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प्यार….. इस शहर में

प्यार….. इस शहर में

प्रिय यशी

हाय !

कैसी हो ?

हम लोग मेल से, मोबाइल से व वॉट्स एप से कितनी बातें करते रहते थे और हमारे बीच लंबा मौन बिछ गया. मैं जानती हूँ कि तुम मुझसे बहुत बहुत नाराज़ होगी और अचानक ये रजिस्टर्ड पत्र देखकर बहुत चौंक जाओगी और एक बात से और भी नाराज होगी कि हम संपर्क में नहीं थे इसलिए टीवी स्टार प्रत्युशा बनर्जी की आत्महत्या पर साथ साथ दुखी ना हो सके. ना छत के कोने में बैठकर अटकलें लगा सके कि उसने क्यों आत्महत्या की जबकि उसके बैंक में पिचत्तर लाख रुपया जमा थे. ये बात सही है उसका दोस्त बदमाश था तो उसे छोड़कर उसने जीने की हिम्मत क्यों नहीं की ? या सीरियल्स में काम नहीं मिल रहा था तो इतने पैसे से वह भूखी नहीं मरती या वह भी अपने दोस्त की सहायता से `इज़ी मनी `के पीछे भागती लड़की थी ? जैसा कि अकसर होता है ऎसे दोस्त लड़की को काबू में रखने के लिये ग्राहकों के साथ उसकी सी डी बना लेते हैं, वह भी छिपकर. जब वे दूसरी लड़की के पीछॆ भागते है तो लड़की को आत्महत्या ही एक रास्ता नजर आता है.. मुझे पता है कि मैं तुम्हारे सामने होती तो तुम चिल्लाती ---यू चीप मुहल्ला वाली लेडीज़ की तरह बात कर रही हो --किसी लड़की की ज़रा ख़राब बात हुई नहीं कि सब अफ़वाहें उड़ानें लगते हैं. और मै अपने इस अभिमत पर अड़ी रहती कि कोई बहुत बड़ा कारण तो होगा जो प्रत्यूशा ने अपने क्रेडिट कार्ड्स वगैरहा रोहन को दे रक्खे थे. इक्कीसवीं सदी की हाउस वाइव्स तक इतनी होशियार हो गई है कि अपने पति तक को अपने क्रेडिट कार्ड्स या ए टी एम कार्ड्स नहीं देती. हाँ ---अगर मौका मिलें तो उनके ज़रूर कब्ज़े में लेकर घर भर की शॉपिंग कर डालती हैं.

प्यार---शादी ---लिव-इन रिलेशनशिप--मुझे इन नामों के लिए बहुत हंसी आती है. सब कहते हैं लड़कियों को लिव-इन में रहने की क्या ज़रूरत है? मै उनसे पूछना चाहती हू कि जो प्यार में समर्पित होकर जो शादी करती है उनके साथ भी लड़के क्या करते हैं? उनके घर वाले क्या करते हैं ? जानना चाहोगी ? तुम सोच रही होगी कि मै अपने प्यार की कहनी सुनाकर तुम्हे बोर करना चाहती हूँ जो किसी घटिया फ़िल्म की तरह है. न---न--न ये मत समझना कि मै अपने घाव दिखाकर तुमे सहानुभूति चाहती हूँ. अब तक मेरी शादी को एक वर्ष हो चुका है.

तुम मेरी प्यारी सहेली हो. याद है न बचपन में भी हम अपने अनुभव बाँटा करते थे. देखो !जो मेरे साथ हुआ वह सबके साथ हो ये जरूरी नहीं है, आजकल के अरिजित सिंह व अंकित तिवारी और भी गायकों के प्रेम पगे गीतो को सुनकर कैसा दिल धड़ ----धड़ ---धड़क उठता है. काश ! प्यार का रुहानी सफ़र ऎसा ही होता. तुम मेरी तरह उम्र की नाज़ुक डगर से गुजर रही हो इसलिए जरूरी है कि जो मेरे साथ हुआ वह तुम जानो. तुम जानो अपने समाज में अबलाओ को सहायता करने वाली संस्थाये, ओहदेदार पुलिस अफ़सर, इन्सपेक्टर व पत्रकार है जो नागरिकों की सहायता के लिए मोटी तनख्वाह पाते है . इन सबकी सच्चाई क्या है ? जानना चाहोगी ? हाँ, सभी ऎसे नहीं होते, कुछ अपवाद तो होते ही हैं जिनसे ये दुनियाँ कायम हैं. मै अपनी कहानी, एक कहानी की तरह लिखकर भेज रही हूँ जिससे तुम उस दर्द को समझ सको जो मैंने झेला है. तुम्हे तो याद होगा कि मै कॉलेज पत्रिका में कहानी लिखा करती थी.

