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गुजरात के सौराष्ट्र के नानु रन के गौरक्षक वाछड़ा दादा

गुजरात के सौराष्ट्र के नानु रन के गौरक्षक वाछड़ा दादा

[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]

दूर दूर तक अँधेरा साँय सांय कर रहा था -----गुजरात के सौराष्ट्र के रन जिसे `नानु रन `अर्थात छोटा रन कहा जाता है, की बंजर ज़मीन ----ज़मीन ऐसी कि जब सूखा पड़ता है तो धरा का गला चटक कर सतह को चटका देता है ---आड़ा तिरछा. रन यानि पृथ्वी का वो हिस्सा कि जहां से समुद्र पीछॆ हट जाता है. नमक मिली ज़मीन छोड़ जाता है और ज़मीन नमक बनाने के अलावा किसी काम की नहीं रह्ती. अन्धेरे में सिर्फ़ कालेपन के और कुछ नहीं दिखे दे रहा था ---कार की हैडलाइट्स में जब बाँयी तरफ ज़मीन में गढ़ा सफ़ेद रंग का छोटा पत्थर नज़र आ जाता तो जान में जान आ जाती कि हम सही जा रहे हैं. ये पत्थर ज़मीन में कभी दो तीन मीटर के अंतराल से गड़े थे --तो कहीं बीस तीस मीतर की दूरी पर. इस रात के नीरव अंधकार में -----आस पास के सुनसान उजाड़ में इनका दिखाई देना हमारे लिए बहुत ज़रूरी थी -----सफ़ेद पत्थर ---ये निशान हैं कि हम दूर दूर तक फैले चटकी ज़मीन वाले रन में भटक नहीं गए हैं -----सही रास्ते से लौट रहे हैं.

धागंध्रा गुजरात का एक कस्बा है, जहाँ अहमदाबाद की बहुमंज़िली इमरातों से दूर पहुँचकर एकल मकानों को देखकर बाहुत राहत पहुंच रही है. ये झाला राजपूतों की स्टेट रहा है इसलिए प्राचीन स्थापत्य की इमारतें भी दिखाई दे रहीं थीं. यहाँ एक विजय जी व रंजना की बेटी की गुजराती शादी में हम आए थे. उन्होंने कह दिया था कि शाम के अँधेरे में भूलकर रन देखने मत जाइये. हमारे एक रिश्तेदार अशोक जी, जो वहीं एक सरकारी विभाग में ऑफ़िसर हैं. वे भी रन की ख़तरनाक कहानिया सुना रहे थे -----जैसे लोग दिन में भी रास्ता भटक जाते हैं, सात आठ दिन तक भटकते रहते हैं. ---या कभी और शहर में जा निकलते हैं और चारों ओर खारा पानी मिलता है, नितांत उजाड़ रन के बीच कोई वाछड़ा दादा का मन्दिर है बस वहीं मीठा पानी है, हरियाली है व मन्दिर की गौशाला. ``

वे बताये जा रहे थे, ``आपने टी. वी, पर नहीं देखा कि एक आदमी रन में फँस गया था एक महीने बाद हेलिकॉप्टर से निकाला गया. -यहाँ स्मग्लर्स व लुटेरे घूमते रहते हैं. अपने ऊंटों को भी दारू पिलाकर चलते हैं जिससे वे तेज़ दौड़े. ``

फ़रवरी को दोपहर की शादी के बाद शाम पाँच बजे वहाँ से लौटने की तैयारी है. अशोक जी हमारे सामने प्रस्ताव रखते हैं कि यहाँ का सबसे बड़ा मंदिर देखना है या नमक बनते हुए. जाहिर है हम दूसरा `ऑप्शन ` चुनते हैं. मन्दिर तो बहुत सी जगह हैं, लेकिन नमक ऐसी चीज़ नहीं है कि उसे बनते कहीं भी देखा जा सके. ये बात और है कि वह हमारी रसोई में क्या कुछ बना डालता है. हलवद कस्बे से आगे नमक बनाया जाता है. वहाँ से ट्रकों में भरकर वह् `क्रूड `नमक रिफाइंड होने मिलो में भेज दिया जाता है. जहाँ से ट्रेड नेम के साथ वह हमारे घर आता है. वैसे भी भारत का विश्वं में नमक बनाने में तीसरा स्थान है और भारत का 75 प्रतिशत नमक गुजरात के रन में बनाया जाता है.

जैसे ही ड्राइवर किसी मोड़ पर कार मोड़ता है अशोक जी बताते है, ``देखिये मोड़ पर आपको गिरे हुए नमक की लाइन दिखाई देगी. नमक से भरे ट्रक जब मुड़ते हैं तो थोड़ा सा नमक उसमें से गिर ही जाता है. ``

सच ही हमें मुड़तीं हुई हर सड़क पर नमक का सफ़ेद बॉर्डर नज़र आता है. संकरी सड़क के दोनों ओर बबूल की जाति के छोटे छोटे पेड़ नज़र आ रहे हैं. दाँयी ओर कूड़ा गांव का मोड़ देखते ही अशौक जी पूछते हैं, ``क्या आप लोगों को रन देखना है ?``

गुजरात में रहते इतने वर्ष हो गए हैं, बाहर भी बहुत घूमे लेकिन रन ही नहीं देख पाये. हमारे `हाँ ` कहते ही ड्राइवर दाँयी ओर गाड़ी मोड़ देता है. छोटी सड़क पर थोड़ा आगे जाते ही लगता है गाड़ी छोटे टीले पर चढ़ रही है. वे हंस देते है, ``ये ग्राम पंचायत की बनाईं सड़क है. ``

छोटे छोटे झाड़, गांव पीछॆ छूट चुका हैं एक असीमित मैं दान में आ गए हैं जैसे कि ज़मीन का समुद बिना हरियाली के ---सूखा पड़ता है, -जब ज़मीन का गला चटकता है तो उसमें दरारें पड़ जाती है. जैसे उस भूरी मिट्‍टी की सतह चटक गई हो. ऊपर है साफ़ नीला खुला आसमान --नीचे है यहाँ से वहाँ तक फैला रन --जाने कितनी सदियाँ अपने सीने में समेटे.

