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सूनी सड़क का मोहताज

'नीरव की पत्नी नीली अचानक से गायब हो गई और बहुत प्रयास तथा खोजने के पश्चात भी जब उसका कुछ पता नहीं चल सका तो जि़न्दगी के इस दर्दभरे हादसे ने उसके भविष्य में अंधकार के काले बादल तो ठहरा ही दिये थे, साथ ही उसके जीने का सारा उत्साह भी समाप्त कर दिया था। मगर इससे भी कहीं अधिक बढ़कर अपनी पत्नी की छोटी बहन राजनी के कारण सामाजिक बातों का वह ज़हर उसे पीना पड़ रहा था जो उसके साथ ही रह रही थी।'

***


आकाश में अचानक ही दूर कहीं बादल गड़गड़ाये तो इसके साथ ही बिजली किसी खिसियायी हुई नागिन के समान इतने ज़ोरों से तड़पी कि लगा कहीं किसी नई-नवेली सुहागिन ने अपना दम तोड़ दिया हो। जाड़े की दांत किटकिटाती रात थी। वर्षा अपने पूरे जोर-शोर के साथ होने लगी थी। शीत का प्रभाव अपने पूरे बल पर था। सारे माहौल में घटाटोप अंधकार छाया हुआ था। वातावरण के इस बिगड़े हुये रूप को देख कर शहर की विद्युत की रोशनी भी जाती रही थी। केवल क्षण भर को वही प्रकाश कभी-कभार चमक जाता था जो आकाश की बिजली के चीखने और चिल्लाने से हो जाता था।

तभी सहसा फिर से बादल चीख पड़े तो अपने कमरे में दुबकी-सिमटी राजनी की आंख अचानक ही भय के कारण खुल गई। वह जागी तो बाहर का बिगड़ा हुआ वातावरण खिड़की के कांच के शीशों से देखते ही वह मन ही मन फिर से कांप गई। खिड़की के बाहर तेज हवा के प्रवाह से भूतों समान कांपते और लहराते हुये वृक्ष तथा चमकती हुई बिजली की दमक और बादलों की भयंकर गड़गड़ाहट सुनते ही उसका रहा-बचा साहस भी जाता रहा। तुरन्त ही उसका मन अन्दर ही अन्दर किसी अज्ञात अनहोनी के डर से भयभीत होने लगा। बगल के लगे हुये कमरे में नीरव उसकी स्थिति से बिल्कुल बे-खबर जैसे गहरी नींद सो गया था। राजनी सोच रही थी कि जैसे नीरव को उसकी परिस्थित और बिगड़े हुये इस माहौल का पूरा पूरा ज्ञान होगा और वह कुछ ही पलों में उसके कमरे को दस्तक देने आयेगा, तथा उसकी सलामती पूछ लेगा। मगर काफी देर तक जब उसकी सोचों के अनुसार कुछ भी नहीं हो सका तो वह साहस करके अपने बिस्तर पर से उठी। कमरे की सिटकनी खोली और दबे पैर बाहर के बिगड़े हुये वातावरण को न देखने की कोशिश करते हुये उसने नीरव के कमरे का द्वार हलके से खोला और अन्दर प्रविष्ट हो गई। नीरव राजनी के कारण ही अपने कमरे का द्वार केवल भेड़ कर बन्द कर लेता था। अन्दर से वह बन्द नहीं करता था। यही सोच कर कि रात-बिरात कहीं राजनी को कोई आवश्यकता उससे या फिर उसके कमरे न पड़ जाये। वह अपना कमरा तो खुला रखता था मगर राजनी को सदैव ही उसने अपना कमरा बन्द करके सोने की हिदायत दे रखी थी।

राजनी अन्दर कमरे में पहुंची तो उसने देखा कि नीरव अभी भी उसकी उपस्थिति से बेखबर जैसे बहराभूत सा सो ही रहा था। शायद इसका कारण था कि वह पिछली रात देर तक पढ़ता या जागता रहा होगा। तब बगैर कुछ भी सोचे समझे राजनी बड़ी ही साधरणता और समान्यता के साथ उसके बिस्तर पर बैठ गई, और तुरन्त ही चादर ओढ़ कर तथा आंखें बन्द उसके बगल में ही लेट गई।


तब जैसे ही नीरव को एहसास हुआ कि कोई उसके बगल में आकर लेट गया है तो उसे समझते देर नहीं लगी कि लेटने वाली राजनी ही होगी। तब उसे जब ये ज्ञात हो गया कि उसके बिस्तर पर लेटने वाली राजनी ही है तो उसने उससे पूछा कि,


‘क्या बात है राजनी। नींद नहीं आ रही है?’


‘हां। देखा नहीं कि कितने ज़ोरों का तूफान है बाहर? मुझे डर लगता है।’


‘डर लगता है तो चुपचाप सो जाओ। मैं जागता हूं।’


इतना कह कर नीरव उठ कर और अपनी पीठ को सिरहाने टिकाकर बैठ गया। राजनी चुपचाप लेटी रही। बड़ी देर तक नीरव कमरे के अन्दर तथा बाहर के मौसम को देखता रहा। फिर जब थोड़ी ही देर में राजनी किसी भी प्रकार के भय से आसक्त होकर सो गई तो नीरव अपने बिस्तर पर से उठा, पैरों में स्लीपर पहने और कमरे का दरवाजा खोलकर बाहर निकला। बाहर आकर वह आंगन में खड़ा हो गया। अब तक वर्षा का प्रभाव काफी सीमा तक हल्का पड़ चुका था। तेज वायु का प्रकोप और सांय-सांय जैसा शोर अब जाता रहा था। बादल भी चीख-चिंघाड़ कर वापस जाने लगे थे। मगर सारे वातावरण में अभी भी घटाटोप अंधकार अपनी चादर ताने हुये छाया हुआ था।