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-----”ऊं -----ऊं ----आ----” लगा कोई फिर कराहा. आवाज़ किसी कंदरा से आती प्रतीत हो रही है.

"ऊं -----ऊं----"इस बार की कराह स्पष्ट है. अरे ! ये मै हूँ. मेरे मुँह से ही आवाज़ निकली थी. दिमाग की ताकत इक्कठ्ठी करती हूँ ---मुझे क्या हो गया है ? लगता है कोई विचार---- कोई सोच पकड़ में नहीं आ रहा. बड़ी मुश्किल से आँखें खोलने की कोशिश करती हू. मम्मी का उतरा हुआ चेहरा दिखाई दे रहा है, "मिनिमा बेटी कैसी है ?"

उत्तर देने से पहले मेरी आँखें भिंच गई हैं. मन किन्ही गहरी घाटियों में डूब गया है. बस एक एहसास मन मे जागता है कि मै अपनी माँ के घर हूँ. माँ ने ही बताया था कि मै दो दिन से होश व बेहोशी की परतों केबीच झूलती रही हूँ. खाने पीने के नाम पर मैंने दो गिलास दूध व चम्मच से ग्ल्युकोज़ ही लिया है. मुझे दवाईयाँ पानी में घोलकर दी गई है क्योंकि इतनी ताकत ही नहीं बची थी कि मै उन्हें निगल सकूँ. तीसरे दिन मै बहुत मुश्किल से उठकर बैठ सकी थी.. मेरा पीला ज़र्द चेहरा देखकर मम्मी रो पड़ी थी, "दुष्टों ने ना जाने क्या खिला दिया है ? "

मैंने अपनी कमजोर आवाज़ में पूछा, "मै यहाँ आई कैसे ? "

"तुझे रवि के जीजा व उसका दोस्त कार में डालकर यहाँ पटक गए थे. उस दरिन्दे रवि का कोई पता नहीं है. "

ऎसा लगा कि मेरा सिर, तन, मन `इस आघात से घूम गया है और मै फिर बेहोश हो गई. कुछ दिन और लगे संभलने में. उन दिनों मुझे लगता था कि मै किसी और लड़की के जीवन के द्रश्य देख रही हू -----वह भी टुकड़ों टुकड़ों में.

कभी रवि का मुस्कराते हुए मेरी तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाना, पहले प्यार की सिहरन सें सिहरते, सकुचाते हुए मेरा उस हाथ को थाम लेना. मम्मी का रवि की कार से दब जाना. उसका हर तीसरे चौथे दिन आने को अनदेखा करना. पापा का घर से बाहर निकल जाना, एक व्यापारी मुस्कान के साथ कि अगर थोड़ी सी छूट देने से एक अमीर लड़का फँस रहा है तो बुराई क्या है ? मै जानती हूँ तुम्हारे मम्मी पापा ऐसी व्यापारी सोच के नहीं हैं. फिर मेरी व रवि की घर से भागकर न्यायालय में शादी. शादी के एक महीने बाद ही उसके घरवालों का मुझे मेरे घर पटक जाना. न--न-- ये मत समझना कि मैंने कुछ गुजराती लड़कियों की तरह `खुराकी "[गुज़र बसर के पैसे के लिये ]के लिए रवि को फँसाया था. मैंने तो उससे सच्चा प्यार किया था. मेरे बीस बरस के मन पर एक एक घटना ताज़े नाखून के घाव जैसी बसी है---वो भी जब मुझे ज़िन्दगी एक झिलमिलाते तारे जैसी लग रही थी.

