छब्बीस साल पुराना पेड़ Sharovan द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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छब्बीस साल पुराना पेड़



छब्बीस साल पुराना पेड़
कहानी / Sharovan

***
‘मैं जिस जगह पर बैठी हुई हूं वह स्थान और उसका अधिकार आपकी बेटी महुआ की मां का है। और मैं जिस परिवार से आई हूं, वहां के लोग दूसरे की थाली में मुंह नहीं मारा करते हैं। मैं इसी वक्त अपने दोनों बच्चों को लेकर अपने घर जा रही हूं।
***

संध्या के चार बज रहे थे। वातावरण में अभी भी गर्मी की घमस बरकरार थी लेकिन, गर्मी फिर भी इसकदर नहीं थी कि बाहर न निकला जा सके। सांझ की दम तोड़ती हुई सूरज की रश्मिियों के कारण दिन भर के जलते हुये तापमान में अब बराबर गिरावट आती जा रही थी। दीनानाथ अभी भी घर के पिछवाड़े बने बगीचे में धूप से कुम्लाहये हुये पाध्ेाों में पानी दे रहे थे कि तभी उनको अपनी लड़की का कोमल स्वर सुनाई दिया,

‘पापा जी आकर चाय पी लीजिये।’


महुआ ने रसोई की खिड़की से झांकते हुये पुकारा तो बगीचे में पौधों के मध्य काम करते हुये दीनानाथ के हाथ अचानक ही थम गये। हाथ के पानी के पाइप को बंद करते हुये दीनानाथ ने महुआ की तरफ देखा तो देखकर सोचते ही रह गये। कितनी बड़ी और सयानी हो गई है उनकी बेटी? देखते ही देखते जीवन के पिछले छब्बीस साल ऐसे बीत गये, जैसे कि मौसमी हवायें अपना राग अलापते हुये गुज़र जाया करती हैं। महुआ बड़ी हो चुकी है। उसे पढ़ा-लिखाकर कॉलेज करा दिया। वकील बनना चाहती थी, वह भी उसका प्रशिक्षण पूरा हो चुका है। रही उसकी प्रेक्टिस की बात वह अपने विवाह के बाद भी कर सकती है। अभी भी वह एक लॉयर समूह के साथ काम ही कर रही है। अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी है। उसकी शादी की उम्र है, पिछले ही महीने तो उन्होंने सारी बात पक्की कर ली है। लड़का भी अच्छा है। परिवार भी देख लिया है। अच्छे घर का लड़का है। उसके घर में सब ही पढ़े-लिखे और समझदार हैं। लड़का भी वकील है। दोनों मिलकर काम करेंगे तो जीवन की गाड़ी खींच ही ले जायेगें। अपनी तरफ से तो उन्होंने सब कुछ देखभाल लिया है। कहीं भी कोई कमी इस रिश्ते में उन्हें नज़र नहीं आई है। उन्हें पूरी उम्मीद है कि महुआ अपने विवाह के बाद हर तरह से खुश रहेगी लेकिन, फिर भी ़ ़ ़आगे कौन जानता है? इस फिर भी के आगे एक बड़ा सा प्रश्नचिन्ह लगा हुआ था। ऐसा बड़ा और दिल की धड़कनें बढ़ा देनेवाला प्रश्न, जिसका वास्तविक उत्तर तो विवाह के बाद ही मिल सकेगा। सोचते हुये दीनानाथ का दिल अचानक ही धड़क गया। आज यदि महुआ की मां भी उनके साथ रह रही होती तो कम से कम उन्हें फिर भी इतनी चिंता और फिक्र तो नहीं होती। लड़की के विवाह से संबन्धित बहुत से ऐसे काम होते हैं, जिन्हें एक स्त्री बड़े अच्छे सलीके से संभाल लेती है। लेकिन होनी को किसने और कब टाला है। वह तो होकर ही रहती है। रोमिका को तो केवल उनका घर छोड़कर जाना था, सो चली गई। महुआ का तो केवल एक बहाना और शिकायत ही थी। जब से गई है, एक बार भी उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा है। महुआ नादान और बच्ची थी, उसे तो पालना ही था। एक समय था कि जब जीवन की कितनी बड़ी गाज़ उन पर आ गिरी थी। फिर किसी तरह से खुद को संभाल लिया था। महुआ का भोला और मासूम नादान सा मुखड़ा देखते हुये, वे उसमें न जाने क्यों फिर भी रोमिका को ही ढूंढ़ते रहे थे। इसी आस पर कि शायद वापस आ जाये? पर ना आनेवाली कभी भी वापस नहीं आई।


इसी प्रकार सोचते हुये वे अन्दर आ गये। खाने की मेज पर महुआ ने चाय और घर के बगीचे में बोई हुई पोई के पत्तों की पकोडि़यां तलकर रख दी थीं। लड़की विवाह के बाद अपने घर चली जायेगी तो फिर कौन उनके खाने-पीने का ध्यान रखेगा? यह सवाल भी उनके मन-मस्तिष्क में एक दूसरा प्रश्न छोड़ गया। सोचते हुये उन्होंने बेसन की पकोड़ी मुंह में रखी तो उसके स्वादिष्टपन से ही पल भर को वे सोचों से दूर हो गये। कुरकुरी, तली हुई पकोड़ी के सोंदेपन ने उनको क्षण भर में ही एहसास करा दिया कि उनकी बेटी घर परिवार की हर बात में काफी प्रशिक्षित हो चुकी है। अपनी ससुराल में भी वह सबको अपने हाव-भाव और कामों से मोह लेगी। उसकी तरफ से शायद ही किसी को शिकायत का कोई अवसर मिले?