तब नीरव ने चुपचाप बाहर आंगन का दरवाजा खोला और खोल कर घर के बिल्कुल बाहर आ गया। आकर थोड़ी दूर पड़े सदियों पुराने एक बड़े पत्थर पर आकर बैठ गया। इस बड़े पत्थर से शहर की वह खाली और नंगी बाईपास की सड़क स्पष्ट दिखाई देती थी जो सरकार ने टै्रफिक के बढ़ने के कारण अभी एक साल पहले ही बनवाई थी। नीरव आकर चुपचाप पत्थर पर बैठ चुका था। मौसम अब तक साफ होता प्रतीत होने लगा था।


वह अभी भी बैठा हुआ था। चुपचाप। बहुत ख़ामोश, गंभीर और हताश, निराश कामनाओं की बेहद पुरानी ठंडी अर्थी के समान। अक्सर ऐसा ही होता था। जब भी मौसम खराब होता, या और कोई बात राजनी के भय का कारण होती, और तब वह नीरव के बिस्तर पर आकर सो जाती तो नीरव उसको सुलाकर बाहर इसी सदियों पुराने बूढ़े पत्थर पर आकर बैठ जाता था।

समाज और उसके आस-पास के रहने वाले सभी जानते थे कि राजनी उसकी पत्नी न होकर पत्नी की छोटी अविवाहित बहन ळें नीरव को याद है कि अभी लगभग प्रकृति के मौसम के चार बसन्त ही गुज़रे होंगे कि राजनी की बड़ी बहन नीली उसके जीवन में आई थी। चार साल पूर्व नीरव का उसके साथ विवाह हुआ था। ये विवाह दोनों परिवारों की रजामन्दी के साथ हुआ था। तब विवाह के पश्चात नीरव नीली को अपनी पत्नी के रूप में पाकर जैसे सौभाग्यशाली समझने लगा था। नीली ने समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की डिग्री प्रथम


श्रेणी से पास की थी। अपनी शिक्षा की समाप्ति के पश्चात वह एक कालेज में समाजशास्त्र के विद्यार्थियों को पढ़ाने लगी थी। विवाह के पश्चात नीली ने अपनी ये नौकरी बाकायदा जारी रखी थी। कारण था कि नीरव जिस शहर में रहकर अपना काम करता था, उसी शहर में नीली भी नौकरी कर रही थी। सो विवाह के पश्चात कोई अधिक परेशानी काम के कारण किसी को भी नहीं आ सकी थी। केवल नीरव का घर नीली के कालेज से थोड़ा दूर हो गया था, पर उसकी भी परेशानी नीरव ने नीली को कार लेकर पूरी कर दी थी। इस प्रकार से विवाह के पश्चात दोनों पति और पत्नी का दम्पत्ति जीवन प्रति दिन ही खुशियों के फूल बटोरने तथा मांग में आकाश के तारे भरने के साथ हंसी-खुशी से व्यतीत हो रहा था। नीली का जैसा नाम था, वैसा ही उसका रूप और सौन्दर्य भी था। उसके रूप में जो विशेषता थी, वह यही कि उसकी आंखों का रंग भी बिल्कुल नीला ही था। बिल्कुल किसी विदेशी अंगे्रज लड़की के समान झील से भी अधिक गहरी उसकी नीली आंखें थीं। नीली की इन आंखों को नीरव जब भी निहारता था तो फिर एक टक देखता ही रह जाता था। सचमुच विधाता ने नीली को उसकी आंखों का विशेष नीला रंग जैसे किसी निधि के रूप में दिया था। एक ऐसी निधि कि जो नीरव की जि़न्दगी का विशेष उपहार बन कर उसके घर के आंगन में आकाश की ऊंचाइयों से गिरा दी गई थी। प्यार और मुहब्बत के वह पाक और पवित्र नज़राने जिन्हें पाने की हरेक इंसान कितनी ही कोशिशें करता है। न जाने कितने ही ख्वाब देखा करता है, और कितने ही प्रयत्न किया करता है; नीरव के हाथ में उसकी तकदीरों की लकीरें बन कर स्वत ही मुस्कराने लगे थे। उसकी किस्मत के वे मुस्कराते फूल कि जिनके होठों को छूने के लिये रात की शबनम को भी जैसे इजाजत लेनी पड़ती थी।

नीली का अपने माता-पिता के परिवार में उसकी छोटी बहन राजनी के सिवा अन्य कोई नहीं था। अपने घर की वह सबसे बड़ी और पहलौठी सन्तान थी। राजनी नीली से सात साल छोटी थी। दोनों बहनों के बीच में इस सात साल के अन्तर का सबसे बड़ा कारण मध्य की दो सन्तानें जीवित नहीं बच सकी थीं। फिर विवाह के पश्चात जब नीली नीरव के साथ आकर अपने घर रहने लगी तो उसके माता-पिता का भार राजनी के सिर पर आ गया। तब बूढ़े मां-बाप का ख्याल राजनी रखने लगी थी। जिस समय नीली का विवाह हुआ था, उस समय तक राजनी कॉलेज के प्रथम वर्ष में थी। अपने घर से ही रह कर वह कालेज पूरा कर रही थी और साथ ही अपने माता-पिता का पूरा-पूरा ध्यान भी रखती थी। राजनी के साथ-साथ नीली भी अपने माता-पिता का बाकायदा पूरा पूरा ध्यान रखती थी। सो इस प्रकार विवाह के पश्चात भी नीली के मां-बाप को उसकी कमी अखर नहीं पाई थी। प्राय: ही नीली अपने घर कभी कार से तो कभी दूसरे यात्रा के साध्णन से अपने मां-बाप को देखने चली जाया करती थी।