मेरी हालत देखकर पड़ौस की तन्वी बेन मुझे एक समाज सेविका सावित्री बेन के पास ले गईं थीं. उनका शांत, सौम्य व ऊँचा व्यक्तितव देखकर मेरा आधा दुःख दूर् हो गया था. उनके कमरे की हर चीज सफ़ेद थी. बहुत शांति के साथ उन्होंने मेरी कहानी सुनी थी. मै उन्हें अपनी कहानी क्या सुना रही थी --रो रही थी.

पूरी बात सुनने के बाद उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ फेरा था, "मत रो बेटी ! मत रो. हम तुम्हारा हक दिलवा कर रहेंगे. म ज़ाक समझ रक्खा है कि शादी करके एक महीने बाद ही पलट जाओ. लड़के के पिता किस चीज़ का व्यापार करते हैं ? "

" उनकी सॉफ़्ट वेयर की दो कंपनीज हैं. "

" कहीं तुम बृजमोहन पटेल की बात तो नहीं कर रही जिनका एक ही बेटा है रवि. "

"हाँ ---हाँ ---वही रवि. "

" ओ-----. "सावित्री बहिन की आँखें चमक उठी थी, "बीना बेटी !ऎसे आदमी को छोड़ना नहीं चाहिये. तुमने हमारी संस्था की ताकत नहीं देखी है. अब तू चिन्ता छोड़ दे. "

"क्या आप लड़के. से मिलना चाहेंगी ? "तन्वी दीदी ने पूछा था. वह किसी संस्था से नहीं जुड़ी थी, समय समय पर किसी केस में सहायता कर देती थी.

" ज़रूर, तन्वी बेन! कल तुम सुबह नौ बजे मेरे साथ रवि के घर चलना. ये समय ऎसा होता है जब घर के मर्द घर में होते हैं. "

मैं आश्चर्यचकित थी कि मेरे जैसी मामूली परिवार की लड़की के लिए इतनी बड़ी संस्था की स्वामिनी इतनी तत्परता दिखा रही है. मै भावावेग में रो पड़ी. वह् मेरे सिर पर हाथ रखकर बोली, "अब क्यो रो रही है. हम यहां बैठे हैं इसलिए समाज में गन्दगी ना बढ़े. `

मेरी वह रात बहुत बेचैनी में कटी. इतनी आसान होगी मेरी लड़ाई, मै सोच नहीं पा रही थी. दिन में मैं ग्यारह बजे से मै तन्वी बेन के घर के चक्कर लगा रही थी. एक बजे वो लौटी थीं. उनका चेहरा उतरा हुआ था. मैंने उत्सुकता से उनकी ओर देखा. वह अपना शरीर कुर्सी पर छोड़ते हुए बोलीं, "मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रही है. पहले एक गिलास पानी पिला. "

मैंने उन्हें पानी देते हुए सहमते हुए पूछा था, "कैसी गड़बड़ ? "

"पहले सावित्री बेन ने तुम्हारी बात शुरू की. उन सबको बहुत ज़लील किया फिर उन्होंने धमकी दी कि उनका बेटा पत्रकार है. अपने अखबार मे उनके खिलाफ़ लिखेगा. उनकी संस्था की औरते उनका घेराव करेंगी. "

"वे तो एकदम डर गये होंगे ? "

"नहीं, रवि के दादा जी ने भी दुनिया देखी हुई है. बाद में वे शांत भाव से उनकी भावी योजनाओं के विषय में पूछते रहे. उन्होंने ये भी पूछा सावित्री बेन जो दुखी स्त्रियों केलिये आश्रम बनाना चाहतीं हैं उसमें कितना रुपया खर्च होगा. "

"फिर ? "

"फिर क्या ? कल दादा जी उनसे उनकी संस्था के ऑफ़िस में उनसे मिलने जायेंगे. "

"संस्था का रौब देखकर तो वे मान ही जायेंगे. "मै बच्चों की तरह ख़ुश होकर बोली.

