पड़ाव Sharovan द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पड़ाव

पड़ाव

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उसने रोहित को अपने दिल का भगवान और अपना देवता समझते हुए यद्दपि उसकी पूजा की थी। जीवन के हरेक नये दिन में अपने पवित्र प्रेम की माला से उसकी आरती उतारी थी, तो रोहित ने उसके प्यार की तपस्या को चलती हुई राह का कोई सुन्दर फूल समझकर तोड़ भी लिया था।

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अचानक टैक्सी रूकी तो वेदना ने खिड़की का शीशा खिसकाकर जैसे ही बाहर झाँका तो तुरन्त ही जाड़े की बर्फ के समान ठन्डी-ठन्डी हवा उसके कोमल गालों पर सुईंयां सी चुभाने लगी। मगर फिर भी ठन्डी वायु की परवाह किये बगैर वह टैक्सी से शीघ्र ही उतरकर नीचे आ गई। जयपुर के बने हुये शनील के शाल को अपने बदन से अच्छी तरह से लपेटते हुये उसने एक उचटती सी दृष्टि उठाकर अपने सामने देखा। देखा तो देखते ही उसके दिल में एक हूक सी उठ कर रह गई। उसके दिल की तमाम धड़कनें अचानक ही एक स्थान पर थमकर जैसे तीव्रता के साथ फड़फड़ाने लगीं। पलकें कांप कर ही रह गई। फिर जब दिल में वर्षों से बसी हुई हूक सी उठकर बाहर आई तो दोनों होठ भी सिसक उठे। ज़रा सी देर में उसके दिल में बीते हुये दिनों की कोई टीस सी उठकर रह गई थी। उसकी जिन्दगी के पिछले सारे जिये हुये दिन उसके अतीत का कड़वा जिक्र बनकर उसकी आंखों में चित्रों के समान आने जाने लगे. . .’

उसने ध्यान किया तो याद आया कि वही शहर है। उसका जाना पहचाना टीकटपाड़ा। इस शहर में उसने अपने जीवन का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा व्यतीत किया था। आज से कई वर्ष पहले का। वही, बिल्कुल वही कालेज है। कालेज की वही लम्बी चौड़ी लाल ईंट की बनी हुई इमारत। कालेज का बिल्कुल वही अपनी सुन्दरता को बिखेरता हुआ सुन्दर गार्डन, अशोक के हरे-भरे वृक्षों से बनाई गई कालेज की चारदीवारी जैसी सुरक्षा की दीवार। सब कुछ तो वही है। वैसा ही, जैसा कि आज से कुछ वर्षों पहले हुआ करता था। विद्यार्थियों का शोर कल था। आज भी है। छात्र कल भी थे और आज भी हैं। परन्तु वे छात्र नहीं थे जो कि कल के बीते हुये दिनों में उसके साथ थे। सबके सब नये-नवीन चेहरे नज़र आते थे। आज समय के बदलते हुये दायरों में वेदना को हरेक चेहरा अजनबी सा प्रतीत होने लगा था। हरेक दृष्टि अपरिचित सी। कल के कालेज के दिनों में उसे हर कोई जानता और पहचानता था, मगर आज उसे कोई पहचान भी नहीं सकता था। फिर पहचान भी कैसे सकता था? जीवन के पन्दरह वषों का बीता हुआ समय कोई कम नहीं होता है। इतने समय में तो सृष्टि के भी नज़ारे बदल जाया करते हैं। पन्दरह वर्ष? पूरा, एक लम्बा, बीता हुआ अतीत का युग जैसा होता है। अपने कालेज के दिनों में जब वह भी एक हसीन और शोख़ छात्रा के रूप में जानी-पहचानी जाती थी। वह समय उसकी युवावस्था का एक ऐसा चमकता सूरज था कि तब कालेज का हरेक छात्र उससे दो टूक बात करने में अपना सौभाग्य समझा करता था। उसके रूप को पलभर के लिये देखने को तरस जाया करता था। ऐसा था उसका बदन और उसका रूप कि कालेज की हरेक दृष्टि उसे देखते ही ठिठक अवश्य जाया करती थी।

तब अपने कालेज के उन्हीं प्यारी-प्यारी धूप-छांव में एक विशेष चेहरा उसकी नज़रों के सामने आया था- रोहित उसका सहपाठी बनकर, उसकी नज़रों का द्वार खोलकर, उसके दिल के अन्दर समाता चला गया था। रोहित का सुन्दर व्यक्तित्व, उसकी सुन्दर लम्बाई तथा उसके बातें करने के अन्दाज ने ही वेदना का दिल पूरी तरह से जीत लिया था। वेदना उसके पास क्या आई कि आते ही बगैर कोई भी आगा-पीछा सोचे हुये उसके दिल में समाती चली गई। इसके साथ ही जब रोहित को वेदना का प्यार भरा सन्देश प्राप्त हुआ तो वह भी उसके जीवन में अपना अधिकार जमाता चला गया। पहले दोनों गहरे मित्र बने. बाद में उनकी मित्रता ने प्रेम का स्थान ले लिया। वेदना रोहित पर अपने सम्पूर्ण मन और आत्मा से मोहित हो गई। इस प्रकार कि वह रोहित को ही अपने जीवन का आधार मान बैठी। इसकदर कि उसे अपने जीवन का सारा कुछ,, अपना प्यार, अपना भविष्य और अपने भविष्य का सहारा भी।

