कभी, कुछ तो कहते ?
कहानी/शरोवन
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‘सुधा आदेश की इस हरकत को चुपचाप निहारती, देखती, सोचती और बाद में अकारण ही गंभीर भी हो जाती। नहीं समझ पाती कि, यह उसके लिये कोई सज़ा थी? किसी बिगड़े हुये स्नेह संबन्धों का कोई तकाजा अथवा मन के अन्दर ही अन्दर चुपचाप गलने, सुलगने और परेशान होने की उसकी अपनी कोई ख्वाईश थी? किसी से कोई भी प्यार की हसरत नहीं, वादा नहीं, लेकिन फिर भी किसी के आने का इंतज़ार, केवल एक बार देखने के लिये मोहताज़, बेकरार आंखें? यह सब क्यों हो रहा था? सुधा कुछ भी नहीं समझ पा रही थी।’
***
‘जाने क्या समझता है अपने आपको? लड़कियों जैसे लंबे बाल रखता है, और तमीज़ नहीं है ज़रा भी रहन-सहन की?’
कक्षा में आकर अपनी सीट पर कॉपी, किताबें रखते हुये सुधा अपने आप से ही बड़-बड़ करने लगी तो बड़ी देर से उसके खराब मूंड को गौर से निहारते हुये उसकी सहेली तैय्या ने उसके पास आकर उससे पूछा कि,
‘क्यों, कैसे बड़-बड़ कर रही है तू? क्या आज फिर कोई बात हो गई है?’
‘और नहीं तो क्या। वही था। लंबा, लंफगा, आदेश। जब देखो तो न, जाने कहां से आ टपकता है मेरे ही सामने?’ सुधा ने तैय्या को निहारते हुये कहा।
‘क्या किया है उसने आज?’ तैय्या बोली तो सुधा ने अपने मूंड को और भी अधिक खराब करते हुये कहा कि,
‘होना क्या था। मैं गैलरी में से अपनी कक्षा की और जा रही थी तो जल्दी से मेरे कंधे पर अपना हाथ रखता हुआ ऐसे निकल गया जैसे कि, बहुत जल्दी में हो।’
‘कंधे पर उसने हाथ रख दिया तो तू पिघल तो नहीं गई?’
‘मतलब क्या है तेरा, कहने का?’
‘अरे, यह कॉलेज है। छुई-मुई मत बन। यह तो चलता ही रहता है।’
‘चलता होगा तो तेरे लिये। मुझे यह सब पसंद नहीं है।’
‘तो फिर जाकर शिकायत कर दे प्रिंसीपल के ऑफिस में।’ तैय्या बोली तो सुधा जैसे पहले से और भी अधिक चिड़कर बोली,
‘शिकायत करने से क्या होगा? ज्यादा से ज्यादा उसे वॉर्निग मिल जायेगी, लेकिन मेरा पीछा तो नहीं छोड़ेगा वह?’
‘तो फिर चुप बनी रह। तेरे दिल में भी, कहीं न कहीं, उसके लिये कुछ तो हिस्सा बचा ही होगा, तभी तो तू उसे हर बार मॉफ कर देती है?’ तैय्या ने चुटकी ली तो सुधा को ऐसा लगा कि जैसे किसी ने उसके पिन चुभा दी हो। एक दम जैसे किसी पके हुये बीज के समान चटकते हुये बोली,
‘उहं! ऐसा हिस्सा तू ही रख अपने दिल में। मुझे तो वह एक नज़र नहीं भाता है।’
‘कोई बात नहीं। भा जायेगा एक न एक दिन, जब उसकी अच्छाइंया तेरे सामने आने लगेंगीं।’ तैय्या ने फिर से सुधा को छेड़ा तो वह मुंह बिचकाती हुई अपनी कुर्सी पर बैठ गई। तभी कक्षा में प्राफेसर ने प्रवेश किया तो क्षण भर में सारा शोर जाता रहा। छात्र शांत और पढ़ाई आरंभ हो गई . . . . . .’
‘डाक्टर मेम साहब, मरीज़ को होश आ गया है।’ एक नर्स ने आकर बताया तो अपनी कुर्सी पर चुप, बेहद गंभीर, परेशान सी बैठी हुई सुधा का सोचों, विचारों और अतीत में कहीं भटकता हुआ दिल और दिमाग तुरन्त ही वर्तमान में आ गया। उसने गंभीरता से सामने खड़ी हुई नर्स को देखते हुये कहा कि,
‘कुछ पता चला कि मरीज़ कौन, और कहां का रहनेवाला है?’
‘जी, मैंने तो देखा नहीं। लेकिन जूनियर डाक्टर सुरेही ने केवल यह बटुआ और पैन मरीज़ की पेंट से पाया है।’ कहकर नर्स ने बटुआ और पेन सुधा के सामने उसकी मेज पर रख दिया तो वह उसे हाथ में लेते हुये नर्स से बोली,
‘देखो, मरीज़ को तुरन्त ही डायलीसीसिस पर लगा दो और जो दवा मैंने लेसिक की दी है उसे हर आठ घंटे के बाद देती रहना। उसके गुर्दे बिल्कुल काम नहीं कर रहे हैं।’
सुधा के आदेश और आवश्यक निर्देश देने के पश्चात जब नर्स चली गई तो उसने हाथ में पकड़े हुये बटुए और पैन को एक बार निहारा, उलट-पलटकर देखा और जब उसे खोलकर देखा तो आश्चर्य नहीं कर सकी। उसका अन्दाज़ा और भी सही निकला। बटुए के अन्दर आदेश की तस्वीर मुस्कराती हुई उसकी आंखों में झांक रही थी. . .?
