क़िस्सा 1930 का Wajid Husain द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

क़िस्सा 1930 का

वाजिद हुसैन की कहानी

12 मार्च 1930 को एक यात्रा शुरू हुई थी। एक ऐसी यात्रा जिसने सारी दुनिया को दिखाया, कि कैसे 80 लोगों की निहत्थी सेना अपने अहिंसक सत्याग्रह के रास्ते चलकर दुनिया की सबसे बड़ी ताक़त को धूल चटा सकती है।

उस समय रघुवीर गांव के सरकारी स्कूल में पढ़ता था। दांडी यात्रा उसके स्कूल के सामने से गुज़री थी। वह हिंसा, अहिंसा, सत्याग्रह आदि समझने लायक बड़ा नहीं हुआ था। उसने स्वयं देखा था - घोड़े पर बैठा एक गोरा दरोगा और कुछ सिपाही यात्रा पर निकले निहत्थे लोगों पर लाठियां बरसा रहे थे और आगे जाने से रोक रहे थे। अजीब दृश्य था, वे घायल हो जाते, गिरते-पड़ते फिर चलने लगते। उसके बाद मास्टर जी ने बच्चों को गांधी जी के बारे में बताया था और अहिंसा का पाठ विस्तार से पढ़ाया था जिसने रघुवीर को अत्यधिक प्रभावित किया था।

स्कूल जाते समय, उसका पिता टोकता, 'लला, पढ़- लिख के कौन सा कलेक्टर बन जाएगा, काम तुझे जाऊ करनो है।' वह बस्ता एक ओर रख देता फिर गाय की सानी और बाड़े की सफाई करने लगता। उसके बाद देरी से स्कूल पहुंचता और हेड मास्टर के क्रोध का पात्र बनता था।

हेड मास्टर, नाटा और मोटा, सफेद कमीज़ खाकी नेकर पहने, हाथ में बेत लिए, टूटे हत्ते की कुर्सी पर बैठा रहता था। उसकी उभरी हुई आंखें थी, जिनमें भूरी पुतलियां खेलने वाले कंचे की तरह थीं। इसलिए उद्दंड बच्चे, ऊचे स्वर में, उसे 'कंचा' कहकर चिढ़ाते थे। हेड मास्टर बच्चों के पीछे भागता, जो कोई बच्चा पकड़ में आ जाता, उसको मारता रहता, जब तक बच्चा उसके तलवे चाट कर माफी नहीं मांगता था।

एक दिन रधुवीर देर से स्कूल पहुंचा। उसने हेडमास्टर को बच्चों के पीछे भागते देखा। वह न जाने क्या समझा उनके साथ भागने लगा। हेड मास्टर को लगा कि रघुवीर भी उसे चिढ़ाने वाले बच्चों में से है। उसे पकड़ लिया और उसके मुंह पर चाटे मारने लगा। उसकी जीभ मुंह के बाहर लटक आई और वह बौरो की तरह गर्दन झटककर बात करने लगा था। उसके बाद उसने स्कूल जाना छोड़ दिया था।

रघुवीर एक छोटा, दुबला- पतला, पंखे की तरह कान और बड़ी नाक वाला लड़का था। उसकी नाक देखकर लगता था कि पहाड़ी पर एक कुत्ता बैठा है और बच्चे यही कहकर उसे चिढ़ाते भी थे।

उसका बड़ा भाई गांव में किसी ज़मींदार के यहां काम करता था, इसलिए रघुवीर को बहुत ही कम उम्र से ही अपने पिता के काम में हाथ बटाना पड़ता था। जब वह छै साल का भी नहीं था तभी से वह लड़कियों के साथ चारागाह में गाय और भेड़ें चराने जाया करता था तथा उसके कुछ ही समय बाद वह रात दिन घोड़ो की देखभाल भी करता था। बारह साल की उम्र से ही उसने खेत जोतना और घोड़ा गाड़ी चलाना शुरू कर दिया था। उसमें इन कामों की काबिलियत तो थी पर इतनी ताकत नहीं थी। वह हमेशा खुश रहता था जब कभी बच्चे उसका मज़ाक उड़ाते तब वह या तो शांत रहता या हंस देता था। जब उसके पिता उस पर चिल्लाते तब वह चुप रहता और ध्यान से सुनता तथा जब डाट ख़त्म हो जाती वह मुसकराते हुए अपना काम करने लगता था। रघुवीर जब उन्नीस साल का था तभी उसके भाई को सैनिक बनकर सेना में भेज दिया गया था। उसका पिता उसे बड़े भाई के बदले काम करने के लिए जमींदार के यहां ले गया था। उसे अपने भाई के पुराने जूते और पिता का पुराना कोट दे दिया गया था। रघुवीर अपने उन कपड़ों में बहुत खुश था पर उसके इस रूप से ज़मींदार पर कोई खास असर नहीं पड़ा।

ज़मीदार ने रघुवीर की तरफ देखते हुए उसके पिता से कहा, 'मैंने सोचा था कि तुम सुरेश की जगह मुझे एक अच्छा आदमी दोगे, ये किसे ले आए? इसमें अच्छा क्या है?'

