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तेरी दहलीज़ तक

तेरी दहलीज़ तक

कहानी / शरोवन

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जिस निष्ठुर इंसान ने मेरे कोमल बदन की तमाम नाज़ुक भावनाओं और संवेदनाओं को बे­दर्दी से खुरच­-खुरचकर उतार दिया हो, उसके घावों के निशान मेरे जीवन से आज भी बरामद किये जा सकते हैं। कैसे भूल सकती हूं?’ कहते हुये मुक्ति उलटे कदम पीछे लौटने लगी तो रोहिम ने उसे रोका।

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दूर क्षितिज में जब सूर्य की अंतिम लाली भी नदी की थिरकती लहरों पर अपना सोना बिख़ेरकर लुप्त हो गई तो डूबती हुई सांझ के साये में वृक्षों की शांत पत्तियों ने भी चुपचाप सोने की तैयारी कर दी। दूर आकाश में शाम की हर पल बढ़ती हुई धुंध को पास आते देखकर रहे­बचे पक्षी भी शीघ्रता से अपने बसेरों की तरफ उड़े चले जाते थे। डूबती हुई संध्या की अंतिम सांसों के साथ ही वातावरण का सारा माहौल भी अब जैसे बोझल होता जा रहा था। चिम्मन नदी के पुल की मुंडेर पर बैठे हुये रोहिम को पुल पर गुज़रते हुये मोटर-गाडि़यों और मनुष्यों के यातायात का जैसे कुछ भी होश नहीं था। यूं भी मनुष्य जब अपने विचारों में लीन होता है तो उसे अपने आस-पास और बाहरी माहौल का तनिक भी ध्यान नहीं रहता है। रोहिम, दिन के एक बजे के बाद ही, जैसे ही उसे मुक्ति का पत्र डाकिये से मिला था, लेकर यहां आकर बैठ गया था। अब तक उसने सीमित पत्र की लिखी हुई पंक्तियों को ना जाने कितनी ही बार पढ़ लिया होगा। फिर जब उससे नहीं रहा गया तो उसने पत्र को फिर एक बार अपनी कमीज़ की जेब से निकाला और निराश और टूटे मन की दम तोड़ती हुई आस्थाओं के साथ फिर एक बार पढ़ने लगा,

‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हो गई यह सब मिन्नतें और आरज़ू करने की? क्या तुमको नहीं मालुम है कि जिस स्थान और स्थिति में तुम मुझे छोड़कर बगैर कुछ भी सोचे­-बगैर चलते बने थे, वहां से मेरा गुमनाम रास्ता किस तरफ जाता है? बेहतर होगा कि जिस कहानी का कोई भी फलसफा तुम नहीं निकाल सके, उसको अंतहीन ही बना रहने दो ....’

पढ़ते­-पढ़ते रोहिम का दिल फिर एक बार टूट गया। इस तरह से कि वह वहीं फिर अपना सिर पकड़कर बैठ गया। उसे लगा कि मुक्ति ने उसे कोई पत्र नहीं लिखा था बल्कि अचानक से उसके मुंह पर एक ज़ोरदार तमाचा जड़ दिया था। कितनी कठोर हो चुकी है, मुक्ति? कठोर ही नहीं, लगता है कि उसके मन और आत्मा की जैसे सारी संवेदनायें और भावनायें शून्यविहीन हो चुकी हैं। यह अंतर उसके वक्त और हालात के साथ झेलने वाले समस्त झंझावातों का है या फिर कुछ और? वह तुरन्त ही कोई निर्णय नहीं ले सका। लेकिन मुक्ति ऐसी तो नहीं थी, तब जबकि वह उसके साथ एक ही कक्षा में पढ़ा करता था। सोचते हुये रोहिम की आंखों के सामने अपने पिछले जिये हुये दिनों की यादें एक चलचित्र के समान स्वत: ही आने लगीं . . .'