‘पापा जी, मैं नहाने जा रही हूं। कुकर में मैंने आलू बॉयल करने के लिये चढ़ा दिये हैं। दो सीटियों के पश्चात आप हीटर बंद कर दीजियेगा। आपको मट्ठे के आलू की सब्जी बहुत पसंद है, शाम के खाने में वही पकाऊंगी।’ महुआ कहती हुई चली गई तो एक बार दीनानाथ के मस्तिष्क में उनके पिछले जिये हुये दिनों की तस्वीरें फिर से ताज़ा होने लगीं . . .’


महुआ, उनकी अपनी ख़ून की औलाद नहीं है। इस सच्चाई को खुद महुआ भी नहीं जानती है। यह बात तो केवल दीनानाथ ही जानते हैं। उन्हें याद आया कि सन् 1974 का वह दिन और वह रात ही थी जब वे अपनी मोटर साइकिल से अपना काम समाप्त करके घर लौट रहे थे। शहर की बस्ती अपनी घनी आबादी के साथ जहां समाप्त होती थी वहीं एक पुलिया के नीचे तब दीनानाथ को किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी। बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनकर दीनानाथ ने न चाहते हुये भी अपनी मोटर साइकिल रोक दी। एक भय के साथ वे बड़ी देर तक वे हाथ से स्पीड के गियर को पकड़े हुये बच्चे के रोने की आवाज़ को सुनते रहे। भय इसलिये भी था कि कभी-कभी राहजनी करनेवाले लूटने वाले को रोकने के लिये इस तरह की हरकतें किया करते हैं। फिर जब उन्हें वहां आस-पास कोई भी नज़र नहीं आया तो वे मोटर साइकिल से नीचे उतर कर पुलिया के अन्दर नीचे की तरफ झांकने लगे। झांककर नीचे देखा तो अंधेरे में सचमुच उन्हें एक नवजात शिशु एक कपड़े में लिपटा हुआ दिखाई दिया। वह नवजात बालक वहां पर क्यों अकेला पड़ा था या फिर कोई क्यों छोड़ गया था, इन तमाम बातों को सोचने से पहले उन्होंने बच्चे को उठाया तो बच्चे ने एक दम रोना बंद कर दिया। दीनानाथ उस बच्चे को लेकर सीधे किसी प्रकार एक हाथ से मोटर साइकिल चलाते हुये शहर के बाजार में अपने जान-पहचान के डाक्टर के पास ले आये। बच्चे की तब उन्होंने तुरन्त प्राथमिक चिकित्सा कराई। उसे वहीं से खरीदकर दूध पिलाया। बच्चा न जाने कब से भूख़ा था। पेट में भोजन पड़ते ही बच्चा तुरन्त ही आराम से सो गया, तो फिर दीनानाथ ने डाक्टर को सारी बात बताई। डाक्टर समझदार था। उसने दीनानाथ को पुलिस को खबर देने की सलाह दी। दीनानाथ ने पुलिस को खबर दी तो पुलिस विभाग ने उनको बच्चे के साथ पुलिस स्टेशन पर आने की और सारी रिपोर्ट लिखवाने की सलाह दी।


दीनानाथ पुलिस स्टेशन गये। वहां पर उन्होंने लापता बच्चे के पाने की समस्त रिपोर्ट लिखवाई। फिर रिपोर्ट आदि लिखवाने और पुलिस की सारी कार्यवाही होने के बाद पुलिस इंस्पेक्टर ने उनसे सवाल किया,

‘आप इस बच्ची को अपनाना चाहते हैं?’

‘?’

दीनानाथ पुलिस इंस्पेक्टर के इस अप्रत्याशित प्रश्न से अचानक ही चौंक गये। वे पुलिस इंस्पेक्टर की इस बात का कोई भी उत्तर नहीं दे सके और एक असमंजस में पड़े हुये इधर-उधर बगलें झांकने लगे।

‘आपने जबाब नहीं दिया?’ इंस्पेक्टर ने अपना प्रश्न फिर से दोहराया तो दीनानाथ मजबूरी में अपने हथियार डालते हुये बोले,

‘सर, मैं इसे कहां रखूंगा? मैं तो खुद ही अपने पैरों पर अभी ठीक से खड़ा नहीं हो पाया हूं। चार महीने पहिले तो अभी नौकरी ही मिली है।’

‘मैंने तो औपचारिकता के नाते पूछा था। आपको ही यह बच्ची मिली थी, इसलिये इसे अपनाने और रखने का पहला अधिकार भी आपका ही है। खैर, आप इसे नहीं रखेंगे तो हमें इस बच्ची को किसी बालगृह या बेबी फोल्ड में दे देना होगा।’

दीनानाथ पुलिस इंस्पेक्टर की बात पर पल भर को चुप हो गये। लेकिन फिर उन्होंने पुलिस इंस्पेक्टर से सवाल किया। वे बोले,

‘सर, आप इस बच्ची के मां-बाप का पता नहीं लगायेंगे क्या?’

‘?’