नीरव का काम बिल्कुल ठीक चल रहा था। आय के नाम पर उसका अपना व्यापार था। वह कमप्यूटर तथा अन्य इलेक्ट्रोनिक्स का बिजनिस किया करता था। इसके साथ ही नीली की नौकरी के ज़रिये भी परिवार की आय ढंग से हो जाया करती थी। सो इस प्रकार से सब ही कुछ सुचारू और कायदे से बगैर किसी भी परेशानी तथा विघ्न के चल रहा था। नीली और नीरव ने कभी शायद सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनके हंसते-खेलते परिवार पर यातनाओं के दौर भी अचानक से आकर मंड़राने लगेगें। हुआ यह कि नीली के विवाह के दो वर्षों के अन्तर में ही उसके माता-पिता संसार छोड़ कर चलते बने। पहले उसकी मां का देहान्त हो गया और फिर ग्यारह माह के अन्तर में उसके पिता ने भी ये संसार छोड़ दिया। माता-पिता के स्वर्ग सिधारने पर नीली और नीरव के सामने जो समस्या सबसे बड़ी आई थी वह राजनी को लेकर थी। सबसे बड़ा कारण राजनी का कालेज और फिर अकेले घर में रहना। हांलाकि राजनी ने खुद अकेले रहकर अपना कालेज पूरा करना चाहा था, मगर नीरव ने वर्तमान परिस्थित को देखते हुये एक युवा लड़की को यूं अकेले छोड़ने की अनुमति नहीं दी थी। तब किसी प्रकार से वह वर्ष तो राजनी का नीली और नीरव ने पूरा किया, मगर नये सत्र में उन दोनों ने राजनी को अपने ही शहर के एक अच्छे कालेज में प्रवेश दिला दिया था। तब इस प्रकार से राजनी अपने बहनोई और बहन के घर पर रहकर ही और उनके परिवार की एक सदस्या बनकर रहने लगी थी। यूं नीली और नीरव ने सोचा था कि राजनी की शिक्षा पूरी होते ही वे उसका विवाह करा देंगे। तब राजनी भी अपने घर चली जायेगी।

फिर जब राजनी नीरव और अपनी बहन के घर से ही रहकर पढ़ने लगी तो नीरव ने भी उसके प्रति अपनी समस्त जिम्मेदारियों का भरपूर खयाल रखा। वह राजनी को अपनी बेटी समान मानकर उसके प्रति पूरा-पूरा अपने उत्तरदायित्व को निभाने लगा। हांलाकि वह राजनी के माता-पिता का स्थान तो नहीं ले सकता था, मगर फिर भी अपनी कोशिश में उनकी सारी कमियों को पूरा रखने का भरसक प्रयत्न करने लगा। स्वयं राजनी भी नीरव को अपने पिता के स्थान पर रख कर उसको मान-सम्मान देने लगी थी।

इस प्रकार से सारा कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। कहीं भी कोई अड़चन और जीवन की रिक्तता नज़र नहीं आती थी। नीरव ने चुपचाप राजनी के लिये एक अच्छे वर की तलाश भी जारी कर दी थी। उसका विचार था कि राजनी की कालेज की पढ़ाई पूरी होते ही वह उसका विवाह कर देगा। उसके विवाह के पश्चात वह कम से कम उसकी तरफ से निश्चिंत तो हो जायेगा। लेकिन नीरव और साथ ही नीली के द्वारा सोचा हुआ समय पर पूरा भी नहीं हो सका। जैसा कि कहा जाता है कि मनुष्य का सोचा हुआ कब समय पर पूरा हुआ है? मन की कामनाओं से देखे गये सपने और इरादे मनुष्य कब पूरा कर पाता है? नीली के द्वारा नीरव और राजनी के हंसते-महकते हुये जीवन में जो एक बार अंधकार का बादल छाया तो वह आज तक छंट नहीं सका था। अपने व्यापार में ढंग का लाभ होने पर वर्ष के अंत में नीरव ने नीली को उसके विवाह की चतुर्थ वर्षगांठ पर होंडा कम्पनी की बनी हुई कार उपहार में दी थी। नीली की आंखों के नीले रंग की ही चमकती हुई प्यारी कार को पाकर नीली की खुशियों के पुष्प उसके घर के कोने-कोने में अपनी सुगन्ध को बिखेरने लगे थे, कि तभी अचानक से एक तूफान आने से पहले छाई शान्ति के समान एक हवा का झोंका सा आया और पल भर में ही परिवार में महकते हुये पुष्पों को मसल कर चलता बना। होंडा कार पाकर नीली उसको पहली बार चलाने के लिये घर के बाहर बाई पास की सड़क पर चलाने के लिये निकली तो सबसे पहले उसने चलने से पहले नीरव को भी साथ में बैठने के लिये आग्रह किया तो नीरव ने ये कहकर मना कर दिया कि कार उसको उपहार में मिली है, इसलिये वह सबसे पहले खुद बैठकर, चलाकर उसकी शुरूआत कर दे। बाद में तो वह बैठेगा ही। सो अपने पति नीरव की बात मान कर नीली कार को स्टार्ट करके जब बाई पास की सड़क पर चलाते हुये आगे काफी दूर तक निकल गई तो नीरव ने सोचा था कि वह दस पन्द्रह मिनटों में वापस भी आ जायेगी। यही सोचकर वह वहीं बाई पास के किनारे पड़े हुये एक पुराने पत्थर पर बैठ कर नीली के वापस आने की प्रतीक्षा करने लगा। मगर जब दस मिनट व्यतीत हुये। फिर पन्द्रह से बीस, पच्चीस, तीस और एक से दो घंटे तक निकल गये तो नीरव को नीली के लिये चिन्ता होने लगी। नीली जो कार को लेकर गई तो वापस भी नहीं आई थी। पहले नीरव ने सोचा कि हो सकता है कि कहीं कार खराब होकर बीच मार्ग में न रूक गई हो। मगर एक दम से नई कार के प्रति ऐसा विचार करना पूरी मूर्खता ही माना जायेगा। लेकिन किसी भी मशीनरी के लिये कोई भी ठोस विश्वास नहीं किया जा सकता है। पुरानी से पुरानी मशीन बगैर किसी भी खराबी के वर्षों तक चल सकती है, और बिल्कुल नई बगैर चले भी खराब हो सकती है। सो ऐसा सोचकर नीरव नीली को वह जिस तरफ गई थी, काफी मीलों तक अकेला ढूंढ़ आया, लेकिन वह कहीं पलभर को भी नज़र नहीं आई। न मिलने पर नीरव नीली को उस दिन और सारी रात तक बगैर कुछ भी खाये-पिये हुये ढूंढ़ता, भटकता रहा। दूसरे दिन भी वह परेशान बना रहा। साथ में राजनी भी अपनी बहन के यूं अचानक से गुम हो जाने पर एक पल को चैन से नहीं बैठ सकी। नीरव को नई कार के चले जाने का इतना दुख नहीं था जितना कि नीली के यूं अचानक से बगैर किसी भी बात के गुम हो जाने का मलाल उसको हो रहा था। उसे लगता था कि बगैर बात के शान्ति से बैठने के बावजूद भी जैसे खुद उसने कुल्हाड़ी अपने सिर में मार ली थी। कितना अच्छा होता कि यदि उसने नीली की बात मान ली होती, और वह उसके साथ ही कार में बैठ गया होता। तब जब नीली वापस नहीं लौटी और नीरव उसको ढूंढ़-ढूंढ़ कर हार गया तो बाद में उसने अपनी पत्नी और कार के गुम होने की प्रथम सूचना रिपोर्ट स्थानीय पुलिस स्टेशन में लिखवा दी।