थोड़ी दूर पर एक छकड़ा [एक सजा हुआ बड़ा ऑटो रिक्शा जिसमे पीछॆ सात आठ लोग बैठ सकते हैं ]दिखाई देता है जिसे रोका जाता है., ``आप लोग कहाँ जा रहे हो ?``

`` वाछड़ा दादा के दर्शन माटे. ``

``कैसे जाओगे सड़क पर कोई बोर्ड नहीं है ?``

ज़ाहिर है बात गुजराती में ही हो रही है, ``दादा के पास जाने के लिए रन में ये सफ़ेद पत्थर गाड़ दिए गए हैं, यदि आपको वहाँ जाना हो इनके सहारे चले जाइये. ज़रा इधर उधर हुए नहीं कि रन में भटक जायेंगे. ``

अशोक जी बहुत उत्साहित हैं, `चलिए वाछड़ा दादा के दर्शन हो ही जाए कहते हैं उनके तप के कारण नितांत रन के बीच मीठे पानी का स्त्रोत पैदा हुआ था, सिर्फ़ उसी एरिया में हरियाली है. ``उत्साह में वे अपनी हिदायत भूल जाते है ---रन से लौटते में रात तो होनी ही है. मृदुल जी मेरे पति भी उनकी `हाँ `में `हाँ` मिला देते हैं.

----अब तो जी भरकर रन देखिये प्रक्रति अपनी फटी एड़ियों जैसे दरारें लिए बिछी हुई है ---हदें निगाह तक जहां रन ही रन है ---न पेड़ हैं न पौधे -----एक रहस्यमय खामोशी तिर रही है --मन स्तब्ध है --प्रकृति की देखी इस छटा पर.

अशोक जी इन पत्थरों को देखकर बता रहे हैं, ``पहली बार जब मैं वाछड़ा दादा देखने आया था तो ये पत्थर नहीं थे लेकिन एक एक्सपर्ट ड्राइवर साथ था. ``

ड्राइवर के स्वर में घबराहट द है, ``मैं तो पहली बार रन में आया हू. `` उसकी विचलित दृष्टि अस्त होते लाल सूरज की तरफ़ है.

``चलो आज चले ही चलते हैं. `` कार सफ़ेद पत्थरो के सहारे बढ़ी चली जा रही है ---कभी हल्का दाँये या बाँये मुड़ते हुए -----जिस `सनसेट को देखने के लिए सैलानी हर पर्यटन स्थल पर आतुर यात्रा करते हैं, वही बाँयी तरफ के आसमान में अस्त होने की तैयारी कर रहा है ---उसका मुँह लाल पड़ता जा रहा है ---परिधि साफ़ दिखाई दे रही है. पन्द्रह बीस किलो मीटर की यात्रा में वही सुनसान ज़मीन, अलबत्ता कहीं दूर एक दो झोपड़ी दिखाई दे रही हैं. जहाँ आयताकार तालाब में अगरिया [नमक बनाने वाले ]नमक बनाते हैं. अनुमानत; ध्रांगध्रा के रन में पचास हज़ार अगरिया नमक बनाते हैं. इस नमक को डीज़ल से पकाया जाता है. गाँधीजी के दांडी मार्च के 80 वर्ष पूरे हो चुके हैं. उसके जीवन मूल्यों पर चलने वाली `इला भट्ट की सेवा `डीज़ल के लिए सौर उर्जा का विकल्प प्रयुक्त करने में लगी है. ज़ाहिर है कम ख़र्च में नमक बनाकर अगरियो का जीवन स्तर सुधर रहा है लेकिन इस ख़ामोश सुनसानियत में वे कैसे कठिन जीवन जीते होंगे ? मेरे मुँह से निकल ही पड़ता है, ``अब लौट चलते हैं. `

``इतना आगे बढ़ने के बाद क्या लौटना ?``

यहाँ वैसे भी ये मान्यता प्रचलित है जिसे दादा बुलाते हैं वही उन तक पहुँच पाता है यदि वे छकड़े वाले नहीं मिलें होते तो ना हम -----------. कौन हैं साढ़े नौ सौ वर्ष पहले जन्म लेने वाले ये वाछड़ा दादा ?