"तू इन बातों को नहीं समझती. मैं ये नहीं कर रही सभी स्त्री संस्थायें चोर हैं लेकिन सावित्री बेन जैसी औरते जहाँ देखती हैं जिनके विरुद्ध शिकायत की गई है, वह गरीब हैं तो उसका घेराव करके फ़ोटो खिंचवाकर वाहवाही लूट लेती हैं. लड़की भी ख़ुशी ख़ुशी ससुराल पहुंच जाती है. लोग अखबारों में इनकी फ़ोटो देखकर प्रभावित हो जाते हैं. जहां ये देखती हैं कि विरोधी पक्ष पैसेवाला है, बस उससे पैसा खींच अपनी संस्था मज़बूत बनाती चली जाती हैं. "

मुझे लगा कि मेरा सिर घूम रहा है, एक घुटन छाती में से उठती गले तक आ रही है. अब यहाँ से मेरे संघर्ष की कहानी शहर के बीच बनी बुलंद इमारत तक पहुँच गई है. तन्वी बेन ने बताया हैं ये शहर, ये प्रदेश कोई भी हो सकते हैं, कोई फ़र्क नहीं है प्रादेशिक सरकार की इन इमारतों में बैठने वालों में. अपने ऑफ़िस में सहायता माँगने आने वाली हर व्यक्ति की तरफ वे गिद्ध दृष्टि गढ़ा देते हैं कि उसकी मजबूरी का वे किस तरह फ़ायदा उठा सकते हैं. उसके जेबें कितनी खाली कर सकते हैं.

मेरे केस को लेकर तन्वी बेन समाज कल्याण विभाग में गई थी. उसके अधिकारी ने शान्ति से मेरा केस सुना व अपने सहायक को बुलाकर कहा कि कल पुलिस कमिश्नर से मिलने का समय ले लें. कल हम इन्हें

लेकर उनके पास जायेंगे. शहर की इतनी बड़ी हस्ती मेरा केस देखेंगी ? मैं झूम उठी थी.

दूसरे दिन समाज कल्याण विभाग के दो अफ़सर, दो विभाग की समाज सेविकायें, तन्वी बेन, मै व मेरी मम्मी उनके ऑफ़िस की मेज़ के सामने रक्खी कुर्सियों पर बैठे हुए थे. मैं उन्हें शुरू से लेकर अब तक की अपनी कहानी सुनाने लगी.

फिर कमिश्नर ने पूछ्ताछ आरंभ की, "जब उस लड़के के घरवाले तुम्हे तुम्हारे घर पटक गए थे उसके बाद भी तुम उस लड़के से मिल रही हो ? "

"हाँ, उसे समझाने में उससे दो तीन बार गार्डन में मिली थी . "

"तब उसने क्या तुम्हे छुआ था ? किस-विस किया ? तुम्हारी छाती पर हाथ फेरा था ? "

मैं सन्न रह गई, अपने लाल पड़े चेहरे से मुझे लग रहा था कि मैं ज़मीन में जा समाऊ. मेरा हलक सूखने लगा, एक परेशान लड़की से इतना अश्लील प्रश्न क्यो पूछा जा रहा है ? मम्मी का चेहरा क्रोधित हो उठा था. मेरे झुक गए चेहरे को देख उन्होंने बात बदल दी.

उन्होंने हमारे साथ गए अधिकारियों से कहा, "आप दोनों पक्षों को बुलाइये व समझाइये, फिर जैसा हो उसकी रिपोर्ट मुझे देते रहिये. "

उनके ऑफ़िस से निकलते ही एक अधिकारी ने मुझे सलाह दी, "कल से हम बातचीत शुरू कर देंगे लेकिन तुम कोर्ट में भी केस दाखिल कर दो. "

मैं तमक कर बोली "यदि कोर्ट में जाने की हिम्मत व रुपये होते तो हम लोग आपके पास क्यों आते ? "

"जहाँ तक होगा हम मामला सुलझा ही देंगे वर्ना कोर्ट तो है ही. "

ऑटो में बैठते ही तन्वी बड़बड़ाने लगी, "आजकल कोई काम नहीं करना चाहता. अभी तेरी ससुराल वालों को बुलाकर बात भी नहीं की और तुझे राय दे रहे हैं कोर्ट में केस कर दे. "

"आप इतनी नाराज़ क्यो हो रही हैं ? जब कमिश्नर साहब इस केस में रूचि ले रहे हैं तो ज़रूर कुछ होगा. "

"कहे देती हूँ कि बहुत उम्मीद लगाकर नहीं बैठना. दस साल से मेरे देखते देखते पैसे की ताकत बहुत बढ़ गई है, मैं ये तो नहीं कह रही इससे सभी कुछ ख़रीदा जा सकता है लेकिन बहुत कुछ ख़रीदा जा सकता है.