प्यार के वे पहले-पहले फिसलन भरे रास्ते कि जिन पर हरेक युवा को अपने पग संभालकर रखने चाहिये। अपनी लज्जा और अपने मान-सम्मान के प्रति सजग बने रहना चाहिये। वेदना जानते हुये भी नहीं संभल पाई थी। उसने रोहित को अपने दिल का भगवान और अपना देवता समझते हुये यद्यपि उसकी पूजा की थी। जीवन के हरेक नये दिन में अपने पवित्र प्रेम की माला से उसकी आरती उतारी थी, तो रोहित ने उसके प्यार की तपस्या को चलती हुई राह का कोई सुन्दर फूल समझकर तोड़ भी लिया था। प्यार के भीषण तूफानों के अन्धे बहाव में भटककर वेदना ने रोहित को एक दिन अपना सब कुछ अर्पित कर दिया। अर्पित कर दिया, अपना दिल-दिमाग और अपना तन भी। वेदना ने अपने जीवन की वह कभी भी न भूलने वाली रात रोहित के साथ इसी कालेज की चारदीवारी के भीतर, जिस दिन अपने प्यार भरे दिनों में व्यतीत की थी, उसके बाद से फिर रोहित उसके जीवन में दुबारा लौट कर नहीं आया था। नहीं आया तो वेदना को ये समझते देर भी नहीं लगी कि रोहित अपने झूठे प्यार का वास्ता देकर उसका सारा कुछ लूटकर इस तरह से चलता बना है कि वह अपने इस लुटे हुये प्यार का, अपनी रोती हुई जिन्दगी में मात्र एक मज़मा लगाकर ही शान्त हो जाये तो यही उसके लिये बहुत होगा। फिर उसके पश्चात उसका पहला वाला रोहित तो लौटकर उसके जीवन में नहीं आया था, मगर न जाने कितने ही नये नये रोहित आये और चले भी गये थे . . .’

सोचते-सोचते वेदना के दिल में दर्द होने लगा। इस प्रकार कि आंखें स्वत ही छलक आईं। गला भर आया। उसने शाल से अपनी आंखों को पोंछा। एक बार टैक्सी की तरफ देखा। टैक्सी का ड्राइवर उसके दिल की दशा से बेखबर एक ओर खड़ा हुआ सिगरेट का धुंआ उड़ाने में जैसे व्यस्त सा हो गया था। उसे नहीं मालुम था कि उसकी टैक्सी में सफर करने वाली युवती वेदना इतनी सी देर में अपने अतीत के न जाने कितने ही कड़वे और कसीले दर्द भरे दिनों को दोहरा गई थी। वेदना चुपचाप आई और बहुत ख़ामोशी के साथ टैक्सी में आकर बैठ गई। बिल्कुल मौन, शान्त, मगर गमों का बगैर धुंयें का सुलगता हुआ अंगार बन कर ही।

ड्राइवर ने उसकी स्थिति को देखा तो एक संशय से पूछ लिया कि,

मेम साहब क्या ठहरना नहीं है यहाँ?’

नहीं। सीधे अब जमुनाघाट चलो।’

ड्राइवर ने चुपचाप टैक्सी चालू की और फिर आगे बढा़ दी। वेदना ने एक बार फिर टीकटपाड़ा की लाल ईंट की बनी हुई कालेज की उस विशाल इमारत को देखा, जिसकी हवाओं की महक में भटककर उसने अपनी जिन्दगी का एक दिन एक पड़ाव के रूप में गुज़ारा था। रोहित के साथ-साथ मिल-बैठकर, उसके गले लगते हुये अपने जीवन के सुनहरे सपने देखे थे। मगर आज उसके प्यार के वही सपने उसके अतीत की भूल के छींटे बन कर उसके अंग-अंग से चिपक गये थे। अपनी जीवन की इस भूल के कारण उसके जीवन की एक बहुत बहुमूल्य वस्तु भी छिन चुकी थी। छिन गया था, उसके जीवन का बसेरा समान उसका ठिकाना। उसका सहारा और उसकी मंजिल भी। तब से अपनी मंजिल की तलाश में भटकती और तरसती हुई उसकी जिन्दगी केवल पड़ाव में ही बस कर रह गई थी। छोटे-छोटे ठिकाने। मात्र पड़ाव। केवल एक रात भर के ही।

समाप्त.