फिर जब नीली नहीं मिली और नीरव उसको हरेक स्थान पर, जहां पर कि उसके मिलने की ज़रा भी संभावना हो सकती थी, ढूंढ़ते-ढूंढ़ते थक-हार गया तो फिर उसने उसे बाद में ढूंढ़ना ही बंद कर दिया। मगर नीली को ना ढूंढ़ने पर भी उसके मन में एक ठहरी हुई आशा की किरण अभी तक जीवित थी। वह सोचता था कि हो न हो उसकी नीली एक दिन अचानक से जरूर ही लौटकर वापस आ जायेगी। वह संसार में कहीं भी क्यों न हो, मगर जीवित अवश्य ही होगी। नीरव दिन-रात, हर वक्त, खाते-पीते, उठते-जागते और काम करते हुये भी सदा नीली के लिये सोचता रहता था। सोच-सोचकर अक्सर ही वह परेशान हो जाता था। वह सोचता था कि कितने अरमानों से उसने नीली का साथ अपने जीवन में, अपने एक हमसफर के रूप में पाया था। उसको पाकर वह खुद को कभी एक बहुत ही गौरवशाली इंसान समझने लगा था। इतना अधिक वह नीली को चाहता था कि वह तो कभी सपने में भी नहीं सोचता था कि नीली यूं अचानक से उसको तन्हा बनाकर छोड़ जायेगी। तन्हा ही नहीं बल्कि सदा के लिये धीमें-धीमें सुलगने की अग्नि भी लगा जायेगी। इसके साथ ही नीली तो जाकर लुप्त हो गई थी, मगर साथ में इससे भी बड़ा उत्तरदायित्व नीरव के सिर पर उसकी छोटी बहन राजनी का भी छोड़ गई थी। समाज और आस-पास के रहनेवाले सभी परिचित और उसके मित्र अच्छी तरह से जानते थे कि रजनी नीली की छोटी युवा बहन है। इस कारण सामाजिक कटु और जहरीली उन बातों का ज़हर भी उसको आये दिन पीना पड़ रहा था जो उसके चिर-परिचित मित्र तथा मिलने-जुलनेवाले समाज के लोग प्राय ही उसके पीछे कहा-सुना करते थे। अक्सर नीरव को पीठ पीछे सुनने को मिल जाया करता था कि, ‘नीली को गायब करवाने में खुद नीरव का ही हाथ हो सकता है . . ., राजनी से उसके अवैद्य संबन्ध भी हो सकते हैं . . ., देखना एक दिन वह राजनी से ही अपना विवाह कर लेगा . . .?’ ऐसी न जाने कितनी ही तमाम बातों का कड़वा विष नीरव को अपने हल्क से नीचे उतारना पड़ता था। इतना ही नहीं जब कभी वह स्थानीय पुलिस स्टेशन में यही सोचकर जाता था कि हो सकता है कि नीली की कोई खबर मिल गई हो? तब वह जब भी वहां एक आशा से पूछता था तो बजाय इसके कि पुलिस विभाग के कर्मचारी उसको सांत्वना दें या फिर उसके दुख को समझते हुये मानवता से बात करें, वे खुद नीली के चरित्र पर दोष लगाते हुये उसका मन पहले से भी अधिक दुखा देते थे। अक्सर ही पुलिस के कर्मचारीगण उससे कह देते थे कि, ‘हम आपकी पत्नि को कहां-कहां पर ढूंढ़े ? क्या पता उसका आपसे मन भर गया हो, और वह किसी अन्य या फिर अपने बॉय फ्रेंड के साथ चुपचाप रहने लगी हो? हमारी मानें तो आप अब उसके वापस आने की आशा ही छोड़ दें। उसकी बहन तो आपके पास है ही, उसी से विवाह करके अपना घर फिर से बसा लें, या फिर वैसे ही अपना काम चलाते रहें।’ सो इस प्रकार नीली के गुम हो जाने का दुख तो नीरव को था ही, साथ ही उसकी बहन राजनी के सबब से भी उसको ना जाने कितनी ही अशोभनीय बातें सुनने को मिलती ही रहती थीं। जब कि राजनी के लिये उसके दिल में कौन सा स्थान था? यह तो वही जानता था। वह तो उसको अपनी बेटी से भी कहीं अधिक बढ़कर पाल रहा था। उसकी पढ़ाई-लिखाई तथा अन्य सभी बातों की जिम्मेदारियां वह उठा रहा था। चाहता था कि कि कितनी ही जल्दी राजनी अपनी शिक्षा समाप्त कर ले तो वह अतिशीघ्र उसके हाथ पीले कर देगा। उसके विवाह के लिये उसने पहले ही से उचित वर की तलाश कर ली थी।