दीनानाथ के इस प्रश्न पर पुलिस इंस्पेक्टर को जैसे कहीं कांटा चुभ गया। वह अपनी ही कुर्सी पर एक बार को उठा और वहीं फिर से बैठते हुये उनसे बोला,

‘आप लगता हो कि जैसे अभी तक गंगाराम ही हो क्या? इस समाज की घटिया दुकानदारी का कोई भी इल्म नहीं है आपको? हम इस बच्ची के मां-बाप का पता जरूर लगायेंगे। लेकिन अगर पता लगा भी लिया तो जब इस बच्ची की मां ही इसको जन्म देने के पश्चात मरने के लिये छोड़ गई तो क्या हम यह उम्मीद करें कि वह इसे अपना बच्चा जानकर फिर से छाती से लगा लेगी? हम और आप जिस समाज में रहते हैं, वह अन्दर से इतना अधिक गंदा है कि बयान करना मुश्किल है।’

पुलिस इंस्पेक्टर ने दीनानाथ को पूरा भाषण ही दे डाला तो वे चुप हो गये। उसके बाद इंस्पेक्टर ने अपनी फायल पर लिखना बंद किया। दीनानाथ से एक स्थान पर उनके हस्ताक्षर करवाये, फिर फायल को बंद करता हुआ वह उनसे बोला,

‘इस शहर में केवल एक ही बालगृह है, और वह भी ईसाइयों का है। इस बच्ची को हम वहीं भेजे देते हैं। आप कल वहां पर पहुंच जाइये और वहां की भी कार्यवाही पूरी करवाकर इस केस से हमेशा के लिये बरी हो जाइये।’


दूसरे दिन दीनानाथ को अपनी नौकरी से अवकाश लेना पड़ गया। वे मसीहियों के द्वारा चलाये जा रहे ‘किड्स कोर्नर’ नामक बालगृह में पहुंचे और अपने आने का कारण बताया तो फिर उन्हें वहां की निदेशिका के कमरे में उन्हें पहुंचा दिया गयाा। निदेशिका ने भी अपनी कागज़ी कार्यवाही करते समय वे ही प्रश्न उनसे पूछे जैसे कि पिछली शाम को पुलिस इंस्पेक्टर ने पूछे थे। फिर सब कुछ पूरा होने के पश्चात निदेशिका ने उनसे कहा कि,

‘मिस्टर दीनानाथ जी, यह तो सच है कि यह संस्थान जहां पर आप बैठे हैं लावारिस और अनाथ बच्चों का घर है। लेकिन फिर भी इसका सारा खर्चा आप लोगों की ही तरफ से दान के रूप में हमें मिला करता है। हमारा एक बच्चा जब तक वह स्कूल नहीं जाता है वर्तमान के हिसाब से हर माह कम से कम से उसका खर्चा लगभग 50 रूपये आया करता है। आप युवक हैं। अच्छी सरकारी नौकरी करते हैं। एक अच्छे और सभ्य परिवार की पृष्ठभूमि आपके भले चरित्र का वर्णन करती है, यह सारी बातें देखते हुये क्या मैं आपसे उम्मीद कर सकती हूं कि जिस नादान और प्यारी बच्ची ने आपकी दया और सहानुभूति के कारण एक नया जन्म फिर से पाया है, और दूसरे मायनों में वह एक प्रकार से आपकी ही बच्ची कहलायेगी, क्योंकि पिता के स्थान पर एक संरक्षक के तौर पर आपका ही नाम यहां लिखा जायेगा। तो क्या आप उसके लिये हर महिने अपनी जेब से 50 रूपया प्रति माह का योगदान दे सकेंगे?’

‘?’

दीनानाथ निदेशिका की इस बात पर एक दम से तो कुछ नहीं कह सके। वे पल भर को बहुत कुछ सोचते रह गये। उन्हें चुप देखकर निदेशिका ने आगे उनसे फिर कहा। वे बोलीं,

‘देखिये दीनानाथ जी। 50 रूपये आज के जमाने में कोई बहुत बड़ी धनराशि नहीं है। इतना पैसा तो लोग अपने शौक के लिये, पान-बीड़ी, सिगरेट, शराब और पार्टियों में हर दिन खर्च कर दिया करते हैं। अगर महिने भर के हिसाब से 50 रूपये का एक दिन का खर्चा लगा जाये तो बड़ी मुश्किल से 2 रूपये भी कम, यानि कि, एक रूपया और पैंसठ पैसे आता है। क्या आप इतना भी नहीं कर सकते हैं?’

‘जी हां, मैं कर सकता हूं।’


दीनानाथ ने उस समय ना जाने किस भावावेश में कह दिया था। फिर इस प्रकार से 50 रूपये उनकी तनख्वाह से हर माह स्वत: ही कटकर किड्स होम में जाने लगे। इस बात की खबर तब दीनानाथ ने ना तो अपने घर में, ना ही अपने रिश्तदारों में, और ना ही अन्य किसी जान-पहचानवालों को ही बताई। उस नवजात बच्ची के नाम से उसके खर्चे के ये पैसे उनके नाम से बालगृह में जाने लगे। दीनानाथ अपनी नौकरी और भविष्य के प्रति इसकदर चौकस हो गये कि उन्हें अपनी तनख्वाह की पचास रूपये प्रति माह की कटौती का तनिक भी ना तो कमी ही महसूस हुई और ना ही कोई आभास ही हुआ। उनके जीवन की गाड़ी इसी तरह से चलती रही। फिर लगभग एक साल के पश्चात बालगृह से उनके लिये एक दिन एक पत्र आया। जिसमें उन्हें बच्ची के संरक्षक के तौर पर केवल सूचित किया गया था कि उनके द्वारा दत्तक बच्ची का नामकरण संस्कार एक निश्चित तिथि पर होना आवश्यक है। इसलिये इस अवसर पर उनका आना अति आवश्यक होगा और यदि उन्होंने बच्ची का कोई नाम अपनी तरफ से सोच रखा है तो उसका नाम भी उनकी ही मर्जी पर ही रखा जायेगा। तब दीनानाथ को ना चाहते हुये भी वहां पर जाना पड़ा। तब उन्होंने सोचा था कि जो भी वे कर रहे हैं, वह किसी भी धर्म, समाज और कानून के विरूद्ध नहीं है। यह तो एक निहायत ही भला और पुण्य का काम है। फिर इस में उस नादान और भोली बच्ची का क्या दोष है? यही सोचकर दीनानाथ बालगृह गये। वहां पर एक चर्च के अन्दर उस बच्ची का बाकायदा ईसाई परम्परा के अनुसार बपतिस्मा किया गया और दीनानाथ ने उसको अपना नाम ‘महुआ’ दिया। इसके पश्चात वह बच्ची दीनानाथ की दत्तक पुत्री के नाम ‘महुआ दीनानाथ’ के नाम से बालगृह में जानी जाने लगी। जान-बूझकर तब दीनानाथ ने अपना पारिवारिक नाम महुआ को नहीं दिया था। यही सोचकर कि जिस दिन भी यह बात उनके पारिवार में पता चलेगी तो आसमान तो सब अपने सिर पर उठा ही लेंगे, साथ ही उनके चरित्र को भी सन्देह के दायरे में रखा जाने लगेगा।