‘ . . . . . उसके कॉलेज के दिनों की आदेश की मुस्कराती हुई तस्वीर को देखकर सुधा की आंखें जैसे किसी जमी हुई बर्फ के समान सफेद पड़ गईं। इस प्रकार कि वह उसे देखकर ना तो हंस सकी और ना ही रो सकी। आज जब आदेश अचानक से बेहोशी की हालत में एक राजकीय उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बस में उसके कंडक्टर के द्वारा अस्पताल में लाया गया था, तभी सुधा उसको देखकर चौंकी तो थी, परन्तु वह उसे शीघ ही पहचानकर भी एक सन्देह की दशा में थी। शायद इसका कारण था कि हालात, परिस्थितियों और बीमारी जैसी तमाम मुसीबतों ने उसके चेहरे पर वह निशान छोड़ दिये थे कि जिनकी बजह से सुधा तो क्या, कोई भी उसका परिजन धोखा खा सकता था। इसी कारण जब से सुधा ने आदेश को देखा था, तभी से वह इसी सशोपंज में थी कि वह मरीज सचमुच में आदेश ही है अथवा कोई दूसरा। यही बज़ह थी कि इतनी सी देर में सुधा अपने कॉलेज के दिनों की एक न भूलनेवाली उपरोक्त घटना को फिर से दोहरा गई थी। अभी सुधा अपने अतीत के इन्हीं सोचों और विचारों में उलझी हुई थी कि उसके दफ्तर का चपरासी आया और उससे बोला कि,
‘डाक्टर साहिब, आज आप खाना खाने नहीं जा रही हैं? ड्राइवर बाहर गाड़ी लिये हुये आपका इंतज़ार कर रहा है?
‘नहीं। उससे कह दो कि आज खाना रहने दो। और हां, केवल एक कप अच्छी सी कॉफी मंगवाकर भिजवा देना।’ सुधा ने कहा तो चपरासी अपनी गर्दन हिलाकर चला गया। फिर थोड़ी ही देर के बाद चपरासी कॉफी लेकर आया तो उसने एक प्लेट में नमकीन रखते हुये कहा कि,
‘मैंने जब केंटीन में काफी बनवाई और बताया कि आप खाना नहीं खा रही हैं तो केंटीन के ठेकेदार मायकल ने ये नमकीन अपनी तरफ से भेज दिये हैं।’
‘अच्छा, ठीक है।’ सुधा के कहने पर चपरासी बाहर चला गया। चला गया तो सुधा को काफी की उठती हुई भाप में अपने बीते हुये कल के दिनों के वे सारे चित्र घूमते, टहलते और बिखरते दिखाई देने लगे जिन्हें एक दिन उसने बहुत बेबसी, लाचारी और मजबूरियों से हाथ मलते हुये दिल के किसी कोने में सदा के लिये छिपा भी दिये थे।
. . . . .तब सुधा, आज से लगभग दस वर्ष पहले कॉलेज की गैलरी के मुख्य गेट के बाहर खड़ी हुई अपनी सहेली तैय्या की प्रतीक्षा कर रही थी कि वह आ जाये तब दोनों ही साथ में कक्षा में जायें। लेकिन उसके इरादों पर तब गाज गिर पड़ी जबकि उसने आदेश को अपनी तरफ अतिशीघ्रता के साथ आते देख लिया। उसे देखते ही सुधा मन ही मन बड़बड़ाई, ‘ओह लॉड? कम्बखत फिर आ मरा?’; कहती हुई वह जल्दी से कॉलेज के बॉटनी गार्डन की तरफ मुड़ गई। यही सोचकर कि कम से कम यह मुसीबत तो फिलहाल टले। सोचती हुई सुधा गार्डन में पड़ी हुई एक बैंच पर बैठकर, अपने साथ लाई हुई किताब खोलकर पढ़ने का बहाना करने लगी। लेकिन उसकी यह चाल भी नहीं चल सकी। आदेश ने उसे गार्डन में आते देख लिया था, और वह उसके सामने ही आकर खड़ा भी हो गया था। सुधा ने उसे देखा तो उसे लगा कि जैसे उसे किसी खिसियाई हुई चींटी ने उसके बदन के अन्दर जाकर काट लिया हो। वह उसे देखती हुई चिढ़कर बोली,
‘अब क्या है? मुंह उठाया और सामने आकर खड़े हो गये?’
‘देखिये, आप तो मुझे देखकर एक दम ही नाराज़ हो जाया करती हैं?’ आदेश सुधा का बिगड़ा हुआ मुंह देखते हुये बोला।
‘क्यों न होऊ? अच्छी तरह से जानते हो कि मैं यह सब पसंद नहीं करती हूं, फिर भी . . .?
‘आपको हैरान करता हूं।’ यही कहना चाहती हो?
‘और नहीं तो क्या? कॉलेज में इतनी सारी लड़कियां हैं। एक सताने के लिये मैं ही मिली हूं क्या?’