मगर इतना सब कुछ होने के बाद भी समाज के लोग उसे चैन से जीने भी नहीं दे रहे थे। बजाय इसके कि वे सब उसकी पत्नि के गायब हो जाने का दुख मनाते, स्वयं राजनी को लेकर उसके ही चरित्र पर अंगुली उठाने से बाज नहीं आते थे। नीरव के लिये ऐसी बातें सुनना और ऐसे महौल से हर वक्त ही गुज़रते रहना अब तो एक आम बात हो चुकी थी। नीली को गायब हुये भी दो वर्ष से भी अधिक हुये जा रहे थे। इन दो वर्षों में अब तक तो नीरव को उसके मिलने की जो हल्की सी आशा की किरण बची हुई थी उसकी भी लौ टिमटिमाने लगी थी।

सो ऐसी परिस्थिति में नीरव के सामने अब केवल एक ही विकल्प रह गया था कि किसी भी तरह से वह राजनी को उसकी ससुराल रवाना कर दे। क्योंकि वह जानता था कि समाज के लोगों का मुंह बंद करने तथा राजनी के दिवंगत् माता पिता की आत्माओं को शांति देने और यदि नीली कहीं भी जीवित होगी तो खुद उसको भी तसल्ली देने का कोई अन्य चारा नहीं रह गया था। जब कभी भी नीरव का मन उदास होता था या फिर दैनिक जीवन की कोई भी घटना नीरव की भूली बिसरी स्मृतियों को कुरेदने लगती थीं तो फिर वह चुपचाप अपने घर के बाहर निकलकर इसी बाई पास की सूनी सड़क के किनारे पड़े हुये बूढ़े पत्थर पर आकर बैठ जाता था। बैठकर वह चुपचाप बोझिल पलकों के साथ अपनी सूनी आंखों से उसी सूनसान, नंगी, और दूर तक जाती हुई वीरान सड़क को निहारने लगता था कि जिस पर एक दिन नीली उसको तन्हा और उदास बनाकर निराशा के हाथ मलते छोड़कर लुप्त हो चुकी थी। नीरव का मन और दिल जानता था कि वह इस बाई पास की सूनी और निहायत ही उदास, ख़ामोश सड़क का एक प्रकार से दीवाना हो चुका है। इसकदर कि जब तक कि वह इसको दिन में कई कई बार नहीं देख लेता है उसकी आत्मा और सूनी आंखों को शांति नहीं मिल पाती है। मगर यह उसकी बिडम्वना ही कही जा सकती है कि लोग उसको अपने कटीले कटाक्षों और अपने सन्देहशील नज़रों से उसके चरित्र पर अंगुली उठाते हुये उसको इस सूनी सड़क को भी देखने से मोहताज कर देना चाहते थे। शायद अपने इस प्रकार के व्यवहार का प्रदर्शन करके वे सब ये बता देना चाहते थे कि उनका ऐसा प्रदर्शन मनुष्यता का वह भीतरी वास्तविक रूप है कि जिसकी मात्र एक झलक से ही ये साबित हो जाता है कि शैतानी ज़मीर का अंश मनुष्य के स्वभाव में कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में विराजमान अवश्य ही होता है। वह शैतान कि जिसके आंमत्रण से मनुष्य के जीवन में अलगाव की भावनायें जन्म ले लिया करती हैं, और जिससे सदा दूर रहने की चेतावनी मनुष्य के सृष्टिकत्‍​र्ता ने उसको रचने के पश्चात ही दे दी थी।

बैठे-बैठे नीरव को इतनी देर हो गई कि कब दिन की पौ फट कर नये दिन की सुबह के सूरज की मासूम रश्मियों को भी बिखे़रने लगी हैं, उसे विचारों में डूबकर कुछ पता ही नहीं चल सका था। अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखनेवाले सुबह के घूमने और टहलने वाले लोगों की गिनती बढ़ती ही जा रही थी। असली या नकली या फिर मिलावट का दूध बेचने वालों का आवागमन आरंभ हो चुका था। तथा इसके साथ ही रात भर से पड़ी हुई सूनी सड़क के सीने पर लोगों के आवागमन की हलचल भी जारी हो चुकी थी। नीरव ने ये सब देखा तो उसे अपनी परिस्थिति का ध्यान आया। रात के तूफानी शोर की परवा किये बगैर वह राजनी को अपने बिस्तर पर सोता हुआ छोड़कर यहां आकर बैठ गया था। तब से बैठे बैठे उसे इतनी देर हो चुकी थी कि अब तक तो राजनी सोकर भी उठ चुकी होगी। उसे कॉलेज जाना है, और खुद उसको अपने काम पर। ये सोचता हुआ नीरव अपने स्थान से उठा और घर की ओर चलने लगा। बिल्कुल चुपचाप। शांत। ख़ामोश और जीवन के किसी भी उल्लास और उमंगों से महरूम बना हुआ, किसी बेजान पत्थर के समान। निरर्थक सा।

