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जैबुन्निशां

जैबुन्निशां

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अब जहां भी रहो, जिसके भी पास रहो, मेरा अधूरा प्यार सदा ही तुम्हारी हरेक चाहत को पूरा करने की दुआयें मांगता रहेगा। साथ में तुम इतना ध्यान अवश्य ही रखना कि किसी भी लड़की के जीवन का पहला प्यार उसके बदन का वह गहरा दाग़ होता है जिसे वह चाहकर भी कभी नहीं मिटा पाती है। मेरी वह सभी चाहतें, जिनकी आवाज़ की राहें सिर्फ तुम्हारी ही तरफ जाकर समाप्त होती हैं, हर समय तुम्हारे पीछे भागती रहेंगी। जिस दिन तुम अपनी शादी करोगे, याद रखना वह दिन मेरी जि़न्दगी का आखि़री दिन होगा . . . ’

***

सुबह के आठ बजे होंगे। सूर्य की कोमल रश्मियों ने चुपचाप से अलीगंज थाने की खिड़कियों से अंदर झांकना आरंभ ही किया था कि तभी पुलिस इंसपेक्टर राजन दास अपनी जीप से उतरा और सीधे ही बगैर किसी से कुछ भी कहे अपने कार्यालय में चला गया। दूसरे अन्य पुलिस कर्मियों ने उसे अचानक से देखा तो तुरन्त ही वे सब भी हरकत में आ गये। कार्यालय में पहुंचकर राजन ने अपनी कुर्सी खींची और बैठकर रात भर की आई रिपोर्ट की फायल देखने लगा। तभी संतरी आया और उसे सलाम करके तुरन्त ही बोला,

‘साहब। चाय नाश्ता कुछ लाऊं? सामने वाले रामदीन हलवाई ने अभी-अभी जलेबियां कढ़ाई में डाली होंगी?’

‘?’

इंसपेक्टर राजन ने उसे एक नज़र देखा फिर कहा कि,

‘नहीं। मैंने घर पर ही नाश्ता कर लिया था। पर हां, अलताफ खां को भेज देना।’

राजन का आदेश सुनकर संतरी चला गया तो वह फिर से फायल को देखने लगा। थोड़ी देर बाद ही अलताफ अंदर आया तो राजन ने उसे देखते ही पूछा,

‘कल रात की कोई खबर आदि है क्या?’

‘कोई खास तो नहीं। लेकिन मुलतानखास नामक महल्ले की किसी जेबुन्निसां नाम की जवान लड़की ने खुदकशी कर ली है। और तहकीकात के सिलसिले में हमने उसके मंगेतर राजा चरन, सास और उसकी नन्द को जरूर गिरफ्तार कर लिया है। मेरा ख्याल है कि मामला हत्या का लगता है शायद?’

‘?’

यह सुनते ही इंसपेक्टर राजन के पैरों से जैसे ज़मीन ही खिसक गई। वह अचानक ही सकते में आ गया। वह सोचने लगा कि जेबुन्निसां कहीं वही लड़की तो नहीं है जिससे कभी उसका . . .?

सोचने ही मात्र से राजन का दिमाग चकरा गया। फिर काफी देर सोचने के पश्चात उसने अलताफ से पूछा,

‘मरने वाली लड़की के पिता का नाम क्या है?’

‘कोई मरहूम साबिर लाल थे। सुनने में आया है कि वे भी हमारे ही महकमें के एक्साइज विभाग में कभी सिपाही थे।’

साबिर लाल का नाम सुनते ही राजन का सन्देह सच में बदल गया। सच्चाई सामने आई तो वह अपना सिर पकड़कर ही बैठ गया। अलताफ ने उसकी यह दशा देखी तो चुपचाप ठंडे पानी का गिलास भर कर ले आया और उसकी मेज पर रख दिया। फिर एक संशय के साथ वह बोला,

‘साहब। आपकी तबियत तो ठीक है न?’

‘हां, मैं बिल्कुल ठीक हूं। लेकिन आप ऐसा करें कि, सबसे पहले जिनको इस तहकीकात के सिलसिले में पकड़ कर लाये हो, उन्हें इज्जत के साथ घर जाने दो। मैं मालुमात कर लूंगा। और लाश को पोस्टमार्टम के लिये सील कर दो। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट के बाद ही हम उनके परिवार वालों से कुछ कह सकते हैं।’

राजन का आदेश सुनते ही अलताफ बहुत ही आश्चर्य के साथ जैसे मजबूर होकर चला गया। वह तो सोच रहा था कि आज जैसे दिन भर की कमाई घर बैठे ही आ गई है। बैरक में जाकर अलताफ ने उन लोगों को बाहर निकाला तो राजा चरन आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगा। इस पर अलताफ जैसे अपने मुंह का स्वाद बिगाड़ते हुये उससे बोला,

‘अबे, मेरी तरफ क्या देख रहा है? किस्मत वाले हो जो बगैर किसी भी भुगतान के घर जा रहे हो। पुलिस थाने में आया हुआ कोई भी शरीफ या बदमाश आदमी इतनी आसानी से बाहर नहीं जाता है। साहब को क्या पहले ही से कोई पट्टी पढ़ा रखी थी? लेकिन याद रखना अगर हत्या का मामला निकला तो दुबारा नहीं छोड़ूगां और तुम कड़कों को बगैर किसी भी तहकीकात के बड़े जेल भेज दूंगा।’

‘?’