मेरा मन पच्चीस छब्बीस वर्ष पहले लौट चला है ----इस उजाड़ स्थान पर टेंट लगाकर, तीन वर्ष तक हर महीने के कुछ दिन दो स्थानीय ग्रामीणों के साथ रहकर कैसे किया होगा वड़ोदरा की नीता शाह ने यहाँ विश्व में सर्वप्रथम घुड़खर [वाइल्द एस ]पर शोध ? घुड़खर जो विश्व में सिर्फ़ यहाँ व तिब्बत में पाये जाते हैं. उनका इंटर्व्यू लेते समय सबसे पहले कूड़ा गांव व धागंध्रा का नाम उन्हीं से सुना था. तब उन दिनों भारतीय वन्य संस्थान में एक जुमला मशहूर हो गया था `रन में यदि कोई बुर्का पहने लड़की घूम रही हो समझ लो वह नीता शाह है. ` आज उसी रन में हम अकस्मात आ गए हैं

थोड़ी देर चलते ही सूरज का लाल रंग अपने ही घेरे में कम होता जा रहा है ---लीजिये वह् डूब चला. अकेली बढ़ती कार और सूना इलाका. मैं पीछॆ मुड़कर देखती हूँ --- धीमे बजते म्यूजिक सिस्टम में किसी लड़की के स्वर का अलाप ``आ---आ--आ-`के साथ तबले की धीमी संगत ---एक भय सा मन में उत्पन्न कर रही है ---पता नहीं कितनी रूहें इस डगर से गुज़री होंगी, ----- आगे मीलों---- तक फटी सी ज़मीन लिए ज़मीन लिए सूना डराता सा रन है, पीछॆ कार के छोड़े धूल के बवंडर के कुछ नहीं दिखाई दे रहा. खिड़की पर भूरी धूल गिरकर फिसल रही है. कोई जीव यहां तक कि नन्हा पौधा तक नहीं दिखाई दे रहा.

कुछ दूर तक आने के बाद हल्के झुटपुटे में सामने से एक वैन व एक कार आती दिखाई देती है -----लोग लौट रहे हैं और हम सिरफिरे जा रहे हैं. उस को हाथ से रोका जाता है. वही सूचना मिलती है, ``आगे हरे पेड़ दिखाई देंगे बस वही से बाँयी तरफ मुड़ जाइये वही वाछड़ा दादा हैं. ``.

पैंतीस किलो मीटर रन के उजाड़ में सफ़र करने के बाद हमे पीपल, नीम व नीलगिरी के हरे पेड़ दिखाई देने लगते हैं तो राहत पहुँचती है ----जैसे जीवन की धड़कन लौट आई हों. बाँयी तरफ थोड़ा आगे जाते ही शाम के धुँधलके में दादा का अहाता दिखाई दे रहा है. उसके बड़े गेट से गाड़ी अन्दर ले जाकर पार्क कर दी गई है. अन्दर बेंच पर बैठे लोग हमारे गाड़ी से उतरते ही पूछते है, ``क्या रात में यहां रुकना है ?``

हमारे` ना `कहने पर उनके चेहरे पर किंचित आश्चर्य उभर आता है सामने है दादा का मन्दिर [समाधि ], हम उसकी दो तीन सीढ़ियां चढ़ते हैं तो बाँयी तरफ़ के बरामदे में यंत्र्चालित नगाड़ा बजने लगता है. मुख्य पुजारी पीतल के बड़े दिए से आरती करने लगते हैं, कुछ पुजारी मन्दिर से लटकती घंटियाँ बजाने लगते हैं. वहाँ खड़े दो कुत्ते अपनी आवाज़ से ताल देते लगते हैं. घंटियों व नगाड़े की धुन पर सैकड़ों किलो मीटर फैले रन के बीच की हरियाली में बने बने इस मन्दिर में हस्यमय आध्यात्मिक प्रसन्नता में डूबता हमारा मन विभोर है

आरती के बाद सीढ़ियां उतरकर हम नगाड़े के पास बैठे व्यक्ति से पूछते हैं, ``क्या वाछड़ा दादा के बारे में कोई पुस्तक मिलेगी ?``

उनसे हम गुजराती पुस्तक``वीर वच्छ्राराज सोलंकी ` खरीद लेते हैँ. बड़ा उत्सुक है मन सारी कड़ियों को जोड़कर दादा के जीवन के बारे में जानने को.

वह पुस्तक क्या मेरे हाथ में आती है लगता है मैं सदियों पर से धूल हटाती कहीं पीछॆ, बहुत पीछॆ, सादे नौ वर्ष पहले चल पड़ी हूँ ---दूर दूर तक फैले रन में मुझे सफ़ेद घोड़े पर सवार एक जाँबाज़ राजपूत हाथ में तलवार लिए दिखाई देने लगा है. उनका घोड़ा तेज़ी से भगाता चला आ रहा है, उनके पीछे भाग रहा है उनका कुत्ता मोती. ये ही मह्साना के एक गॉंव के रईस हाथी भाई का दूसरा बेटा वच्छ्रराज सोलंकी है, जिसे बचपन से गायों से प्यार है. यदि कोई गाय घायल हो जाए तो वह जंगली जड़ी बूटियों से उसका इलाज करता है. यदि गाय मर जाए तो वह उसके बछड़े का दत्तक पिता बन जाता है. उसकी परवरिश की सारी ज़िम्मेदारी अब उसकी हो जाती है. फिर तो गायों के लिये उनका प्यार एक जुनून बनता गया. जिस किसी की गाय चोरी होती, वह घोड़े पर दौड़ता हुआ जाकर उसकी सहायता करता. ये वह इलाका था जहाँ रन के कारण खेती बाड़ी कम होती थी. अमीर लोग मुठ्ठी भर ही थे. घोड़े भी दो चार लोगों के पास थे. यहाँ का प्रमुख व्यवसाय गाय पालन ही था या कहना चाहिये गायें ही इनकी रोटी थी. दूसरा व्यवसाय है नमक बनाना. अकसर इन गायों की चोरी होती रह्ती थी. कोई गांव वाला रोता हुआ इनके पास आता तो ये रात या दिन की परवाह किए बिना उस दिशा में चल देते जहां चोर गायों को हांक कर ले जाते. उन चोरों की तलवार भालों से डरे बिना ये अपनी तलवार से उन्हें घायल कर गायों को वापिस हांककर उस दुखी के गांव में पहुँचा देते. जब सूखा पड़ता गायें प्यास से तड़फड़ातीं तो उसके आँसू बहने लगते थे. यदि कोई गाय मर जाती तो वे उसके बच्चे को माँ बनकर पालते थे.