घर के अंदर आया तो चारो तरफ की बसी हुई ख़ामोशी ने उसे पहले ही से ज़ाहिर करा दिया कि राजनी अभी तक सोकर उठी नहीं है। फिर उसने कमरे में जाकर देखा तो सचमुच राजनी रजाई को बिस्तर के नीचे फेंककर एक तकिये को अपने पैंरों से दबाकर तथा दूसरे तकिये से अपना सिर ढांके हुये किसी मासूम बच्चे के समान, अस्त-व्यस्त सी गहरी नींद सो रही थी। नीरव के बिस्तर पर राजनी को कितने चैन और सब्र की नींद आती है, ये उसके सोने के अंदाज से ही ज्ञात हो रहा था। ऐसी निश्चिंतता से राजनी नीरव के बिस्तर पर सो जाया करती थी कि जैसे कोई बच्चा अपने मां-बाप से चिपट कर सो जाया करता है।

नीरव ने आते ही किचिन में जाकर चाय का पानी चढ़ाया। फिर जल्दी से अंडों का ऑमलेट बनाने के लिये प्याज को काटा। वह जानता था कि राजनी ऑमलेट में प्याज को अवश्य ही पसंद करती है।फिर जब तक चाय तैयार हुई तब तक उसने डबलरोटी में ऑमलेट लगाकर सैंडविच बनाकर तैयार कर ली। तब जब सब कुछ तैयार हो गया तो फिर उसने राजनी को कमरे के बाहर से ही आवाज़ दी,


‘राजनी बेटा। नाश्ता, चाय सब कुछ तैयार है। अब उठ भी जाओ। अगर कॉलेज जाने की इच्छा है तो।’


फिर कुछेक मिनटों के अंतराल में जब राजनी कॉलेज जाने के लिये तैयार होकर आई तो वह उसको सबसे पहले शुभ सुबह कहती हुई उसके सीने से लग गई। नीरव ने उसके सिर पर अपना हाथ रखते हुये केवल इतना ही कहा कि,


‘गॉड ब्लैस यू।’


बाद में नाश्ता करते हुये राजनी ने नीरव से बोला,


‘जीजा जी, अगर आप कहें तो मैं आज कार से कॉलेज चली जाऊं?’


‘?’


राजनी की इस बात पर नीरव अचानक ही अंदर तक जम गया। वह जानता था कि कार से जाने का तो मात्र एक बहाना है।राजनी सचमुच कार को चलाकर अपना शौक पूरा करना चाहती है। आज तक नीरव ने राजनी की हरेक इच्छा पूरी की थी। केवल यही सोचकर कि राजनी को अपने माता पिता के साथ साथ अपनी बहन नीली की भी किसी भी तौर पर कोई भी कमी महसूस न हो सके।


नीरव की तरफ से कोई भी उत्तर न मिलने पर राजनी ने उसके मन की भावना को महसूस किया। तब वह आगे बोली,


‘जीजा जी, जब से दीदी क्या गई हैं, आप में बिल्कुल भी हिम्मत नहीं रही है। बहुत ही डरने लगे हैं आप?’


‘हां बेटा। तुम सच कहती हो। तुम्हारी बहन मुझे अपने जीवन की यही सीख तो देकर गई है। जो घटनायें अनहोनी हुआ करती हैं, उनके अचानक हो जाने की संभावनाओं के भय से सदा भयभीत बने रहो। जो गलती एक बार हो चुकी है, उसे दोबारा करने की भूल से सदैव ही चौकस रहो। मरने वाले का सदमा तो फिर भी बर्दाश्त कर लिया जाता है, मगर जो जीवन और मृत्यु के बीच अधर में लटक कर अचानक ही गायब हो जाये उसका दुख तो मरने वाले से भी अधिक असहनीय हो जाता है। तुम्हें कार चलानी है, तो चलो तुम ही ड्राईव करना। मगर मैं तुम्हारे साथ चलूंगा। फिर जब कॉलज समाप्त हो जायेगा तो मैं तुम्हें लेने भी आ जाऊंगा।’


सांसारिक छटा और बहारों में कितने ही पतझड़ आये और चले भी गये। प्रकृति अपनी सुन्दरता के साथ बसंत के कितने ही मौसमों में नव-नवेली दुल्हन के समान सजी और मुस्कराई। बादल, बिजली, बरसात और बर्फ के तूफान कभी आये तो कभी शांत बने रहे। राजनी का कॉलेज पूरा हुआ। नीरव अपने व्यवसाय में न चाहते हुये भी व्यस्त हो गया। अपनी पत्नि नीली के लिये वह यह सोचकर सन्तुष्ट हो गया कि ईश्वर ने जब ये दुनियां बनाई होगी तो उसने किसी अन्य संसार का भी निर्माण अवश्य किया होगा। मगर उस दूसरी दुनियां के बारे में उसने मनुष्य को शायद इसलिये नहीं बताया है कि इस अनदेखी दुनियां में उसके अपने चुने हुये लोग ही रह सकते होंगे। नीली भी नीले आसमान की किसी ऐसी ही दुनियां में अपने विधाता के साथ बड़े ही इत्मीनान से रह रही होगी। उस ईश्वर के साथ कि जिसकी उपासना तो इंसान जरूर किया करता है, मगर उसके दर्शन किन्हीं बिरलों को ही हुआ करते हैं।