तब शायद ऐसा ही कोई दिन था। ढलती हुई शाम, चिम्मन नदी का यही पुल, नदी के डूबते हुये किनारे, इतने अधिक कि आई हुई बाढ़ के कारण पानी का किनारा लोहे के पुल से केवल दो फीट की दूरी पर ही रह गया था। तब रोहिम कॉलेज की अंतिम घंटी के बाद ही इस आई हुई बाढ़ के नज़ारों को देखने के लिये मुक्ति के साथ यहां आ गया था। तभी रोहिम ने जल से लबालब भरी चिम्मन नदी की बाढ़ के नज़ारों को दूर तक देखते हुये मुक्ति से कहा। वह बोला,

‘मुक्ति।’

‘क्या?‘ मुक्ति ने उसकी आंखों में गहराई से झांकते हुये पूछा तो रोहिम ने कहा कि,

‘यह नदी की बाढ़, पानी की असीमित गहराइंया, किसी असफल प्यार के प्रेमी के लिये अपना अंतिम अंजाम देने का एक बहुत ही अच्छा और खुबसूरत स्थान हो सकता है।’

‘?‘ सुनते ही मुक्ति के कान अचानक ही अपने स्थान पर ठिठक गये। वह आश्चर्य से रोहिम का चेहरा पढ़ने लगी। तब कुछेक क्षणों के पश्चात कुछ सोचने के बाद वह रोहिम से बोली,

‘तुम्हारा मतलब क्या है? यदि हम दोनों साथ चलते हुये कहीं अलग हो गये तो यहां चिम्मन नदी में कौन आकर डूब मरेगा। यही जानना चाहते हो क्या?‘

‘शायद।’

‘तो ठीक है। अगर जब भी ऐसा हुआ तो देखेंगे कि हम दोनों में कौन खुश­किस्मत होगा जो यह मार्मिक नज़ारा देखने आ सकेगा।‘

‘?’

मुक्ति की इस बात पर रोहिम चुप हो गया तो मुक्ति बोली,

‘अब एक सवाल मैं पूछूं तुमसे?’

‘जरूर।‘

‘तुम मुझे अपने साथ­-साथ जहां चाहते हो, लिये हुये फिरते रहते हो। और मैं भी ऐसी हूं कि बगैर कोई भी आगा­पीछा सोचे हुये तुम्हारे साथ चल भी देती हूं। हम दोनों का यह अवैद्य सिलसिला कब तक और कहां तक चलेगा?‘

‘शायद ज्यादा दिन और बहुत दूर तक नहीं। मार्ग समाप्त होनेवाला है और मंजिल के चिन्ह दिखाई देने लगे हैं।’

सुनकर मुक्ति का दिल भविष्य में आनेवाली पूर्व खुशियों के एहसास मात्र से ही लबालब हो गया। इस प्रकार कि वह मन ही मन लजा सी गई। तभी रोहिम ने आगे कहा कि,

‘कॉलेज की पढ़ाई तो इस वर्ष समाप्त हो ही रही है। मैंने कई अच्छी जगहों पर नौकरी के लिये आवेदन भी भेज दिये हैं। परीक्षा के परिणामों के बाद ही मैं अपने मांबाप को तुम्हारी मां के पास भेजूंगा।’

लेकिन, मुक्ति से उपरोक्त मुलाकात के पश्चात रोहिम फिर कभी भी मुक्ति से नहीं मिल सका। विवाह की बाद तो दूर, रोहिम के माता-पिता कभी भी मुक्ति के घर झांकने भी नहीं गये। शायद इसका एक ही कारण था कि एक गरीब विधवा की गरीब बेटी मुक्ति को अपने घर की बहू बनाना उनकी महत्वाकांक्षी सोचों से कहीं बहुत दूर की बात थी। रोहिम की शादी उन्होंने विदेश में रहनेवाली एक अन्य लड़की से कर दी। और तब रोहिम विवाह के पश्चात न केवल विदेश चला गया बल्कि वहीं जाकर बस भी गया। बाद में उसने अपने माता-­पिता और भाई-बहनों को भी वहीं बुला लिया। मुक्ति को भूलने वाली बात तो बहुत दूर रह गई, रोहिम ने इतना भी नहीं सोचा कि कम से कम एक बार मुक्ति को इस हादसे की खबर भी कर देता। जो तबदीलियां अचानक से उसके जीवन में आईं थीं उनसे बावस्ता तमाम अफसाने और शिकायतें और मजबूरियों की एक फेहरिस्त ही मुक्ति को दे देता। वह मुक्ति जिसके साथ उसने अपने कॉलेज जीवन के चार मुख्य वर्ष व्यतीत किये थे। इन चार वर्षों में उसने न जाने कितनी ही बार अपने प्यार की सच्ची-­झूठी कसमें खाई होंगी? वही मुक्ति न केवल अपने बे­वफा प्यार से मुक्त हुई बल्कि एक प्रकार से अनजाने में अपने हाथ मलती रह गई। बाद में मुक्ति पर क्या बीती? कैसे उसने यह सदमा बर्दाश्त किया होगा? कितना अधिक वह अपने इस प्यार में मिली हुई ठोकर की चोट खाकर रोई और छटपटाई होगी? रोहिम ने यह भी जानने की शायद कोई आवश्यकता नहीं समझी थी।