आस पास के रन के इलाके में जब किसी की भी गाय दल दल में फँस जाती तो वे एक रस्से का एक सिरा अपने घोड़े रतन की पीठ से बाँध देते और दूसरा सिरा हाथ से पकड़ कर दल दल में जा कूदते थे व चिल्लाते, ``भाग रतन भाग !``इस तरह से वे गाय को बचा लाते थे. सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि रन के दल दल में कूदकर बाहर आना इतना आसान नहीं होता. वे समृद्ध घर से थे इसलिए अपने घोड़े पर सवार हो दूर दूर तक के गाँवों में जाकर गौ रक्षा करते थे.

एक दिन हाथी भाई के घर में गहमा गहमी थी. उनके सुपुत्र वच्छ्रराज की बारात जा रही थी. पास के गांव की पूना बेन से उनका विवाह होने वाला था. पूना बेन के यहाँ बारात की बहुत अच्छी आवभगत की गई. वर वधू को फेरे के लिए मंडप में बिठाया गया. पूना बेन ने चुपके से अपने दूल्हे को देखा, दूल्हा अपनी सुध बुध खोकर एकटक उन्हें देखे जा रहा था. पूना बेन लज्जा से सिमट गई. पंडित के मंत्रोच्चार के साथ नाज़ुक कदमों से चलती हुई फेरे लेने लगी.

तभी एक उनके गांव की विधवा रोती हुई मंडप के पास आ गई, `` दादा ! मेरी पाँच गायें चार पाँच चोर चुरा ले गए हैं. आप उसे बचा लो. वर्ना मैं व मेरे बच्चे मर जायेंगे. ``

शादी में बैठे बुज़ुर्ग चिल्ला उठे, ``देख नहीं रही इनका विवाह चल रहा है. ये समय कोई सहायता माँगने का है ?भाग यहाँ से. ``

वह और ज़ोर से रोने लगी ``दादा ! मेरे पर दया करो, आप तो मेरी विपदा समझो. ``

दो तीन औरतों ने उसे कन्धे से पकड़ा और उसे बाहर खींचने लगी, ``चल बाहर निकल रोकर अपशकुन करती है ?``

वच्छराज का दिल पसीज उठा, उन्होंने अपना सेहरा उतार दिया व देवला बेन से पूछने लगे, ``चोर किस दिशा में भागे हैं ?``

``पुर्व दिशा में वह गाय माता को ले गये हैं. ``

वह बाहर भागकर अपने घोड़े पर छलांग लगाकर चढ़ गए व चिल्लाये, ``भाग रतन------भाग. भाग मोती ----भाग ``

हाथी बापू उनके पीछॆ दौड़ते चले आए, `` डिकरो [बेटे ] क्या कर रहा है ?कोई विवाह मंडप से भी भागता है ?अपनी नहीं तो पूना बेन के बारे में तो विचार कर. ``

लेकिन जब तक वे घोड़े पर ऐंड लगा चुके थे. उनका मोती कुत्ता मज़े में बाहर बैठा एक पत्तल पर पूरी शाक खा रहा था. उसने गर्दन उठाकर देखा, पूरी बात समझ कर कि उसके मालिक गाय बचाने के मिशन पर जा रहे हैं. वह भी उनके घोड़े के पीछॆ भागने लगा.

पूना बेन अब तक काठ बनी मंडप में बैठी थी, वह अब तक अपने पति की उन्हें ताकती मुग्ध दृष्टि में उलझी हुई थी. दो फेरे पड़ चुके थे, अब वह उन्हें वरन कर चुकी थी, जानती थी कि वे गौ रक्षक के रूप में प्रसिद्ध हैं, कहीं चोर उन्हें बहुत चोट ना पहुँचा दें, ये सोचकर वह भी बाहर आकर शादी के चणिया चोली [लँहगा ब्लाऊज़ ] में अपने गहने छमकाती पूर्व दिशा की ओर भागने लगी, उससे आगे देवला बेन भागी जा रही थी. दूर दिखाई दे रहा था वच्छ्रराज का घोड़ा.

वे भागते बहुत आगे निकाल गए थे. सच तो ये था कि उन्हें पूर्व दिशा में आने का कभी मौका नहीं मिला था. खुरखुरे रन पर उनका घोड़ा दौड़ रहा था ---रन में दूर बहुत दूर निकल आया था. चारों तरफ़ सुनसान सिर्फ़ सुनसान फटी हुई सी धरती दूर से लगा, रहा था कि आठ दस लोग लोग पाँच गायों को लिए ज़मीन पर बैठे हैं. तो पहले से उनके और साथी यहाँ इनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे, दादा ने सोचा.