‘आप सोचती हैं कि मैं आपको छेड़ता हूं। आपको सताता हूं, तो फिर आप मेरी शिकायत क्यों नहीं कर देती हैं? तमाम कॉलेज के लड़कों को एकत्रित करिये और मेरी पिटाई करवा दीजिये।’ आदेश ने कहा तो सुधा जैसे और भी खिन्न हो गई। बोली,
‘मैं क्यों अपने हाथ गंदे करूं तुम जैसों के लिये? किसी और लड़की को छेड़कर देखो तो अपने आप अक्ल ठिकाने पर आ जायेगी।’
‘?’
सुधा के बढ़ते तेवर देखकर आदेश पल भर को गंभीर हो गया। वह कुछेक पल बिल्कुल चुप खड़ा रहा। सुधा भी इसी बीच ख़ामोश बनी रही। तब आदेश ने ही आपस के मध्य छाई चुप्पी को तोड़ा। वह जैसे पश्चाताप के स्वर में बोला,
‘ठीक है। आपको अगर मेरे कारण, मेरी उपस्थिति से परेशानी होती है तो फिर मैं आपके सामने फिर कभी भी नहीं आऊंगा। मगर मैं तो आपको कुछ याद दिलाने आया था।’
‘क्या मतलब?’
‘मतलब यही कि, आज ही नोटिस बोर्ड पर अपनी कक्षा के छात्रों के जन्म दिवस की लिस्ट लगी है। उससे पता चला है कि आपका जन्म दिन अगस्त चार को पड़ता है, यानि कि अगले ही माह में है। मैंने आज तक किसी भी लड़की को कोई भी उपहार आदि नहीं दिया है, इसलिये ऐसा कोई आयडिया भी नहीं है कि लड़कियां किस तरह के उपहार पसंद किया करती हैं। मैं आपको कोई उपहार देना चाहता हूं। इस तरह से आपके जन्म दिन का उपहार भी हो जायेगा और मेरी भी अभिलाषा पूरी हो जायेगी।’
‘तो फिर जन्म दिन के उपहार के लिये मैं ही क्यों? बहुत सारी लड़कियों के भी नाम होंगे उस लिस्ट में? किसी को भी दे दीजिये?’
‘हां, जरूर दे देता, लेकिन . . .?’
‘परेशानी क्या है?’
‘उनमें से सुधा नाम तो केवल आप ही का है न।’ आदेश बोला।
‘तो फिर एक बहुत छोटा सा उपहार मुझे लाकर दे दीजिये। बहुत ही सस्ता है। आपके दिल को तसल्ली मिल जायेगी और मेरा भी तुम जैसों से पीछा छूट जायेगा।’
‘बस आप हुकुम तो करिये। बताइये क्या लाकर दूं?’ आदेश जैसे खुशी के मारे उछल पड़ा। वह सुधा की तरफ देखने लगा तो वह बोली,
‘बाजार से, लोहार के पास जाकर सिर्फ दो रूपये की एक कैंची बनवाकर ले आइये। ताकि मैं तुम्हारे सिर के ये लंबे बालों को काटकर तुम्हारी अच्छी तरह से हजामत और शक्ल बनाकर रख दूं।’
‘?’-खामोशी।
‘हूं? उपहार देगा? सोचता होगा कि बहुत हैंडसम बॉय है?’ सुधा गुस्से में अपना मुंह बनाकर, बड़ बड़ करती हुई उठकर, भुन भुनाती चली गई। आदेश चुपचाप, आश्चर्य से, हैरान बना उसे जाता हुआ, देखता ही रह गया।
बात आई, गई सी हो गई। जुलाई का महीना बीता। इस बीच आदेश एक पल के लिये भी सुधा के सामने नहीं आया। उसने जैसा कहा था कि वह कभी भी उसके सामने नहीं आयेगा, सचमुच आदेश ने करके भी दिखा दिया। इन दिनों जब कभी सुधा आते भी दिखती तो आदेश या तो उसके मार्ग से हट जाता या फिर वह रास्ता ही छोड़ देता। आदेश के लिये सिर्फ इतना ही काफी नहीं था कि वह सुधा की इच्छा के अनुरूप उसके मार्ग से हट गया था, बल्कि वह इस बीच बहुत ही ख़ामोश, चुप, अपने ही विचारों में गुमसुम और नितांत अकेला सा रहने लगा था। वह समय पर अपनी कक्षा में आता, चुप सा बगैर किसी से कुछ भी कहे सुने अपनी सीट पर बैठ जाता और कक्षा की समाप्ति पर चुपचाप उठकर चला जाता। आदेश की इस गुमसुमी, और एक दम से बदले हुये मिजाज को देखकर सुधा के साथ साथ उसकी सहेली तैय्या ने भी गंभीरता से लिया। एक दिन फिर तैय्या ने आदेश को चुपचाप कक्षा से बाहर जाते हुये सुधा से पूछा भी। बोली,
‘इसे क्या हो गया है अचानक से? बिल्कुल ही सत्यवान बन गया?’
‘मुझे क्या पता? जाकर पूछती क्यों नहीं है? तुझे अगर बहुत चिंता है, उसकी?’ सुधा बोली तो तैय्या ने उसे उत्तर दिया,
‘हूं। एकांऊट तेरा, और हिसाब मैं रखूं? न बाबा न, मुझसे नहीं हो सकेगा यह सब।’ तैय्या बोली तो सुधा ने कहा कि,
‘तो फिर क्यों मरी जाती है उसकी चिंता में? कुछ दिन और देख ले, फिर अपने आप ठीक हो जायेगा।’
‘लगता है कि तूने ही कुछ कह दिया होगा उससे? जरूर तूने कोई घुटी पिला दी होगी उसे?’
