नीलम कुलश्रेष्ठ
[ किसी भी व्यक्ति के लिए विवाह बंधन ज़रूरी है लेकिन हमारे समाज की पारम्परिक मानसिकता, लालच, ईर्ष्या के कारण स्त्रियां सहज रूप से जी नहीं पातीं हैं. उन्हें अक्सर तरह तरह के उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। वे अवसाद में चली जातीं हैं या जीवन से उन्हें वितृष्णा हो जाती है, यहाँ तक कि वे आत्महत्या भी कर लेतीं हैं।सबसे बड़ा उदाहरण है कि आज की अपने पैरों पर खड़ी कुछ लड़कियां अपने घर में माँ, दादी का जीवन देखकर शादी ही नहीं करना चाहतीं। आज के ग्लैमरस युग में स्थितियां कुछ तो बदलीं हैं लेकिन किसी ग्लेमर गर्ल या लेडी के पास एकान्त में बैठकर देखिये। अक्सर जो सुनने को मिलेगा वह आपको स्तब्ध कर जाएगा। पति पत्नी के रिश्ते को आज के युग में आज नए नज़रिये से देखने की आवश्यकता है, इसीलिये मैंने ये लेख लिखा था ]
शायद शीर्षक पढ़कर आप चौंक गई होंगी। एक लंबे अरसे से हम सब विपरीत बात सुनती आ रही हैं। हिंदू धर्म में पति-पत्नी को एक दूसरे का अभिन्न अंग माना गया है। प्राचीन समय में विवाह से पहले लड़का-लड़की एक दूसरे को देख भी नहीं पाते थे। इस लिये विवाह वेदी पर संस्कारों की नींव डाल दी जाती थी कि पति-पत्नी दो शरीर एक प्राण हैं, जबकि शीर्षक के अनुसार ऐसा नहीं है ।विवाह के समय धार्मिक अनुष्ठानों में श्लोकों द्वारा यह बात इसीलिये कही जाती है क्योंकि दो अनजाने परिवारों के दो अनजाने व्यक्तियों को एकसाथ गृहस्थ बनकर रहना है। इस भावना से वे मानसिक रूप से एक-दूसरे को स्वीकार कर लें और यह भी समझ लें कि जिसके साथ जीवन बीताना है वह अपने ही शरीर का हिस्सा है।
यदि देखा जाये तो यह बहुत सुंदर भावना है। स्त्री व पुरुष दोनों को अपना शरीर, मन, शक्ति एक दूसरे के लिये उत्सर्ग करने होते हैं तब कहीं जाकर घर बनता है, एक अच्छे परिवार की नींव रखी जाती है। हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई कोई भी धर्म हो, सभी में धर्मगुरु विवाह को एक धार्मिक अनुष्ठान की तरह संपन्न कराते हैं।
वैवाहिक जीवन का आरंभ इस रूपहली भ्राँति के साथ होता है कि जिस व्यक्ति के साथ हमारा जीवन आरंभ हो रहा है वह भी हमारा हिस्सा है। नये वैवाहिक सुख कुछ महीनों में ऐसे उड़ जाते हैं, मानो समय को पंख लगे हुए थे। उसके बाद जैसे-जैसे मानवीय प्रवृत्तियाँ अपने यथार्थ रूप में सामने आने लगती हैं तो रूपहली भ्राँति का पर्दा हटने लगता है।
प्रायः पति पत्नी को उनकी इच्छाओं की पूर्ति करने वाली इकाई मानते हैं। अधिकतर स्त्रियों के जीवन में ऐसा होता है। सारे पति खुद को जरा उच्चस्तर का मानकर ही व्यवहार करते हैं। विवाह से पहले स्त्री-पुरुष दोनों की कल्पनाएं फिल्मी अंदाज लिये होती हैं लेकिन आगे चलकर मोहभंग होने पर मानसिक कष्ट बढ़ने लगता है। मैंने कश्मीर में एक दंपती को देखा था। वे आज भी याद आते हैं। पत्नी चाह रही थी कि हनीमून का समय है तो पति उसके साथ रोमांटिक फोटो खिंचवाये। पति संयुक्त परिवार में पले हुए थे इसलिये पत्नी के हाथ लगाते ही यह कहकर, “अरे भई! यह क्या कर रही हो,” बिदक जाते थे। वे दोनों हमारे साथ ही घूम रहे थे । पत्नी की आँखों में उसके अपने सपने थे। उसने तो फिल्मों में देखा था कि हीरो कभी बर्फ का गोला बनाकर हीरोइन पर फेंक रहा है तो कभी उसे गोदी में उठाकर बर्फ पर भाग रहा है।
कभी भी दो-तीन परिवार इकट्ठे होते हैं तो स्त्रियाँ अपने पतियों की आदतों का रोना रोने लगती हैं। पतियों की भी उनसे शिकायत होती है। उनकी कुछ आदतों से वे भी चिढ़ते हैं लेकिन चूँकि पत्नी अपना घर छोड़कर उसके घर आई है इसलिये मनोवैज्ञानिक रूप से वह अपने को कम सुदृढ़ स्थिति में महसूस करती है। इस बीच पति-पत्नी दोनों ही रूपहली भ्राँति से निकलकर यथार्थ की भूमि पर आ चुके होते हैं। पत्नियाँ मौका मिलते ही उनकी कमियों का बखान करते हुए उन्हें कोसती हैं। एक दूसरे से शह पाकर वे अक्सर कुछ न कुछ कह जाते हैं। उनके मन में यही ग्रंथि होती है कि 'एक प्राण ' वाली बात कितनी गलत सिद्ध हो रही है।