समाज कल्याण विभाग दोनों पक्षों को पत्र लिखकर बुलाने लगा . मै व मम्मी या तन्वी बेन के साथ सही समय पर पहुंच जाती. हम लोग कमरे के बाहर तीन चार घंटे इंतज़ार ही करते रह जाते, वो लोग नहीं आते. मम्मी बड़बड़ाती, "पैसे वालों से टक्कर लेने चली है, कुछ नहीं होगा. "

मैं तो दृढ़प्रतिज्ञ थी कि और कुछ नहीं तो उनकी रातों की नींद उड़ाकर तो रख सकती हूँ. रवि को किसी और लड़की के लिये सेहरा बाँधने के लिये काँटों पर से गुज़रना ही होगा. जब समाज विभाग उन्हें बुलाने में सफ़ल नहीं हुआ तो कमिश्नर ने एक इन्सपेक्टर को केस सौंप दिया व कड़ी हिदायत दे दी कि इस केस को गम्भीरता से हल करे.

इन्सपेक्टर की गम्भीरता तो पहले दिन ही देखी जा सकती थी. उसने अपनी नशीली आंखे मुझ पर गढ़ाते हुए एक गन्दा सा प्रश्न उछाल दिया, "तुम दो महीने की शादी में कितनी रातों में उसकी पत्‍‌नी बनी थी ? "

"जी ? -----इस केस से इस बात का क्या संबंध ? `

" मैं तो ऎसे ही पूछ रहा था. "उस ढीठ ने पान रची अपनी पूरी बत्तीसी निकाल दी थी, "तुम दोनों शादी के बाद सीधे ही उसके घर चले गए थे ? "

"नहीं, हमने रवि के घर वालों की मर्ज़ी के खिलाफ शादी की थी इसलिए पहले हम एक होटल में रुके थे फिर उसने अपने जीजाजी को फ़ोन किया. वही रवि के घर वालों के कहने पर हमे मना कर रवि के घर ले गए. मुझे उन्होंने हिम्मत दी कि वे मुझे मेरा अधिकार दिलवाकर ही रहेंगे. मुझे पूरी उम्मीद थी कि रवि के घर वालो की नाराज़गी दूर हो ही जायेगी. "

उस इन्सपेक्टर के बुलाने पर इस बार भी हम तीन चार घंटे ऑफ़िस के बाहर बैठकर चले आए तब भी रवि के घर वाले नहीं आए. चौथी बार रवि को मैंने इन्सपेक्टर के ऑ़फिस के बाहर देखा था. वह् अपने लंबे चौड़े बाप के पास भीगी बिल्ली बने दुम दबाये बैठे देखा था. मै जब सामने वाली कुर्सी पर बैठ गई तो वह अपने आप में ऎसे सिमट गया कि जैसे उसने मुझे कभी देखा ही ना हो. अलबत्ता उसके बाप ने मुझे ज़रूर खा जाने वाली नजरों से देखा, जैसे मै ही गुनहगार हूँ.

"मै तुम्हे पाँच लाख रुपया दिलवाने को तैयार हूँ, तुम केस वापिस ले लो. "इन्सपेक्टर हमारे पास आकर धूर्तता से बोला

"मैंने क्या रुपयों के लिये उससे शादी की थी ? "मेरी आवाज़ गले में फँस गई थी.

"चलो ऊपर से पाँच हज़ार और ले लेना. "

"आपके ऑ़फिस में हम सौदेबाजी करने आए हैं या अपनी लड़की को अपना हक दिलवाने. "मम्मी तेज़ी से बोल उठी थी.

"सोच लीजिये, पाँच लाख में तो कोई भी आपकी लड़की से शादी कर लेगा. ये तो ख़ासी ख़ूबसूरत है. "

"शादी का क्या खेल है, आज इससे, कल उससे ? "

"आप लोग बाहर चलकर बैठिये, मैं इनसे बात कर लूँ. "उसने कड़े स्वर में हम लोगो से कहा, जैसे हम लोग लोग अपराधी हैं।, वह उसी स्वर को मुलायम बनाते हुए बोला, "आइये साहब !आप लोग बीच में आ जाइये. "

मैं तड़पकर रह गई कि मैं गुनहगार हूँ या वे लोग? काश ! मैं एक बार तो रवि से पूछ पाती कि उसने ऎसा क्यों किया?