राजा चरन हवालात के सींखचों से अपनी मां और बहन के साथ जैसे ही बाहर निकला तो वह बड़े ही आश्चर्य और सशोपंज के साथ अलताफ का चेहरा देखने लगा। कारण था कि शायद उसे यकीन भी नहीं हो रहा था कि उसको थाने से इस प्रकार इतना शीघ्र ही छोड़ भी दिया जायेगा। फिर भी वह आदर के साथ अलताफ से बोला,

‘हम लोग सचमुच में चले जायें क्या?’

’और नहीं तो क्या मरसिडीज़ मगांऊ? तब उसमें बैठ कर जायेगा?’

उन सबको रिहा करने के पश्चात अलताफ बड़बड़ाता हुआ थाने में ही के दूसरे कमरे की तरफ चला गया और एक कुर्सी खींचकर अपनी बीड़ी जलाकर मन मारकर उसके गहरे-गहरे कश खींचने लगा। इंसपेक्टर राजन की इस हरकत ने जैसे उसके सारे दिन का मजमून ही किरकिरा कर दिया था। दूसरी तरफ इंसपेक्टर राजन अभी तक अपने कार्यालय में बैठा हुआ विचारों में गुम हो चुका था। अतीत के जिये हुये दिन अपने आप उसकी आंखों के पर्दे पर किसी चलचित्र के समान आन-जाने लगे थे। उसके जीवन के वे दिन, वे यादें जिनमें कभी जेबुन्निसां के दिली प्यार की वह महकती फूलों की कतरनें भी थीं जिनको वह उस समय जितना भी अपने से दूर रखना चाहता था, उतना ही वह उसके बदन से चिपक जाया करती थीं। उसके अतीत के सफर का वह अचानक से आया हुआ दोराहा, जिस पर खड़े होकर तब उसे कोई एक मार्ग चुनना था। दोनों मार्गों में एक तरफ उसके प्यार का वह विश्वास था जिस पर किसी के अरमानों की सांसे अटकी हुई थीं, और दूसरे मार्ग पर जेबुन्निसां के पिता के एहसानों का भार? किसी के विश्वास को तोड़ने का मतलब था, जीते-जी उसको विष पिला देना। फिर भी एहसानों का बोझ ली हुई वस्तु वापस करने से भी हल्का हो सकता था। इसलिये उसने तब वही किया भी था। जो वस्तु उसके दामन में जेबुन्निसां के बदले में डाली गई थी वह उसकी होकर भी तब उसकी नहीं थी, यही सोचकर वह उसे वापस करके सदा के लिये चला आया था। राजन के मनमस्तिष्क में उसके जिये हुये दिन फिर एक बार किसी बूढ़ी किताब के कमज़ोर पन्नों के समान स्वत: ही पलटने लगे . . .’

. . . बात उन दिनों की है जब राजन ने इंटर की परीक्षा पास की थी। तब एक दिन उसके महल्ले में एक नया परिवार मथुरा नगर के पास के एक छोटे कस्बे भूतेश्वर से स्थानान्तरण होने के कारण उसके शहर में आया था। यह साबिर लाल थे जो अपने संपूर्ण परिवार के साथ उसके महल्ले में आये थे। उनके परिवार में तब जेबुन्निसां उनकी सबसे बड़ी संतान थी। साथ में उनके तीन बच्चे और भी थे। इस प्रकार से साबिर लाल वहां आकर रहने लगे तो जाहिर था कि महल्ले के अन्य लोगों से मिलना-जुलना होना ही था। फिर धीरे-धीरे यह सिलसिला ऐसा चला कि राजन खुद भी साबिर लाल के परिवार में सम्मिलित होता गया। परिवार में शामिल होने का सिलसिला तब आरंभ हुआ जब एक दिन जेबुन्निसां की मां ने राजन से उसके बच्चों की टयूशन के लिये कहा तो वह मना भी नहीं कर सका। उसने तब सोचा था कि चलो इस प्रकार उसे एक अतिरिक्त आय हो जायेगी और उसका जेब खर्च भी निकल आया करेगा। राजन ने तब ऐसा सोचा था, लेकिन जेबुन्निसां की मां का तो कोई दूसरा ही सपना था। वे राजन में अपनी लड़की जेबुन्निसां का भविष्य देख रही थीं। मगर राजन तब उनके इस दृष्टिकोण को नहीं समझ सका था।

दुबली-पतली, एकहरे, छरहरे बदन की गोरी, पर बहुत ही सहज जेबुन्निसां सुन्दरता में किसी भी बात के लिये किसी की भी मोहताज़ नहीं थी। नारी और रूप के नाम पर सब कुछ उसे बनाने वाले ने जी खोलकर दिया था,