बाद में समय और बीता। समय-समय पर दीनानाथ महुआ से मिलने भी जाते रहे। उनका अपना कार्य भी चलता रहा। इसी बीच नौकरी में उनकी पदौन्नित्ति हो गई तो वे जूनियर इंजीनियर कहलाने लगे। पदौन्निति होने से उनकी आय में पहले से डेढ़ गुना लाभ हुआ। भरपूर वेतन उन्हें मिलने लगा। इसी बीच एक दिन उनको बालगृह की निदेशिका का फिर एक पत्र उन्हें मिला। पत्र जिस बाबत था, उसमें कहा गया था कि एक विदेशी निसंतान दंपत्ति उनकी बच्ची महुआ को बाकायदा गोद लेना चाहता है। इसलिये यदि उनकी सम्मत्ति है तो साथ में भेजे गये फार्म पर अपने हस्ताक्षर करके वापस कर दें। इस प्रकार महुआ जो उनकी दत्तक पुत्री कहलाती है, उस विदेशी दम्पत्ति की संतान कहलायेगी और यहां से फिर उनके साथ चली जायेगी। यदि वे हां नहीं करते हैं तो बालगृह आकर बच्ची को बाकायदा अपनी संतान के तौर पर रखने के लिये दूसरी कागज़ी कार्यवाही को पूरा कर दें। दीनानाथ ने पत्र पढ़ा तो एक अजीब सी मुश्किल में पड़ गये। कारण था कि इतने दिनों के अन्तराल में मासूम और प्यारी सी महुआ को देखते, उससे मिलते और हर बार वहां पर जाते रहने तथा उसे गोद में उठाते रहने से जो आकर्षण, अपनत्व और प्यार उन्हें उसके प्रति हो चुका था, अब उसे वे चाहकर भी झुठला नहीं सकते थे। वे इतने दिनों की महुआ की परवरिश, उसके प्रति अपने द्वारा उठाये गये उत्तरदायित्व और हर तरह की जिम्मेदारियों को पूरी करते हुये जिस पैतृकता के दायरे में खुद को कैद कर चुके थे, उसके बाहर एक कदम भी रखना उनको इसकदर मंहगा पड़ सकता है, वे सोच भी नहीं सकते थे। वे जान गये थे कि महुआ के बगैर उनका जीवन तो गुज़र-बसर हो जायेगा, लेकिन उसको नकारने का जो कलंक उनके मन और आत्मा पर लगेगा, उसके दाग को वे आजीवन अपने ऊपर से धो नहीं सकेगें। क्या हुआ जो महुआ को उन्होंने खुद जन्म नहीं दिया है, लेकिन परिवरिश तो उन्होंने ही की है। यूं भी जन्म देनेवाले से अधिक पालनेवाले का अधिकार अधिक होता है। इस प्रकार से सोचते हुये दीनानाथ ने बालगृह की निदेशिका को उत्तर दे दिया कि, महुआ केवल दीनानाथ की लड़की है। वे किसी अन्य को उसे नहीं दे सकते हैं। एक दिन बालगृह आकर उसको पूरी तरह से अपनाने के लिये मैं सारी औपचारिकतायें पूरी कर दूंगा। फिर एक दिन दीनानाथ ने बालगृह जाकर महुआ को बाकायदा गोद ले लिया, और वह उनकी दत्तक पुत्री बन गई। अब तक महुआ तीन साल की हो चुकी थी और हर तरीके से बालगृह में सारी सुविधाओं के साथ उसकी परवरिश हो रही थी। पूरी तरह से महुआ को गोद लेने के पश्चात जब दीनानाथ ने उसे अपने साथ ले जाने के लिये अनुमति लेनी चाही तो बालगृह की निदेशिका उन्हें देखकर जैसे विवशता में अपने हाथ मलने लगी। उन्हें देखकर दीनानाथ चौंकते हुये आश्चर्य से बोले,

‘अब क्या कोई अन्य औपचारिकता भी पूरी करना बाकी है। मैं अपनी बेटी को अपने साथ ले जाना चाहता हूं?’

तब निदेशिका दीनानाथ का चेहरा बड़े ही ध्यान से देखते हुये उनसे बोली,

‘दीनानाथ जी, देखिये हम बेबी फोल्ड अवश्य ही चलाते हैं, पर हमारे सामने भी इस देश के कायदे और कानून हैं, जिनका हमें पालन करना होता है।’

‘कैसे कायदे-कानून?’ दीनानाथ ने आश्चर्य से पूछा तो निदेशिका ने उनसे बड़े ही सहजता से कहा। वे बोलीं,

‘महुआ आपको जिन परिस्थितियों में मिली है, उनमें मैं समझ सकती हूं कि एक बच्चे के एडॉप्सन के समय आपको वे सारी बातें और नियम नहीं मालुम होंगे, जिनके तहत मैं ही क्या कोई भी जो इस कुर्सी पर बैठा होगा, मजबूर हो जाया करता है।’

‘मैं आपकी बात का मतलब नहीं समझा हूं।’

‘आप अभी अविवाहित हैं। पच्चीस वर्ष की आपकी उम्र है, और महुआ की तीन साल। बारह साल के बाद महुआ पन्द्रह साल की होगी और उस समय भी आपकी उम्र चालीस की हो रही होगी। ऐसी स्थिति में बहुत से ऐसे केस हो चुके हैं कि जहां पर आकर पिता और पुत्री के रिश्ते बदल जाया करते हैं। मैं जो कहना चाहती हूं, वह आप अच्छी तरह से समझ तो रहे होंगे?’

