जनाज़ा Sharovan द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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जनाज़ा

ज़नाज़ा
कहानी / शरोवन.

देश में भ्रष्टाचार, अनियमितता और लापरवाही का शासन था. जनता के पास रोज़गार नहीं था. किसानों के पास बीज बोने के पैसे नहीं बच पाते थे. ऋण की रकम की भरपाई न करने के वियोग में किसानों की आत्महत्या के किस्से रोजाना अखबारों और टी. वी. की सुर्ख़ियों में जन्म ले रहे थे. बालायें औए महिलाएं सुरक्षित नहीं थी. सरकारी दफ्तरों में बिना ऊपरी भेंट चढ़ाए कोई काम नहीं हो पा रहा था. सड़कों पर राहगीरों में हरेक दिन और रातों में कोई कटता था तो कोई लुट जाता था. जनता परेशान थी, इसीलिये जब चुनाव हुए तो दूसरी नई पार्टी की सरकार बनी. जनता बदलाव चाहती थी, सो वह जो कर सकती थी, उसने कर दिखाया और पुरानी सरकार को वापस विपक्ष में भेज दिया.

आरंभ में नई सरकार ने भी बड़े-बड़े वायदे किये. जनता को आस और उम्मीदें दिलाई. हम ये करेंगे, वह करेंगे, पुरानी सरकार ने ये किया, वह किया था, अब हम नया भारत बनायेंगे और अंग्रेजों जैसा राज्य मिटा डालेंगे. मगर यह सब भी कुछ दिनों के पश्चात शांत हो गया. जनता की स्थिति जिस स्थान पर थी, वहीं बनी रही. किसी को कुछ नहीं मिला. ऊपर से महामारी आई तो जनता की जैसे रीढ़ ही टूट गई. महानगरों को छोड़कर वह पैदल ही अपने गाँवों की तरफ पलायन करने लगी. कुल मिलाकर जनता ना तो पहले सुरक्षित थी और ना ही अब थी. अब तो शौच को जानेवाली लड़कियों की अस्मत सुरक्षित नहीं रही थी. सारे देश में सरकार की न्यूज़, सरकार की चर्चाओं और मंत्रियों के द्वारा देश भ्रमण का बोलबाला छपता था. गुंडई और रंगदारी का ऐसा दबदबा था कि, जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला हिसाब होता था. सच्चाई का नाम-निशाँ तक नहीं रहा था. झूठी खबरों के द्वारा देश को विश्व गुरु बताया जाने लगा था. रुपया नीचे स्तर पर गिरता था तो कहा जाता था कि, डॉलर स्तर बढ़ गया है. इसी हालत में लोग जी रहे थे, इसी तरह से खेत-खलियान और गाँवों में ग्रामीण अपने मुकद्दर का रोना पीटते थे.

इन्हीं दिनों एक दिन 'बलराम का पुरा' नामक गाँव में हर तरफ मातम और शोक के बादल छाये हुए थे. सारे गाँव में एक मनहूस चुप्पी और विषाद की चादर पड़ी हुई थी. गाँव के प्रधान व ज़मींदार सरपंच सिंह की हवेली के बाहर और उसके प्रांगण में उनके चाहने वालों, जी-हुजूरी करने वालों और उनके हिमायतियों का जमावड़ा ठहरा हुआ था. चारों तरफ एक हुजूम-सा पसरा पड़ा था. जगह-जगह पर बीस, पचास और दस-पांच और दो-तीन, के गुटों में गाँव के जाने-माने पुरुषों से लेकर बहुत से राजनीतिक तक के महानुभावों का जमावड़ा एक विशेष स्थान में लगा हुआ था. इस गाँव और आस-पास के इलाकों में जमींदार सरपंच सिंह का नाम जाना-पहचाना ही नहीं बल्कि बहुत ही मशहूर था. अपने कामों से, आदत से, अपनी दबंगई और ताकत के लिए वे मशहूर तो कम बल्कि बदनाम अधिक थे. जैसा कि अंग्रेंजों के समय के दौर में बदनाम पैसेवालों के पास इज्ज़तदार गरीब बैठना पसंद नहीं करते थे, आज भी यह प्रथा समाप्त नहीं हो सकी थी. आत्मसम्मान से भरे हुए किसी भी गरीब तक को उनकी हवेली के आस-पास देखा भी नहीं जा सकता था. यह और बात थी कि, सरपंच सिंह की दबंगई, रुतवे और बड़े प्रभाव के कारण छोटे से लेकर बड़े तक, किसान, गरीब और कमजोर लोग उनको सलाम किया करते थे, पर वास्तव में कोई उनका सम्मान किया करता था, मन और आत्मा से उनका आदर किया करता था; इसमें अवश्य ही संदेह था. गाँव और आस-पास के समूचे इलाकों में उनके नाम का ज़ोर था, भय था, उनकी अपराधिक प्रवृत्ति के कारण हर समझदार आदमी उनसे डरा-डरा-सा ही रहता था.

सरपंच सिंह का सारा परिवार आरम्भ में, अपनी सम्पत्ति के अनुसार इतना प्रभावशाली और मालदार नहीं था जितना कि, अब वर्तमान में हो चुका था. अपनी पांच बीघा ज़मीन से बढ़ोतरी करते -करते वे अब पूरे ज़मींदार बन चुके थे. आज उनके पास अस्सी बीघे से ज्यादा ज़मींदारी थी. गाँव के अधिकाँश किसानों की ज़मीनें उनके पास गिरवी रखी हुई थीं. जिनकी नहीं भी थीं वे भी उनके कर्ज़दार थे. अपनी चालाकी, चतुराई और गुंडई के बल पर आज वे जो चाहते थे, वे कर पाने में सफल हो जाते थे. अगर किसी की भी ज़मीन और बाग़ आदि उनकी नज़र चढ़ गये तो वे उसे साम, दाम और दंड- किसी-न-किसी उपाय से अपने कब्जे में कर लेना ही हितकर समझते थे. इस काम में उनका तरीका भी बड़ा ही चतुरनात्मक था. पहले वे अपने शिकार को फंसाने के लिए उसकी माली हालत का जायजा लेते थे. इसमें उस आदमी की कमजोरी को आंकते थे. फिर उसको इसमें फंसाते थे. उसे क़र्ज़ देकर, उसका अनावश्यक नुक्सान करके, उसकी फसलें नष्ट करवाकर, साथ ही अपनी दबंगई और गुंडई के द्वारा धमकी दिलवाकर, अपने शिकार को कमजोर बनाते थे. फिर बाद में उसकी सहायता करके, अपना एहसान देते हुए, उसकी सहायता के नाम पर ज़मीनों के एवज में अंगूठा लगवा लिया करते थे. फिर इसी प्रक्रिया के दौरान, सवा सेर गेंहू का दाम ब्याज, सूद लग-लग कर कई टन तक हो जाता था. बाद में चारा किसान किया करता? मरता क्या नहीं करता? उसे खुदा मिलता और ना ही बिसाल-ए-सनम. अपने हाथ मलकर, दस बीघे ज़मीन का किसान एक बंधुआ मजदूर बन जाता था.