लेकिन दुनियांबी चाल में चलने के लिये जिस बात की कमी थी, वह थी उसकी शिक्षा। उसके घर और परिवार के जो हालात थे, उसकी वज़ह चाहे जो भी रही हो, लेकिन उसका प्रभाव जेबुन्निसां के खुद के जीवन पर इस तरह से पड़ा था कि वह प्राइमरी स्कूल से आगे नहीं पढ़ सकी थी। केवल मद़रसे की ही शिक्षा उसके पास थी। सबसे अच्छा गुण जो उसमें था, वह उर्दू भाषा बहुत अच्छी बोलती थी। उसे उर्दू भाषा का बहुत ही अच्छा ज्ञान था। घर में सब उसे जेबुन के नाम से संबोधित करते थे। जहां तक राजन को ज्ञात हुआ था, उसमें जेबुन के लिये यही पता चला था कि वह अपनी मां के पहले पति की संतान थी और जब उसकी मां का विवाह साबिर लाल से हुआ था तब वह उनके साथ थी। एक प्रकार से साबिर लाल उसके दूसरे पिता थे।

जेबुन के घर में उसके छोटे भाइयों को पढ़ाने आने के कारण वह खुद उसके करीब आने की कोशिश करती है यह बात राजन ने महसूस तो की पर उस समय उसने इसे गंभीरता से नहीं लिया। वह उसके घर आता, बच्चों को पढ़ाता, साथ में जेबुन उसके लिये चाय बनाकर ले आती, कभी वह चाय के साथ अन्य व्यंजन भी बनाकर ले आती थी। तब ऐसे में जेबुन की मां आकर उसके बनाये हुये खाने और अन्य व्यंजनों की तारीफ के पुल खड़े करने लगती। देखते ही लगता था कि वह जो कुछ भी राजन की आवभगत् में करती थी, उसमें उसकी मां की सलाह का तो हाथ था ही, साथ ही वह भी शायद मन से यही चाहती भी थी।

फिर एक दिन जेबुन के भाइयों को पढ़ाते समय साबिर लाल जल्दी ही घर आ गये तो वह राजन के पास ही आकर बैठ गये। फिर चाय और बातों ही बातों में साबिर लाल ने राजन से पूछा कि,

‘अब आगे करने का क्या इरादा है तुम्हारा?’

‘कालेज जॉयन करूंगा।’ राजन ने जबाब दिया तो साबिर लाल तुरन्त ही बोले,

‘फिर भी पढ़ाई के बाद नौकरी आदि के लिये कुछ सोचा है क्या?’

‘हां, सोचा तो ळे, लेकिन अभी तो इंटर ही पास किया है। फिर अभी कौन सी नौकरी मिलेगी?’ राजन बोला तो साबिर ने उसे सलाह दी। वे बोले,

‘मेरे ही विभाग में एक्साइज़ इंसपेक्टर की जगहें निकली हैं, चाहो तो अर्जी भर दो। उसमें भी इंटर पास ही मांगते हैं। मैं कोशिश करूंगा तो तुम्हारा हो ही जायेगा। रही तुम्हारी आगे की पढ़ाई, वह तुम्हारी इच्छा है, चाहो तो प्राइवेट भी पढ़ सकते हो। आज के जमाने में अगर सरकारी नौकरी मिल जाती है तो इससे अच्छी और क्या बात हो सकती है। फिर इस नौकरी में तनख्वाह चाहे कम क्यों न हो, लेकिन ऊपरी कमाई . . . . साल भर तो तब होगा जब कि तुम्हारे पास सब कुछ हो जायेगा। ऊपर से लोग तुमको सलाम करेंगे, वह अलग।’

राजन को साबिर लाल की यह बात समझ में तो आ गई लेकिन उनकी इस प्रकार की सहायता करने का जो विशेष सबब क्या है, वह फिर भी उसे नहीं समझ सका था। साबिर लाल ने उसे अपने ही विभाग से नौकरी का प्रार्थना पत्र लाकर दिया तो उसने उसे शीघ्र ही निर्धारित तिथि से पहले ही भर कर समस्त औपचारिकतायें पूर्ण करके भेज दिया। फिर जेबुन की चाहतों की किस्मत थी या फिर उसके अतीत का फैसला, एक दिन राजन के पास इस नौकरी के लिये साक्षात्कार के लिये पत्र आ गया। यह पत्र उसने साबिर लाल को दिखाया तो वे भी बहुत खुश हो गये। फिर एक दिन राजन साक्षात्कार देने गया। और फिर उसके बाद बात आई-गई हो गई। जुलाई का माह आया। कॉलेज खुल गये तो राजन ने अपनी आगे की पढ़ाई के लिये प्रवेश ले लिया। बढ़ते हुये वक्त की परछाइंयों में राजन अपने साक्षात्कार और एक्साइज़ इंसपेक्टर की नौकरी की बात भी भूल गया। वह अपनी कॉलेज की पढ़ाई में व्यस्त होने लगा। लेकिन साबिर लाल के घर और उनके परिवार में उसका आना-जाना फिर भी बना रहा। उनके घर वह जब भी जाता तो जेबुन उसे हाथों-हाथ लेती। एक मायने में वह उसका हर तरह से ख्याल भी रखती थी। लेकिन फिर भी वह उसके प्रति अपने मन में बसी हुई चाहत और लगाव के दरवाज़ों को खोलने का साहस कभी भी नहीं कर सकी थी।

