे बोला,

'सर ! फीस जमा करके नाम भी लिखवाना है.'

'?' - अध्यापक श्री किशन ने राकेश को बड़ी गम्भीरता से निहारा, सोचा और फिर बोले कि,

'देखो बेटा ! ऐसा दो बार हो चुका है. पहले भी समय पर फीस न भरने के कारण तुम्हारा इस कक्षा से नाम काटा गया था, पर बाद में तुमने फीस के साथ लेट फीस का फायन जमा किया और नाम भी लिखा गया है. अब यह तीसरी बार भी ऐसा हुआ है. इसलिए नियमानुसार इस बार तुमको अपने पिता के साथ यहाँ आना पड़ेगा, तभी तुम्हारी फीस मैं जमा कर सकूंगा और फिर से तुम्हारा नाम कक्षा के रजिस्टर में लिख भी सकूंगा. यह इसलिए है कि, मैं भी जान सकूं कि आखिरकार ऐसी कौन सी बात है कि जिसके कारण तुम्हारी फीस हमेशा ही इतनी अधिक लेट हो जाती है कि तुम्हारा नाम तक कट जाता है. सो कल अपने पिताजी को भी साथ लेकर आना. तब तक तुम आज से ही कक्षा में बैठ सकते हो. जाओ, अपनी सीट पर बैठो.'

'?'- राकेश चुपचाप जाकर अपनी सीट पर जाकर बैठ गया और अध्यापक महोदय फिर से बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त हो गये. 

                राकेश अपने अध्यापक के आदेशानुसार जाकर चुपचाप सीट पर बैठ तो गया था, लेकिन उसके मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के झंझावात भी आने शुरू हो चुके थे. ऐसी स्थिति में बहुत स्वभाविक ही था कि उसका कक्षा में मन ही नहीं लगता. वह अपने मन में बैठा हुआ सोच रहा था कि, अब कैसे वह अपने पिता जी को बुलाकर लाये और अपने अध्यापक के सामने लाकर खड़ा करे? यदि वह अपने पिता से कहेगा तो सारी सच्चाई भी सामने आ जायेगी. अक्सर होता यह था कि, उसके पिता सदा ही उसकी फीस महीने की पन्द्रह तारीख से पहले ही दस तारीख को उसके हाथ में रख देते थे. इतना ही नहीं, उसके अध्ययन से सम्बन्धित यदि कोई अन्य वस्तु, किताब, पेन्सिल, पेन या कॉपी आदि के लिए भी यदि कोई खर्चा होता था तो वे उसके मांगने पर सहज ही दे दिया करते थे. साथ में वे उसे अतिरिक्त मासिक जेब खर्च के लिए भी पैसे दे दिया करते थे. मगर राकेश की आदतें कुछ ऐसी थीं कि वह उनको पूरा करने के लिए अपने जेब खर्च के पैसों के अतिरिक्त फीस आदि के भी पैसे खर्च कर लेता था. मगर वह इतना होशियार भी था कि कोई भी आपत्तिजनक स्थिति आये उससे पहले ही अपनी फीस का प्रबंध करके जमा भी कर देता था. ऐसा एक बार नहीं, आज तीसरी बार हुआ था. अक्सर जब भी ऐसा होता था तो वह अपने पिता से न कह कर अपनी मां की ममता का लाभ उठाकर उनसे पैसे मांग लिया करता था. उसे नहीं मालुम था कि एक दिन ऐसी भी स्थिति आ जायेगी कि उसको अपने पिता को भी अब अपनी कक्षा के 'होम टीचर' के सामने लाना पड़ जाएगा. इन्हीं सोचो और विचारों में कब अध्यापक चले गये और कब आधा स्कूल समाप्त होने के 'इंटरवल' की घंटी बज गई, राकेश को कुछ पता ही नहीं चला. वह अपने भारी मन के साथ कक्षा के बाहर आया और जाकर खेल के मैदान में यूँ ही अपनी किताबें आदि हरी घास पर पटक कर बैठ गया.

       इतने में उसका मित्र अनुज, जो उसकी ही कक्षा के दूसरे भाग में था उसके पास आकर बैठ गया और बैठते बोला,

'कैसे बैठ गया तू आज? बस स्टेंड पर नहीं चलेगा तू चाय आदि पीने ?'

'नहीं. तू चला जा. मेरा मूंड नहीं है.' राकेश बोला.

तब अनुज ने उसे गौर से देखा. फिर बोला,

'क्या बात है? तबियत तो ठीक है तेरी?'

'हां. वह सब तो ठीक है.'

'तो फिर, तेरा मुंह कैसे लटका हुआ है?'

'ऐसे ही.'