कहीं वे सब भागते हुए बहुत दूर ना निकल जाए, वे अपना घोड़ा दौड़ाते वहाँ पहुँच गए. वहाँ देखकर आश्चर्य में पड़ गए कि भगवान की कैसी कुदरत थी, मीलो फैले रन के बीचोबीच बहुत बड़ा मीठे पानी का तालाब था, जिसका पानी एक चोर पी रहा था. चोर भी समझ चुके थे कि दादा उन्हें नहीं छोड़ेंगे. वे सब एक साथ अपनी तलवारें भाले लिए उन पर टूट पड़े. वे बहुत बहादुरी से उनसे मुकाबला कर रहे थे. तभी एक तलवार का वार उनके दाँये हाथ पर पड़ गया, उन तलवार छूट कर दूर जा गिरी, उन्होंने जानलेवा दर्द को होठों से भींच लिया. तभी दूसरे चोर ने एक और वार किया इस बार उनका दान्या हाथ कटकर दूर गिरने लगा तो पूना बेन ने उसे अपने हाथ में सम्भाल लिया. उनका कुत्ता मोती अपने मुँह में तलवार लिए उनके पास आ गया. कराहते दादा ने उससे तलवार ली, `` शाबास मोती !तू इन इंसानो से कहीं अच्छा है. ``

अब उन्होंने बाँये हाथ से लड़ना शुरू कर दिया. उनका घोड़ा व मोती अपने मालिक को अशक्त देखकर चोरों पर अपने पैरों से वार करने लगे, उधर दादा लड़ रहे थे लेकिन तलवारों के घातक प्रहार से तीनों कटकर वहीं गिर पड़े. देवला बेन ने रोते हुए इस वीर का सिर अपनी गोद में ले लिया, `मने माफ़ करजो. मैं तुम्हे आशीर्वाद देती हूँ कि तुम अमर हो जाओ. `

` `बा !मुझे अमर होने का आशीर्र्वाद मत दो, मुझे आशीर्वाद दो कि अगले जन्म में फिर से गाय माता की ऎसे ही सेवा करू. ``कहते कहते उनका सिर लुड़क गया. ` पूना बेन ने उन्हें मरते देखा तो वह भी वही बेहोश हो गई. देवला बेन विलाप कर रही थी कि गाय को पाने की क्या खुशी मनाये उसके कारण ही इस इलाके के सर्वश्रेष्ठ वीर पुरुष ने जान दे दी.

उनके संबंधियों ने विह्वल दिल से उनकी चिता सजाई, पूना बेन सती होने का निर्णय ले चुकी थी. दादा मरने से पहले भी इस इलाके पर अहसान करके गए थे उन्ही के कारण रन के बीच एक मीठे तालाब की खोज हुई थी. वहाँ पर वाछ्ड़ा दादा का मन्दिर बना दिया गया. यहीं बनाई गई है. उनकी समाधि, जिस में उनकी मूर्ति का चेहरा हनुमान जी जैसे सिंदूर से पुता हुआ है, के पास बनी दो समाधि में से एक उनकी पत्‍‌नी पूना बा की है दूसरी एक ग्रामीण महिला देवला बा की जिसकी गाय को लुटेरों से बचाते दादा यहां आ निकले थे. मन्दिर के दाँयी तरफ उनके घोड़े रतन की समाधि है. उससे थोड़ा दूर् पर कुत्ते मोती की.

तभी एक छोटा लड़का हमारे हाथ में प्लेट पकड़ा कर उसमें चाय पिलाता है व बताता है यहां की गौ शाला में 200 से पाँच सौ गायें रह्ती हैँ. ये उसी गाय की वंशज हैँ जिस बचाने दादा यहां आए थे. सामने बैठे दो तीन लड़के यहां छोटी मोती चाय बिस्किट की दुकानें चलाते हैँ. मन्दिर के दाँयी ओर है वह पानी का स्त्रोत जो रन में साढ़े नौ सौ वर्ष पूर्व से पानी दे रहा था. यहाँ से 25 -30 किलो मीटर दूर तक खारा पानी ही है, इस के बीच मीठा पानी मिलना अपने में एक आश्चर्य है. बहुत से लोगों ने इस पानी के स्त्रोत से पानी निकल कर बहता हुआ व तालाब बना हुआ देखा है. बस अब दो वर्ष से ये स्त्रोत सूख गया है. अब यहां पानी बीस किलो मील दूर से पाइप से लाया जाता है. वह लड़का बता रहा है, बारिश के चार महीने यहाँ नमक बनाना बंद हो जाता है क्योंकि ये रन दलदल में बढ़ ल जाता है. चारों तरफ मीलों फैले दलदल में पुजारी काका अकेले यहाँ की गायो के साथ रहते हैं. ट्रस्ट उनके चार महीने के खाने पीने का सामान मन्दिर में रखवा देता है. ``

इस कहानी में से अतिश्योक्ति को सहज ही निकाला जा सकता है क्योंकि इस भूखंड का जीवन गायों से संचालित था गायों कि चिंता अर्थात सारे आमजनो कि चिन्ता करने वाले इस शूरवीर को जिसने गाय के लिए अपनी जान दे दी-थी को पीढ़ी दर पीढ़ी पूजा जा रहा है. रन के अंधियारे में नमक बनाने वाले सुनसान में अकेले पड़े अगरियों का बहुत बड़ा जीवन सबल है वाछड़ा दादा -----लुटेरों के संहारक ----जनता के जीवन रक्षक. सोलंकी व राठौर जाति में जब शादियाँ होतीं है तो आज भी पहला निमंत्रण पत्र यहां आकर दादा को दिया जाता है,