'यह लड़का सारे काम कर सकता है, घोड़ों की देखभाल और घोड़ा गाड़ी भी चला सकता है। यह देखने में दुबला ज़रूर है, पर यह बहुत ताकतवर है। सबसे बड़ी चीज है कि यह काम करना चाहता है।'

ज़मींदार उसे देखता है और कहता है, 'हम देखेंगे कि इसके साथ हम क्या कर सकते हैं।'

इस तरह रघुवीर उस ज़मींदार के पास ही रुक गया। उस ज़मींदार का परिवार बहुत बड़ा नहीं था उसके परिवार में उसकी पत्नी बूढी मां और उसका शादीशुदा लड़का था जो शहर में रहकर उसका व्यापार संभालता था। ज़मीदार के एक बेटी भी थी जो अभी स्कूल में पढ़ती थी।

उन लोगों को शुरू -शुरू में रघुवीर थोड़ा रुखा तथा बेतरतीब कपड़ों वाला लगा। उसमें शिष्टाचार की भी थोड़ी कमी थी, पर जल्दी ही उन लोगों को उसकी आदत पड़ गई। रघुवीर अपने भाई से अच्छा काम करता था और वह आज्ञाकारी भी बहुत था। वे लोग उससे अपने सभी काम कराते और वह बहुत शीघ्रता से बिना रुके कर देता था। बाहर की तरह उसके कंधे पर घर में भी काम लदा रहता था। वह जितना काम करता उससे भी अधिक उसे काम दे दिया जाता था। उसकी मालकिन, ज़मींदार की बूढ़ी मां, बेटी, बेटा--सभी उसे काम बतलाते। 'रघुवीर यह करो! रघुवीर यह करो!' रघुवीर, क्या तुम भूल गए? ध्यान रखना, भूलना मत। यह सारी बातें सुबह से लेकर रात तक सुनता रहता था। वह कभी इधर तो कभी उधर भागता रहता। उसके पास हर काम के लिए समय था और सबसे बड़ी बात यह थी कि वह हमेशा खुश रहता था।

जाड़े के दिनों में रघुवीर दिन निकलने से पहले ही जाग जाता था। वह लकड़ी चीरता, आंगन में झाड़ू लगाता, गायों और घोड़ों को चारा देता, स्टोव जलाता और चाय बनाता था। इन कामों के बाद उसे बहुत से कामों के लिए शहर भेज दिया जाता जहां से उसे उनकी बेटी को स्कूल से घर लाना पड़ता। एक कभी दूसरा, उसे यह कहता रहता, 'तुम्हें इतनी देर क्यों लग जाती है?' वे हमेशा आवाज़ लगातेे रहते -बौरा बौरा!और वह हमेशा इधर से उधर भागता रहता।

एक रात घर में शोर- शराबे और एक लड़की का क्रुंदन सुनकर रघुवीर की आंख खुल गई। रघुवीर अपनी कोठरी से बाहर आया। उसने देखा ज़मींदार के आदमी एक लड़की को उठाकर ले आए थे। लड़की के पिता ने जमींदार से क़र्ज़ लिया था, जो वह चुका नहीं सका। वह उसके पैर पकड़कर लड़की को छोड़ने के लिए गिड़गिड़ा रहा था और कुछ मोहलत देने के लिए मिन्नतें कर रहा था पर ज़मींदार नहीं पसीजा। उसके नौकर ने उसे बाहर धकेल के फाटक को बंद कर दिया था।

सभी लोग अपने- अपने कमरो में जा चुके थे। माया की साड़ी खींचतान में तार तार हो चुकी थी। वह ज़मीन पर बैठी, फटी साड़ी से अपनी असमत को छुपाने का ‌प्रयास कर रही थी। रघुवीर ने अपना कोट उस पर डालकर उसे बेआबरू होने से बचा लिया। फिर दूर बैठा उसकी हिफाज़त करता रहा।