इतना ही नहीं, कोर्ट-कचहरी, मुंसिफी तथा अन्य सरकारी महकमों में उनकी पहुँच होने के कारण, वे पहले ही से इस बात का ज्ञान और सूचना पा लेते थे कि, अमूमन आगे आने वाले सालों में कौन-सी ज़मीन महत्वपूर्ण हो जायेगी. किस स्थान पर फ्लाई ऑवर निकलने वाला है, कहाँ से रेलवे लाईन निकलेगी और किस स्थान से नई सड़क बनेगी. बस इतना ज्ञान मिलते ही सरपंच सिंह अपनी कार्यवाही के प्रति जाग रुक हो जाया करते थे.

कहते हैं कि, पक्षियों के समान तो सरपंच सिंह का स्वभाव था ही नहीं- चाहे कितना भी दाना मिल जाए, मगर खायेंगे उतना ही जितना कि, जरूरत हो. अपनी ज़मीदारी और रुआब के नशे में सरपंच सिंह का पेट तो कभी भरता ही नहीं था. वे अक्सर समूचे गाँव के खेतों के मुखिया और ज़मीदारी का सपना अक्सर देखा करते थे. हांलाकि, उनके परिवार में उनके दो पुत्रों के साथ उनकी दो बहुएं, फिर इनके भी बच्चे और साथ में उनके माता-पिता, भी साथ ही एक बड़ी-सी हवेलीनुमा कोठी में रहा करते थे. उनकी कोठी पीले पोस्टकार्ड के रंग की गाँव के बाहर से ही किसी सरकारी इमारत के समान नज़र आती थी. और अबकी बार तो सरपंच सिंह विधान सभा का चुनाव तक लड़ने की तैयारी कर चुके थे.

एक दिन सरपंच सिंह को उनके तारीफदार और टहलुये ने एक बड़ी अच्छी खबर उन्हें दी. उस तारीफदार का नाम सूचक नाथ था. वह नगर निगम के कार्यालय में काम किया करता था. सरपंच सिंह के खाते में उसका नाम विश्वसनीयक सलाहकार के तौर पर लिया जाता था. खबर थी कि, गाँव से लगी सड़क को सरकार चौड़ी करवाने जा रही है. कारण था उस मौजूदा सड़क पर आबादी और यातायात काफी बढ़ चुका है. इतना सुनना भर था कि, सरपंच सिंह ने जानकारी समेटना आरंभ कर दी कि, सड़क चौड़ी होने पर किस-किस के खेत चपेट में आयेंगे. किस कारगुजार की थोड़ी और बहुत ज़मीन भी जायेगी. इतना ही नहीं, सड़क बनने के बाद किस जगह की कीमत बढ़ जायेगी? कौन सी आज की कौड़ी की ज़मीन करोड़ों में बिक सकेगी?

फिर क्या था कि, सारी जानकारी प्राप्त होने पर एक ऐसा खेत जो मात्र चार बीघा ही होगा, नज़र आया कि, जहां पर सड़क चौड़ी होने के बाद बाकायदा धान की मिल लगाई जा सकती है. वैसे भी उस गाँव और आस-पास तमाम इलाकों में धान की खेती ही मुख्य फसल के तौर पर उगाई जाती थी. वह खेत भी सरपंच सिंह के गाँव के एक दूमल जाति के किसान का था. इस दूमल किसान का नाम खलीचा था. खलीचा अपने परिवार के साथ रहा करता था. उसके परिवार में उसकी पत्नी खुर्ची, उसकी सबसे बड़ी लड़की और दो लड़के था. खलीचा के तीनों बच्चे अभी पढ़ ही रहे थे. वे गाँव के पास में बने हाई स्कूल में जाते थे. ये हाई स्कूल भी अंग्रेजों के समय से चला आ रहा था. पहले इस स्कूल को अंग्रेज मिशनरी चलाया करते थे, बाद में जब आज़ादी मिली तो इसको ईसाई मिशन वाले चला रहे थे. अपनी इसी महत्वपूर्ण चार बीघा ज़मीन के साथ खलीचा अपना परिवार चला रहा था. साथ में खलीचा मरे हुए जानवरों की खालें उतारकर, उनको सुखाकर, उनके चमड़े के जूते, चप्पल तथा अन्य दैनिक उपयोग की वस्तुए भी बनाकर बेचा करता था. हांलाकि, खलीचा के पास अपनी कोई भी स्थायी दुकान नहीं थी. वह यह सारा चमड़े का सामान अपने घर पर बनाकर, शहर में बड़ी दुकानों पर बेच आया करता था. मरे हुए जानवर का चमडा, उसके सींग निशुल्क थे. खलीचा का काम गाँव में कोई दूसरा नहीं करता था, क्योंकि चमड़े के इस काम के कारण सारे गाँव वाले उसे चमार, दूमल और दलित ही कहकर बुलाते थे और समझते भी थे. अपनी इस छोटी जाति के कारण, खलीचा सवर्णों के कुएं से पानी नहीं भर सकता था. उनके मन्दिर में नहीं जा सकता था. इस प्रकार के अवरोधों से खलीचा और उसके परिवार वाले बहुत अच्छी तरह से वाकिफ हो चुके थे. खलीचा के अलावा अन्य कुछेक परिवार भी उसी की जाति के सरपंच सिंह के गाँव में पिछले कई वर्षों से रहते आये थे. इन सभी का अपना कुआं था, अपने ढोर थे, अपने गाय-बैल थे. गाँव का अन्य कोई भी स्वर्ण जाति का शख्स मुर्गियां नहीं पाला करता था, पर अंडे, मुर्गा खाने के शौकीन बड़ी जाति के, अपनी मूंछों पर ताव देकर इसी खलीचा के यहाँ से अंडे खरीदते और मुर्गा खाया करते थे.
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एक दिन सरपंच सिंह ने खलीचा को अपने घर पर बुलाया. जब उसे खबर मिली तो उसकी पत्नी खुर्ची के साथ-साथ उसके तीनों बच्चे भी आश्चर्य करके रह गये. ज़ाहिर था कि, गाँव के सबसे बड़े राजा समान, मुखिया का आदेश था. जाना तो था ही, साथ में एक भय भी था कि, 'न जाने क्या बात है? कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई है?' बड़े लोगों के यहाँ से बुलावा आने का मतलब था कि, मानो पुलिस महकमें से वारंट आ गया हो?

'काहे, क्यों बुलावा आया है' खलीचा की पत्नी असहज होते हुए बोली.

'न मालुम का बात है. सायद बहुत दिनों से उनसे राम राम न हुई हो?' खलीचा बोला.

'ज़रा सोच-समझ कर बात करियो. बड़े लोगों की बिगड़ी मति का कोई भरोसा नहीं होता है.'

खुर्ची ने अपने पति को उसकी लाठी और अंगोछा देते हुए हिदायत दी और विदा किया.