फिर और दिन सरक गये। बरसात भिगोकर चली गई तो हवायें भी ठंडी होने लगी। दिसंबर की किटकिटाती ठंड पड़ने लगी। एक वर्ष और बीत गया। राजन के द्वितीय वर्ष की छमाई की परीक्षायें भी शुरू हो गईं। क्रिसमस की छुट्टियों से पहले ही राजन को एक दिन एक भारत सरकार का सरकारी पत्र मिला। उसने खोलकर देखा तो आश्चर्य करके ही रह गया। उसको एक्साइज़ इंसपेक्टर के पद के लिये नियुक्त कर लिया गया था। और नये वर्ष में अप्रेल के माह में इस नौकरी के छ: माह के प्रशिक्षण के लिये उसके मुख्य विभाग इलाहाबाद जाना था। अपनी इस लॉटरी खुली जैसी सरकारी नौकरी की सूचना देने के लिये जब वह जेबुन के घर गया तो संयोग से उस समय उसके घर में कोई भी नहीं था। केवल जेबुन ही उस समय घर में अकेली थी और घर का कोई काम कर रही थी। फिर जैसे ही राजन ने अपनी नौकरी लगने की बात जेबुन को बताई और पत्र दिखाया तो जेबुन अचानक से उसके गले से ही लिपट गई। इस प्रकार कि खुद राजन भी उसके इस अप्रत्याशित व्यवहार से आश्चर्य करके ही रह गया। वह कुछ कहता, इससे पहले ही जेबुन उससे बोली,

’तुम सच पूछो तो मैं भी इसी दिन का ही इंतज़ार कर रही थी। मुझे पूरी उम्मीद थी कि यह नौकरी तुम्हें जरूर ही मिलेगी। पापा ने बहुत दौड-भाग की है तुम्हारी इस नौकरी के लिये। अब हमारा अपना घर होगा, हम दोनों उसमें होंगे। देखा, मेरी दुआओं को खुदा ने कितनी जल्दी सुन लिया।’

राजन जेबुन के मुख से ऐसी बात सुनकर आश्चर्य से गढ़ गया। लेकिन फिर भी उसने जेबुन से इस बारे में कुछ भी नहीं कहा। ना ही उसने अपने मन की कोई भी अच्छी या बुरी प्रतिक्रिया उसे जाहिर होने दी। उसने चुपचाप औपचारिकतावश जेबुन के द्वारा बनाई हुई चाय पी। उसकी मां के वापस आने की कुछ देर प्रतीक्षा की, लेकिन जब वह नहीं आई तो दोबारा आने की बात कह कर चुपचाप वापस आ गया। वह सब कुछ समझ चुका था। मगर फिर भी उसे घोर आश्चर्य इस बात का था कि पिछले डेढ़ साल से वह जेबुन के घर आता-जाता रहा था मगर जेबुन ने कभी भी इस तरह का व्यवहार उससे नहीं किया था। वह सदैव ही उससे बहुत ही शालीनता से पेश आती रही थी और कभी भी उसके प्रति अपने मन में द्वन्द मचाती हुई प्रेम की लहरों को उछलने तो क्या हिलने भी नहीं दिया था। मगर आज का जेबुन का उसके प्रति व्यवहार देखकर वह इतना तो समझ ही गया था कि, इतने दिनों तक जेबुन के परिवार में उसके लिये जो हालात बन रहे थे, और जो खिचड़ी वहां पक रही थी, उन सबका परिणाम कुछ ऐसा ही होना था।