हो सकता है यहाँ मीठे पानी का स्त्रोत पहले से रहा हो. रन में लुटेरों का पीछा करते दादा ने सबसे पहले ये मीठा पानी देखा हो या लोगों को उनके कारण ही इस पानी का पता लगा हो या स्त्रोत पहले से हो दादा ने यहां वीरगति प्राप्त की हो. ऎसे में जहाँ रन में खारे पानी के अलावा मीठे पानी नहीं मिलता, ये ऊपर वाले का बहुत बड़ा चमत्कार है जिसे लोग वाछड़ा दादा के नाम से जोड़कर पूजते हैँ. यहां रन के यात्रियों को भोजन के रुप में मुफ्त प्रसाद दिया जाता है. लेकिन मनाही है कि वे इसे साथ नहीं ले जा सकते. ठीक भी है क्योंकि लोग रास्ते के लिए बाँधकर चल देंगे. लोगों को डराकर रक्खा है कि यहां से प्रसाद ले जाओ तो वह पत्थर का बन जाता है इस रन में ये मान्यता प्रचलित है कि यदि दादा का नाम लेकर नारियल फोडकर कुँआ खोदा जाए तो वहाँ मीठा पानी निकलता है. यहाँ की गायें अहाते से बाहर चरने जाती हैं और लौट कर वापिस यही आ जाती हैं.

मुझे याद आ रही है न्यूयॉर्क में रहने वाली अकेले यात्रा करने वाली तृतीय विश्व महिला यात्री प्रीति सेनगुप्ता की उत्तरी ध्रुव की यात्रा. कनाडा की सीमा से ही समुद्र में बर्फ जमनी आराम्भ हो जाती है. उत्तरी ध्रुव से स्लेज पर जाते हुए उन्ह्ने समुद्र के पानी को स्प्रिट लैंप से गर्म करके पीना चाहा तो चिल्ला उठे, ``ये जहरीला हो सकता है. ``

आश्चर्य ये था कि उन्हें समुद्र में जमे मीठी पानी की पहचान थी. उन्होंने चाकू से बर्फ खोदकर इक्कथ्थी की थी और स्प्रिट लैंप से गर्म कर वह पानी प्रीति को पीने को दिया. ये चमत्कार ही तो हैँ इस सृष्टि के चितेरे के वह चाहे तो समुद्र के बीच में या रन के बीच में मीठे पानी की धारा बहा दे ------क्यों नहीं सिर नत होगा उसके सामने ?

वाछड़ा दादा के मन्दिर के अलावा कहीं रोशनी नहीं है, कार की हैडलाइट्स के सहारे हम लौट चुके हैं ----सफ़ेद पत्थरो को ढूँढ़ते हुए. हरियाली समाप्त होती जा रही है. थोड़ा आगे जाकर दो बोर्ड दिखाई देते हैं -एक झिंझुवादा व दूसरा ध्रंगध्रा. हम अपने रास्ते बढ़ लेते हैं. हम लोग जब आ रहे थे तब पत्थर बाँयी ओर थे और जब जा रहे हैं तब भी बाँयी ओर ही हैं क्योंकि हम इनके दूसरी तरफ़ से लौट रहे हैं. कार की खिड़कियों मीलो फैले अंधकार के सिवाय कुछ भी नहीं दिखाए दे रहा. इसकी हैडलाइट्स से कच्ची सड़क पर जब तक ज़मीन मैं गढ़ा दूसरा सफ़ेद पत्थर दिखाई नहीं दे जाता दिल `धुड़ुक पुड़क `करता रहता है.

प्रकृति का स्पर्श हमें दार्शनिक बना देता है ----हम किसी उपर वाले के वजूद पर और भी शिद्दत से विश्वास करने लगते हैं. ----मैं अपनी तेईस बरस में की गई वैष्णो देवी की यात्रा में लोगों को अपार श्रद्धा से `जय माता दी `जयघोष करतें देख अचंभित थी. मन ही मन मुँह बिचका रही थी कि लोगों को मूर्ख बनाने का अच्छा बहाना है -----जहाँ पर्वत से झरना निकलते देखा वहाँ देवी की मूर्ति रख दी और नाम दे दिया वैष्णो देवी और लोगों की श्रद्धा को लूटने लगे लेकिन समय अपनी ही मान्यताओं की धज्जिया उड़ा देता है ---जल जो मानव की धड़कन है ----इसका उद्गगम देखते ही सिर अपार श्रद्धा से झुक जाता है कि ये ना होता तो हमारा जीवन भी ना होता. जहाँ भी कोई जल उद्गगम को देखता है तो वहाँ अपने धर्म के प्रतीक चिन्ह रख देता है. --जैसे सिक्किम के एक पहाड़ के झरने की धारा को पहाड़ के बीच में काँच के फ्रेम में बंद कर वहाँ बौद्ध धर्म का एक चक्र रख दिया था जो पानी के फोर्स से घूमता रहता था ----शुभ कामना देते किसी जुड़े हुई हाथ के मानिंद ----वैसे भी मोनेस्ट्री में भगवान बुद्ध के दर्शन करने के बाद बाहर निकालने के बाद ही इन्हे घुमाने की परंपरा है, अपने लिए शुभ की कामना करते हुए.