'अब इतना भी मूढ़ मत समझ मुझे. तू चिंता न कर. किस परिस्थिति में क्या करना है, मुझे सारे उपाय सूझते हैं.' जाते-जाते खलीचा यह भी बोला,

'जब तक न लौटूं, तू दरबज्जा बाँध कर रखिये.'

खलीचा जब तक जाते हुए खुर्ची की आँखों से ओझल नहीं हो गया, वह उसे घूँघट डाले हुए, उसकी पतली-सी जगह से जाते हुये देखती रही. फिर घर में आई तो अभी भी एक शंका और भय की चादर उसके समूचे बदन को लपेटे हुए थी. जून का महीना था. सारे दिन सूरज तपता रहा था. अब शाम होने को आई थी, तब भी गर्मी के कारण जैसे उसकी देह फुकी जाती थी. उसके सारे घर में पानी में भीगते और छप्पर आदि पर सूखते हुए, सड़ती-गलती खालों की एक अजीब-सी गंध भरी हुई थी. परन्तु खलीचा के परिवार के किसी भी सदस्य पर इसका कोई भी प्रभाव नहीं पड़ रहा था. वर्षों से इसी माहोल और धंधे में रहते हुए जैसे सबके-सब आदी हो चुके थे. खुर्ची ने गर्मी से राहत पाने के लिए अपने बदन से लिपटी हुई साड़ी को मानो खिसियाते हुए उतारा, उतारकर वहीं बान की पड़ी खाट पर फेंक दिया और पेटीकोट- ब्लाऊज में ही जाकर चौके में बैठ गई. खलीचा के आने से पहले ही, रसोई भी तो तैयार करनी थी.

खुर्ची ने चूल्हा जलाया. दाल बनाई. रोटी भी बना ली. दूध भी गर्म करके रख दिया. खलीचा के आने का रास्ता देखने लगी. सात बज गये. खलीचा नहीं आया. ज्यादा देर हुई तो बच्चों को खिलाया और फिर पति की राह ताकने लगी. फिर आठ बज गये. सारा गाँव सोते में जाने लगा. आकाश में चंद्रमा भी झाँकने लगा, पर खुर्ची के कान दरवाजे की आहट पर ही लगे रहे. ज़रा-सा खटका होता तो वह दौड़कर दरवाज़े तक जाती और निराश होकर लौट भी आती. पति के इंतज़ार में उसने भी खाना न खाया. दिल और दिमाग में चैन न था. ज़मीदार ने बुलाया था. अपनी मर्जी से तो न गये, फिर न जाने क्या बात हो? दिल एक अनहोनी की शंका और दिमाग विभिन्न प्रकार के बुरे ख्यालों से आहत हो चुका था.

तभी दरवाज़े पर कुंडी खटकी तो खुर्ची ने घबराते हुए द्वार खोला. खलीचा सामने खड़ा था. खुर्ची उसे देखकर लिपट गई. लिपटते ही सिसकने लगी. 'इतनी देर क्यों लगा दी? यहाँ बुरे-बुरे विचारों से कलेजा फटा जाता था.' खुर्ची सोचने लगी थी, पर मुंह से एक शब्द भी नहीं कह पाई. सामने उसके उसका सुहाग जीता-जागता, सही-सलामत खड़ा था- यही उसके लिए बहुत था.

'मुझे कुछ नहीं हुआ. ठीक हूँ मैं.'

खलीचा बोला और दरवाज़ा बंद करके पत्नी को अंदर ले आया. खुर्ची ने उसे लोटे में पानी दिया. हाथ धुलाये और रसोई में फिर से चुल्हा जलाकर भोजन गर्म किया और एक ही थाली में परोसकर उसके सामने रख दिया.

तब भोजन खाते में खुर्ची ने अपने मन की शंका को दूर करते हुए खलीचा से पूछा,

'बड़ी लंबी बात करी. सब खैर तो है?'

'दो मिनट की बात हुई, पर खैर कुछ भी नहीं रही.' खलीचा बोला.

'खैर, कुछ भी नहीं, का मतलब . . .?'

खुर्ची तनिक भेदभरी दृष्टि से खलीचा का मुखड़ा ताकने लगी.

'ज़मीदार के यहाँ से तो मैं आधे घंटे में ही आ गया था, पर देर तो ठनुआ नाईं के घर पर हो गई थी. आते वक्त मिल गया और बैठा लिया. फिर बोला,

'तम्बाखू बनाऊँ?'

'तब?'

'तब क्या, तम्बाखू पीते रहे और बातें होती रही.'

'हे, भगवान ! खोदा पहाड़ और निकली चुखरिया. मेरा तो घबराहट के मारे बुरा हाल हुआ जाता था. खुर्ची कहकर खाना खाने लगी थी.

बड़ी देर तक दोनों के मध्य खामोशी बनी रही. अब दोनों फिर अपनी-अपनी खाट पर लेटे थे. खुर्ची ने फिर से ज़मीदार से हुई वार्तालाप के बारे में पूछा तो खलीचा ने कहा,

'उसकी नज़र हमारी सड़क के किनारे वाली चार बीघा ज़मीन पर है. कहता है कि, उसके कागज़ात लाकर उसे दे दे, वह मुंह माँगा पैसा दे देगा.'

'क्यों बेच दें. हमारे पुरखाओं की ज़मीन है. उसे नहीं मालुम है कि, पूर्वजों की विरासत हम बेचते नहीं हैं.'

'मैंने मना किया और यही बोला भी था. पर . . .'

'क्या?'

'वह अपनी ज़िद पर अड़ा हुआ है. कहता है कि, गाँवों में जानवर तो मरते ही रहते हैं. तेरे अलावा यहाँ कोई दूसरा चमार भी नहीं है. जितनी भी खालें, हड्डियां और सींग होंगे, वे सब तेरे ही तो हैं. साल-दो- साल में कहीं भी दूसरी ज़मीन खरीद लेना. यह सड़क वाली ज़मीन तो उसे चाहिए-ही-चाहिए होगी.'

'तो क्या जबरन हमारी ज़मीन ले लेगा वह?' खुर्ची उछलकर खाट पर ही बैठ गई.

'ले ही लेगा. उसकी ताकत है. सरकारी आदमी है. गुंडई और दबंगई उसके हथियार हैं. पर्शासन में उसकी जुगाड़ है. कमिश्नरी और मुंसिफी में उसका जलवा बोलता है. पुलिस वाले भी उसका ही साथ देंगे. हम गरीबों को कौन पूछता है? खलीचा ने कहा.

'?' - खुर्ची चुप हो गई. भविष्य में आनेवाले किसी अज्ञात भय से उसका कलेजा काँप गया.

'खैर ! तू बोझ अपनी छाती पर न ले. कोई तो उपाय करूंगा ही. इतनी सहजता से अपनी विरासत नहीं जाने दूंगा.

तब खुर्ची को भी थोड़ा संतोष मिला. वह चुप पड़ी रही. सोचती रही. मच्छर उसके कानों में भंन-भनाये तो तो वह अपनी धोती के पल्लू से मुंह ढांककर सो गई. एक निश्चतता की गहरी नींद लेकर जब वह सुबह उठी तो खलीचा बैल और भेंसों आदि को सानी लगा रहा था.