‘इसका मतलब है कि आप मेरे चरित्र को सन्देह की दृष्टि से देख रही हैं। मैंने महुआ के सिर पर पिता का हाथ रखा है, और वह मेरी लड़की है, और हमेशा मेरी ही बेटी कहलायेगी।’

‘बिल्कुल आपकी बेटी है, और हमेशा वह आपकी बेटी कहलायेगी, लेकिन आप उसे अपने साथ अभी नहीं ले जा सकते हैं।’

‘फिर कब और कैसे ले जा सकता हूं?’

‘या तो आप अपना विवाह कर लीजिये, अथवा जब आप पचास वर्ष के हो जायें।’

‘इसका मतलब?’

‘आपकी बेटी यहीं पलेगी, बढ़ेगी, और पढ़ेगी भी, केवल तब तक, जब तक कि आप अविवाहित हैं।’


इसके पश्चात दीनानाथ ने कुछ भी नहीं कहा। वे अपना सा मुंह लेकर बालगृह से वापस आ गये। महुआ को किस प्रकार अपने घर ले आयें? इस बारे में सोचने के लिये ऐसा कोई औचित्य ही नहीं था जिसके लिये वह कोई अन्य विकल्प ही निकालते। शीघ्र ही विवाह कर लेने वाली जैसी कोई योजना भी उनकी इस परेशानी को हल नहीं कर सकती थी। क्योंकि कौन जाने उनकी होनेवाली पत्नी महुआ को उनकी बेटी के रूप में स्वीकार भी कर सके। तब सारी परिस्थितियां और हालात को सामने रखते हुये उन्होंने स्वंय को वक्त के हवाले किया और महुआ को उसकी तकदीर के सहारे। वे अपनी नौकरी करते रहे और महुआ का सारा खर्चा बालगृह में उसकी परवरिश के लिये देते रहे। साथ ही इस बारे में कुछ भी बताने की हिम्मत और साहस वे अपने परिवार में भी नहीं कर सके। यदि करते भी तो वे पहले ही से अपने परिवार वालों के स्वभाव को जानते थे। एक अनजान, अपरिचित और लावारिस नाजायज़ सन्तान का पिता बनने के लिये जो ताने, बातें और कटु शब्द तो उन्हें अपनों से सुनने ही पड़ते, साथ ही एक नाजायज़ औलाद को जन्म देने का झूठा कलंक भी उनके सिर पर लग जाता।

इसके पश्चात धीरे-धीरे समय बदला। कई एक मौसम यूं ही आये और चले भी गये। मौसमी हवाओं के साथ-साथ दीनानाथ के जीवन ने भी करवट ली। एक दिन उनके पिता की मृत्यु हो गई। फिर पिता की मृत्यु के एक वर्ष के बाद ही उनकी बूढ़ी विधवा मां घर में उनसे बहू लाने की मांग करने लगी। बात-बात में उनसे कहने लगीं, ‘अब मुझसे काम नहीं होता है। बहू को ले आ। वह होगी तो कम से कम अपना घर तो संभालेगी। मुझे चाहे वह दो रोटी बनाकर ना भी दे, पर तेरा तो ख्याल रखेगी।’


तब एक दिन दीनानाथ ने अपना विवाह कर लिया। रोमिका उनकी पत्नी के रूप में उनके घर में आई तो अपने साथ में अपने अमीर संस्कारों की जैसे सियासत भी साथ ले आई। उसकी हर बात, बात करने के ढंग, रहने के तौर-तरीके आदि हर चीज़ में उसके पिता की अमीरी का बड़प्पन उसके सामने किसी प्रहरी की तरह सदा खड़ा रहता। यह सब देखकर तब दीनानाथ को एक बात समझ में आ गई थी; उसके पिता ने उसका विवाह दीनानाथ से नहीं, बल्कि उनकी सरकारी नौकरी और ओहदे से किया है। विवाह होने से पहले दीनानाथ ने सोचा था कि होनेवाली पत्नी को एक दिन बहुत प्यार से समझा-बुझा देंगें, और फिर महुआ को सदा के लिये घर ले आयेंगे, लेकिन रोमिका के रहने के अंदाज और अंह को देखकर वे इस बात का तनिक भी साहस नहीं कर सके। तब ऐसे में महुआ को घर ले आने का वर्षों से पलता हुआ उनका सपना भी जे़हन में सदा के लिये दफन हो गया।