बाद में समय बदला। सूख़े स्थानों पर हरियाली आई। कहावत है कि, घूरे के भी दिन बदलते हैं। एक दिन अचानक से रोहिम की पत्नी बगैर किसी भी संतान के चल बसी। रोहिम फिर एक बार वहीं आ गया, जहां से वह मुक्ति को बीच मार्ग में छोड़कर चलता बना था। इस मध्य इतना सब होते­-होते लगभग जीवन के पन्द्रह साल गुज़र गये। पत्नी के बगैर, सूनी जि़न्दगी की तन्हाइंयो भरी रातों में जब एक दिन रोहिम को मुक्ति की याद फिर सताने लगी तो वह चुपचाप एक दिन भारत आ गया। भारत आकर जाहिर ही था कि वह मुक्ति के बारे में जानकारी लेता। तब सब कुछ मालुमात करने के बाद उसे एक दिन पता चला कि उसकी गुमनामी और विवाह के दस वर्षों के पश्चात मुक्ति ने भी अपना विवाह कर लिया था। लेकिन पिछले वर्ष ही उसके पति की मोटर सायकिल की दुर्घटना में अचानक से मृत्यु हो चुकी है और वह अपनी एकलौती बच्ची तथा बूढ़ी विधवा मां के साथ स्वंय भी एक विधवा ही का जीवन काट रही है। सोचते ही रोहिम को अंधकार में किसी हल्की सी ज्योति की उम्मीद लगने लगी तो वह मुक्ति से मिलने के़ लिये छटपटाने लगा। तब इस प्रकार मुक्ति को ढूंढ़ते हुये रोहिम को उसके बारे में सब जानकारी मिल गई। मुक्ति इस समय एक स्कूल में पढ़ा रही थी। उसी स्कूल में उसकी पांच साल की बच्ची भी पढ़ रही थी। मुक्ति अपनी बच्ची के साथ स्कूल जाती, वहां अपना काम करती और फिर अपनी बच्ची के साथ ही वापस घर आ जाती। यही उसकी प्रतिदिन की दिनचर्या थी जिसमें वह अपने को व्यस्त रखते हुये जैसे अपनी जि़न्दगी के दिन पूरे कर रही थी।

रोहिम पता करते हुये मुक्ति के स्कूल पहुंचा। स्कूल की प्रधानाचार्या से मिला और अपने बारे में बताकर उसने मुक्ति से मिलने का समय ले लिया। प्रधानाचार्या ने उसे वेटिंग रूम में बैठने को कहा और मुक्ति के पास उससे किसी आगुन्तक से मिलने की खबर पहुंचवा दी। फिर लगभग बीस मिनट के इंतज़ार के पश्चात जैसे ही मुक्ति वेटिंग रूम में पहुंची तो रोहिम उसे देखते ही उठ खड़ा हुआ। रोहिम ने जब इतने लंबे अंतराल के पश्चात मुक्ति को साड़ी और एक स्कूल की अध्यापिका के रूप में देखा तो सचमुच वह उसे पहिले से भी और अधिक सुन्दर लगी। हां, यह और बात थी कि समय और हालात ने उसके चेहरे से पहले की शोख़- मिज़ाजियां छीनकर एक गंभीरता का एहसास भर दिया था। कुछेक पलों तक दोनों एक दूसरे को लगातार देखते रहे। इस मध्य मुक्ति कुछ भी नहीं बोली तो रोहिम ने बात की शुरूआत की। वह मुक्ति को देखते हुये बोला,

‘तुमने मुझे पहचाना?’