राजन अपने घर आया तो उसे लगा कि जैसे उसके सिर पर कोई बड़ा पहाड़ टूट पड़ा है। इस प्रकार कि वह उसमें दब कर ही रह गया है। वह जानता था कि जेबुन एक बहुत ही अच्छी लड़की है। अपना घर और परिवार चलाने के लिये जो गुण एक स्त्री में होने चाहिये थे, उनमें से एक की भी कमी उसमें नहीं थी। यदि वह उससे विवाह कर लेगा तो वह उसे हर तरह से खुश भी रखेगी। लेकिन इतना सब होने के पश्चात भी बात तो वहीं आकर टिक जाती है, ‘जिस प्रकार से जेबुन और उसके मां-बाप ने उसके प्रति सोचा है, उस तरह से उसने जेबुन को कभी देखा भी नहीं था। जेबुन उसे चाहती है। उसे मन ही मन अपना बना चुकी है। वह उसमें अपने भावी भविष्य का वह महल देख रही है, जिसकी तमन्ना हरेक लड़की किया करती है। शायद यही कारण था कि आज जब उसे मौका मिला तो वह देखते ही उससे लिपट भी गई थी। लेकिन वह तो सदा से ही उसे केवल एक अच्छी लड़की ही समझता रहा है। उसने तो उसे प्यार की हसरतों से सोचना तो क्या कभी उसे इस नज़र से देखा भी नहीं था। यही कारण था कि जेबुन के पिता ने उसको सरकारी नौकरी दिलाने के लिये इतना सब कुछ किया है। सही मायनों में उसे नौकरी दिलाकर उन्होंने कोई भी भलाई उसके साथ नहीं की है, बल्कि दूसरे रूप में अपनी बेटी के लिये वर खरीदा था। एक एक्साइज़ सिपाही की बेटी का दामाद इंसपेक्टर नहीं होगा तो फिर और क्या होगा? एक ऐसा जाल फेंका था कि जिसमें फंसने के पश्चात भी उसे उनकी तरफ से उसका पकड़ना नहीं कहा जा सकेगा। भला होगा कि बात आगे बढ़े, वह कुछ नहीं तो जेबुन को तो इस बारे में पहले ही से अवगत् करा दे। फिर वह ना बताकर करता भी क्या? इस प्रकार की उसे ना तो नौकरी चाहिये थी और ना ही जीवन साथिनी, जो उसकी खुद्दारी पर हर रोज़ तमाचे मारती रहे। उसने मन ही मन यह दृढ़ निश्चय कर लिया कि वह यह नौकरी स्वीकार नहीं करेगा। और ना ही इस नौकरी के प्रशिक्षण के लिये कभी भी इलाहाबाद जायेगा।

राजन के कुछेक दिन इसी उहापोह में गुज़र गये। उसकी समझ में नहीं आया कि वह क्या करे और क्या नहीं? अपनी नौकरी लगने की बात भी उसने जेबुन के अलावा अपने घर में किसी को नहीं बताई और अपनी जि़न्दगी की इस कहानी को एक कड़वा हादसा समझ कर भुलाने की कोशिश करने लगा। काफी दिनों तक वह जेबुन के घर भी नहीं गया। फिर वह जब कुछ सामान्य हुआ तो एक दिन जेबुन के घर गया और अवसर पाते ही उसने जेबुन से कहा कि, वह उससे अकेले में मिलना चाहता है और कुछ आवश्यक बातें करना चाहता है। जेबुन तो शायद यह सब चाह ही रही थी। उसकी बात सुनते ही वह उससे बोली,

‘इसी रविवार को पापा-मामा और सब ही जब शाम को चार बजे एक पार्टी में जायेंगे तभी तुम घर आ जाना। मैं किसी बहाने से रूक जाऊंगी।’

जब रविवार आया तो राजन यथासमय जेबुन के घर पहुंच गया। उसके आते ही जेबुन ने सदा की तरह उसके लिये चाय बनाई और खुद भी चाय का प्याला लेकर उसके सामने ही बैठ गई। फिर जब बातों के मध्य ही राजन ने अपने मन की बात जेबुन से कही तो तुरन्त ही चाय का प्याला उसके होठों तक जाते-जाते हुये रूक गया। इस प्रकार कि वह उसे तुरन्त मेज पर रखकर अन्दर कमरे में चली गई। राजन बड़ी देर तक वहीं बैठा रहा। इतनी देर तक कि दोनों प्यालों की चाय की उड़ती हुई भाप भी विलीन हो गई। फिर बड़ी देर की चुप्पी और ख़ामोशी के पश्चात जेबुन अपने कमरे में से निकल कर आई और चुपचाप राजन के सामने बैठ गई। राजन ने उसका चेहरा देखा तो वह देखते ही समझ गया कि वह रोकर और फिर अपना मुंह धोकर आई है। तब बाद में जेबुन ने ही आपस के मध्य छाई ख़ामोशी को तोड़ा। वह राजन से बोली,

‘तुम सोच रहे होगे कि तुमने मेरा दिल तोड़ा है। हां, इसे दुखाया जरूर ही है। मैं पहले ही से सोच रही थी कि तुम जरूर कोई सरप्राइज़ दोगे? और जिस बात का मुझे डर था वही मुझे मिला भी। कोई बात नहीं। पंसदें तो सब ही की हुआ करती हैं, लेकिन असली प्यार तो उसी का होता है जिसे उसका ही महबूब चाहे और पसंद करे। यही सोच कर सब्र कर लूंगी कि राह चलते मुझे कोई मिल गया था और मैंने बगैर उसकी इजाज़त लिये उसका हाथ थाम लिया, पर उसने अवसर आते ही मेरा हाथ झिटक भी दिया हेै।’

जेबुन की इस बात पर तब राजन ने केवल इतना ही कहा कि,

‘तुम कोई भी दोष मुझे दे सकती हो, लेकिन मैं इतना ही कहूंगा कि मैं जिस जगह पर खड़ा हुआ हूं वहां से तुम्हारे पास तक आने के लिये शायद मुझे फिर से जन्म लेना पड़ेगा। क्योंकि एक बंधन में बध्ंाने से पहले मन और आत्मा का मिलन होना भी तो बहुत आवश्यक है। मेरी तुम से मुलाकात हुई। हम दोनों ने एक दूसरे को जाना। तुम अपनी तरफ से मेरे करीब आती गईं, पर मैंने तुमको कभी भी उस तरह से नहीं देखा है, जैसा कि तुम देखती रहीं। प्यार और दिली हसरतों की भावनायें किसी के थोपने से नहीं जगाई जा सकती हैं। यह तो दिल का अपना चिराग़ है जो खुद ही बगैर किसी के जाने जल जाया करता है।’