शादी के पश्चात रोमिका से उनके अपने दो बच्चे भी हो गये, पर अभी तक वे महुआ के बारे में रोमिका से कुछ भी नहीं कह सके थे। इस प्रकार होत-होते कई साल और व्यतीत हो गये। अब तक महुआ बालगृह में ही थी,लेकिन उसको बड़े बच्चों के बालगृह में स्थानान्तरित कर दिया गया था। इस मध्य उसने हाईस्कूल की परीक्षा भी पास कर ली थी, और वह ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ रही थी। दीनानाथ के मोबाइल फोन पर वह उनसे बात कर लेती थी। सब कुछ ठीक था। अन्तर था तो केवल इतना ही कि दीनानाहृा महुआ के शहर से काफी दूर दूसरे शहर में रहते थे और दिन-रात उसको अपने घर में बाकायदा उनकी सन्तान की तरह रहने का अधिकार देने तथा उसके भावी भविष्य का घर बसाने की चिन्ता में भी खोये रहने लगे थे। इसके साथ ही महुआ भी अब कोई छोटी बच्ची नहीं थी। वह भी अब एक प्रकार से सयानी हो चुकी थी, और प्राय: ही अब अपने पिता के घर आने, मां रोमिका से मिलने और अपने दोनों भाइयों को देखने की कभी-कभी जि़द भी करने लगी थी। दूसरी तरफ नाज़ो में पली, अमीर पिता की इकलौती सन्तान उनकी पत्नी रोमिका के रहने के अंदाज ही ऐसे निराले और सीमित दायरों में थे कि ज़रा भी नहीं लगता था कि वह कभी भी अपने अंह पर दूसरे की ख्वाइशों और मजबूरियों का लवादा डालकर किसी भी परिस्थिति से समझौता कर सकेगी। फिर भी दीनानाथ इतना तो समझ ही चुके थे कि, जिन विभिन्न प्रकार के आयामों में उन्होंने अपनी जि़न्दगी की पहेली को उलझा लिया था वह कभी भी सुलझ तो नहीं सकेगी पर हां उसकी असलियत खुलने पर उनके जीवन में एक भयानक तूफान अवश्य ही आ जायेगा।

और फिर जैसा उन्होंने सोचा था, हुआ भी वही। दीनानाथ अपने काम से शाम को घर आये, और अपना मोबाइल फोन मेज पर रखकर नहाने चले गये। महुआ के पास केवल उनका मोबाइल फोन का ही नंबर था, इसलिये वे मोबाइल को सदा अपने पास ही रखा करते थे। और नहीं चाहते थे कि महुआ के बारे में रोमिका को बताने से पहले किसी भी अन्य तरीके से उसे यह बात पता चले। लेकिन स्नान करते समय तभी अचानक से महुआ ने फोन किया तो दीनानाथ के ना होने पर उनकी पत्नी रोमिका ने उसे उठा लिया और जैसे ही उन्होंने हलो बोला दूसरी तरफ से महुआ ने अपनी मधुर और कोमल आवाज़ में पूछा,

‘पापा जी हैं?’

‘कौन पापा जी?’ रोमिका ने सुना तो अचानक ही चौंक गई। एक दम उसके ख्याल में आया कि किसी ने गलत नंबर मिला दिया है। परन्तु दूसरी तरफ से महुआ ने उत्तर दिया,

‘दीनानाथ जी।’

‘दीनानाथ जी? तुम्हारे पापा हैं क्या?’ रोमिका के कान खड़े हो गये।

‘जी हां। आप कौन? मम्मी रोमिका जी?’ महुआ ने बताया तो रोमिका बहुत ही असंमजस में पड़ गई। सोचने लगी कि फोन करनेवाली जो भी हो, वह उनके परिवार के बारे में बहुत कुछ नहीं, लगता है जैसे सब कुछ जानती है। फिर भी अपना सन्देह मिटाने के लिये वह आश्चर्य से बोली,

‘साफ-साफ बताओं कि तुम कौन हो?’

‘जी, मैं महुआ दीनानाथ हूं। और दीनानाथ जी मेरे पापा हैं।’

‘दीनानाथ तुम्हारे पापा हैं? तुम उन्हें कब से जानती हो?’

‘जी मम्मी बचपन से।’ महुआ बोली तो रोमिका जैसे ख़ीजते हुये बोली,

‘देखो, तुम्हें अभी तब तक मुझको मम्मी कहने की आवश्यकता नहीं है, जब तक कि मुझे सारी बात ठीक से पता न चल जाये।’

‘?’

महुआ अचानक ही सहम सी गई। वह कुछ भी नहीं कह सकी तो रोमिका ने उससे आगे पूछा। वह बोली,

‘तुम कितने साल की हो अभी?’

‘जी, मैं अभी फस्‍​र्ट यीअर में पढ़ रही हूं।’

‘फस्‍​र्ट यीअर? इसका मतलब ग्यारहवीं कक्षा।’ तो ग्यारह और पांच, सौलह साल की लड़की है। उनकी शादी को पांच वर्ष हुये हैं। उनके पति दीनानाथ अपने विवाह से दस साल पहले ही से इस लड़की को जानते ही नहीं, बल्कि उसके पिता भी हैं और बगैर उसकी जानकारी के उसका पाालन-पौषण भी कर रहे हैं? रोमिका ने मन ही मन सारा गुणा-भाग किया और जो नतीजा निकला उसे आपने सामने देखते ही उसके सारे तन-बदन में जैसे ढेर सारी चिंगारियां सी लग गई। लेकिन फिर भी अपने को संभालते हुये उसने महुआ से आगे कहा,

‘देखो बेटी, तुम्हारे पापा अभी शॉवर में हैं। जैसे ही निकलेंगे, मैं उनको बता दूंगी। तब वे तुमको रिंग कर लेंगे।’ कह कर रोमिका ने फोन काट दिया। फिर मन ही मन वह जैसे भुनभुनाती हुई अपने कमरे में आई और धम् से बिस्तर पर बैठ गई। ज़रा सी देर में उसका सारा मूंड ही खराब हो चुका था। इस प्रकार कि क्षण भर में ही उसे अपने भविष्य के बनाये हुये सपनों का महल ढहता नज़र आने लगा। कबूतर के भेष में एक आदमी किसकदर निर्मोही और कौआ जैसा चालाक हो सकता है? वह सोचकर ही रह गई।