उन लोगो के जाने के बाद उस इन्सपेक्टर ने हम लोगो को अंदर बुलाया, `तुम कल आकर मुझसे मिलना. "

"कल तो इतवार है. "तन्वी दीदी चौंककर बोली.

"इतवार को भी पुलिसवालों का दफ़्तर खुला रहता है. "वह धूर्तता से मुस्कराया.

"लेकिन इस दस मंज़ली इमारत के सब ऑ़फिस बंद रहते हैं. "

"तो क्या हुआ ? जब हम पुलिस वाले मौज़ूद है तो किसका डर ?

तन्वी दीदी इन्सपेक्टर को घूरते हुए बोली, "मै भी साथ में आउंगी. "

वह गुर्राया, "भीड़ लगाने की जरूरत नहीं है, मैं कुछ अंदरूनी बात पूछना चाह्ता हूँ. "

तन्वी दीदी उसकी तेज़ आवाज़ से घबरा गई. जिस व्यक्ति को उनकी शर्म नहीं थी, ऎसे व्यक्ति के पास मैं एक गुज़र गए सपने से वैवाहिक जीवन की बात बताने क्या जाती ? हम उसके कमरे से बाहर निकल आए थे , तभी मुझे याद आया कि मै कुछ कागज़ उसकी मेज़ पर भूल आई हूँ. जैसे ही मैंने उसकी मेज़ पर से कागज़ उठाये वह बेशर्मी से मुस्कराया, "कल इतवार को तुम साड़ी पहनकर आना. साड़ी में तुम बहुत अच्छी लगती हो. एक बात और कहना चाह रहा था. तुम क्यों अधेड़ औरतों के साथ चली आती हो ? अपनी कम उम्र की सहेलियों के साथ आया करो. चाय वाय पीकर जाया करो. "

मै जिस दर से सहायता लेने आई थी, उससे मुझे यही सुनने को मिल रहा था. रास्ते में डबडबाई आँखों से तन्वी बेन को ये सब बताया. उन्होंने गम्भीर स्वर में समझाया, "इस गन्दे आदमी के ऑ़फिस में कभी कदम नहीं रखना. रवि के पिताजी एक कुशल व्यापारी है. अपने बेटे को किसी रईस की बेटी से शादी करवा कर भुनाना चाहते हैं तो इस इन्सपेक्टर को ख़रीदने में कितनी देर लगी होगी ? कल वह तुम्हे तौलना चाहता है कि तुम किसी समझौते के लिये तैयार होती हो या नहीं. वह जिधर का पलड़ा भारी देखेगा उधर ही जा बैठेगा. "

कोर्ट में केस दाखिल करवाने का मतलब नहीं थी क्योंकि ये वर्षो तक घिसटना ही था फिर भी हम लोगो ने केस कर ही दिया. दो चार सम्मन कोर्ट ने भेजे लेकिन वे कोर्ट की दी हुई तारीख़ पर हाज़िर नहीं होते थे. तभी पुलिस ने महिलाओं के कल्याण के लिए अलग विभाग खोल दिया. मेरा केस ट्रांसफर होकर अपने आप ही वहाँ पहुंच गया. मै जैसे खुशी से नाच उठी क्योंकि सुना था वहां कोई महिला पुलिस इन्सपेक्टर इंचार्ज है.

मैं अब उसी लम्बी चौड़ी महिला इन्सपेक्टर के सामने थी. उसने अपनी सख्त आवाज़ को मुलायम बनाकर पूछा, "तुम्हे ससुराल में कितने दिन रक्खा और कैसे रक्खा गया ? "

मैं उन्हीं बातों को दोहराती हुई परेशान हो गई थी फिर भी मेरी मजबूरी थी, "शादी के बाद हम लोग अलग अलग होटलों में छिपते रहे. "

“ तुम्हारे माँ बाप ने अपने घर में नहीं रक्खा ? "