खलीचा और खुर्ची के दो सप्ताह इसी उहापोह में बीत गये. कैसे ज़मीन इन ज़मीनखोरों से बचाएं? गीदड़ और गिद्ध की तरह ताके बैठे हैं. कब मरे और कब नोंच खाएं. यही सोचते हुए और इसी भय में खलीचा ने जितनी उसकी पहचान थी, जितना उसका बड़े लोगों से रस-रसूख था, सभी के दरवाज़े खट-खटाए थे. तसल्ली और भरोसा तो सब ही ने दिया था पर काम कोई नहीं कर पा रहा था. एक दिन खलीचा किसी की सलाह पर जिलाधीश के दफ्तर में भी जा पहुंचा. वहाँ उसने हाथ जोड़कर, जिलाधीश के पैर पकड़कर विनती की, मिन्नतें कीं तो जिलाधीश ने उसे तसल्ली दी और इस बाबत एक दर्खाश्त दाखिल करने की सलाह दी.

खलीचा ने किसी तरह दस रूपये देकर, मुंसिफी में दर्खाश्त भी लिखवाई. फिर जब वह कार्यालय में देने गया तो वहां के बाबू ने उसे भी मूर्ख बना दिया. वह उसका प्रार्थना पत्र पढ़कर खलीचा से बोला,

'क्यों अपनी जान जोखिम में डालते हो? क्या अपना घर, बाल-बच्चे और जीवन बर्बाद करना चाहते हो. ऐसे बड़े सरपंच सिंह जैसे आदमियों से तुम क्या पंगा ले सकोगे? मेरी मानो तो तुम्हारी ज़मीन केवल एक ही आदमी बचा सकता है आसुर वह है केवल सरपंच सिंह. उसी से कुछ ले-देकर मामला सेट कर लो. मुझे तुम्हारी एप्लीकेशन जमा करने में कोई एतराज़ नहीं है. तुम यह एप्लीकेशन दोगे, मेरा क्या जाता है? मुझे तो पांच रूपये तुम्हें देने ही होंगे. तुम हो गरीब आदमी. तुम्हारी दशा देखकर मुझे तुम्हारा ख्याल आ गया. मेरी मानो तो यह एप्लीकेशन जमा न करो. घर चले जाओ और वहीं पर कोई भी समझौता कर लो.'

बेचारा खलीचा, ऊपर से नीचे तक भय के कारण पानी-पानी हो गया. उसने बाबू से दर्खाशत वापस ली और मन मारकर घर चला आया.

मुंसिफी का बाबू खलीचा के गाँव के सरपंच सिंह को भली-भाँति जानता था. उनके इस प्रकार के काम वह अक्सर करता ही रहता था. वह दूसरे दिन, सरपंच सिंह का हिमायती बनकर उनकी हवेली पहुँच गया और सारी बातें उन्हें कह सुनाईं. उसके बाद खलीचा के घर पर फिर से सरपंच सिंह का बुलावा आ पहुंचा.

खलीचा सरपंच सिंह की हवेली पर गया. डरते-कांपते हुए वह उसके सामने सिर झुकाकर, हाथ जोड़कर खड़ा हो गया. सरपंच सिंह भी जैसे पहले ही से अग्नि में जल-भुना हुआ बैठा था. खलीचा को देखते ही वह जैसे बिगड़े हुए हाथी के समान चिंघाड़ दिया,

'ज़मीन के कागज़ात लाया है तू?'

'?' - खलीचा चुप.

सरपंच सिंह की गुस्सैली दहाड़ सुनकर अपनी ही जगह पर काँप गया.

'तुझसे मैंने रिक्वेस्ट ही की थी और तू मुंसिफी पहुँच गया, मेरी शिकायत लेके. देखता हूँ कि, तू अब कैसे बचाता है, अपनी ज़मीन को? बता लाया है कागज़ात या नहीं?

सरपंच सिंह ने अपनी लाल आँखें दिखाई तो खलीचा सहम गया. फिर भी बोला,

'नहीं ला सका, माई-बाप.'

'क्यों?'

'?'- क्यों खलीचा फिर से चुप हो गया, तो सरपंच सिंह आगे बोला,

'क्यों नहीं ला सका? आखिर परेशानी क्या है? मैं जब तुझे मुंह-माँगी रकम देने को तैयार हूँ तो क्या मुसीबत है? जो पैसा मैं तुझे तेरी ज़मीन का दूंगा, उससे तू जहां कहेगा, वहीं तुझे ज़मीन दिलवा दूंगा?'

'नहीं साब, जे बात नहीं है.'

'तो फिर. . .'

वह ज़मीन मेरी औरत के नाम पर है. उसने बेचने से मना कर दिया है.' खलीचा बोला.

'जोरू का गुलाम? इतना डरता है तू अपनी घरवाली से. चूड़ियां पहनकर घर में घुसा रहता है तू क्या?'

'साब जो असल बात है, वह मैंने तुम्हें बता दी है. अब तुम मोय मारो या मेरा घर जला दो. मेरे हाथ में नहीं है.'

तब बड़ी देर तक सरपंच सिंह अपने विचारों में ही उलझा रहा. खलीचा भी असहज-सा मुंह लटकाए हुए खड़ा रहा. तब काफी देर की सोचा-विचारी के बाद सरपंच सिंह ने खलीचा को दफा किया. वह उससे बोला,

'चल, जा निकल यहाँ से. मैं कोई दूसरा उपाय सोचता हूँ.'

खलीचा भयभीत, डरता-कांपा हआ हवेली से बाहर आ गया. जब तक वह अपनी झोपड़ी तक पहुंचा, उसके मन-मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार के बुरे-बुरे विचार आते रहे. यही सोचकर कि, 'अब न जाने क्या होगा? सरपंच सिंह इस गाँव का प्रद्फ्हान ही नहीं है, बल्कि सारे गांववासियों का बाप है. उसकी मर्जी के बगैर गाँव के पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता है. वह तो अपनी हेकड़ी, अपनी जिद का पक्का है. ऐसे जालिम आदमी से वह क्या पंगा ले सकेगा. अच्छा होगा कि वह अपनी ज़मीन उसे बेच दे. जाकर अपनी औरत को फिर से समझाने की चेष्टा करेगा. नहीं तो यह सरपंच सब कुछ उसका बर्बाद कर देगा. बच्चे भीख मांगेंगे. कुछ नहीं तो गाँव से निकलवाकर ही दम लेगा. वैसे भी हम दामुल, चमारों की औकात ही क्या है. इन ठाकुरों की क्या, हमें ज़िंदा ही गाड़ देंगे और किसी को कानो-कान हवा तक नहीं लग सकेगी. गांव वालों की भी क्या आस करें, वे भी जिधर की हवा होती है, उसी तरफ अपना सूप हिलाने लगते हैं. उनकी बला से, कौन मरा और कौन जिया? '

सोचता हुआ खलीचा अपनी कुटिया के सामने आ गया. आकर खड़ा हो गया. बहुत देर तक खड़ा हुआ विचारता रहा. फिर उसने सांकल हिलाई. तुरंत ही उसकी औरत ने द्वार खोल दिया. वह भी जैसे उसी के वापस लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी. मानो चिंता में आँखें बिछाए बैठी थी. मन में एकल डर था, शंका थी, दिल अतीत में आने वाली किसी अज्ञात तरह की होनेवाली हानि के भय से धड़क-धड़क जाता था. खलीचा घर के अंदर आया और जूते उतारकर, खटिया पर, दोनों हाथों से अपना सिर पकड़कर बैठ गया.