‘हां, ऐसा ही समझ ले।’ सुधा ने कहा और बाद में तैय्या को आदेश से हुई पिछली घटना के बारे में सब बता दिया। सुनकर तैय्या ने सुधा को जैसे चेतावनी दी। बोली,
‘तूने यह सब अच्छा नहीं किया?’
‘क्या अच्छा नहीं किया? तेरा क्या मतलब है? मैं उसकी गोद में जाकर बैठ जाती?’ सुधा जैसे बिफर पड़ी।
‘नहीं, मेरा यह आशय नहीं था।’
‘तो फिर ?’
‘तुझे यह सब बहुत साधारण तरीके से लेना चाहिये था।’
‘साधारण तरीके से?’ सुधा चौंकी।
‘अरे, उससे बात करती रहती, और अपने को भी संभाले रखती।’
‘अच्छा? संभाले रहती? मतलब यह है कि, पहले मैं उसको अपनी अंगुली थमाती। फिर वह मुझे पकड़ता, और बाद में मुझसे कहता कि, मैं तुमसे शादी करूंगा?’
‘तो कर लेना। लड़का, इतना बुरा भी नहीं है।’
‘शट् अप।’ सुधा झुंझला गई तो तैय्या भी मुस्कराने लगी। बाद में दोनों सहेलियां बातें करती हुई कक्षा की तरफ जाने लगी। इस दिन का अंतिम पीरियड आरंभ होनेवाला था।
सुधा के कुछेक दिन इसी उहापोह में बीत गये। आदेश का वही रवैया बना रहा। वह कॉलेज आता। कक्षा में बैठता और फिर चुपचाप उठकर चला जाता। सुधा आदेश की इस हरकत को चुपचाप निहारती, देखती, सोचती और बाद में अकारण ही गंभीर भी हो जाती। नहीं समझ पाती कि, यह उसके लिये कोई सज़ा थी? किसी बिगड़े हुये स्नेह संबन्धों का कोई तकाजा अथवा मन के अन्दर ही अन्दर चुपचाप गलने, सुलगने और परेशान होने की उसकी अपनी कोई ख्वाईश थी? किसी से कोई भी प्यार की हसरत नहीं, वादा नहीं, लेकिन फिर भी किसी के आने का इंतज़ार, केवल एक बार देखने के लिये मोहताज़, बेकरार आंखें? यह सब क्यों हो रहा था? सुधा कुछ भी नहीं समझ पा रही थी।
अगस्त का महीना आरंभ हो चुका था। बरसात के दिन थे। अक्सर ही आकाश में पानी के बोझ से लदी भारी घटायें बरसने के लिये उतावली रहती थीं। हर तरफ हरियाली का आलम था। ऐसे में जब भी बादल भाग जाते और आकाश खुल जाता तो फूलों और बागों में तितलियां और भंवीरियां अपना नृत्य करने लगतीं। सुधा ऐसे ही मौसम में एक दिन खाली पीरियड में कॉलेज के मैदान के किनारे पड़ी एक बैंच पर खुली धूप में बैठी हुई थी। तैय्या दो दिनों से कॉलेज नहीं आ रही थी। कारण था कि उसकी बड़ी बहन के विवाह की तैयारियां होने लगीं थी। वर के घर के लोग उसकी बहन के रिश्ते के लिये आये हुये थे। सुधा बैठी हुई अपने विचारों में गुमसुम सोच रही थी कि आज से बाइस साल पहले, आज के दिन वह कितनी अधिक छोटी, मासूम, केवल एक दिन की अबोध नन्हीं सी बालिका, अपनी मां की बगल में लेटी हुई थी। मगर अब देखते ही देखते जीवन के दो दशक बीत गये थे। वह बड़ी और सयानी हो चुकी थी। इस तरह से कि, अपने जीवन के महत्वपूर्ण फैसले वह खुद भी कर सकती थी।
‘सुधा जी।’ अचानक ही कानों में अपने नाम का जाना पहचाना स्वर सुनाई पड़ा तो वह चौंक गई। सामने देखा तो आदेश खड़ा हुआ था। बिल्कुल बदले हुये लिबास में। कोट, पेंट और टाई में उसका व्यक्तित्व पिछले दिनों से और भी अधिक निख़र आया था। सुधा ने आदेश को एक नज़र देखा। फिर चुपचाप अपनी नज़रें झुका लीं।
‘आपको जन्म दिन बहुत बहुत मुबारक हो। बस यह छोटा सा उपहार ही लाया हूं। मैं तो इस लायक भी नहीं हूं कि इस शुभ अवसर पर आपको अपनी उम्र भी देने की मुबारकबाद दे सकूं।’ कहते हुये आदेश ने उपहार का छोटा सा पैकेट सुधा की तरफ बढ़ाया तो उसने हाथ में लेते हुये कहा कि, ‘थैंक यू।’ आदेश ने पैकेट दिया और बगैर आगे कुछ भी कहे हुये उलटे कदम शीघ्रता से लौट भी गया।
आदेश के आंखों से ओझल होते ही, सुधा ने पैकेट को उलट-पुलट कर देखा। पैकेट छोटा था पर खासी भारी। इधर-उधर देखते हुये सुधा ने पैकेट को खोला और उसमें रखे हुये उपहार को देख कर दंग रह गई। किसी लौहार के द्वारा बनवाई हुई जंक लगी हुई कैंची देखकर उसके होठों पर एक शब्द आया- ’बेशरम’। मगर न जाने क्या सोचकर कह न सकी। पहले के समान बड़ बड़ा भी नहीं पाई। चुपचाप अपने स्थान से उठी और आदेश को ढूंढ़ने निकल पड़ी। ढूंढने के लिये सुधा को ज्यादा परिश्रम भी नहीं करना पड़ा। वह उसे लाईबे्ररी की सीढ़यों के ऊपर चढ़ते हुये मिल गया। सुधा ने उसे देखा तो नीचे से ही उसे पुकारा,
‘ऐ, सुनो तो?’
