मेरी पीड़ा प्यार हो गई, पतझड़ आज बहार हो गई : कुमारी मधुमालती चौकसी
[ गुजरात की प्रथम हिन्दी कवयित्री ]
[ जन्म -1 अक्टूबर 1929 -निधन 10 मार्च 2012]
[ वड़ोदरा में सन् 1980 से मेरा मधु बेन से निरंतर संपर्क रहा. विलक्षण थी वे -सन् 1947 से शैयाग्रस्त लेकिन चेतनशील कवयित्री. उत्तर प्रदेश के एक महंत पंडित ललित किशोर शर्मा जी,जो गुजरात की हिन्दी प्रचारिणी सभा के एक संस्थापक थे व सैकड़ों एकड़ की गुजरात के चाँदोद के मन्दिर की जायदाद छोड़ वड़ोदरा में मुंह बोली अपने से बीस वर्ष छोटी बहिन के घर रहने आ गये थे. उन्ही ने मधु जी को हिन्दी सिखाई व ब्रजभाषा सिखाई व इनकी कविताओं में सुधार किया. इनके काव्य संग्रह 'भाव निर्झर' को केंद्रीय हिन्दी निदेशालय का पुरस्कार मिला.
भारतीय आध्यात्म क्या होता है, ये मैंने मधु जी से जाना क्योंकि वे शवासन व अपने आध्यात्मिक रुझान के कारण ज़िंदगी मुश्किलों से जीतती रहीं। हम लोग सन २००९ में अहमदाबाद शिफ़्ट हो गये थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके किसी रिश्ते के भाई ने उनकी कविताओं से भरी १०-१२ डायरियां वड़ोदरा से यहाँ लाकर मुझे सौंप दी थीं क्योंकि मधु जी की इच्छा थी कि इनको सम्पादित कर पुस्तकों के रूप में मैं प्रकाशित करवाऊं. अर्थ व्यवस्था वह वे इन्हीं भाई के नाम कर गईं थीं. इन डायरियों में मधु जी की एक एक तकलीफ़ भरी सांस से सिंचित असंख्य कवितायें थीं। कविता क्या थीं किसी के प्रेम में पगी, पीड़ा को पीती आध्यात्मिक भावनायें। अब मेरी परीक्षा की घड़ी आरम्भ हुई कि क्या छोड़ूँ ? क्या सहेजूँ ? पहले मैंने कवितायें चुनीं फिर उन्हें ज़ेरॉक्स करवाया. एक डेढ़ महीने के अथक परिश्रम से मैं तीन पुस्तकों के रूप में उनका सम्पादन कर सकी थी। इन काव्य संग्रहों को मैंने ये शीर्षक दिये जिससे मधु जी के जीवन की झलक मिल सके 'मेरी पीड़ा प्यार हो गई ', ' प्रस्तुत हूँ युद्ध करने को मैं,'पीड़ित पायल की रुन झुन '. नमन प्रकाशन दिल्ली ने ये काव्य संग्रह प्रकाशित किये. वे एक ब्रज भाषा का खंड काव्य 'सुजान की पाती ''[नमन प्रकाशन ]ब्रजभाषा को देकर इसे समृद्ध कर गई. 'संबोधन 'के संपादक आदरणीय श्री कमर मेवाड़ी जी ने ने मेरा लिखा उन पर संस्मरण प्रकाशित किया था -'धवल चाँदनी सी वे '---क्या संयोग है गुजरात की इन कवयित्री के मन की हिन्दी की कविताओं के गंगा के प्रवाह में भगीरथ बने उत्तर प्रदेश के पंडित ललित किशोर शर्मा जी व मैं. ये भी चमत्कार ही है कि अगली पीढ़ी के अहमदाबाद की मातृभारती के सी ई ओ महेंद्र शर्मा जी इनके परिचय व कुछ कविताओं को ऑनलाइन प्रकाशित कर उन्हें सरंक्षित कर रहे हैं, आजीवन बिस्तर पर बिताने वाली इन कवयित्री की उस उत्कट जिजीविषा का सम्मान करते हुये, उनका सपना पूरा करते हुये ----
'अनास्था के घटाटोप अन्धेरे को
ध्वस्त कर
सूर्य की पहली किरण की तरह
अवश्य पहुंचूंगी दिलों तक
मैं. '
एक विशेष धन्यवाद अस्मिता,अहमदाबाद की सभी सदस्यों को जो उन्होंने इन स्वर्गीय कवयित्री मधु जी के तीनों काव्य संग्रहों पर आयोजित गोष्ठी में बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था.