अपने पति की यह दशा देखकर खुर्ची का रोम रोम थरथराने लगा. जल्दी से गुड़ खिलाया और पानी लाकर दिया, पानी पीकर और मुंह मीठा करने के बाद खलीचा थकान मिटाने लगा. तभी खुर्ची कुछ पूछती उससे पहले ही खलीचा उससे बोला,

'अपना बोरिया-बिस्तर बाँध ले, अगर ज़िंदा रहना है और बच्चे पालने हैं. यह गाँव छोड़ना पड़ सकता है.'

'?'- काहे ! का अधिक बिगड़ गई?'

'बिगड़ गई? अरे उसने तो चुनौती दी है.'

तब खलीचा ने सारी बात अपनी पत्नी को बता दी और समझा भी दी. साथ ही यह भी कहा कि,

'ताल में रहकर मगर से बैर करके एक बार को ज़िंदा भी रह लिया जाए, मगर यह तो भेड़िया है. पक्का नरभक्षी है. पूरा जल्लाद है. जो सोच लिया वही करेगा. अपनी बात मनवा के ही रहेगा. अभी तो मैंने कह दिया है कि, 'ज़मीन खुर्ची के नाम पर है. अभी तो जैसे-तैसे गला छुड़ा भी लिया है, लेकिन, बाद में. . .? कुछ नहीं मालुम. सरपंच के उलटे दिमाग का कोई भरोसा भी नहीं- सरकार उसकी, लोग उसके, न्यापालिका, मुंसिफी उसकी, गुंडे-बदमाश उसके, गाँव में गुंडई-बदमाशी सभी जगह दबदबा उसका; कैसे जियेगी इस नर्क में? देखना, ऐसा ही रहा तो कुछ दिनों में मरे हुए ढोरों की खाल भी नहीं मिलेंगी कि, एक जोड़ी जूत भी बनाकर बेच लूँ.'

खुर्ची खलीचा की दास्ताँ सुनकर चुप कर गई. फिर कहती भी क्या? सरे-आम मौत और बर्बादी का काला फंदा उसके परिवार पर लटक रहा था. इस प्रकार कि, मानो समूचे घर को काले पानी की सजा सुना दी गई हो. उसकी दशा उस अंधे व्यक्ति के समान थी जिसने राजा की लड़की को आँख मार दी हो और कोतवाल ने उस पर आरोप लगाकर उसे आजीवन जेल की सजा दिलवा दी हो?

खलीचा अपनी इसी उधेड़बुन में सिर झुकाए बैठा हुआ था. सोचता था कि, कैसे इस मुसीबत से छुटकारा प्राप्त करे? किस प्रकार से अपनी रोजी-रोटी देनेवाली ज़मीन छुड़वा ले? तभी खुर्ची उससे बोली,

'सुनो?'

'?'- खलीचा ने एक उम्मीद एक आस से खुर्ची को निहारा. यही सोचकर कि, वह शायद कोई उम्मीद की बात कहेगी.

'यह मुसीबत तो आयेगी, तब आयेगी. बच्चों के स्कूल बंद होने वाले हैं. इन छुट्टियों में सबसे पहले बच्चों को अम्मा के घर, उनकी ननिहाल छोड़ आओ. कम-से-कम बच्चों की तरफ से तो चैन मिलेगा.'

'यह तूने ठीक कहा है.' खलीचा ने अपनी रजामंदी दे दी.

'और चिंता मत करो. चिंता तो चिता की जननी होती है. यूँ भी हम चिंता करके कर ही क्या लेंगे?'

खलीचा के चेहरे पर थोड़ी शान्ति और चैन के चिन्ह दिखाई दिए तो खुर्ची ने उसे भोजन करने को कहा. बाद में दोनों ने भोजन किया. भोजन के बाद खलीचा ने अपने दोनों बैलों और भैंस को बाहर के खूंटे से खोलकर झोपडी के अंदर बाँध लिया. यही सोचकर कि, सरपंच सिंह के गुंडों का क्या ठिकाना, रात में खोलकर ही ले जाएँ. पशुओं को घर के अंदर बाँधने के पश्चात उसने द्वार को बंद किया और अधूरी पड़ी जूते की जोड़ी को कुप्पी की मंद और धूमिल रोशनी में गांठने-बनाने बैठ गया.

दिन बीतने लगे.

आसमान में सूरज की रश्मियाँ सुबह-शाम के अतिरिक्त दिन भर आग बरसाती थीं. सूरज सारे दिन तपता था. गर्म हवाएं लू के समान चलने लगी थीं. पके हुए खेत लहलहाते थे. शाम को जब गर्मी से सताए हुए ढोर घर लौटते थे तो सारा गाँव धुंध के गुबारों में डूब जाता था. इस मध्य सरपंच सिंह ने एक बार और खलीचा को अपने निवास पर बुलाकर धमका दिया था और कहा था कि, 'तू कुछ भी कर ले, तेरी ज़मीन के कागज़ात तो मैं अपने साथ लेकर ही जाऊँगा.' खलीचा यह सुनकर तब समझ नहीं सका था कि, सरपंच सिंह ने उससे यह बात अपने अपमान को बचाने के लिए कही थी अथवा उसको उसकी औकात बताई थी?

तब भी खलीचा ने यही कहकर जान छुड़ाई थी कि, 'ज़मीन के कागज़ात उसकी स्त्री के पास हैं और वह बेचने को तैयार नहीं है. मेरे बस में नहीं है. वह मेरी बात नहीं सुनती है.' खलीचा ने फिर एक बार और झूठ बोला था. जबकि, वास्तव में ज़मीन उसके ही नाम में थी और खतौनी के कागजों में उसके दोनों लड़कों के नाम हिस्सेदारों के तौर पर लिखे हुए थे.

सरपंच सिंह को खलीचा की बात पर विश्वास नहीं हुआ. विश्वास तो उसे पहले भी नहीं था. उसने लेखपाल को बुलवाकर खलीचा की उस ज़मीन के बारे में समस्त जानकारी लेली. सच्चाई जानकर तो उसके तन-बदन में जैसे आग फुंक गई. उसकी सारी देह गहन क्रोध के अंगारों में जलकर रह गई. वह अपमान और खलीचा की जुर्रत के बारे में सोचकर जैसे तड़पने लगा. इतना अधिक कि, मारे क्रोध के उसका बदन फटा जाता था. कहते हैं कि, अत्यधिक क्रोध सदैव ही अत्याचार और अपराध को जन्म देता है. यही दशा सरपंच सिंह की भी हुई. खलीचा उसको अपना जानी दुश्मन नज़र आने लगा. तुरंत ही उसने अपने गुर्खों को अपने पास बुलाया और उनको सारी परिस्थिति से अवगत कराया. फिर उनको यह हिदायत दी कि, अवसर मिलते ही तुमको क्या करना है, वह मुझे बताने की जरूरत नहीं है.