बाद में थोड़ी देर पश्चात् स्नानादि से निबटकर जब दीनानाथ तौलिये से अपना सिर सुख़ाते हुये बाहर निकले तो सामने बिस्तर पर ही बिगड़े हुये मूंड में बैठी हुई रोमिका को देखकर आश्चर्य से भर गये। उन्हें निकलते देखकर रोमिका ने एक चुभती हुई दृष्टि से दीनानाथ को जैसे घूरा और फिर अपना सिर झुकाकर नीचे फर्श को देखने लगी। दीनानाथ कुछ कहते, इससे पहले ही रोमिका ने उनसे तड़ाक से कहा,

‘आपकी बिटिया महुआ का फोन आया था। सो उसे जरूर से फोन कर लेना।’

दीनानाथ रोमिका की बात सुनकर बोले तो कुछ नहीं, पर तौलिये से अपना सिर पौंछते हुये उनका हाथ अवश्य ही एक स्थान पर अचानक ही ठहर चुका था। वे एक मूक दृष्टि से अपनी पत्नी के चेहरे के हर क्षण बदलते हुये हाव-भाव पढ़ने की कोशिश करने लगे।

‘आप चुप हैं। इसका मतलब जो मैं सोच रही हूं वह शत्-प्रतिशत् सही है?’ रोमिका ने अपना दूसरा शाब्दिक बाण चलाया तो दीनानाथ एक बार को विचलित हो गये। वे सोचने लगे कि क्या कहें और क्या नहीं? इनकी पत्नी अभी गुस्से में है। उसका उन पर क्रोधित होना बहुत स्वभाविक भी है। बेहतर होगा अभी वे शान्त ही रहें। दीनानाथ अभी ऐसा सोच ही रहे थे कि रोमिका उनकी चुप्पी देखकर जैसे पहले से और भी अधिक बिफर पड़ी। वह उनसे बोली,

‘जब महुआ आपकी लड़की है और उसकी मां में इतना ही नशा था तो फिर मुझसे विवाह करने की क्या आवश्यकता थी?’

‘हां। महुआ मेरी लड़की अवश्य है, लेकिन शारीरिक तौर पर वह मेरा रक्त नहीं है। और रही उसकी मां की बात तो उसकी मां को तो मैंने देखा भी नहीं है। तुम ज़रा शान्त हो तो मैं सब कुछ तुमको क्रमवार ढंग से़ सही-सही समझा दूंगा।’ दीनानाथ ने कहा तो रोमिका ने उन्हें जैसे खा जाने वाली दृष्टि से एक पल को देखा। फिर बोली,

‘महुआ आपकी लड़की है, और उसकी मां को आपने कभी देखा भी नहीं है? तो फिर महुआ क्या अचानक से आसमान से टपक पड़ी थी? यह दलीलें किसी और को बताइये। मैं ऐसी बेबकूफ भी नहीं हूं।’

‘महुआ आसमान से टपकी या फिर ज़मीन से निकली? यदि मुझ पर विश्वास करो तो बात ही कुछ ऐसी है। तुम अगर सुनो और मुझ पर विश्वास करो तो मैं तुमको सारी कहानी विस्तार से समझा दूंगा।’ दीनानाथ बोले तो रोमिका ने तुरन्त ही उत्तर दिया। वह बोली,

‘कहानियां लिखना और बनाना तो आपका साइड बिज़निस है ही। और कोई नई कहानी बनाने की आवश्यकता नहीं है। हमारी कहानी का विराम हो चुका है।’

‘तुम्हारा कहने का आशय?’ दीनानाथ का दिल अचानक ही एक शंका से धड़क गया।

‘मैं जिस जगह पर बैठी हुई हूं, वह स्थान और उसका अधिकार आपकी बेटी महुआ की मां का है। और मैं जिस परिवार से आई हूं, वहां के लोग दूसरे की थाली में मुंह नहीं मारा करते हैं। मैं इसी वक्त अपने दोनों बच्चों को लेकर अपने घर जा रही हूं।’ रोमिका ने अपना निर्णय सुनाया तो दीनानाथ जैसे अचानक से किसी जाल में फंसे हुये पक्षी के समान फड़-फड़ाकर ही रह गये। फिर भी वे रोमिका से सहजता से बोले,

‘तुमने अपनी जि़न्दगी का इतना महत्वपूर्ण फैसला इतनी सख्ती से कर लिया और मुझे कुछ कहने का अवसर भी नहीं दिया। मैं चाहता हूं कि शान्ति के साथ तुम एक बार मेरी सारी बात सुन लो। उसके बाद तुम जो भी फैसला करोगी, मैं उसमें तुमसे कोई भी शिकायत नहीं करूंगा?’

‘अब सुनने से कोई भी लाभ नहीं। आपको जो करना था, वह आपने किया, और जो मुझे करना चाहिये वह मैं कर रही हूं . . .’