राजन अपनी कह कर और जेबुन का रोना-धोना सुन कर वापस घर आ गया। फिर उसने अपनी कॉलेज की पढ़ाई में मन लगाया और खुद को व्यस्त रखने की कोशिश करने लगा। बाद में काफी दिन उसके इसी तरह से सरक गये। जेबुन के घर जाने की उसने ना तो कोई जरूरत ही समझी और ना ही वह गया। एक-दो-बार जेबुन की मां का बुलावा भी आया, लेकिन वह फिर भी नहीं गया। यह इस बात का संकेत था कि जेबुन ने अभी तक कोई भी बात अपने मां-बाप को नहीं बताई थी। जेबुन से राजन की इस भेंट के पश्चात जैसे फिर से बात आई गई हो गई। इस बीच राजन एक बार भी जेबुन के घर नहीं गया। उसकी सालाना बोर्ड की परीक्षायें आईं तो वह उनमें व्यस्त हो गया। परीक्षाओं के बाद उसकी गर्मी की छुट्टियां हुई तो वह घर पर ही रहा। कुछेक दिनों के पश्चात उसे अपनी नौकरी के प्रशिक्षण के लिये जाना था, लेकिन वह जान-बूझ कर वहां नहीं गया। नहीं गया तो उसकी खैरात में मिली यह सरकारी नौकरी भी सदा के लिये जाती रही। दिन इसी तरह से व्यतीत हो रहे थे। ग्रीष्मकालीन मौसम था। दिन भर जबरदस्त गर्म हवाओं के जैसे काफिले दौड़ते रहते थे। भीषण गर्मी के कारण सारा वातावरण चूल्हे की जलती आग के समान तपता रहता था। तब एक दिन शाम के समय जेबुन राजन को बाजार में अचानक ही मिल गई। उसे देखते ही वह पहले तो हल्के से मुस्कराई, लेकिन फिर बाद में जैसे शिकायत भरे स्वर में उससे बोली,

‘कोई तुमसे जबरन शादी तो नहीं कर लेगा। तुमने तो घर आना ही बंद कर दिया? अब इतने बे-मुरब्बत भी मत बनो। घर पर मामा और पापा दोनों ही तुम्हारे लिये पूछते रहते हैं। बोलों मैं उनसे क्या कहूं?’

‘ठीक है, मैं आऊंगा।’ राजन जैसे अपनी गलती मानते हुये जेबुन से बोला तो उसने आगे कहा,

‘तो फिर क्यों न तुम अगले शनिवार को आ जाओ। पापा मेरा इक्कीसवां जन्म दिन मना रहे हैं।’

फिर शनिवार आया तो राजन औपचारिकतावश ताज़े गुलाब के फूलों का गुलदस्ता जेबुन के जन्म दिन के उपहार के उपलक्ष्य में लेकर गया। राजन को देखकर जेबुन जैसे खुद ही गुलाब के फूल समान खिल उठी। तब तमाम पार्टी की औपचारिकताओं के बाद वहां आई हुई जेबुन की अन्य सहेलियों ने उससे कोई गीत सुनाने की पेशकश की तब राजन को मालुम हुआ कि वह गाती भी है। फिर जब गीत सुनाने का अवसर आया तो जेबुन ने राजन के द्वारा लाये हुये फूलों के गुलदस्ते में से एक फूल तोड़ा और उसे राजन को दे दिया। फूल के कांटे वाले भाग को अपने पास रखकर जेबुन ने जब यह गीत, ‘मिले न फूल तो कांटों से दोस्ती कर ली’ गाया तो राजन के दिल पर जैसे छाले पड़ गये। आते समय जेबुन ने उसे उपन्यासकार शरोवन का नया उपन्यास ‘दफन होती हसरतें’ की एक प्रति उसे पकड़ाई और बोली,

‘यह लो अपनी मन पसंद किताब। मैं जानती हूं कि कहानियां लिखने वाले को यह दर्द भरी कहानी जरूर पसंद आयेगी।’

उसके बाद वह कुछ देर बैठा और फिर बाद में घर चला आया। घर आकर उसने वह उपन्यास की प्रति यूं ही अपनी मेज पर रख दी। फिर जब वह सोने गया तो अपनी आदत के अनुसार कुछ पढ़ने के लिये उसने वही किताब उठा ली। लेकिन उसने जैसे ही उसे खोला तो तुरन्त ही एक ताज़ा गुलाब का फूल उसकी गोद में गिर पड़ा। उसके साथ ही एक दो बार मुड़ा हुआ कागज़ भी उसकी गोद में गिर पड़ा। राजन ने गुलाब उठाकर देखा तो उसे ध्यान आया यह वही गुलाब का फूल था जिसे तोड़कर जेबुन ने गाना सुनाने से पहले उसे तोड़ कर दिया था। और जिसे उसने पार्टी समाप्त होने से पहले ही वहीं उसी के घर में मेज पर रख कर छोड़ दिया था। राजन पहले तो देखकर दंग रह गया। लेकिन बाद में उसने कागज़ को खोला तो उसमें उसके लिये जेबुन की तरफ से लिखा हुआ एक पत्र था। राजन उसे चुपचाप पढ़ने लगा,