"नहीं, क्योंकि उनका कहना था कि जब रवि के माँ बाप शादी के लिये तैयार हो जाए तभी हम शादी करे इसलिए हमे भागकर शादी करनी पड़ी थी. जब रवि के जीजाजी हमे मनाकर रवि के घर ले गए तो उन्होंने तीन चार दिन तो मुझे बहुत प्यार से रक्खा. उसके बाद उनका व्यवहार बदलता गया. मुझे रवि के कमरे से निकालकर ऊपर वाले कमरे में लगभग बंद ही कर दिया था. बात बात में मुझे ताने सुनाते, खाना भी उसी कमरे में देते थे. "

"रवि का व्यवहार तुम्हारे साथ कैसा था ? "

"वह भी ऊपर मुझसे मिलने नहीं आ पाता था. शुरू में उसके अपने घरवालों से लड़ने की आवाज़ आती थी लेकिन फिर वह भी चुप होता चला गया. "

"तुम तो नीचे उतर कर आ सकती थी ? "

"तब मैं समझ नहीं पा रही थी कि मुझे कोई नशीली चीज़ खिलाईं जा रही थी. मेरा दिमाग चकराता रहता था. शरीर को कमज़ोरी जकड़े रहती थी. उसी आधी बेहोशी की हालत में उन लोगों ने मुझसे किसी स्टैंप पेपर पर साइन ले लिये थे. उसके बाद उनके घर वाले कुछ लोग मुझे उसी नशे की हालत में मेरे माँ बाप के घर पटक गए, ये तो बाद में मेरी मम्मी ने बताया था कि वे गंवार औरतें घर के बाहर हाथ नचा नचाकर लड़ती रहीं थीं कि हमने उनके घर के बेटे को फँसा लिया है. "

"ओह !तू तो मेरी बेटी जैसी है कैसे नहीं ले जायेंगे वे तुझे अपने घर ? "वह् इन्सपेक्टर अपना मर्दाना हाथ मेज़ पर मारकर बोली थी.

तन्वी दीदी गदगद होकर बोली थी, "औरत की पीड़ा औरत ही समझती है. "

"आप निश्चित हो जाइये, कल ही उनको बुलवाती हूँ. यदि वे नहीं आए तो खुद जीप लेकर उनके घर जाऊँगी. "

दो बार बुलवाने पर जब वो नहीं आए तो वह सच ही जीप लेकर रवि के घर जाकर गाली गलौज कर आई. इतनी जल्दी हंगामा होगा ये मैंने सोचा भी नहीं था. मुझे बहुत राहत पहुँची थी कि इस शहर में अब कोई स्त्री दुखी नहीं की जायेगी.

इस बार वे महिला थाने आ गए थे. मैं अजीब मानसिक स्थिति से गुज़र रही थी. मेरे सामने फिर वह बैठा था जिसके साथ मैंने शादी की थी. मन हो रहा था उसका कॉलर पकड़कर झिझोड़ दूँ, "कायर !जब छोड़ना ही था तो शादी क्यों की ? "

उनके जाने के बाद उन्होंने कहा, "वे तो कह रहे थे कि सारा घर इसे बहू बनाने को तैयार है लेकिन रवि की माँ दूसरी जाति की लड़की लेने को तैयार नहीं है. ख़ैर ------ कैसे नहीं मानेगी बुढ़िया, जल्दी ही उसे ठीक कर दूँगी. "वह पुलिस बिरादरी वाले अंदाज़ पर उतर आई थी.

तन्वी दीदी को किसी शादी के लिए शहर से बाहर जाना पड़ा, इन्सपेक्टर ने रिपोर्ट फिर से तैयार कर मेरे हस्ताक्षर ले लिए. मैंने उसे अच्छी तरह पढ़ने के बाद ही हस्ताक्षर किए.