‘ पापा . . .आ . . .जी? कहां खो गये हैं आप? आपकी पकोडि़यां ठंडी हो गई। चाय भी पानी हो गई, और कुकर में आलू भी भरता हो गये?’ अचानक महुआ अपने भीगे बाल सुख़ाती हुई आई और दीनानाथ को गुमसुम बैठे हुये देखकर उनसे जैसे शिकायत करने लगी।

‘हां बेटी, सचमुच कहीं खो गया था। तकदीर ने इस दिल और दिमाग में इतना सारा कुछ लिख दिया है कि जब भी पढ़ने बैठ जाओ तो समाप्त किये बगैर छोड़ा ही नहीं जाता है।’ दीनानाथ बिटिया के सामने अपने गलती मानते हुये उठने लगे तो महुआ ने उन्हें रोका। वह बोली,

‘अब कहां जाने लगे? मैं पकोडि़या गर्म कर रही हूं और चाय फिर से बनाये देती हूं। खाकर ही कुछ करना।’ दीनानाथ अपने स्थान पर फिर से बैठ गये। महुआ पकोडि़यां गर्म करने लगी। साथ ही उसने दोबारा दूसरे आलू उबलने के लिये स्टोव पर चढ़ा दिये।


रोमिका के घर से चले जाने के पश्चात दीनानाथ ने बहुत कोशिश की, बहुत चाहा कि वह एक बार फिर से वापस आकर अपना घर संभाल ले। कई बार वे उसके घर गये। उसे बार-बार समझाना चाहा, परन्तु अपने जि़द्दी स्वभाव की रोमिका की समझ में कुछ भी नहीं आया। वह मायके गई और फिर वहीं पर रहते हुये एक स्कूल में नौकरी भी करने लगी। सो इस प्रकार होते-होते दिन गुज़रे। महीने बीते। देखते-देखते साल व्यतीत हो गये। रोमिका ने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। आरंभ में दीनानाथ को एक आस फिर भी थी कि एक दिन रोमिका वापस अपने घर आ जायेगी, लेकिन साल पे साल बीतने लगे। एक अर्सा सा होने लगा तो फिर एक दिन वे बाकायदा महुआ को अपने घर ले आये। महुआ के कारण जो तूफान और बरबादी का भूकंप उनके घर में आया था उसकी एक-एक बात उन्होंने महुआ को समझा दी। महुआ समझदार थी। उसने मामले की नज़ाकत को समझा और एक दिन वह स्वंय भी रोमिका से मिलने उसके घर पर गई। लेकिन रोमिका ने उसका सम्मान किया। उसे गले से लगाया। घर में ठहराया और हर तरह से उसका ख्याल रखा और जाते समय उसके हाथ पर बड़े ही प्यार से एक हजार रूपये भी रखे लेकिन फिर भी वह वापस कभी भी नहीं आई। नहीं आई तो एक दिन दीनानाथ ने रोमिका की वापसी की रही-बची आस भी छोड़ दी। फिर इस प्रकार से समय और बीता। मौसम बदले। आकाश में अपने समय पर बादल गड़गड़ाये। बारिशें हुई और भिगोकर चली गईं। धीरे-धीरे दीनानाथ की जि़न्दगी के पन्द्रह वर्ष और बीत गये। महुआ ने अपनी पढ़ाई पूरी की। अपना वकील का प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया और आज उसके विवाह और भावी घर का सारा प्रबन्ध भी कर दिया है।

चाय और पकोडि़यां खा-पीकर दीनानाथ फिर से बगीचे में चले गये और दिन भर के धूप के सताये हुये पौधों को पानी देने लगे। इसी बीच महुआ भी बगीचे में निकल आई और आकर दीनानाथ के हाथ से पानी का पाइप लेकर खुद ही पौधों को सींचने लगी। तभी रात की रानी के उदास और अप्रसन्न पेड़ को पानी देते हुये महुआ ने दीनानाथ से कहा,

‘पापा जी।’

‘?’ दीनानाहृा ने महुआ की तरफ देखा तो वह रात की रानी के पेड़ की तरफ इशारा करती हुई उनसे बोली,

‘इस पेड़ को खांदकर कहीं दूसरी जगह लगा दीजिये। देखिये चार साल से ऐसा ही है। ज़रा भी खुश नहीं दिखाई देता है। लगता है कि इसको यहां की ज़मीन और माहौल रास नहीं आ रहा है।’

तब महुआ की इस बात पर दीनानाथ ने उससे कहा,
‘हां बेटा। लगा तो दूं, पर एक स्थान से दूसरे स्थान पर पौधे को स्थानान्तरित करने पर उसे नई जगह में समायोजित करने में बड़ा संघर्ष करना पड़ता है। फिर यह तो चार साल पुराना पेड़ है जो बचपन से एक ही जगह पर लगा हुआ है। बहुत कठिनाइयां झेलनी होंगी इसे आस-पास के महौल को अपना बनाने के लिये। मेरी राय है कि इसे यही लगा रहने दो। एक दिन यह अपने आप ठीक हो जायेगा।’
अपने पिता की बात को सुनकर महुआ अचानक ही चुप हो गई। उसने एक बार दीनानाथ को निहारा, और फिर दूसरे पौधों को पानी देने लगीं। कुछेक पलों की चुप्पी के पश्चात महुआ ने दीनानाथ से कहा। वह बोली,
‘पापा जी। यह पेड़ तो मात्र चार साल ही पुराना है। इसके लिये आप कहते हैं कि दूसरे स्थान पर लगा देने से इसे एड्जस्ट करने में बड़ी कठिनाइयां झेलनी पड़ेगीं। मैं भी तो आपके द्वारा सींचा हुआ एक पौधा ही हूं जो छब्बीस साल पुराना है। मुझे यहां से नये घर, अपनी ससुराल जाने पर वहां के नये माहौल में समायोजित करने में कितना संघर्ष करना होगा?’
‘?’
महुआ की इस बात पर दीनानाथ अचानक ही उसका चेहरा ताकते रह गये। बड़ी देर तक वे उसका मुख ही देखते रहे। फिर उन्होंने कहा तो कुछ नहीं। वे धीरे से आगे बढे़। महुआ के करीब आये। फिर अपने दोनों हाथों से उसका चेहरा थामकर एक पल को देखा और उसे अपने गले से लगाते हुये भीगी आंखों से बोले,

‘तुम एड्जस्ट कर लोगी बेटी। मुझे मालुम है।’

समाप्त।