इस रन में मान्यता है -कि यदि कोई दादा के दर्शन करने आए और भटक जाए तो मन्दिर के कुत्ते उसे राह दिखाते चलते हैं -------सामने कार की हैडलाइट्स में दूर एक अगरिया आदमी एक झोपड़ी के सामने खड़ा हैंडलाइट्स से कुछ इशारा कर रहा है. ड्राइवर कहता है, ``वह हमे बता रहा है कि हम रास्ता भटक गये हैं. ``

म्रदुल जी पूछते हैं, ``तो क्या हम नमक के तालाब की तरफ जा रहे थे ?``

``हां, ``

एक सरसरी सी सारे शरीर मे लहरा गई है.

वह लाईट से वही रुकने का संकेत कर पास आकर पूछता है. ``वाछड़ा दादा के दर्शन करके आ रहे हो ?``

हमारे हाँ कहने पर पूछता है, ``कहाँ जाना है ?``

``ध्रांगध्रा. ``

``तुम भटक गए हो, मैं रास्ता दिखाता हू. ` अपने पीछॆ पीछॆ आयी पाँच साल की दुबली पतली लड़की व तीन साल के लड़के से कहता है, `` तुम वापिस जाओ, मैं रास्ता बताकर आता हू. ``

वह द्रश्य मैं कभी नहीं भूल पाऊँगी. अपनी हैंडलाइट्स से रोशनी दिखाता आगे जाता वह् आगरिया, उसके पीछॆ चलते एक दूसरे का हाथ पकड़े डरे सहमे वे नन्हे भाई बहिन---म्रगशावक के छौने से अपने पिता से जैसे किसी अद्र्श्य डोर से बन्धे हों, चलते हुए. पिता मुड़कर डपट देता तो एक क्षण रुक जाते. पिता के सिर घुमाते ही फिर सरपट चल देते. ज़रूर उस झोपड़ी में कोई नहीं होगा तो वे नन्हे मुन्ने कैसे लौट कर उस सुनसान में दर से थर थर काँपते रहे ? जिस स्थान पर अगरिया नमक बनाते है उसे `अगर `कहते हैं. ऎसे सुनसान में दूर दूर तक फैले हुए `अगर` व डीज़ल से जलती इनकी टिमटिमाती रोशनियों को देखकर मुझे पहली बार शिद्दत से गाँधीजी के दांडी मार्च का औचित्य अपने पूरे अर्थो में समझ में आ रहा है. निमिड़ अंधकार और बस दो रोशनियाँ ----और सफ़ेद पत्थर की झलक पाने को आतुर हमारी आठ जोड़ा पुतलिया अंधकार को बेधती हुई-----वह भलामानस सामने जाती सड़क को दिखाकर कहता है, ``ये रास्ता ध्रांगद्रा जाता है. ``

हमारी थोड़ा तेज़ चलती साँसें प्रकृतिस्थ होती हैं. ऎसे में धन्यवाद शब्द भी बौना हो उठा है ---आभार में हमारे हाथ उठ गये हैं -----वो अगरिया और वो दो छौने पीछॆ ओझल होते जा रहे हैं. -----सामने ज़मीन पर फिर दिखाई देने लगी है सफ़ेद पत्थरो की श्रखला -----हमारी लाइफ़ लाइन !. मेरे मन में कुछ घुमड़ रहा है -------मनाली के टैक्सी ड्राइवर ने बताया था कि पहाड़ों पर आदमी का जीवन बहुत कष्टकारक होता है, वैसे भी ये सर्वं विदित है -----गत वर्ष जैसलमेर के टैक्सी ड्राइवर ने यही कहा था, यहाँ की भीषण गर्मी में टूरिस्ट सीज़न खत्म होते ही चार महीने अपने गांव लौटकर घर में बंद रहते हैं. मैंने पूछा था, `तब आप ओग क्या करते रहते हैं ?``

उसके स्वर के दर्द ने बहुत कुछ कह दिया था, ``ईंट ढेला खाते रहते हैं. ``-------मेरी दृष्टि इस कालिमा से रंगे रन में भटक रही है. सदियों से इसके अगरियो का जीवन तो और भी दुरूह है. ये सुनसान रन में दूर दूर पड़े नमक बनाते रहते हैं ----महीनो किसी से बातचीत को भी तरस जाते होंगे. उधर ड्राइवर के एक मित्र व उसकी पत्‍‌नी के फ़ोन आने शुरू हो गए हैं, ``ये भी कोई समय है रन में जाने का ?``वह गुजराती में कुछ् सफ़ाई देता चल रहा है

----हम काफी दूर चल चुके है---सफ़ेद पत्थर नहीं दिखाई दे रहा ------साँस में कुछ अटक रहा है ---थोड़ा और दूर् जाते ही एक पत्थर भूरी ज़मीन में से सिर उठाकर हमे ही देख रहा है ---चलो जान में जान आई. ----- कुल्लू मनाली में भी तो बस यही सुना था कि मनीकरन में` हॉट स्पिंग` है हम ये कल्पना भी ना कर पाये थे कि नीचे छलछलाती ठंडी नदी से सटे पहाड़ के छेदों से इतना गर्म पानी निकल सकता है कि भाप उठे. एक पुल पार करके जाओ तो इस हॉट स्प्रिंग पर गुरुद्वारा बना होगा. आस पास की गन्दगी से अलग बिलकुल साफ़ सुथरा, सुंदर. जहाँ सबढ़ के मीठे स्वर हमारे जेहन में आध्यात्मिक सुकून पहुँचाते उतर जायेंगे. इसके बरामदे से उठती हॉट स्रिंग की ढेर सी भाप दिखाई देगी इससे से यहाँ चावल पकाये जाते हैं., लंगर चलता रहता है.