अपने मन में इस तरह के विचार आने और खलीचा के परिवार की बर्बादी का इंतजाम करने के पश्चात सरपंच सिंह चुप हो गया. चुप ही नहीं वह पूरी तरह से शांत भी हो गया. यहाँ तक कि, उसने यह भनक तक नहीं लगने दी कि उसके मन में खलीचा और उसके परिवार की सत्यानाशी के लिए बेहद भयंकर इरादे पनप चुके हैं. उसकी इस चुप्पी और शान्ति का प्रभाव यह हुआ कि, खलीचा और खुर्ची के मन में ज़मींदार के प्रति बसा हुआ भय के अंबार का कोहरा कभी हल्का पड़ जाता तो कभी काढ़ा बनकर किसी भूत के समान धमकाने लगता था.

काफी दिन बीतने के बाद खेतों की कटाई आरंभ हो गई तो खलीचा का समूचा परिवार उसमें व्यस्त हो गया. उसके थोड़े से खेत थे, सो सारे परिवार ने खुद ही कटाई की, दांय चलाई और अनाज को घर के अंदर जमा करने की तैयारी भी कर ली.

मगर एक दिन जब अमावस्या की रात थी. आकाश में तारे चमक रहे थे. दूर-दूर तक खेतों में हल्की रोशनी और थ्रेसर की आवाजें सुनाई देती थीं. खेतों में शाम डूबकर अन्धकार छाया ही था कि, खलीचा की बड़ी लड़की अपने पिता और भाई के लिए संध्या का भोजन लेकर आई हुई थी. खलीचा और उसका बड़ा लड़का अभी हाथ धोकर भोजन खाने जा ही रहे थे कि, तभी अचानक से पांच-छः लठैत अपना मुंह बांधे हुए आये और आते ही उन सबने खलीचा को जबरन पकड़कर वहां पड़ी चारपाई से बाँध दिया. उसने चिल्लाना चाह और छूटने की चेष्टा की तो किसी ने एक डंडा उसके सिर में मारकर बेहोश कर दिया. यह सब अचानक से देखकर खलीचा की बड़ी लड़की जो भोजन आदि लेकर आई थी, भयभीत होकर वहां से भागी तो दो लठैतों ने उसे भी पकड़ लिया. अपनी बहन को पकड़ते हुए देख कर उसका भाई उसके पीछे-पीछे दौड़ा तो एक ने उसके सिर पर लाठी मारकर उसे ढेर कर दिया. वह भी एक भयानक चीख मारकर वहीं शांत हो गया. यह सब इतनी शीघ्रता से हुआ कि, किसी को कानो-कान हवा तक नहीं लग सकी.

जब खुर्ची के पास उसकी लड़की खेत से वापस नहीं आई तो उसे भी चिंता हो गई. काफी देर इंतज़ार करने के बाद वह अपने दूसरे लड़के साथ खेत पर पहुंची तो पति को चारपाई पर बंधा हुआ बेहोश देखकर गला फाड़कर रोने लगी. उसका रोना सुनकर गाँव वाले आये. उसकी लड़की की खोज की गई. खलीचा के लड़के की खून में लथपथ पड़ी लाश मिली. बेटी नदारद, पति घायलवस्था में बेहोश और लड़के की लाश देखकर खुर्ची वहीं बेहोश हो गई और इसी दुःख और दर्द में उसने भी अपना तोड़ दिया. पल नहीं बीते होंगे कि, एक क्षण में, वायु के सरकते ही खलीचा का समूचा परिवार अधोलोक में समा गया था.

गांव वालों ने किसी तरह से खलीचा को पास के अस्पताल में पहुंचाया. पुलिस में प्रथम रिपोर्ट लिखवाई गई. पुलिस तुरंत हरकत में आई. खलीचा होश में आया, थोड़ा स्वस्थ हुआ तो पुलिस ने उसका बयान लिया. पुलिस ने किसी पर संदेह के बारे में पूछा तो उसने भी बगैर भय के सरपंच सिंह के नाम पर संदेह जताया. मगर पुलिस सरपंच सिंह का नाम खलीचा के मुख से सुनकर उसी पर चिल्ला पड़ी. दो दिन के बाद खलीचा की बड़ी लड़की की भी लाश दूसरे गाँव के किसी खेत में क्षत-विछिप्त दशा में अर्धनग्न अवस्था में लावारिस-सी पड़ी मिली. तब पुलिस ने सारा मामला डकैती, अपरहण, दुराचार और बलात्कार का केस बनाकर दर्ज़ कर लिया. खलीचा की लड़की की लाश का पोस्टमार्टम हुआ और उसके साथ सामूहिक बलात्कार होने तथा दुराचार की पुष्टि हो गई. फिर जब मीडिया में यह बात उजागर की तो सारे देश में में जैसे हाहाकार मच गया. देश के तमाम शहरों में प्रदर्शन और धरने होने लगे. लोग बलात्कारियों को फांसी की सज़ा देने के लिए सड़कों पर आकर चिल्लाने लगे. फलस्वरूप देश के कई इलाकों में दफा 144 लगा दी गई. खलीचा का सारा गाँव छावनी में तब्दील हो गया. इसलिए पोस्टमार्टम के तुरंत ही बाद खलीचा की लड़की का अंतिम संस्कार रातों-रात पुलिस की निगरानी में कर दिया गया.

बाद में जांच हुई. आरोपी पकड़े गये. मुकद्दमें हुए. तारीखें पडीं, पर कोई भी एक आदमी तक गवाह के रूप में नहीं आ सका. गवाह के रूप में जो था वह केवल मात्र खलीचा ही था. मगर आँखों देखा कोई भी गवाह नहीं था. फलस्वरूप सारे आरोपी जमानत पर बाहर आ गये. खलीचा का सारा घर उजड़ चुका था. पत्नी और उसके दो होनहार बच्चे इस संसार से विदा हो चुके थे. उसके चार बीघा खेत में कटनी का पड़ा हुआ सारा अनाज अवसरवादियों ने बटोर लिया था. इस अवसर पर जिसे भी मौका मिला वह भर-भरकर बटोर ले गया. उसका सबसे छोटा लड़का अनाथों समान अपनी ननिहाल में रह रहा था. फिर भी उसकी अपनी जाति और गाँव वालों में इतना साहस नहीं था कि, जो एक बार भी सरपंच सिंह के अत्याचारों और उसकी दबंगई के विरोध में आवाज़ भी उठा सके.