‘यह गुलाब का अपनी महकार को बिख़ेरता हुआ फूल देख रहे हो? इसे मैं आज तुम्हारी मन पसंद किताब में बंद करके रख रही हूं। जानती हूं कि एक दिन वक्त की मार के आगे यह फूल सूख़ कर जरूर कंकाल हो जायेगा, पर तुम्हारी चाहत और यादें इसकी खुशबू के समान मेरे दिल, मेरे ज़हन और मेरी सांसों में हमेशा महकती रहेंगी। नहीं जान पाई हूं कि आज तुमने अपनी खुद्दारी या फिर मुझको अपनी ना पसंदी के कारण वह सरकारी एक्साइज इंसपेक्टर की अच्छी नौकरी भी छोड़ दी है जिसे मेरे पापा ने तुम्हें सिर्फ इसलिये दिलवाई थी ताकि मैं तुम्हारी बन सकूं। मैं इस बात और खेल के लिये अपने पापा को किसी भी तरह से दोष नहीं दूंगी, क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी किया था वह केवल अपनी बेटी के वाजि़ब मुस्तकबिल के लिये ही किया था। उनकी जगह अगर तुम होते तो शायद तुम भी अपनी बेटी के लिये ऐसा ही करते। अब जहां भी रहो, जिसके भी पास रहो, मेरा अधूरा प्यार सदा ही तुम्हारी हरेक चाहत को पूरा करने की दुआयें मांगता रहेगा। साथ में तुम इतना ध्यान अवश्य ही रखना कि किसी भी लड़की के जीवन का पहला प्यार उसके बदन का वह गहरा दाग़ होता है जिसे वह चाहकर भी कभी नहीं मिटा पाती है। मेरी वह सभी चाहतें, जिनकी आवाज़ की राहें सिर्फ तुम्हारी ही तरफ जाकर समाप्त होती हैं, हर समय तुम्हारे पीछे भागती रहेंगी। जिस दिन तुम अपनी शादी करोगे, याद रखना वह दिन मेरी जि़न्दगी का आखि़री दिन होगा . . . ’

राजन ने पत्र को पढ़ा तो पढ़ने के पश्चात उसे एक धक्का तो लगा, लेकिन वह कर भी क्या सकता था। यह सही है कि जिंन्दगी की गाड़ी खींचने के लिये मनुष्य को एक साथी की आवश्यकता तो पड़ती है, पर इसका मतलब यह भी नहीं है कि प्यार-मुहब्बत के इन नाज़ुक रिश्तों की डोर को किसी के मजबूर करने पर ही बांध लो। जेबुन और उसके परिवार को यदि यही सब करना था तो कम से कम उन लोगों को उसे अपने इरादों से अवगत् तो करा ही देना चाहिये था। यह भी कोई बात हुई कि पहले तो नौकरी का वास्ता देकर उसे अपनी पसंद का बनाने की कोशिश की और बाद में उसके गले में जंजीर डाल देनी चाही। राजन ने जब इस प्रकार से सोचा तो बाद में उसने अपने आपको यही कह कर समझा लिया, कि वक्त के साथ जेबुन के दिल के ज़ख्म भर ही जायेंगे। एक दिन वह सामान्य हो ही जायेगी। कोई इस प्रकार अपनी आत्महत्या नहीं कर लेता है। इस प्रकार राजन ने सोचा तो उसे अच्छा भी लगा। और बाद में उसने इस घटना को अपनी जीवन की कोई कड़वी कसैली याद समझ कर भूल जाना ही बेहतर समझा। उसने पढ़ाई जारी रखी। दो वर्ष वह और कॉलेज गया। साइंस में उसने स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की। और फिर जब एक दिन सामान्य पुलिस विभाग में नौकरी निकली तो वह संयोग से उसे फिर एक बार चुन लिया गया। वह बाकायदा पुलिस इंसपेक्टर बन गया। यह एक संयोग ही था कि जिस शहर में वह स्थानान्तरण होकर आया था, उसी शहर में साबिर लाल भी नियुक्त होकर आये थे। इतने दिनों में वह जेबुन को भूला तो नहीं था, मगर उसे याद भी नहीं करता था। पर हां, उसके और उसके परिवार के बारे में वह जानकारी अवश्य ही रखता रहा। उसे यह जानकर बहुत ही अच्छा लगा कि साबिर लाल भी उसी के शहर में रह रहे हैं और एक वर्ष के भीतर शायद सेवा निवृत्त भी हो जायें। वह एक दिन उनके घर मिल भी आया था। लेकिन संयोग से उसकी मुलाकात जेबुन से नहीं हो सकी थी। तब एक दिन उसे पता चला कि जेबुन की भी मंगनी हो चुकी है। और एक महिने के अन्दर उसकी भी शादी हो जायेगी। यह खबर सुनकर उसे बड़ी तसल्ली मिली। एक प्रकार से उसे लगा कि इतने सालों से वह जिस बड़े भारी बोझ को अपने सिर पर लादे फिर रहा था वह अचानक ही हटा लिया गया है। इस खुशी में उसने अपनी मां की भी बात मान ली, और वह अपना विवाह करने के लिये तैयार हो गया। और अभी पिछले सप्ताह ही तो उसने अपने विवाह का निमंत्रण कार्ड जेबुन के घर पर भेजा था। पर कौन जानता था कि उसकी शादी का यह निमंत्रण कार्ड उसे इसकदर महंगा पड़ेगा कि जेबुन हमेशा के लिये अपनी अर्थी की धूल उसके मुख पर फेंक कर सदा के लिये चली भी जायेगी। वर्षों पहले जिस गुलाब के फूल के द्वारा उसने अपनी सच्ची मुहब्बत का एलान किया था, वह कोई बच्चों वाली बात नहीं थी। सचमुच वह उसको दिल-ओ-जान से प्यार करती थी। जेबुन के कहने का स्पष्ट अर्थ था कि उसकी जि़न्दगी की सांसे तब तक महफूज़ रहेगी, जब तक कि वह अकेला, तन्हा और नितान्त अकेला अपने जीवन का सफर तय करेगा। इतनी बड़ी सज़ा तो शायद खुदा भी किसी को, किसी का प्यार ठुकराने की नहीं देगा . . . ?