‘?’ - आदेश ने सुना तो पीछे मुड़कर देखते हुये बोला,
‘आपने मुझे पुकारा?’
‘नहीं, तो किसी दूसरी ने बुलाया है? क्या मेरे अलावा कोई दूसरी भी है यहां?’
‘?’ आदेश से कुछ भी कहते नहीं बना।
‘नीचे उतरो।’ सुधा ने कहा तो वह थोड़ा सोचते हुये नीचे उतरा और सुधा के सामने आकर खड़ा हो गया।
‘मेरे साथ आओ।’ कहते हुये सुधा आगे बढ़ने लगी तो वह भी उसके पीछे हो लिया। चुपचाप।
सुधा उसे कॉलेज के बॉटनी गार्डन में ले गई और उसे एक स्थान को दिखाते हुये बोली,
‘यहां पर बैठ जाओ।’
‘?’ आदेश ने उसे एक संशय से देखा।
‘बैठो न। तुम्हारे बाल काटने हैं।’ कहते हुये सुधा ने कैंची निकाली।
’!’ आदेश चुपचाप सिर झुकाकर बैठ गया। सुधा ने उसे देखा। सोचा, फिर जैसे बहुत परेशान होते हुये कैंची दूर फेंक दी। कैंची की ख़नकती आवाज़ आई तो आदेश ने हैरान होकर सुधा को देखा। देखा तो सुधा जैसे तड़पते हुये उससे बोली,
‘क्यों सताते हो मुझे इसकदर? क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा?’
‘न मैं तुम्हें सताता हूं, और ना ही तुमने मेरा कुछ बिगाड़ा है।’
‘तो फिर क्यों करते हो ऐसी हरकतें, जिन्हें मैं हज़म नहीं कर सकती?’ कहते हुये सुधा की आंखें भीग गई।
‘?’ -इसी मध्य ख़ामोशी बनी रही।
तब आदेश अपने स्थान से उठा। खड़ा हुआ, और फिर सुधा के सामने आया। दोनों ने एक दूसरे को अपनी आंखों की अंतिम गहराइंयों तक बहुत गंभीरता से देखा। तब कुछेक पल बीत जाने के पश्चात आदेश ने सुधा से कहा। वह बोला कि,
‘देखिये सुधा जी, मैं यह नहीं कहता हूं कि आप मुझे चाहें, मुझे प्यार करें, या फिर मैं तुम्हें प्यार करता हूं, तुम्हारे बगैर जी नहीं सकता हूं, वगैरह वगैरह। यह बातें बहुत बाद की हैं। इस जगह तक आने के लिये तो कभी कभी पूरा जीवन गुज़र जाता है।’
‘तो फिर, जो कुछ आप कर रहे हो, या करते फिरते हो, उन सबसे मतलब?’
‘क्या एक प्यार मुहब्बत के अतिरिक्त कोई दूसरा रिश्ता नहीं हो सकता है हमारा? हां, इसमें कोई भी सन्देह नहीं है कि आप मुझे अच्छी लगती हैं, और ना जाने क्यों मैं आपके आस-पास ही रहना चाहता हूं। इसीलिये मैं चाहता हूं कि हम दोनों कम से कम एक बहुत ही अच्छे मित्र तो हो सकते हैं। मित्रता भी ऐसी कि मैं आपकी मदद करूं, जरूरत पड़ने पर आप मेरी मदद कर दें। इसी तरह से हमारी इस कॉलेज की चार दीवारी के अन्दर रहने के दिन कट जायें। यहां से निकलने के बाद कौन जानता है कि आप कहां और मैं कहां?’
‘आज तुम ऐसी बातें कर रहे हो, यकीन नहीं होता है?’ कहकर सुधा के होठों पर मुस्कराहट की एक हल्की सी लकीर बनी, और क्षणमात्र में ही विलीन भी हो गई। सुधा को आप से तुम पर आते देर भी नहीं लगी।
‘भावनाओं की नाज़ुक पंखुडि़यों से बनाये हुये रिश्तों में विश्वास के अंकुर फूटने में समय लगता है सुधा जी।’ आदेश ने उत्तर दिया तो सुधा फिर से मुस्कराई। बोली,
‘क्या तुम लेखक भी हो, जो ऐसी भावनात्मक, दार्शनिक बातें भी करने लगे हो?’