इतना सब कुछ होने के बाद खलीचा अब तक पूरी तरह से टूट चुका था. उसके शरीर के अंदर जीवन के चिन्ह तो थे पर जीवित रहने की इच्छाएं अपना दम तोड़ चुकी थीं. एक अजीब ही दुविधा में वह जैसे फंस चुका था. अपना सब कुछ लुटने के बाद वह अब जीना नहीं चाहता था और मरने का कोई अवसर भी सामने नहीं आता था. कुछ ही दिनों में उसके शरीर की काया ही पलट गई. दीन-दुनिया, घर-बार और जान-पहचान वालों से उसे अब कोई भी सरोकार नहीं था. वह जिधर चाहता उसी तरफ चल देता. जहां शाम हुई वहीं रात गुज़ार देता. जो मिल जाता वही खा लेता. और फिर इस तरह से एक दिन ऐसा आया कि, खलीचा अचानक ही अपने गाँव से गायब हो गया. मानो लुप्त हो चुका था. वह कहाँ गया, क्यों गया, किधर गया; इन सवालों के जबाब कोई नहीं जानता था. फिर एक दिन, उसकी गुमशुदा पलायनता का लाभ पाकर उसकी झोपड़ी भी तहस-नहस पाई गई. झोपडी के अंदर की हरेक वस्तु टूटी, फूटी, अस्त-व्यस्त पाई गई. संदूक और संदूक्चियाँ खुली पड़ी थीं. उनके अंदर का सामान भी बिखरा पड़ा था- ज़ाहिर था कि, कुछ लोगों ने उसकी झोपड़ी में कोई विशेष वस्तु खोजने की कोशिश की थी. क्या खोजा गया था? जो समझते थे, उनका कहना था कि, खलीचा की ज़मीन के कागज़ात ही थे, जिन्हें एक प्रकार से चुरा लिया गया था. फिर एक दिन खलीचा अचानक से गाँव में फिर से दिखा और जब उसने अपनी झोपड़ी की यह अंतिम दुर्दशा देखी तो उसने भी कह दिया कि, उसकी ज़मीन के कागज़ात चुराने के कारण ही उसके घर का यह हाल हुआ है. एक-दो और गाँव में दिखने के बाद खलीचा फिर से गायब हो गया. या यूँ कहिये कि, वह गाँव छोड़कर कहीं चला गया. तब से आज तक खलीचा को गाँव छोड़े न जाने कितने ही वर्ष बीत चुके थे, किसी ने गिनने की कोई भी आवश्यकता नहीं समझी थी.

खलीचा की ज़मीन के कागज़ात अब सरपंच सिंह के पास थे. अब तक बाकायदा उन्होंने उसकी वह चार बीघा ज़मीन अपने नाम में, चालाकी से, अपनी जोरदारी से, हर तरह की तिकड़मबाजी से, सरकारी महकमों में अपनी पहुँच और सभी तरह का दांव लगाकर करा ली थी. ज़मीन अपने नाम में कराकर सरपंच सिंह अब मारे खुशियों के ऐसे फूले नहीं समाते थे, जैसे कोई भूखा लकड़बग्घा एक कमजोर शापान को दबोचकर अपनी मर्दानगी पर अपनी खीसें निपोरने लगता है. या यूँ कहिये कि, एक दलित, कमजोर और गरीब आदमी से उसकी ज़मीन छीनकर वे अपने को बहुत बड़े सूरमा समझने लगे थे. इसी हर्षोउल्लास में वे अब उस सड़क के बनने का बेसब्री से प्रतीक्षा करने लगे थे कि, जिसको हडपने के लिए उन्होंने अपना हर तरह का पेंतरा अपनाया था. मगर एक दिन उन्हें यह जानकर अत्यंत दुःख हुआ कि, सरकार का इरादा बदल चुका है और अब वह सड़क उस स्थान से न होकर किसी अन्य स्थान से निकाली जायेगी, क्यों मौजूदा स्थान से सड़क निकालने पर बहुत से गरीब किसानों की वे ज़मीनें जा रही थीं जो उनकी रोजी-रोटी का ज़रिया बनी हुई थीं. जिस खलीचा की ज़मीन को लेकर वे करोड़ों कमाने का सपना देख रहे थे, वह अचानक ही टूट चुका था. अपने अरमानों पर नाकामयाबी के कांटे उगते देख कर शायद वे ये सदमा सहन भी नहीं कर सके थे? दूसरे शब्दों में यूँ कहिये कि, अपनी उम्मीदों की जिन मेहराबों पर वे अपने सपनों के महल खड़े कर देना चाहते थे, उसकी नींवों को एक गरीब परिवार की दुखिया खुर्ची की आहों ने अपनी चीखों से धराशाही कर दिया था. जिस जगह पर सरपंच सिंह ने अपनी महकती बगिया के खुशबूदार फूल उगाने चाहे थे, उन्हीं को एक गरीब की लुटी हुई अस्मत के अंगारों ने भस्म कर दिया था. एक प्रकार से उनकी शान, उनकी इज्ज़त, उनके दबदबे और उनकी तमाम शौहरत को धूल-धूसरित करके रख दिया था.

. . . यह कितनी बड़ी बिडंवना थी, कितने आश्चर्य की बात थी और कितनी अनहोनी-सी कहानी थी कि, आज इन्हीं उपरोक्त गाँव के प्रधान व ज़मींदार सरपंच सिंह की अर्थी उठने वाली थी. कल रात में अचानक ही सरपंच सिंह का आकस्मिक देहांत हो चुका था. ऐसा कि, जिसने भी सुना वह विश्वास ही नहीं कर सका था. शायद अनहोनी को कोई भी नहीं जानता था. परमात्मा के नियमों पर चलनेवाली ये धरती जब उसके दस्तूरों, कायदे-कानूनों को नष्ट करके छलनी की जाती है तो प्राकृतिक प्रकोप का उठना बहुत मुकम्मल होता है.

दिन के एक बजने लगे थे. जेठ महीने का तमतमाता हुआ सूरज सरपंच सिंह की अंतिम यात्रा में शामिल होने को आये हुए एक बड़े हुजूम के हरेक प्राणी का मानो प्राण पी लेना चाहता था. गर्मी के दिन, गर्म चलती हवाओं वाली लू के लोगों के बदन तपे जाते थे. तभी, अर्थी उठाई जाने लगी और राम-राम सत्य के वचन बोले जाने लगे. अर्थी के साथ-साथ चलते हुए लोग ये वचन सुनते थे और सोचते थे कि, सत्य क्या है? राम नाम तो सत्य है ही, परन्तु वह सत्य क्या है जिसे इंसान किसी की भी मृत्यु, अंगारों में जलती हुई चिता और एक मानव-अर्थी को देखता है. क्या सत्य वह है जिसे मनुष्य अपनी आँखों से देखता है अथवा वह जो धार्मिक किताबों में लिखा हुआ है?