समाज में प्रायः ऐसा देखने में आता है कि अधिकतर भिन्न व्यक्तित्व वाले स्त्री-पुरुष ही वैवाहिक बंधन में बँधते हैं। शायद आपने इस ओर गौर किया हो कि हर पति-पत्नी में से एक बहुत व्यवहार कुशल होता है, जो घर चलाने की, सामाजिक व्यवहार की चिंता करता है, बच्चों की तरफ अधिक ध्यान देता है जबकि दूसरा इन बातों से बेफिक्र होता है...एक को संगीत का शौक है तो दूसरे को पढ़ने का। एक को भजन पसंद होते हैं तो दूसरे को पोप संगीत, एक को घूमने का शौक है तो दूसरे को घर में ही आराम करने का ।
दो बहिनों में एक फैशनेबल है और दूसरी सादगीपसंद तो होता यह है कि फैशनेबल बहिन को सादगीपसंद पति मिल जाता है। वह जो भी पोशाक पहने उसके पति को उससे कोई मतलब नहीं होता। दूसरी को इतने शौकीन पति महोदय मिलते हैं कि वह चाहते हैं कि उनकी बीवी हर समय बनी-ठनी रहे लेकिन बीवी है कि सादा लिबास ही पसंद करती है।
नीता घूमने-फिरने की शौकीन थी जबकि पति को यह पसंद नहीं था कि सारा समय घूमने में बिताये। एक दिन नीता ने अपनी सहेली से शिकायत की, “यह कहीं भी घुमाने नहीं ले जाते। पता नहीं पैसे जोड़कर क्या करेंगे?”
सहेली ने भी निश्वास छोड़ते हुए कहा, “घूमने का तो इन्हें भी बिल्कुल शौक नहीं है । बस, ऑफ़िस से आकर सीधे टीवी देखने बैठ जाएंगे, उन्हें वहीं पर चाय चाहिए और वहीँ पर खाना।”
नीता ने कहा, “लेकिन तुम्हारे पास तो कार भी है ?”
सहेली ने मुँह बिचका कर कहा, “कार किस काम की, जब इन्हें घूमने का शौक ही नहीं है।”
यह सुनकर नीता को जो अब तक सहेली की कार से रश्क करती थी, थोड़ी ठंडक महसूस हुई पर अपने-अपने पति का एक-दूसरे से व्यवहार जानकर दोनों ही हैरान थीँ।
दरअसल आम जीवन में पति-पत्नी का व्यवहार बड़ा अजीबो-गरीब होता है। अधिकतर जो बात एक कहेगा, दूसरा उसका विरोध करेगा। दोनों ही अपना 'पतिपना ' व 'पत्नीपना ' दिखाने से बाज़ नहीं आते। कभी दोनों को ऐसी हास्यास्पद स्थितियों का सामना करना पड़ता है कि नोकझोंक के बाद अंत में पता लगता है कि वे दोनों एक ही बात कह रहे थे फिर भी लड़ रहे थे। दोनों एक प्राण बनने की कितनी भी कोशिश कर लें लेकिन भागेंगे विपरीत दिशा में।
कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि इस हिसाब से तो प्रकृति का यह नियम कि सामाजिक व्यवस्था सुव्यवस्थित चले, बिलकुल ठीक लगता है क्योंकि जब विपरीत गुणों वाले दो व्यक्ति एकसाथ रहेंगे तो परिवार में पलने वाले बच्चों पर उनके अलग-अलग गुणों का कुछ न कुछ तो प्रभाव पड़ेगा ही । शायद यही है समान रूप से गुणों को विपरीत करने की प्रकृति की व्यवस्था। हालांकि अधिकतर पति-पत्नियों को इसी व्यवस्था से सबसे अधिक तकलीफ़ पहुँचती है लेकिन जैसे-जैसे विवाह के बाद समय बीतता जाता है, दोनों ही अपने साथी की विपरीत आदतों को सहन करने के आदी हो जाते हैं। दोनों ही एक दूसरे को सुधारने का प्रयास भी करते हैं। कुछ सुधार होता भी है लेकिन कुछ आदतें दोनों में ज्यों की त्यों बनी रहती हैं। फिर भी लंबे अरसे तक साथ रहते- रहते, एक दूसरे के स्वभाव को सहन करने लगते हैं। इसीलिये दोनों में विवाह के बंधन में बँधते समय और विवाह के बाद भी यदि दो शरीर दो प्राण वाली धारणा दिमाग में रहे तो जीवन के उलझाव कम हो सकते हैं । एक विद्वान के अनुसार 1 लाख जोड़ों में से एक जोड़ा ऐसा होता है, जो 'मेड टू इच अदर' होता है यानि दो शरीर एक प्राण होता है । जरा सोचिए इसके विपरीत, यदि लाखों दंपती दो शरीर एक प्राण होते और दो में से एक मृत्यु की एक प्राण हुए दो शरीर मिट जाते, तब क्या पारिवारिक, सामाजिक ढाँचा चरमरा नहीं जाता?
इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि लगभग सभी पति-पत्नियों को अपने साथी के अनुरूप कुछ तो ढलना होता है । भारतीय परिवेश के अनुसार यह साथ जीवन भर का होता है। तब आप इस भ्रम के टूटने पर उदास और दुःखी क्यों रहें कि आपका तथाकथित प्रिय आपसे बहुत अलग तरह का है ? मज़े के बात ये है कि बाहरवाले पति पत्नी को जिस युग्म के रूप में देखते है,उतने ही वे अंदर से अलग होते हैं।
आप शादी का एक यथार्थपरक अर्थ खोजें या गढ़ें, स्त्री व पुरुष को एक घर बसाकर इस समाज में संतान उत्पन्न करके उसकी परवरिश करनी होती है। इस व्यवस्था से दोनों की ही शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक जरूरतें सुरक्षात्मक और सुव्यवस्थित रूप से पूरी होती हैं। इसलिये अच्छा यही होगा कि हम अपना खूबसूरत भ्रम तोड़कर इन्हीं भावनाओं के साथ वैवाहिक जीवन आरंभ करें । यही अधिक सहज और स्वाभाविक होगा।
एक बार हमारे यहाँ पारिवारिक मित्र बैठे थे। दूरदर्शन की प्रौढ़ उद्घोषिका को देखकर झुंझलाए, “टीवी पर 30 वर्ष से बड़ी एनाऊंसर नहीं आनी चाहिए।”
क्या उनका यह कथन हमारे पुरुष समाज की मानसिकता को नहीं दर्शाता ? मेरे मुँह से अकस्मात निकला, “अच्छा हुआ जो विवाह पद्धति बनाकर पुरुष पर अंकुश लगा दिया गया वरना पुरुष स्त्री को तीस से ऊपर होते ही घर से बाहर कर देता ।”
हम रे देश में हाल ही में युवक-युवतियों के एकसाथ रहने के उदाहरण देखने में आये हैं, विशेषकर महानगरों में। लड़का और लड़की बिना विवाह के साथ-साथ रहने लगते हैं लेकिन यह स्थिति उन्हें सामाजिक सुरक्षा नहीं दे सकती। कमियाँ तो हर इंसान में होती हैं । एक दूसरे में कमियों के होते ही एक दूसरे से अलगाव बढ़ने लगता है और लड़का लड़की से ऊबकर उससे पल्ला छुड़ाकर भाग जाता है।कभी लड़की उसे जीवन से बाहर कर देती है।
गुजरात में कुछ वर्ष पूर्व 'फ्रैडशिप कांट्रेक्ट” '(मैत्री करार) फैशन में आय़ा था। इस व्यवस्था में 50 रुपये के स्टैंप पेपर पर यह करारनामा लिखा जाता था कि वह स्त्री-पुरुष के साथ केवल मित्र की तरह रह रही है। जब स्त्री एक पुरुष के साथ रहती है तो उनके बीच शारीरिक संबंध स्थापित होने की संभावना ही नहीं भावावेश में मर्यादा का उल्लंघन होने पर संतानोत्पत्ति के भी पूरे अवसर होते हैं । “मैत्री करार” के फलस्वरूप कुछ बच्चे भी पैदा हुए लेकिन उन आधुनिक स्त्रियों की आँखे तब खुलीं, तब उनके प्यार की निशानी बच्चे नाजायज करार दिये गये। पुरुष की संपत्ति पर न इन स्त्रियों का और न ही बच्चों का कोई हक था। इन्हीं सामाजिक समस्याओं के कारण मैत्री करार पर प्रतिबंध लगा दिया गया । विलासी पुरुषों ने दूसरा रास्ता खोजा “सेवा करार” का । इस करार में स्टैंप पेपर पर यह लिखा जाता था कि अमुक स्त्री सेविका की तरह अमुक पुरुष के पास रह रही है लेकिन “मैत्री करार” के परिणामों से अवगत गुजरात की स्त्रियाँ इस नये जाल में नहीं फँसीं।