फिर एक दिन वह भी आ गया कि जिसके लिये नीरव ने दिन रात परिाम किया था। लोगों के हर तरह के कटाक्ष और तीर समान लगने वाली बातें सुनी तथा राजनी को लेकर अपने बदन और आत्मा पर चरित्रहीनता के बादल बरसाये। उसने राजनी का विवाह किया। बाकायदा उसका पिता, संरक्षक और रहबर बनकर उसका कन्यादान किया। राजनी के विवाह में उसने किसी भी बात की तनिक भी कमी नहीं होने दी। जितनों को वह और राजनी जानते थे, उन सबको ही तथा उनके भी मित्रों और परिचितों को आंमत्रित किया। बड़े ही शान और शौकत के साथ उसने राजनी के विवाह का प्रबंध किया। ठीक एक पिता से भी बढ़कर उसने अपने उत्तरदायित्व को पूरा किया। विवाह में उसने राजनी को दहेज के नाम पर जरूरत की हरेक वस्तु प्रदान की। यहां तक कि उसने राजनी के पति को बिल्कुल वैसी ही नीले आसमानी रंग की होंडा कार भी दी, जैसी कि एक दिन उसने अपनी पत्नि नीली को दी थी।

फिर विवाह के दूसरे दिन जब राजनी की विदा का समय आया तो राजनी तो नीरव से लिपटकर खूब जी भर कर रोई। बिल्कुल एक बेटी की तरह वह नीरव से लगकर रोती रही। स्वंय नीरव की भी आंखों में आंसू झलकने लगे थे। विदाई के इस करूण और हृदयविदारक दृश्य को देखने वाले भी एक प्रकार से पसीज़ गये थे।जीजा और साली के इस पवित्र और पाक रिश्ते की मिसाल एक पिता और बेटी के रूप में सब ही अपनी आंखों से देख रहे थे। एक ऐसा रिश्ता कि जिसको हमारा समाज सदैव ही एक संशय की दृष्टि से देखने का आदी हो चुका है।नीरव के महान त्याग तथा पूर्ण किये हुये उत्तरदायित्व ने आज सब ही को फिर एक बार नये सिरे से सोचने पर विवश कर दिया था। कौन दोषी हो सकता है; जीजा और साली के आपसी रिश्ते को बदनामी का लिबास पहनाने के लिये? लोग, समाज, रिश्ते-नातेदार या फिर आपसी संबन्ध? ये एक सोचने वाली बात है।


फिर जाने से पूर्व नीरव ने राजनी का हाथ उसके पति के हाथ में फिर एक बार सोंपते हुये अपनी भरी आवाज़ में कहा कि,


‘मैं अपनी साली राजनी को नहीं बल्कि अपनी बेटी को एक बूढ़े बाप की हैसियत से तुम्हारे हाथों में सौंप रहा हूं। नीली का दुख: तो मैंने किसी प्रकार सहन कर भी लिया, लेकिन यदि राजनी को कोई तकलीफ हुई तो मैं ये सदमा कभी भी बर्दाश्त नहीं कर सकूंगा।’


तब राजनी चली गई। बिल्कुल वैसी ही नीले रंग की होंडा कार में। अपने पति के घर। अपनी ससुराल, अपने वास्तविक घर। उस घर को, जिसमें जाने की कल्पना और इच्छा शायद हरेक लड़की अपने जीवन में कम से कम एक बार तो अवश्य ही करती होगी? जाते समय राजनी की होंडा कार उसी सूनी और शहर से अलग ठहरी हुई बाई पास की सड़क पर जब जाने लगी तो अपनी आदत से मजबूर नीरव फिर एक बार उसी बूढ़े पत्थर पर आकर बैठ गया, जंहा पर आकर वह अक्सर ही बैठकर नीली के वापस आने की प्रतीक्षा किया करता था। मगर आज कितने आश्चर्य की बात थी कि नीली की नीले रंग की होंडा कार के वापस आने की तो वह प्रतीक्षा किया करता है, लेकिन राजनी की इस कार को वह जाने की दुआयें दे रहा था।

नीरव जानता था कि, आज राजनी के अपने घर चले जाने के पश्चात उसके सूने घर की तन्हाइयां पहले से और भी अधिक बढ़ जायेंगी। अपने जीवन का रहा-बचा हिस्सा उसे अब केवल प्रतीक्षा और आस के बल पर ही काटना होगा। जीवन बसर करने जैसी तो कोई बात होने का प्रश्न ही नहीं होगा। केवल उम्र भर ही पूरी करनी होगी। शायद यही इंसानी जीवन है कि, जब मनुष्य इस संसार में आता है तो उसकी मुट्ठी बंद होती है। ये इस बात की सूचक है कि आते समय मनुष्य के मन और दिमाग में जि़न्दगी के बहुत सारे सपने होते हैं, मगर जाते समय सारी इच्छाओं और सपनों के पंख पखेरू उड़ चुके होते हैं।


राजनी को विदा कर देने के पश्चात, नीरव के रहे-बचे दिन पहले से और भी अधिक तन्हा हो गये. वह सुबह देर से उठने लगा. अपने व्यापार को भी वह अब नज़रंदाज़ करने लगा था. अब उसके पास कोई भी उत्तरदायित्व उठाने जैसी कोई भी चीज़ बाक़ी न थी- कोई जिम्मेदारी भी न बची थी. ऐसा कोई फ़र्ज़ भी न था कि जिसको पूरा करने की उसे चिंता भी रहती, इसलिए किसी हद तक वह भी निश्चिन्त हो चुका था. अब उसे किसी भी बात की चिंता नहीं थी. कोई फ़िक्र आदि भी नहीं- अपना खुद का भी वह ख्याल रखना तक भूल चुका था. वह कहीं भी जाता तो आने का कोई समय भी नहीं होता. घर में उसके इंतज़ार करनेवाला भी न बचा था, ना कोई उसे रोकता, टोकनेवाला भी कोई नहीं था- जब भी जी चाहा, जिधर मुंह उठा, उधर ही वह चल देता था. ना उसके आने का समय होता था और ना ही कोई वापस आने का. ऐसी स्थिति में उसे कभी-कभी लगता था कि, जैसे वह अपने ही शरीर को बगैर किसी भी बात के, अपने कंधे पर उठाये हुए, न जाने कहाँ से कहाँ चला जा रहा है?