सुधा के इस प्रश्न पर आदेश केवल मुस्कराकर ही रह गया, और बोला,
तो फिर हमारी यह मित्रता पक्की? यानि कि, ‘डन्’?’
‘डन्।’
‘तो फिर इसी बात पर एक कफ कॉफी?’ आदेश ने आग्रह किया।
‘सुधा, हंसकर, मुस्कराती हुई आदेश के साथ कॉलेज की कैंटीन की तरफ चलने लगी।
समय बदला। दिन बीते। हफ्ते, फिर महिने बीत गये। सुधा और आदेश की मित्रता बाकायदा कायम रही। कॉलेज में तो अक्सर ही दोनों साथ हो लेते। साथ बातें करते, चाय और कॉफी पीते, कभी हल्का सा नाश्ता भी साथ ही करते। आदेश प्राय ही सुधा की सहायता करता और हरदम करने के लिये तत्पर रहता। फिर इस तरह से स्नातक का पहला वर्ष बीत गया। दोनों ही ने यह परीक्षा अच्छे अंकों से पास कर ली। इन दिनों आदेश तो प्राय ही शांत बना रहता। मगर कभी-कभी वह अचानक से बहुत गंभीर और उदास सा हो जाता। गुमसुम, अक्सर ही सुधा का साथ छोड़कर वह कहीं भी एकान्त में अकेला बैठ जाता। ना ही कुछ कहता और ना ही कुछ कभी किसी को बताता। सुधा ने उसकी इस परेशानी को महसूस किया। एक आद बार उससे पूछा, उसे कुरेदना चाहा भी, लेकिन आदेश कुछ भी बताता, बजाय इसके वह बहुत ही सहजता से टाल भी देता। सुधा जानती थी कि इतने दिनों के साथ का असर और परिणाम जब खुद उसके दिल की गहराइंयों में उछलने लगा तो वह भी आदेश से कुछ न कुछ सुनने की प्रतीक्षा करने लगी। मगर आदेश ने एक बार भी ऐसा कुछ नहीं कहा जो सचमुच में सुधा उसके होठों से सुनना चाहती थी। फिर इस सब परिस्थितियों का परिणाम यह हुआ कि सुधा के मुख पर भी ख़ामोशी छाने लगी। उसकी यह ख़ामोशी जब उसके दिल की परेशानी बनकर मुख पर दिखने लगी तो एक दिन उसकी सहेली तैय्या ने टोक भी दिया। बोली,
‘तू यह हर समय चुप और खोई-खोई सी क्या रहने लगी है?’
‘पता नहीं। फायनल परीक्षायें पास आ गई हैं, स्टडी भी तो करनी पड़ती है।’ सुधा बोली तो तैय्या ने तर्क किया। बोली,
’चल हट। तू ही तो केवल फायनल की परीक्षा देगी। क्या हमें स्टडी नहीं करनी पड़ती? हां, कोई और बात है तो मत बता।’
‘और कैसी बात हो सकती है?’
‘मैं अगर पूछूं तो बतायेगी?’ तैय्या ने एक भेदभरी दृष्टि से सुधा को देखा तो उसने अपनी आंखें नीचीं कर लीं।
‘?’ अच्छा। यह आदेश के क्या हाल हैं?’ तैय्या ने सीधा ही पूछा।
‘ठीक हैं। आता है और हलो करके चला जाता है।’
‘तू शादी करेगी उससे?’
‘पता नहीं।’
‘इसका मतलब कहीं न कहीं कोई उम्मीद की किरण तेरे मार्ग में अपनी चमक बिख़ेरने लगी है?’
‘क्या बिख़ेरने लगी है? जब इस मार्ग पर लानेवाला ही खुद मार्ग से भटकने की कोशिश करने लगे?’
‘हूं? तो बात यहां तक बढ़ चुकी है?’
‘?’ सुधा फिर से चुप हुई तो तैय्या ने उसे चोर नज़रों से निहारा। एक संशयभरी दृष्टि उस पर फेंकी। फिर गंभीरता से बोली,
‘तो जाकर कहती क्यों नहीं है उससे?’