वक़्त के साथ माया ने अपने को ज़मीदार के घर में एडजस्ट कर लिया था। उसका अधिकतर समय रसोई में ही बीतता था। वह अच्छा खाना बनाने लगी थी, जिसकी सभी तारीफ करते थे।

त्योहारों के समय वहां काम आम दिनों की तुलना में कुछ अधिक ही होता था, पर रघुवीर को यह दिन बहुत पसंद थे, क्योंकि उन दिनों हर कोई उसे कुछ टिप देता था। यह रक़म बहुत अधिक तो नहीं होती लेकिन यह उसकी अपनी होती थी। रघुवीर अपनी मज़दूरी पर कभी नज़र नहीं रखता था। उसका पिता उस ज़मींदार से उसकी मजदूरी लेने आ जाता था।

दिन भर दौड़ने भागने के बाद जब उसके पैरों में दर्द होता तो माया उस पर गुस्सा होती और हमेशा देर से खाने के लिए डांटती रहती और कहती, 'खाने के टेम क्यों इधर से उधर भागता रहता है? अपना नाश्ता भी भागते-भागते करता है ओर खाना भी टेम पर नहीं खाता है।' और उसके खाने के लिए कभी कुछ तो कभी कुछ गर्म भी करती रहती थी।'

जब रघुवीर ने पचास रुपये बचा लिए तो उसने माया की राय से अपने लिए लाल रंग की जैकेट खरीदी। जैकेट पहनकर वह इतना खुश हुआ कि ख़ुशी के मारे अपना मुंह बंद न रख सका, बोला, 'क्या तुम्हें किसी से प्यार है?' 'अगर तुम चाहो तो मैं तुमसे शादी करना चाहता हूं।'

माया खुशी से उसकी पीठ पर अपने हाथ के तोलिए से मारते हुए बोली, 'मैं भी राज़ी हूं,

पर हमारे रास्ते का कांटा मलिक है उसे कैसे दूर करोगे?'

रघुवीर सन रह गया, ' तो क्या मालिक तेरे साथ ...।'

'ऐसी बात तो नाय है, पर देर रात को मालिक मुझे पान का बीड़ा लाने के बहाने बुलाता है। फिर वह अपने झुर्रियों वाले हाथ मेरे शरीर पर फिराता है, मुझे लगता है, शरीर पर कीड़े रेंग रहे हैं।

'तू मना क्यों नहीं करती है?' रघुवीर ने गुस्से में कहा ।

वह धमकता है, 'तेरे बापू की झोपडी में आग लगा दुंगा। उसी में तेरा परिवार जलकर मर जाएगा।'

रघुवीर ने माया को गांधी जी के अहिंसक आंदोलन के बारे में बताया, जो उसने देखा था और कहा, 'तुझे अहिंसक प्रतिरोध करना चाहिए। यदि फिर भी अत्याचारी बाज़ न आए, तो आमरण उपवास रखकर प्रतिरोध करना चाहिए, न कि अपने मूल्यों का तिरस्कार करके पाप में लिप्त हो जाए।'

माया की आंखों में आंसू आ गए। उसने रूंधे गले से कहा, 'तुमने मुझे समय रहते चेता दिया और अनर्थ होने से बचा लिया।'

रघुवीर को ज़िंदगी में पहली बार पता चला कि किसी को उससे प्यार है। हालांकि वह पूरी तरह अजनबी थी पर उसके लिए दुखी होती थी। वह उसके लिए गर्म खीर जैसी चीज बचाकर रखती थी और अपने हाथों को अपनी ठुड्डी पर रखकर उसका इंतजार करती थी। जब वह खाना खाता था, तब वह उसे ध्यान से देखती रहती थी‌। जब रघुवीर की नज़र उससे मिलती तो वह हंस पड़ती और यह देखकर वह भी हंस देता था।

रघुवीर के लिए यह एक ऐसी नई चीज़ थी कि वह इससे डर जाता था। उसे डर लगता था कि वह उसके काम पर असर डाल सकता था; जब वह माया के सामने होता, तब अपना सिर हिलाता और मुसकरा देता था। वह अक्सर अपने काम करने के दौरान या जब कभी बाहर जाता, तब उसके ही बारे में ही सोचता रहता कि माया कितनी अच्छी लड़की है।

माया रघुवीर से बातें करना चाहती थी और रघुवीर को उसकी बातें सुनना अच्छा लगता था।

अगले शनिवार को रघुवीर का पिता उसकी मज़दूरी लेने आया। ज़मीदार के कानों में यह खबर पड़ चुकी थी कि रघुवीर माया से शादी करना चाहता था। वह सोंच में पड़ गया कि शादी के बाद माया उसके किसी काम की न रहेगी?'