'मैं समझा नहीं ?' कहते हुए अनुज भी नीचे बैठ गया और उससे बोला कि,

'बता न यार ! कैसी बात है? हो सकता है कि मैं कुछ मदद कर दूँ?'

'तू करेगा मेरी मदद?' राकेश ने अविश्वसनीय भाव से पूछा.

'हां, क्यों नहीं? पैसे चाहिए?'

'नहीं, पैसे नहीं.'

'तो फिर?'

तब राकेश ने अनुज को सारी बात बता दी. उसको सुनकर वह जैसे गला फाड़कर हंसता हुआ बोला,

'बस ! इतनी सी बात? खोदा पहाड़ और निकला चूहा?'

फिर अनुज ने उसकी समस्या का समाधान बताया. वह बोला कि,

'देख, ऐसा ही  कुछ मेरे साथ भी बहुत पहले एक बार हो चुका था. इस समस्या का एक ही हल है और वह है कि, तू किसी बड़ी कक्षा के छात्र,  जो उम्र में तेरे पिता जैसा दिखता हो, अपने टीचर के सामने लाकर खड़ा कर दे. वह तुझको, तेरे ही टीचर के सामने डांट लगाएगा, तुझे थोड़ा उलटा-सीधा बकने का अभिनय करेगा और फिर तेरा काम हो जाएगा.'

'?' - अनुज के मुंह से यह योजना सुनकर राकेश की आँखों में किसी जीत की पूर्व चमक आ गई तो अनुज आगे बोला कि,

'चल, अब तो चल, चाय पियेंगे और समोसे भी खायेंगे.'

'लेकिन, अब तो 'इंटरवल' समाप्त होनेवाला है?'

' 'इंटरवल' को गोली मार. चल उठ.'

       उसके बाद दोनों मित्र बस-स्टेंड के अंदर बनी केन्टीन पर चले गये और चाय की चुस्कियों के साथ, गर्म  समोसों को आनंद के साथ खाने लगे.

समोसे खाते हुए ही अनुज ने उसी विषय पर बात आगे बढ़ाई. वह बोला कि,

'तू आज शाम को मेरे घर आ जाना. वहीं से हम दोनों थापा के घर चलेंगे.'

'यह थापा कौन?'

'अरे वही, जो एक दिन के लिए तेरा फर्जी बाप बनेगा?'

'अच्छा !'

'अरे यह थापा है बड़ा ही काम का आदमी. हम स्टूडेंट्स की तो बहुत ही हेल्प कर देता है. बहुत इमानदार भी है, मगर उसमें दो ही कमियाँ हैं. एक तो पीता बहुत है और दूसरा आज तक इंटर पास नहीं कर सका है. हाईस्कूल में उसने पंचवर्षीय योजना पूरी की थी और अब इंटर में भी पांच सालों में पास नहीं हो सका है. हर साल प्राइवेट फार्म भरता है. तू उसके लिए बस एक रंगीन बोतल का प्रबंध कर लेना. बाकी हम तीनों कहीं भी बैठ कर वहीं शाम का  खाना भी खा लेंगे. तू आज शाम को आना जरुर. अगर वह कहीं अन्यत्र बुक नहीं हुआ होगा तो समझ ले कि तेरा काम कल सुबह ही हो चुका होगा.' 

       दूसरे दिन राकेश, अपनी फर्जी पिता थापा के साथ अपने अध्यापक के सामने खड़ा हुआ था- लेकिन किसी अपराधबोध की भावना के साथ नहीं बल्कि, एक सत्यवादी, आज्ञाकारी पुत्र के समान और थापा अपने भारी-भरकम शरीर, समय से पहले ही अपनी गलत आदतों के कारण खिचडी हुए बालों के साथ, अपने दोनों हाथ जोड़कर उसके अध्यापक से विनती कर रहा था,

'श्रीमान, गुरु जी, इस बालक का कोई भी दोष नहीं है. मेरी ही कुछ न जाने इस वर्ष किस्मत अच्छी नहीं है. थोड़े से खेत हैं, अभी बाजरे की फसल ठीक हो भी रही थी मगर न जाने कहाँ से गऊ माता रातों-रात आ गईं और सारी पकी-पकाई फसल चर गईं. एक छोटी सी नौकरी भी है, लेकिन उसकी आधी से अधिक तनख्वाह किराए के मकान में चली जाती है. क्या करूं? बच्चों की पढ़ाई हो जाए, इस कारण शहर में पड़ा हुआ हूँ. गाँव समय पर जा नहीं पाता हूँ, मजदूरों से खेत करवाता हूँ. इसलिए आर्थिक दशा कुछ ज्यादा ही बिगड़ चुकी है. आगे से अब कभी भी ऐसा न हो, मैं अपनी तरफ से पूरा प्रयास करूंगा. इस बार क्षमा कर दीजिये और बच्चे का दाखिला कर लीजिये.'