‘?’ -सुधा तैय्या को देखकर फिर से निरूत्तर और मायूस सी हुई तो तैय्या ने कहा कि,
‘नहीं कह सकती है तो फिर ऐसे ही घुट घुटकर मरती रह।’
सचमुच सुधा स्वंय ही घुट घुटकर मरती रही। सोचती रही। मन ही मन एक झूठी आस की राह पर खड़ी हुई किसी अनकही बात के सुने जाने की प्रतीक्षा में बस इंतज़ार ही करती रही। जाड़े की ठंड दांत किटकिटाती हुई चली गई। बसंत आई और वनस्पति की सारी कायनात को नंगा करके, नई कोपलों के मुलायम वस्त्र पहनाकर चली गई। फिर गर्मियां आई। सालाना परीक्षायें समाप्त हुई। कॉलेज ग्रीष्मकालीन छुट्टियों के लिये बंद भी हो गये। कॉलेज बंद होने से पूर्व सब ही छात्र और छात्राओं ने बिछुड़ने से पूर्व विदाईंया लीं। गले मिले। पार्टियां की और फिर अलग हो गये। सुधा प्रतीक्षा ही करती रही। आदेश सालाना परीक्षाओं के अंतिम क्षणों में ऐसा गायब हुआ जैसे कि कड़ी धूप के आकाश में किसी बादल का शव। वह कहां गया? किससे मिला? क्यों बगैर बताये चला गया? ये ऐसे प्रश्न थे कि सुधा जब भी सोचती तो मात्र एक संध्गिंता, संशय और अंतहीन-अंत जैसी कहानी के प्रश्नों के सिवाय उसे कुछ भी नहीं मिलता था। वह जान गई थी कि आदेश उसके महकते, संवरते हुये जीवन के गुलशन में अचानक से एक ऐसा खुशबू का झोंका बनकर आया था जो साथ में उसकी महकी हुई जीवन की बगिया के जैसे सारे पुष्प भी चुराकर ले गया था। वह उदास हुई। मन ही मन खूब रोई भी। रोई इसलिये कि किसने उससे कहा था कि वह आदेश को अपने दिल में सजाकर रख ले? वह तो उस पर घास भी नहीं डालती थी। फिर क्यों आया था वह उसके जीवन में छेड़छाड़ करने के लिये? उसकी किस्मत भी अजीब ही है? सारी दुनियां में बस यही एक अकेला मिला था, उसके दिल में शासन करने के लिये? हांलाकि, कहीं भी, किसी भी तरफ से कोई भी प्यार का वायदा नहीं हुआ था। कोई भी अरमानों, हसरतों की दुनियां बसाने के चित्र दोनों ने एक साथ मिल बैठकर नहीं बनाये थे, पर आदेश के सामीप्य ने उसके प्यार के आंगन में अपने आगमन से ऐसे हालात जरूर पैदा कर दिये थे कि वह सपने अवश्य ही देखने लगी थी। और सपने भी वे जो हर लड़की अपने जीवन में कम से कम एक बार तो जरूर ही देखा करती है। साजन का प्यार पाने की हसरत, उसके घर जाने की उमंग, अपना, केवल अपना ही अकेला संसार, घर का आंगन, एक घरोंदा, चांद सितारों से जगमगाने के अरमानों की दुनियां, जब अचानक ही चटककर चकना चूर हुई तब सुधा को एहसास हुआ कि प्यार-मुहब्बत, रिश्ते-नातों और केवल अपनी तरफ से जोड़े गये एक तरफा प्यार की किताबों में उल्फत की जो कहानियां लिखी हुई हैं, वे सब तो सरासर झूठ हैं, सच तो वह है जो वह सचमुच में देख रही है। अपने किये पर वह पछताई। दिल में रोई भी, मायूस हुई, पर निराश नहीं हो सकी।
समय बदला। दिन गुज़रे। बढ़ते हुये वक्त और समय की हर पल आगे चलती हुई सुंइयों ने उसकी आंखों के आंसू रोके तो नहीं थे, मगर दिल की गहराईंयों में कहीं ढंग से छिपा अवश्य ही दिये थे। उसने अपने को कहीं समझाया, कहीं परिस्थितियों के आगे समझौता कर लिया, सन्तोष किया, तसल्ली की, यही सोचकर अपने को जी भर के समझा लिया कि जिस मार्ग पर वह चली जा रही थी, वह उस पर वहां तक तो जाने से बच गई, जहां से शायद कभी वापस आना उसका बहुत कठिन भी हो सकता था। जीवाणु-विषयक शास्त्र में स्नातक करने के पश्चात जब उसका प्रवेश मेडिकल साइंस में हो गया तो वह फिर डाक्टरी की शिक्षा के लिये वह शहर ही छोड़कर चली गई। अपने इस प्रशिक्षण में वह व्यस्त हुई तो उसकी व्यस्तता ने उसके दिमाग के बोझ को बहुत कुछ हलका भी कर दिया। हांलाकि, वह आदेश को अब याद तो नहीं करती थी, परन्तु जब भी कभी अतीत की यादों की कोई भी मीठी डली उसके मुख में आ जाती थी तो गले से निकली हुई एक हूक के साथ उसका मज़ा कड़वा तो होता ही था। साथ में एक अपराधबोध की भावना, मन के अन्दर बैठी उसके स्वाभिमान के प्रति हुये अपमान की हर समय चुभती हुई फांस से, उसे अपनी करनी का एहसास अवश्य हो जाया करता था। सचमुच में आदेश उसके प्यार की नाज़ुक आस्थाओं की अर्थी पर जैसे लात मारकर चला गया था।
इस प्रकार से उसके जीवन के दस वर्ष और बीत गये। वह डाक्टर बनी। इस बीच उसके साथ की तमाम सहेलियों ने अपने विवाह भी कर लिये। घर बसाये। उसकी अंतरंग सहेली तैय्या भी विवाह के पश्चात दो बच्चों की मां बनकर अपने घर के आंगन में व्यस्त हो गई। लेकिन जब कभी भी सुधा के अपने विवाह की बात चली तो ना जाने इस विषय को लेकर ना तो कभी उसके दिल ने ही हां की और ना ही कभी उसकी आत्मा ने। वह जब भी इस विषय में सोचती तो यही सोचकर अपने को मना लेती कि, उसका वास्तविक विवाह तो अस्पताल से हुआ है। अस्पताल ही अब उसका घर और आंगन है। उसके मरीज़ उसके अपने बच्चे और सन्तानें हैं। इसी घर में उसे रहना है। अपने मरीज़ों की परिवरिश और देखभाल उसे करनी है।
मगर आज जब आदेश को उसने वर्षों के बाद इस हालत में पाया तो उसके अचानक गायब और पलायन होने का भेद भी समझ में आ गया। वर्षो पुरानी आदेश की कॉलेज के समय की उसके कंधों तक झूलते हुये लंबे बालों की तस्वीर जैसे उससे कह रही थी कि, ‘अब तो तुम्हारी समझ में आ गया होगा मेरी अचानक से हुई पलायनता का कारण? गुर्दे की बीमारी होने की बजह से खानेवाली दवाइंयों के कारण लंबे बाल होने और उन्हें रखने का कारण? समझ गई होगी कि कभी मैंने तुमसे, तुम्हारे जन्म दिवस पर कहा भी था कि मैं ऐसा अभागा हूं कि तुम्हें अपनी उम्र भी नहीं दे सकता हूं। मेरा जीवन बहुत सीमित है। यूं भी गुर्दे फेल होनेवालों के जीवन का कोई भरोसा भी नहीं होता है। तुम मुझसे हर समय ख़फा रहती थीं, लेकिन इस लायक ना होते हुये भी मैं तुम्हें हमेशा अपने दिल में बसा के रखता था। चाहकर भी कभी नहीं कह सका था। जानता था कि प्यार की एक नई नगरी बसाने की डगर पर हो सकता है कि तुम्हारे साथ बहुत दूर तक न चल सकूं . . .?’