उसके दिन इसी तरह से कट रहे थे. दिन होता, दिन भर सूरज चमकता रहता, धरती अपनी परिक्रमा पूरी करती, शाम होती, रात्रि का अंधियारा पसरता, वृक्षों और कायनात की सारी पत्तियाँ अपना सिर झुकाए सोती रहतीं- और नीरव की आँखों में नींद का नाम-ओ-निशाँ तक नहीं होता था. पता नहीं, वह किसके लिए, किस कारण, रातों में जागा करता था? लगता था कि, वह जैसे रात के सन्नाटों में, जब कोई भी नहीं होता था, किसे और क्यों आवाजें दिया करता था?


तब, इन्हीं दिनों उसे एक सरकारी खाकी लिफाफा डाक से मिला. सरकारी इसलिए, क्योंकि उस लिफ़ाफ़े पर सम्राट अशोक के सुप्रसिद्ध 'अशोक चक्र' और भारतीय राज चिन्ह की डाक टिकट लगी हुई थी. यह लिफाफा उसी पुलिस थाने से आया था, जहां पर उसने कभी अपनी पत्नि नीली के गुम हो जाने की रिपोर्ट लिखवाई थी. नीरव ने उसे तुरंत ही खोल दिया और जब पढ़ने लगा तो उसका कलेजा जैसे बाहर आ गया. उसमें उसके लिए एक सूचना के तौर पर लिखा हुआ था,


श्री नीरव जी,


हमें आपको सूचित करते हुए अत्यंत दुःख होता है कि, पुलिस विभाग के अत्यंत कठोर परिश्रम के बाद हम आपकी पत्नि श्रीमती नीली की गुमशुदी का पता लगाने में सफल तो हो चुके हैं, परन्तु यह खबर आपके लिए किसी भी भयंकर हादसे से कम न होगी. इसलिए हमारी आपसे गुजारिश है कि, इसको पढ़कर अपने आपको सम्भालने की कोशिश करिएगा और कोई भी अनुचित कदम उठाने से बचियेगा.


आपकी पत्नि की नीले रंग की होंडा कार अपने शहर से तीस किलोमीटर दूर कोकम नदी के पुराने पुल से लगभग साठ फीट दूर गहरे जल में जीर्ण-शीर्ण दशा में पाई गई है. उसके अंदर किसी बत्तीस वर्षीय स्त्री के शरीर का कंकाल मिला है. काफी दिनों से पानी में पड़ी रहने से इस लाश का मानव शरीर सड़-गल कर समाप्त हो चुका है. वस्त्र भी पहचानने में नहीं आ रहे हैं. हमने आपकी पत्नि की शिनाख्त केवल कार की नंबर प्लेट से की है. उसके दाहिने हाथ की अंगुली में एक सोने की अंगूठी भी मिली है. इस अंगूठी के ऊपर स्वास्तिक का चिन्ह बना हुआ है. मौका-ए-वारदात और घटना की समस्त परिस्थियों का मुआयना करने से अनुमान है कि, आपकी पत्नि की मौत पानी में डूबने से हुई है और यह दुर्घटना गाड़ी के अचानक से ब्रेक फेल होने की बजह से हुई है. आपसे अनुरोध है कि आप एक बार कार की नंबर प्लेट आदि की शिनाख्त करके हमारी सहायता करें, ताकि इस केस को अब पूरी तरह से सदा के लिए बंद कर दिया जाए.


भवदीय,


थाना प्रभारी


नीरव ने पत्र पढ़कर समाप्त किया तो स्वत: ही उसकी आँखों से आंसू, जाड़े की किटकिटाती सर्दी में कटते हुए पाले की बूंदों के समान टप-टप करके गिरने लगे. जब उससे नहीं रहा गया तो वह अपने दोनों हाथों से सिर पकड़कर फूट-फूटकर रो पड़ा. कितना अधिक रुलाया था नीली ने उसको अब तक? अब और क्या बाक़ी रह गया था जो इस तरह की विक्षिप्त करनेवाली खबर उसके पास कौन सा नजराना लेकर आई थी? उसने तो अपने आपको किसी तरह से समझा भी लिया था. अपने मन को हर रोज़ मार-मार कर मना भी लिया था. यह सब सोचते हुये नीरव के हाथ-पैरों में जैसे जान ही नहीं रही थी.


शायद यही जीवन है. जीवन का यही उसूल- जिसके लिए इंसान जीना चाहता है, उसके लिए अवसर नहीं मिलता है और जिसे नहीं मरना चाहिए वही समय से पूर्व अपनी साँसे इस दुनियां के वातावरण में छोड़कर हमेशा के लिए लोप हो जाता है. नीरव और नीली- दोनों ही ने एक दूसरे को खो दिया था- एक को काल ने छीन लिया था, तो दूसरे को उसकी किस्मत खा गई थी.


समाप्त।



समाप्त।


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