ज़मीदार ने रघुवीर के पिता को उसकी मज़दूरी दे दी‌।

बूढ़े ने उससे पूछा, 'मेरा लड़का कैसा काम कर रहा है।' ... 'मैंने तुमको पहले भी बताया कि वह बहुत आज्ञाकारी है।'

'यह सब तो ठीक है, पर उसके दिमाग में कुछ फितूर चल रहा है। वह हमारी बावर्चन से शादी करना चाहता है। मैं किसी शादीशुदा नौकर को अपने घर में नहीं रखता हूं। हम उन्हें अपने घर में नहीं रहने देंगे।'

बूढ़ा ज़ोर से बोला, 'ऐसा कौन सोच सकता है? केवल कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है। मगर आप चिंता मत करिए, मैं सब कुछ ठीक कर दूंगा।'

इतना कहकर वह अपने लड़के के पास पहुंचा और उसे देखते ही कहना शुरू कर दिया, 'मैंने सोचा था कि तुममें कुछ समझदारी है; पर तुम्हारे दिमाग में क्या चल रहा है?'

'कुछ भी नहीं।'

'कुछ नहीं कैसे?'। ये लोग बता रहे थे कि तुम शादी करना चाहते हो। याद रखो शादी तुम तब करोगे, जब समय आएगा और मैं तुम्हारे लिए एक अच्छी बीवी ढूंढूंगा न की यहां की बावर्चन लड़की। रघुवीर का पिता बोलता ही चला गया, जबकि वह उसे चुपचाप देख रहा था। जब उसके पिता ने बोलना बंद कर दिया, तो वह सिर्फ मुसकरा दिया और बोला, 'ठीक है, मैं उससे शादी नहीं करूंगा।'

'इसी को मैं समझदारी कहूंगा।'

जैसे ही रघुवीर को ख़ाली समय मिला उसने माया से यह सब कुछ बता दिया, जो उसके पिता ने उससेे कहा था।

'यह ठीक नहीं है ऐसा नहीं हो सकता है।'

'तुमने सुना था वह बहुत गुस्से में थे। वह इसे किसी भी कीमत का बर्दाश्त नहीं करेंगे।'

माया अपनी साड़ी में मुंह छिपाकर रोती रही।रघुवीर ने अपना सिर हिलाया और कहा, 'हम कर ही क्या सकते हैं? हमें जो कुछ कहा जाएगा वही करना है।'

देर रात को ज़मींदार ने माया को पान का बीड़ा लाने के बहाने बुलाया। उसने मना कर दिया। जमींदार उसे ज़बरदस्ती अपने कमरे की ओर खींचने लगा। माया अपनी सामर्थ्य भर प्रतिरोध कर रही थी। शोर शराबा सुनकर रघुवीर अपनी कोठरी से निकल आया और माया को बचाने लगा। गुस्से में जमींदार ने दीवार पर टंगी बंदूक उतारकर रघुवीर पर फायर कर दिया।

रघुवीर की सासें थमने लगीं। उसने माया से कहा, 'तुम बहुत अच्छी हो। कितना अच्छा हुआ कि उन्होंने हमारी शादी नहीं होने दी, वरना तुम्हारा क्या होता? इस हाल में होना अधिक अच्छा है।'

रघुवीर ने बहुत धीमे से बोला कि उसे प्यास लगी है। माया ने उसे अपने हाथ से पानी पिलाया। उनकी आंखों में 'अनोखा प्रेम' था। तभी उसके शरीर में एक अकड़न हुई और उसका शरीर निर्जीव हो गया।

उसके बाद अत्याचारी ज़मीदारों के विरुद्ध एक जन आंदोलन हुआ था‌। माया की गवाही पर ज़मींदार को फांसी की सज़ा हुई थी। आज भी वहां वीराने में एक समाधि है, जिसे लोग रघुवीर की समाधि कहते हैं। वहां कुंवारी लड़कियां फूल चढ़ाकंर अपने कौमार्य की रक्षा के लिए प्रार्थना करती देखी जाती है।

348 ए, फाईक एंक्लेव, फेज़ 2, पीलीभीत बाई पास, बरेली (उ प्र) 243006 मो : 9027982074 ई मेल wajidhusain963@gmail.com