बीच में बहुत जोर की बहसें हुईं कि विवाह से पूर्व स्त्री-पुरुष के एक साथ रहने की नई व्यवस्था क्या हो ? धूर्त लोग नित नये शब्दजाल बनाते रहे कुछ ने कहा विवाह व्यवस्था एक्सपायर्ड हो गई है,लेकिन हर वर्ष हजारों लाखों जोड़े ब्याहे जाते रहे। विवाह एक स्त्री पुरुष का रोमांटिक संबंध ही नहीं है क्योंकि रोमांस का नशा जल्दी उत्तर जाता है। ये व्यवस्था अपनी आगामी पीढ़ी को जीवन व समाज में स्वस्थ तरीके से जीने केलिए तैयार करने के लिए सर्वोत्तम है। एक परिवार के लिए स्त्री पुरुष को बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ती है बहुत कुछ सहना पड़ता है।
यदि विवाह व्यवस्था ही स्त्री-पुरुष के साथ रहने की सर्वोत्तम व्यवस्था है तो क्यों न इसे विवाह से संबंधित दकियानूसी रीति-रिवाजों और सड़ीगली व हास्यास्पद परंपराओं से निकाल कर नया स्वस्थ रूप प्रदान किया जाये ? भारत की उच्च, मध्यम व निम्न वर्ग में वही परिवार सुखी होता है, जिसमें आपसी समझ हो, आपसी प्रगाढ़ संबंध हो व एक दूसरे के साथ तालमेल बैठाने की क्षमता हो।
पुरुष बाहरी दुनियाँ से लड़भिड़ कर अपना जीवन गुजार सकता है। हालाँकि संतुष्ट तो वह भी नहीं रहेगा लेकिन एक कामकाजी अविवाहित स्त्री का जीवन बहुत संघर्षमय होता है। एक छोटे शहर की प्राचार्या के शब्दों में,''मेरा सारा जीवन संघर्ष में ही गुजरा, स्कूल के एक ट्रस्टी व शिक्षा बोर्ड के एक सदस्य मेरे रास्ते में रुकावटें ही डालते रहे क्योंकि उनके लिए मैं अकेली स्त्री थी।”
स्त्रियों ने ‘वूमन्स लिबर्टी’ के नाम पर कदम तो उठाया लेकिन यह कदम आगे नहीं बढ़ा। दुनियाँ की दो विपरीत अपूर्ण इकाइयाँ स्त्री-पुरुष हैं, जिन्हें प्राकृतिक संरचना के कारण पूर्णता प्राप्त करने के लिये एक-दूसरे की जरूरत होती है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, तब भला एक की दूसरे से कैसी मुक्ति?
बात घूमफिर कर विवाह व्यवस्था पर ही आ जाती है, जिसमें स्त्री को अपने आप को अधिक बदलना होता है। संयुक्त परिवार अथवा अपनी ही गृहस्थी में सामंजस्य बनाये रखना, आपसी झगड़ों को सुलझाना, आर्थिक संतुलन कायम करना और रिश्तेदारी निभाना, बच्चों की परवरिश, कभी-कभी पर पुरुष या पर स्त्री की ओर आकर्षित होने की समस्या से जूझना आदि वैवाहिक जीवन की आम बातें हैं । इन सब से निबटते हुए, विवाह व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाते हुए इसके प्रति समर्पित हो जाना होता है। भारतीय परिवेश में विवाह का कुछ ऐसा ही स्वरूप है। दोनों को हार मानकर सोचना ही पड़ता है कि वे एक-दूसरे से विरोधी बात इसलिये कर रहे हैं क्योंकि उनका अपना निजी व्यक्तित्व है, अपनी पसंद है।
सच पूछा जाये तो गृहस्थी में ऐसे मतभेद पति-पत्नी में आये दिन होते रहते हैं लेकिन इसे खराब लक्षण नहीं कहा जा सकता क्योंकि मान लिजीये यदि पति आप की हर बात को स्वीकार करके हाँ में हाँ मिलाएंगे तो लोगों की नज़र में आप के पति पत्नी के गुलाम भी हो सकते हैं और शायद इसे आप भी अच्छा न समझें। ऐसी स्थिति में विचारों के स्तर पर भेद को सहन करना सीख लेना ज्यादा अच्छा होगा। हाँ, इन स्थितियों के आधार पर यह तो कहा ही जा सकता है कि पति-पत्नी ‘दो शरीर एक प्राण’ नहीं बल्कि ‘दो शरीर दो प्राण’ ही होते हैं।
नीलम कुलश्रेष्ठ
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