‘जिस निष्ठुर इंसान ने मेरे कोमल बदन की तमाम नाज़ुक भावनाओं और संवेदनाओं को बे­दर्दी से खुरच­-खुरचकर उतार दिया हो, उसके घावों के निशान मेरे जीवन से आज भी बरामद किये जा सकते हैं। कैसे भूल सकती हूं?’ ‘कहते हुये मुक्ति उलटे कदम पीछे लौटने लगी तो रोहिम ने उसे रोका। बोला,

‘मुक्ति, मैं बहुत शर्मिन्दा हूं। वक्त ने मुझे अपने किये की सज़ा दे दी है। अब मैं तुम्हें अपनाना चाहता हूं। केवल एक बार अवसर दे दो।’

‘?‘ मुक्ति अपने ही स्थान पर ठिठक गई- किंकर्तव्यविमूढ़। बड़ी देर तक वह अपने ही स्थान पर खड़ी रही। फिर बाद में वह रोहिम से बोली,

‘मैं एक दम से, यहां अपना निर्णय नहीं दे सकती हूं। अपना पता, फोन नंबर और मिलने का स्थान मुझे लिखकर दे दो। मैं तभी तुमसे बात कर सकूंगी।’

रोहिम ने तुरन्त ही अपना पता, फोन नंबर और मिलने का स्थान चिम्मन नदी का पुल लिखकर दिया और दिल में आशाओं और तमन्नाओं की एक लंबी नदी में तैरता हुआ अपने निवास पर आ गया। आ गया तो वह लगभग दो सप्ताह तक मुक्ति के फोन का इंतज़ार हर रोज़ ही करता रहा। मगर उसके इंतज़ार की घडि़यों में अचानक से तब झटका लगा जब कि मुक्ति के फोन के स्थान पर उसे उसका पहला और अंतिम पत्र उसकी जि़न्दगी के उस करारे तमाचे के समान मिला जिसकी उम्मीद उसे कतई भी नहीं थी . . .’

. . . सोचते­-सोचते रोहिम ने पत्र को एक बार फिर से देखा और उदास निगाहों से उसे आगे पढ़ने लगा . . .'

‘मैं तो तुम्हें पाकर सोचती थी कि परमेश्वर अपनी बरकतों में चाहे एक बार को मुझे कुछ भी न दे पर, जीवन साथी के रूप में मैं तुमको भीख़ में अवश्य मांग लूंगी। तुम्हें यह जान लेना चाहिये कि तुम्हारे प्यार की ज़रा सी आस में भटकती हुई तुमने मुझे जिस गुमनाम स्थान पर तन्हा छोड़ दिया था, वहां से कोई भी राह तुम्हारी दहलीज़ तक नहीं जाती है। बेहतर होगा कि तुम मुझे मेरे हाल पर ही छोड़ दो। मैं जानती हूं कि मैं विथवा ही सही पर मेरा परमेश्वर मेरे जीवन साथी के रूप में मेरे साथ हमेशा बना रहेगा।’

रोहिम ने उदास और निराश निगाहों से पत्र को बंद किया। हाथ की मुट्ठी में ही मसला और चुपचाप चिम्मन की शांत लहरों में फेंक दिया। शाम बिल्कुल डूब चुकी थी। डूबती हुई शाम का धुंधलका इस बात का साक्षी था कि जिस अधूरी कहानी को पूरा करने की आस में वह चिम्मन की धाराओं को अपना गवाह बनाने आया था, उसका पूर्णविराम तो उसी दिन हो चुका था, जिस दिन उसने बड़ी बे­दर्दी से मुक्ति का हाथ पकड़कर छोड़ दिया था। वह जान गया था कि, उसकी जि़न्दगी के वे प्यार भरे रास्ते जिन पर चलते हुये एक दिन उसने मुक्ति की भावनाओं की कद्र नहीं की थी, आज उन्हीं ने उसे भी सदा के लिये नकार दिया है।

समाप्त।





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