उसके बाद मैंने उस थाने के कई चक्कर लगाए लेकिन हर बार यही उत्तर मिलता था कि इन्सपेक्टर छुट्टी पर हैं. एक दिन मै तन्वी दीदी को लेकर वहां गई तो तब भी यहा की इंचार्ज नहीं मिली, बहुत दवाब डालने पर एक महिला सिपाही ने बताया, "साहब तो कह रही कि आपने अपना केस वापिस ले लिया है. वह फ़ाईल तो उन्होंने बंद कर दी है. "

मैं जैसे आसमान से नीचे आ गिरी थी. फौरन ही हम लोग कमिश्नर साहब के ऑफ़िस पहुँच गए, मैं गुस्से में लगातार दस मिनट तक क्या बड़बड़ाई, मुझे नहीं पता बस मुझे आखिरी वाक्य याद है, " आप लोगों को जब कुछ करना ही नहीं है तो क्यो सरकार के नाम पर `समाज कल्याण विभाग `या `पुलिस महिला सेल `खोलकर बैठे हैं ? "

कमिश्नर ने मुलायम स्वर में कहा , "यहां शान्ति से बैठ जाओ. मै समझता हूँ, तुम्हारा गुस्सा. तुम्हारे केस को अब मै देखूँगा. "

कमिश्नर साहब ने भी उन्हें दो तीन बार बुलवाकर बातचीत की लेकिन वे किसी भी हालत में मुझे ले जाने के लिये तैयार नहीं हुए, उन्होंने मुझे समझाया, "वे कहते हैं, तुम्हे मुँह माँगा रुपया दे देंगे लेकिन अपने घर नहीं ले जायेंगे. "

"रवि क्या समझता है, मैंने रुपयों के लिये उससे शादी की. ? "मै चीख पड़ी.

` `अगर तुम लिखकर दो तो मै उन्हें जेल में बंद कर सकता हूँ. "

"जेल से छूटकर फिर मुझे तंग करेंगे. "

"हम बैठे हैं न----- उन्हें कुछ गड़बड़ करने नहीं देंगे. "

लेकिन बात घूम फिर कर मेरे लड़की होने पर आ ठहरती.. "आप कब तक इस शहर में रहेंगे ? मै मुकदमा लड़ती ही रहूंगी. "

"पैसे वालों से तू केस जीत नहीं पायेगी. तेरा अपना भविष्य तेरे सामने पड़ा है. उसकी चिन्ता कर. "तन्वी दीदी मुझे समझाने लगी.

मुझे लगा कि मै कितनी बेबस हूँ. अपने अमीरी के सपनो तक पहुँचने के जोश में मै होश खो बैठी. आज एक वर्ष बाद भी जहाँ से चली थी.. वही खड़ी हूँ. तुम ये पत्र पढ़ के मेरे भविष्य के बारे में चिंतित होगी. किसी झूठी आशा में समय बर्बाद करने का समय नहीं है. मैंने बी. बी. ए. में दाख़िला ले लिया है लेकिन मुकदमा वापिस नहीं लिया है. जानती हूँ मुकदमे के निर्णय के बाद रवि को भी रुपयों की थैली भरा चमकदार भविष्य अपनी तरफ खींच लेगा. वह उसकी तरफ मिट्‍टी के माधो की तरह खिंचा चला जायेगा, चाहे वह रास्ता किसी के दिल को रौंदकर ही क्यों ना बना हो.

शहर की उस बुलंद इमारत के साल भर के चक्करों ने मुझे नए अनुभव दिये हैं. इस अनुभवों से गुज़रती मै उन्नीस वर्ष की उम्र में एक सुकुमार लड़की से पूरी परिपक्व औरत बन चुकी हूँ. मुझे लगता है मै रवि को भी किसी हद तक माफ़ कर चुकी हूँ. तुम्हे तुम्हारी छोटी उम्र में ही दुनिया के अन्दर बसी दुनिया की घिनौनी तसवीर दिखा दी है. इसे ही` सिस्टम `कहते हैं. आज के समय में जब लोग नख से शिख तक एक बदबूदार कीचड़ में धँसे हुए हैं, अपनी बाज़ दृष्टि से शिकार खोजते रहते हैं व सोचते है इसे किस कोण से, कितना नोचा जाए, कैसे नोचा जाए ? तो रवि का या उसके घरवालों का क्या दोष. तुमने भी तो सुना होगा कि ये दुनियाँ एक जंगल है. न!न !प्यार करने से मत घबराना क्योंकि जंगल में भी सुकुमार फ़ूल खिलते हैं, प्यार से झरने झर झर बहते हैं. प्यार करो तो सोच समझ कर करना. हर कदम सोच समझ कर उठाना. ये लम्बा पत्र तुम्हे इसलिए लिख रही हूँ.

तुम्हारी अपनी फ़्रेंड

मिनिमा

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