. . . . सोचते हुये राजन का दिमाग ही जैसे किसी धुरी पर घूमने लगा। वह अपना सिर फिर से पकड़कर बैठ गया। चाहा कि वह यहीं पटक-पटक कर उसे फोड़ डाले। क्या कसूर है उसका? कौन सा ज़ुर्म उसने किया है? कोई भी तो नहीं, मगर फिर भी अनजाने में उसका नाम कातिलों की सूची में आ चुका था। केवल किसी के साथ सामाजिक, इंसानियत से भरी चन्द घडि़यां गुज़ारने ही मात्र से वह किसी की मौत का कारण बन चुका था। कौन जनता था कि जेबुन के द्वारा उसकी चाहत के विश्वास में दिया गया गुलाब का वह महकता फूल जिसे वह कभी निर्लिप्त भावना से उसी के घर में छोड़ आया था, एक दिन उसकी मुहब्बत के कोढ़ का वह कांटा बन जायेगा जिसके कारण उसका ज़ख्म हमेशा रिसता रहेगा।

‘साहब खुदकशी करने वाली लड़की की लाश को सील कर दिया गया है। पोस्टमार्टम के लिये इस पंचनामें पर दस्तख़त कर दीजिये।’

अचानक ही अलताफ के स्वर फिर एक बार राजन के कानों से टकराये तो उसके विचारों की तन्द्रा टूट गई। वह उठा और अलताफ के हाथों से कागज़ात लिये। उन्हें एक बार ध्यान से देखा, फिर उन पर दस्तख़त करने के लिये कलम उठा लिया। हस्ताक्षर करने के बाद उसने कागज़ात दुबारा अलताफ को पकड़ा दिये। उन्हें लेते समय उसने फिर एक बार राजन को गौर से निहारा। तब अलताफ ने उससे कहा कि,

‘साहब। आपकी तबियत अगर ठीक नहीं है तो घर जाकर आराम कर लीजिये। कोई बड़ा केस आयेगा तो मैं खबर कर दूंगा।’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं है। आप चिन्ता न करें।’ राजन ने कहा तो अलताफ ने दूसरी बात कही,

‘जैसी आपकी मर्जी। लेकिन मैं सामने खलील खां की बहुत बढि़या इलायची की चाय मंगवाता हूं। उसे पीकर आपकी तबियत एक दम ताज़ा हो जायेगी।’

‘ठीक है। मैं चाय पी लेता हूं।’

लेकिन जाने से पहले अलताफ अचानक ही रूका और फिर आगे बोला,

‘और इस खुदकशी वाली लड़की के बारे में हत्यारे की कोई तहकीकात बगैरा करनी होगी?’

‘हां, केस को बंद करने से पहले मालुमात तो करनी ही होगी। पहले मुझे सारे मामले पर स्टडी कर लेने दो और पोस्टमार्टम की रिपोर्ट आ जाने दो। फिर बताऊंगा कि किस को क्या करना होगा।’

राजन ने कह कर अलताफ को टाल दिया फिर वह थाने में ही दारोगा के कार्यालय की तरफ बढ़ने लगा। जाते हुये वह सोचता जा रहा था कि, वह कैसे कह दे कि जेबुन का असली कातिल तो वह स्वंय ही है। मगर उसे पकड़ेगा कौन?

समाप्त।


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