प्रकृति हमें इसके रचयिता के लिए चमत्कृत करती है-मैं अपनी हथेली 10-15 मिनट इस आस्था के कलश के कुंड में भिगोकर से चर्म रोग को मिटा पाई थी, अब ये तो आपकी तरह मुझे भी मालूम है कि हॉट स्प्रिंग के पानी में सल्फर घुला होता है -----पर सवाल तो ये है कि ये यहाँ किसने घोला ?गुरुद्वारे में ही एक गुफ़ानुमा कमरा बना रक्खा है. जहाँ पर बहुत से लोग बैठे व लेटें मिलें ---यहाँ बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं. बच्चों का जुखाम ठीक हो जाता है.

गुजरात में भी तो एक हॉट स्प्रिन देखा था ऊना ज़िले में` `उनई `. उसी भावुक आस्था से ओत प्रोत ----कहते हैं किसी ऋषि ने भगवान राम की इतनी तपस्या की कि उन्हें चर्म रोग हो गया था, उसी रोग को ठीक करने राम ने ज़मीन में बाण चलाकर इस हॉट स्प्रिंग की उत्पत्ति की थी. सीता भी इस कुंड में नहाई थी तब राम ने उनसे पूछा कि तुम नहा ली ?उन्होंने उत्तर दिया ---`हूँ नहा ली `तबसे इसका नाम `उनई`पड़ गया.

वाछड़ा दादा के मन्दिर की भी अपनी आस्था है--- ----हर चैत की पूनम को मेला लगता है, जहां दो ढाई लाख लोग आते है. यहां लोग 500 सौ के नोटों की गद्दिया यहां अर्पित करतें, हैँ, एक एक नोट उँगलियों से लुटने के इस केशत्र के अपने अनोखे अंदाज़ में. लोगों से ये सारा रन भर जाता है. उनकी आस्था है यहाँ मनोकामना पूरी होती है, किसी भी तरह का जहर उतर जाता है

इसी निपट सुनसान रन में हमारी यात्रा जारी है--ड्राइवर हर पन्द्रह बीस मिनट बाद पत्‍‌नी या मित्र की मोबाइल पर डाँट खा रहा है. तभी सुनसान रात में कार की खिड़की से दाँयी तरफ लम्बा तगड़ा एक ग्रामीण धोती कुर्ता व पगड़ी पहने हाथ से गाड़ी को रुकने का इशारा करते नज़र आता है. ड्राइवर तेज़ गाड़ी भगा देता है, यहाँ रन में गाड़ी रोकना ठीक नहीं होता. रास्ते में जब एक पत्थर के आगे से गाड़ी गुजरती है ---------जब तक दूसरा दिखाई नहीं देता साँस कुछ तो अटकी सी लगती है. अखिकार कच्ची सड़क से कार सीमेंट की सड़क पर चढ़ती है. डाइवर तसल्ली से साँस लेकर अपनी पत्‍‌नी को फ़ोन करता है, ``हूँ ध्रांगध्रा नी रोड ऊपर चढ़ी ग्यो. ``

[ श्री निरंजन राजगुरु द्वारा लिखित ` वीर वच्छ्रराज सोलंकी `पुस्तक का मूलभूत आधार है सन् 1886 में कर्नल जे. डब्लयू वॉटसन द्वारा अँग्रेजी में लिखी पुस्तक जिसे गुजराती के आद्धकवि नर्मदाशंकर ने गुजराती में अनुवाद किया है ``काठियावाड़ सर्वसंग्रह. `` इसमे भी उल्लेख है कि वाछदा दादा के प्रताप से वीरान टापू के मीठे तालाब के पानी से बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं. यहाँ हजारों यात्री यात्रा का कष्ट उठाकर इनकी मान्यता पूरी करने आते हैं. . इन तीनों ने गाँवों गाँवों घूमकर दंत कथाये, जान श्रुतियाँ इक्काथठी करके यहां के गौ सेवा ट्रस्ट के माध्यम से ये पुस्तक प्रकाशित की है. आस् पास के इलाकों में ये बात प्रचलित है कि वीर वच्छ्राज के तप के कारण यहां रन में मीठा पानी का स्त्रोत यानि `ओएसिस `पैदा हुआ था. यदि ये पुस्तक ना होती तो गुजरात के ऎसे जाँबाज़ वीर के विषय में जानना सम्भव नहीं था.

आज भी इस इलाके में ढाई सौ गाँवों में दादा के मंदिर, पेद व पेदला व समाधि, मिल जायेंगे. आज भी लोककलकारो, लोकगायको की यहां इनकी कथावार्ता, गीत छंद, दोहे की ऑडियो वीदिओ सी डी की खूब बिक्री होती है. यहाँ हिन्दू मुस्लिम एक सी श्रद्धा से नमन करते हैं. ]

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श्रीमती नीलम कुलश्रेष्ठ

e-mail — kneeli@rediffmail. com

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