लोग जा रहे थे. अर्थी को कंधा दिए हुए. बार-बार सरपंच सिंह के प्रियजन, उनके मित्र, घर-बन्धु आदि, सभी कंधे बदलते जाते थे. उनका अंतिम संस्कार गाँव के पास वाली नदी के तीर पर ही होना था. साधारणत: आस-पास के सभी गाँव वालों को इसी वर्षों पुरानी कांगा नदी के तट पर ही अंतिम विदाई के रूप में अग्नि दी जाती थी. कांगा नदी का तीर थोड़ी ही दूर पर रह गया था. दूर से ही किसी अन्य जलती हुई चिता के शोलों की धधकती हुई आग की लपटें दिखाई दे रही थीं. कोई अन्य भी सरपंच सिंह प्रधान के समान ही इस दुनिया से कूच करके जा चुका था. शोलों में जलती हुई चिता की अग्नि की लपटों से उठता हुआ धुंआ आकाश में उठ रहा था. इसके साथ ही जलते हुए मृत-मानव-शरीर के मांस की दुर्गन्ध आस-पास के समूचे वातावरण में बस चुकी थी.

अभी सरपंच सिंह की अर्थी को लोग लिए ही जा रहे थे कि, तभी अर्थी उठाकर ले जाने वालों का हुजूम सहसा ही अपने स्थान पर रुक गया. रुकने का कारण था कि, उनके मार्ग में कोई मानव आकृति फटेहाल-सी, लंबी, सफेद उलझे हुए बालों के साथ विकृत चेहरा ऐसा कि, पहचान करना भी सहज नहीं था. वह मानव आकृति भगवा वस्त्रों में निर्लिप्त भाव से बैठी हुई थी. देखने से वह न तो कोई साधू लगती थी और न ही कोई भी भिखारी आदि. बल्कि अपनी काया से वह निहायत ही दुर्बल, मरणासन्न-सा और अपनी दशा से मानो संसार का सताया हुआ ही प्रतीत होता था. उसे इस मुद्रा में बैठे देख एक अर्थी ले जानेवाले ने उससे तनिक क्रोध में जैसे डांटा. वह बोला कि,

'बाबा, भगवा वस्त्र तो धारण किये हो, पर यह नहीं सीखा कि, अर्थी देखकर उसके सम्मान में खड़ा हो जाना चाहिए. क्या एक दुनिया से जाने वाले मृतक को अंतिम सम्मान भी नहीं देना चाहते हो?
'?'-
यह सुनकर वह मानव आक्रति जो मनुष्य ही थी, उसने एक पल सबको निहारा, फिर अपने स्थान से उठा और एक तरफ हो गया. रास्ता साफ़ देखकर अर्थी ले जानेवाले लोग आगे निकल गये. बाद में अर्थी सजाई गई. अंतिम संस्कार की प्रक्रियाएं समापन की गई. चिता तैयार की गई. लेकिन, अभी यह सब हो ही रहा था कि, तभी वह जीर्ण-शीर्ण-सी मानव शरीर की आकृति वाला मनुष्य चिता के पास आया और चिता पर रखी हुई अर्थी में कुछ ढूँढने का प्रयास करने लगा. उसकी हरकतों से प्रतीत होता था कि, जैसे वह अर्थी में से कोई कीमती वस्तु या कुछ विशेष चीज़ खोज लेना चाहता है. उसे ऐसा करते हुए देख एक ने उससे आश्चर्य से पूछा,

'अब क्या है? क्या ढूँढ़ रहे हो, इस अर्थी में?'

'बेटा, बहुत कीमती वस्तु.' उस मनुष्य ने कहा.

'कैसी कीमती वस्तु? कौन-सी वस्तु?'

'?'- तब उस मनुष्य ने एक बार सबको ध्यान से निहारा, फिर बोला कि,

'इन प्रधान जी के पास अपने वह ज़मीन के कागज़ात देख रहा हूँ, जिनके लिए उन्होंने एक दिन मुझसे कहा था कि, वे मेरी ज़मीन के इन कागजातों को अपने साथ ही लेकर जायेंगे.'

उसकी इस बात को सुनकर सरपंच सिंह के घर का कोई जन अचानक ही उसको पहचानकर बोला,

'अरे ! यह तो खलीचा चमार है?'

'हां मैं वही खलीचा हूँ जिसकी ज़मीन हडपने के लिए प्रधान जी ने मेरा समूचा घर ही बर्बाद कर दिया था. मेरी बेटी को न केवल मरवाया ही, मारने से पहले उसकी अस्मत लूटी, रात के अँधेरे में ही उसको बिना क्रियाकर्म के ही फूंक दिया, मेरे लड़कों को मार दिया और इसी वियोग में मेरी औरत भी चल बसी.'

'तो अब क्या चाहता है?' एक बंदूकधारी उस पर मानो गुर्राया.

'कुछ नहीं, मैं तो अपनी ज़मीन के कागज़ात देख रहा था. प्रधान जी तो नहीं रहे, अब वे कागजों का क्या करेंगे'

'हमारी बिगड़ी हुई परिस्थिति और हालात का उपहास उडाता है तू? दादा जी चले गये तो क्या हुआ, हम तो जीवित हैं अभी. मैं देता हूँ तुझे सारे कागज़ात.'

तभी अचानक से एक धमाका हुआ और कहने वाले की बंदूक की नली से निकली हुई गोली से खलीचा के प्राण-पखेरू एक क्षण में ही उड़कर आसमान में छाई हुई धुंध में विलीन हो गये. खलीचा का मरियल शरीर किसी सूखे पेड़ के समान गिरकर नदी के तीर की बालू में धंस गया. लोगों ने देखा तो चारों तरफ अचानक ही बवाल-सा मच गया. अफरा-तफरी-सी हो गई. अंत्येष्टि में आई हुई भीड़ में भगदड़ मच गई.

दो दिनों के पश्चात फिर एक बार, एक और अंत्येष्टि को चिता की अग्नि में समर्पित किया जा रहा था. ठीक उसी स्थान के पास जहां पर दो दिन पूर्व सरपंच सिंह को अग्नि के हवाले किया गया था. ईश्वर की अदालत में उपरोक्त दोनों मनुष्यों का क्या हुआ होगा? कोई नहीं जानता है. हां, इतना तो कहा जा सकता है कि, एक संसार की अदालत, रीति- रिवाजों में हार गया था तो दूसरा सूरमा समान सदा जीतता रहा था. पर कितने आश्चर्य की बात है कि, इन दोनों मनुष्यों का आगमन और प्रस्थान बिलकुल एक-सा था. इसके साथ ही खलीचा की चार बीघा ज़मीन वहीं स्थिर थी और सरपंच सिंह की कमाई हुई जायदाद भी अपने ही स्थान पर थी. दोनों में से कोई भी एक रत्तीभर दौलत का टुकड़ा तकअपने साथ ले जाने लायक नहीं था.
एक सभोपदेशक ने कहा है कि,
'एक बुराई जो उसने आसमान के नीचे और धरती पर देखी है वह यह है कि, मनुष्य अपने जीवन भर खूब कमाता है, खूब ही एकत्रित करता है, अपना घर भरता है, परन्तु उसे खाता कोई दूसरा ही है.

Vसमाप्त.