सोचते हुये सुधा की झील सी गहरी आंखों से सोते फूटने लगे। वह फूट-फूटकर रो पड़ी। इस प्रकार कि उसने आदेश के बटुए पर अपना मुंह रख दिया। उसकी तस्वीर पर अपने सैकड़ों चुम्बनों की मोहर लगा दी। आंखों से आंसुओं की होती हुई बारिश ने उसकी तस्वीर को भी भिगो दिया।
दोपहर के दो बजे थे, जब आदेश उसके अस्पताल में आया था। सुधा ने अपने को सामान्य करते हुये, साड़ी के पल्लू से अपना मुंह पोंछा। आंसू साफ किये। दीवार पर लगी घड़ी पर समय देखा, शाम के चार बज रहे थे। उसे ध्यान आया कि अस्पताल की शिफ्ट बदल गई होगी। नये काम करनेवाले आ चुके होंगे। मगर डाक्टर सुरेही को तो अभी अपनी डयूटी पर होना चाहिये। सुधा ने सामने मेज पर देखा, काफी का प्याला ना जाने कब से अपनी गर्म भाप उड़ाकर बर्फ के समान ठंडा पड़ चुका था। बिल्कुल उसकी प्यार की ठंडी हुई तमाम आस्थाओं के समान ही। उसने डाक्टर सुरेही को फोन मिलाया, पर फोन व्यस्त पाकर उसने मेज पर रखी घंटी का बटन दबाया तो एक पल में ही बाहर बैठा चपरासी अन्दर आकर खड़ा हो गया।
‘देखो, डाक्टर सुरेही यदि व्यस्त न हों तो उन्हें कहो कि मुझसे मिलें।’
’?’ -चपरासी सुनकर तुरन्त ही चला गया।
फिर जब लगभग बीस मिनट के पश्चात डाक्टर सुरेही सुधा के कार्यालय में आये तो सुधा ने उन्हें बैठाते हुये सबसे पहला प्रश्न आदेश के बारे में पूछा। तब सुरेही ने कहा कि,
‘मरीज़ को होश तो आ गया है। बात भी कर रहा है, लेकिन बार-बार अस्पताल छोड़कर जाने की जि़द करने लगता है।’
‘उसके जाने का कारण?’
‘अस्पताल की दवाइंयों का बिल।’
‘नहीं, नहीं, हम उसे ऐसे नहीं जाने दे सकते हैं।’
‘आपने किसी विशेष काम से बुलाया था मुझे?’ डाक्टर सुरेही ने अपनी बात कही।
‘हां, रक्त लेने वाली टीम के सुपरवायज़र को कहो कि आकर मेरा रक्त ले और गुर्दा प्रत्यारोपण के लिये मेरे रक्त की जांच कर ले, और सारे आवश्यक क्रॉस मैच भी कर ले। मैं इस मरीज को अपना गुर्दा दूंगीं।’
‘आ . . . आप? अपना गुर्दा?’ डाक्टर सुरेही आश्चर्य से अपना मुंह फाड़कर ही रह गया।
‘हां. . . हां क्यों नहीं?’
फिर दूसरे दिन जब उसे सूचना मिली कि उसका रक्त मिल गया है और वह अपना गुर्दा दे सकती है, तो सुधा को ऐसा लगा कि जैसे अचानक ही आकाश से छोटी-छोटी तारिकायें फूलों समान टूटकर उसके पल्लू में भर गई हैं। एक पल नहीं बीता कि सुधा की आंखों में आंसू भर आये। ये आंसू उसकी अपनी की हुई गलती के एहसास और पश्चाताप के थे? खुशी के थे या फिर कभी खोये हुये आदेश को फिर से पाने के कारण? सुधा ने यह सब सोचने की आवश्यकता नहीं समझी। हां, यह और बात थी कि जो वह चाहती थी वह उसे परमेश्वर ने दे दिया था। चाहे देर में ही सही। यही सब्र करके उसने उसे अपने आंचल में बंद कर लिया था। सदा के लिये।
समाप्त ।