'?'- अध्यापक ने थापा को देखा और फिर राकेश पर एक नज़र डालते हुए बोले,

'नहीं. . .नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं है. फीस समय पर इससे पहले भी नहीं भरी गई थी और छात्र का नाम कट गया था. मैंने इसलिए आपको बुलाया था कि, मैं यह जानना चाहता था कि, आपको इन सब बातों की कोई जानकारी भी है अथवा नहीं. कभी-कभी बच्चे इस प्रकार की हरकतें करते रहते हैं और मां-बाप को कानों-कान ज्ञात भी नहीं होता है.'

'नहीं गुरु जी, इसमें राकेश की कोई भी गलती नहीं है. सज़ा तो मुझे मिलनी चाहिए.' थापा बोला तो अध्यापक ने आगे कहा कि,

'आप मुझे शर्मिंदा न करें और निश्चिन्त होकर जाएँ. आपके लड़के की फीस भी जमा होगी और दाखिला भी हो जाएगा. केवल आगे से ध्यान रखें और लेट फीस होने का फायन बचाने की कोशिश करें.'

       बाद में अध्यापक को नमस्ते करके थापा बाहर निकल आया. इस तरह से अध्यापक की आँखों में दिन-दहाड़े धूल झोंक कर, एक गैर-जिम्मेदार मनुष्य थापा को राकेश का फर्जी पिता बनाकर राकेश का काम तो बन गया और उसकी लापरवाही, फीस के पैसे अनुचित ढंग से इस्तेमाल करने की चोरी को छिपा भी लिया गया. मगर कहा जाता है कि, चोरी की मिठाई जितनी अधिक मीठी लगती है, उतना ही उसकी तासीर का प्रभाव भी बहुत हानिकारक होता है. दूसरे शब्दों में चोरी करनेवाला कभी न कभी पकड़ा ही जाता है. राकेश एक दिन बीमार पड़ गया. उसको ठंड देकर बुखार आने लगा. बुखार भी ऐसा कि एक दिन वह ठीक रहे और दूसरे दिन फिर से बुखार के कारण कांपने भी लगे. पहले तो उसके लिए घर की दवाइयां इस्तेमाल की गई. जब कोई लाभ नहीं हुआ तो वैद्द और होमियोपैथिक की दवा चली, मगर जब इन सबसे भी लाभ नहीं हुआ तो शहर के जाने-माने एलियोपथिक,  मगर मंहगे डाक्टर को दिखाया गया. रक्त की जांच की गई और डाक्टर ने बताया कि, 'राकेश की आँतों में घाव हो गये हैं. उसे टायफायड हो चुका है. पहले चौदह दिनों तक बराबर दवा खानी पड़ेगी. भोजन में केवल दूध और मौसमी का रस और इसके साथ कम से कम तीन सप्ताह तक मुकम्मल आराम की जरूरत भी है.' डाक्टर ने दवाएं लिखी, स्कूल से छुट्टी के लिए डाक्टर की अनुमति की तरफ से एक पत्र भी थमा दिया.

       उसके अगले दिन राकेश के वास्तविक पिता श्री ज्ञानेश्वर प्रसाद भारी मन से राकेश के अध्यापक के सामने उनकी ही कक्षा में अपने दोनों हाथ जोड़े खड़े हुए थे. आरम्भिक नमस्ते आदि के बाद विस्तार में उन्होंने सारी परिस्थिति से अध्यापक महोदय को अवगत कराया और राकेश के बीमार हो जाने की बात बताई. साथ ही उसकी छुट्टी के लिए अपनी तरफ से आवेदन पत्र भी दिया. तब सारी बात को सुनकर और राकेश की छुट्टी का आवेदन पत्र अपने हाथ में थामते हुए, अपने मस्तिष्क पर गहरे बल डालते हुए अध्यापक महोदय उनसे बोले,

'आप राकेश के पिता हैं?'

'जी हां.'

'ज़रा फिर से एक बार अपना नाम बताइए?'

'ज्ञानेश्वर प्रसाद?'

'आप वही हैं न, जो अभी लगभग तीन सप्ताह पहले राकेश के साथ उसकी फीस समय से जमा न करने की बाबत मुझसे मिलने आये थे'

'जी नहीं. मैं तो आपसे आज पहली बार मिल रहा हूँ?' ज्ञानेश्वर प्रसाद बड़ी ही दृढ़ता से बोले तो अध्यापक जैसे पहले से और भी अधिक जिज्ञासू हो गये. उन्होंने अपना संदेह मिटाने के लिए राकेश के पिता से फिर से पूछा,

'आपके लड़के का नाम इससे पहले दो बार कट चुका था, यह आपको मालुम है?'

'जी नहीं.'