-- नीलम कुलश्रेष्ठ ]
***
1.
प्यार
शाम ढले
पारदर्शी झील की लहरो पर
असंख्य स्वर्ण-कमल खिल उठे,
शायद
तुमने लहरों पर लिख दिया -
प्यार ----
***
2.
अनमोल क्षण
एक क्षण
सदियों की दूरियां मिटाकर
अमर हो जाता है
अंतर में !
पर लाखों क्षणों के अपव्यय के बीच
वह अनमोल क्षण
जीवन में एक बार आता है
यों ही हाथ से फिसल जाता है।
***
3.
तिलिस्म
मेरे सपनों में
तेरी यादें ----
घुलमिल गईं हैं,
पहचानी नहीं जातीं
परन्तु -------
यादों की सुरमई
और सपनों की सुनहरी रेखाओं से
हृदय में चित्र बना है
जिसकी भूलभुलैया में भटक जातीं हूँ
खींच ले जाता मुझे
बाहरी कल्पना लोक में
धरती की मर्यादा से दूर दूर
मन विचरता
असीम आकाश में
बांधना नहीं चाहता सीमा में।
जब नशा उतर जाता है,
थका मन सोचता है
उफ़ !यह भटकन ओ तड़पन
बँधी है जीवन से,
बंधी रहेगी अनंतकाल तक ?
***
4.
एक बूँद
बूँद लहरा रही
फूल के गात पर.
तब कहा वायु ने -
ज़िन्दगी है क्षणिक
तुम मिलोगी अभी
धूल में,शूल में.
***
5.
मेरी पीड़ा
मेरी पीड़ा को कोई छू सके
ऎसा कोई भी नही है अब
मेरे नैनो के सपने को देख सके
कि कोई उनकी भाषा पढ़ सके.
मै भूले भटके बच्चे -सी भयभीत
निरीह, विवश
मेरे दर्द की देहलीज को लाँघकर
किसी ने भी झांका नही आज तक
मेरे भीतर,
मेरे रक्त में बहता गहन अंधकार
फिर भी अपने आँसू को हथेली पर रखकर
देखना चाहती हूँ अपना ही प्रतिबिंब
लेकिन
वह तो क्षणभंगुर है
मानव -सा.
***
6.
लक्ष्य
मै
कभी किसी दिन अचानक
पहुँच जाऊँगी सुरभि की तरह
और भावनाओं की शाखाओं पर झूमने
किसलयों पर
सिहरती शबनम की तरह
झिलमिलाती,छा जाऊँगी
मन प्राणों में
मै, ज़रूरी नही कि मै पढ़ी
जाऊँ खत की तरह
ज़रूरी नही कि फूल की पंखरियो की तरह
मेरे एक एक शब्द को
नोंचकर
जिस्म से अलग किया जाए
मेरे कोमल तन में प्रवाहित है
हर शब्द
शिराओं में दौड़ते रक्त की तरह
कहो
क्या आत्मा को तन से
अलग किया जा सकता है ?
बहती रही
सरिता में,सागर में और
कभी यज्ञ के धुंये में
मुखरित ऋचाओ में
सुरभित बयारो में
ममता भरे आँचल में,
और प्रबुद्ध मानव की चेतना में
बहती रही आलोक -धारा बन
युग युगों से
मै,
अनास्था के घटाटोप अन्धेरे को
ध्वस्त कर
सूर्य की पहली किरण की तरह
अवश्य पहुंचूंगी दिलों तक
मै.
***