'आज से पहले आप राकेश की फीस जमा करने, उसके साथ मेरे पास नहीं आये थे?'

'जी नहीं.'

'आपके बाजरे की फसल गायों ने चर ली थीं?'

'मेरे पास तो खेत ही नहीं हैं?'

'आप कोई छोटी सी नौकरी भी करते हैं'

'जी ?  मैं बैंक में सीनियर असिस्टेंट हूँ.'

'आपको पूरा विश्वास है कि, आप ही राकेश के पिता हैं?'

'जी हां, मैं ही राकेश का पिता हूँ. आप कैसी बात करते हैं?'

'यदि आप ही राकेश के पिता हैं? आप मुझसे पहली बार मिले हैं, तो फिर 'वह कौन था' ?'

'वह कौन? मतलब? मैं समझा नहीं?'

'वही, जो आपके लड़के का फर्जी बाप बनकर, बड़ी आसानी से आपके लड़के की मक्कारियों को छिपा ले गया और मुझे मूर्ख बनाकर चलता बना है?'

'?'- ज्ञानेश्वर प्रसाद ने सुना तो जैसे खड़े से ही गिर पड़े. अभी भी उनकी समझ में पूरी तरह से नहीं आ सका था कि, आखिर यह सारा माजरा ही क्या है? वे बड़े ही सशोपंज और संशय से, एक भेदभरी दृष्टि से अध्यापक को घूरते हुए बोले,

'कृपया करके आप मुझे जो कह रहे हैं उसके बारे में विस्तार से बताने का कष्ट करेंगे?'

तब राकेश के अध्यापक ने सारी बात विस्तार से उन्हें समझा दी. उनके लड़के ने , उनके ज्ञान की अनुपस्थिति में पिछले महीनों में कॉलेज और पढ़ाई की आड़ में कया-क्या कारनामें रचे थे, यह जानकार वे अपना सिर शर्म से झुकाए बगैर न रह सके. उनकी औलाद ने अपने एक ही पग में मक्कारियों की सारी सीमाएं लांघ ली हैं, यह सोच कर वे अध्यापक से क्षमा मांगने के अतिरिक्त और कुछ न कर सके. उन्होंने अंतिम बार फिर से अध्यापक को देखा और फिर एक अपराधबोध की भावना से ग्रस्त मन लेकर चुपचाप से सिर झुकाए घर आ गए. घर आकर केवल एक नज़र अपने पुत्र को बिस्तर पर पड़े देखा और कुर्सी घसीटकर उस पर बैठ गये. उन्हें ऐसा लगा कि, जैसे टायफायड का सारा का सारा मियादी बुखार उन्हीं को चढ़ आया है.

       वे अभी आकर बैठे ही थे और इसी घटना के बारे में विचार कर रहे थे कि, तभी उन्हें अपनी धर्मपत्नी का स्वर सुनाई दिया. वह कह रही थीं कि,

'आये गये आप? दे आये लरका की अप्लीकेसन? सब कुछ ठीक होय गयो न?' कहते हुए उन्होंने ठन्डे पानी का गिलास उन्हें थमाया तो ज्ञानेश्वर प्रसाद अपनी पत्नि से बोले कि,

'कछु ठीक न भयो?'

'काहे?'

'इसलिए कि, तेरे लरका के एक नहीं दो बाप हैं.'

'हे, भगवान ! कछु तो शर्म करो? थके-थकाए आये हो. सुस्ता ल्यो, तब बात करूंगी. ज़रा सा भरी दोपहरिया की  धूप में का जानो पड़ गयो कि लगत है सब गर्मी इन्हीं पे चढ़ गयो.' धर्मपत्नी जैसे भनभनाती हुई अंदर चली गईं.

       चार सप्ताह के बाद राकेश का बुखार उतर गया. वह ठीक हो गया. मगर कॉलेज जाने से पूर्व ही उसके पिता को कॉलेज के प्रधानाचार्य की तरफ से एक पत्र मिला. उसमें लिखा हुआ था कि,

'अत्यंत खेद के साथ आपको सूचित किया जाता है कि, आपके पुत्र को अपने अध्यापक को मूर्ख बनाने, गलत बयानी करने, झूठ बोलने और अनुशासनहीनता के कारण, कालेज के नियमों को मद्देनज़र रखते हुए निम्नलिखित आदेश पारित किये जाते हैं.

'कॉलेज से सम्पूर्ण वर्ष के लिए निष्कासन.'

आप चाहें तो आनेवाले वर्ष के लिए आप फिर से छात्र के दाखिले के लिए आवेदन कर सकते हैं. इस आवेदन की दशा में पुनर्विचार किया जा सकता है, लेकिन फिर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि, आपके पुत्र का इस कॉलेज में दाखिला निश्चित है.

प्रधानाचार्य.      

-समाप्त.