वाजिद हुसैन की कहानी -मार्मिक
'मैं अपनी बीवी से बहुत प्यार करता हूं।' उदास-सी आवाज़ में कहकर शकील ने सिर झुका लिया।
अकरम ने काॅफी का एक घुट लिया था, तब शकील ने फिर से अपनी बात दोहराई। अकरम ने उसकी ओर आश्चर्य से देखा। फिर कहा, 'इसमें बार-बार कहने वाली क्या बात है? मैं समझ सकता हूं तुम सच बोल रहे हो।'
'पर उसे मेरी बात पर यकीन नहीं आता।'
'यकीन नहीं आता, क्या मतलब? मेरे ख़्याल में तुम एक अच्छे सभ्य और शालीन युवक हो, तुम्हारी बीवी को तुम पर विश्वास करना चाहिए। मैंने अक्सर तुम्हें उसके लिए गिफ्ट लाते देखा है, बाज़ार में शॉपिंग करते देखा है और पिछली बार तो तुमने उसके बर्थडे पर एक बड़े होटल में शानदार पार्टी भी दी थी। तुमने हमेशा उसे मुहब्बत की निगाहों से देखा है, मेरे दोस्त।'
'हां सुम्बुल मेरी दिलरूबा रही है।' जो वह कहती थी, मानता था। अब वह सीधे मुंह मुझसे बात नहीं करती। उसे समझना बहुत मुश्किल है।'
'शकील, तुम ठीक ही कहते हो।'अकरम ने कहा। 'इन औरतों को समझना वाकई बहुत मुश्किल होता है, कभी बिल्कुल अपनी सी लगती है और कभी एकदम अजनबी बन जाती हैं। अब मेरी बीवी को ही देखो, दो साल कितना छकाया उसने मुझे। बार-बार रूठकर मायके चली जाती है।'
कहकर काॅफी का एक घूंट लिया और कुर्सी पर कुछ ज़्यादा ही पसर गया।
मन छोटा मत करो, दोस्त! लो, पहले यह रोस्टेड काजू खाओ। मेरे ख्याल में तुम्हारी बीवी वाकई अच्छी है। कितना ख़्याल रखती है तुम्हारा। जान छिटकती है तुम पर। मेरी ने तो जीना हराम कर रखा है।'
मैं तुम्हें बहुत क़रीब से तो नहीं जानता। बस पिछले दो साल की दोस्ती है हमारी। वह भी इत्तिफाकन। और आज छठी या सातवीं बार इस कॉफी हाउस में मिल रहे हैं। पर मैं दावे से कह सकता हूं कि तुम मुझसे कुछ छुपा रहे हो, अकरम ने प्लेट से कुछ काजू उठाते हुए काफी का एक घूंट लेते हुए शकील के चेहरे पर नज़र गड़ा दी।
'दरअसल!'
दरअसल क्या? बताओ दोस्त से कैसा पर्दा?' दरअसल किसी ने मेरे साथ एक बुर्के वाली को एक अस्पताल में देख लिया। उसने यह बात सुम्बुल को बता दी। वह उसे दूसरी औरत समझ बैठी और बर्दाश्त नहीं कर पाई।
अकरम के हाथ से काॅफी का मग फिसलते-फिसलते बचा। उसने शकील का कंधा थाम लिया- 'क्या कह रहे हो तुम? बुर्क़े वाली! और वह भी तुम्हारी ज़िंदगी में? मज़ाक तो नहीं कर रहे, यार? कहीं दिमाग तो नहीं फिर गया तुम्हारा? तुम ऐसा कैसे कर सकते हो? तुमने तो अपनी बीवी से लव मैरिज की थी।'
'की थी ज़रूर की थी, मैंने सुम्बुल से लव मैरिज की थी।
मुझे बहुत हैरानी हो रही है। मैंने तुम्हें इस तरह का आदमी नहीं समझा था। मैं तो हमेशा यही समझता था कि तुम अपनी फैमिली से बेहद प्यार करते हो।
फिर शकील ने मुझे यह कहानी सुनाई... मेरे पापा गांव के सरकारी स्कूल में टीचर थे। मैं पांच वर्ष का था, उनकी ऐक्सीडेंट से मृत्यु हो गई थी। पापा की जगह मम्मी को नौकरी मिल गई। वह बस से अप एंड डाउन करती, घर सम्भालती, मुझे पढ़ाती थी। मैंने इंटर फर्स्ट डिविज़न में पास कर लिया था। हालांकि पैसे का अभाव था, फिर भी मां ने मुझे पढ़ने के लिए बाहर भेज दिया। मेरी काॅलेज और हॉस्टल की फीस भरने के बाद जो पैसे बचते, उससे मोटा चावल खरीद लातीं, नमक डालकर उबालतीं, दिन में माढ़ पी लेती और रात को खोखस खा लेती थी।
मैं एस.डी.एम हो गया और मां को लेकर सरकारी बंगले में शिफ्ट हो गया था। वह एक ही रट लगाए रहती थी, 'मेरी तबियत ठीक नहीं रहती, सोचती हूं, बहू ले आऊं, मरने से पहले पोती-पोते का मूंह देख लूं।'
हैदर अली मेरे बाॅस थे। मैं ईद की मुबारकबाद देनेे उनके बंगले पर गया। हाथ में फूलों का गुलदस्ता लिए, लहराते भूूरे बालों वाले आकर्षक नौजवान को उनकी लड़की अपलक देखती रही और मेरा दिल उसकी भूरी आंखों और मक्खन से बदन पर फिसल गया। सुम्बुल से मिलकर मुझे लगा, जैसे बरसों पुरानी जान पहचान है। और मैं उसके कंधे पर झूलते भूरे बालों की गिरफ्त में आ गया। वह हाई- प्रोफाइल गर्ल थी पर मेरी पर्सनालिटी और पोस्ट से इंप्रेस थी। मैं साहब से फाइल पर दस्तख़्त कराने के बहाने उससेे मिलने जाता और प्यार भरी बातें करता। एक दिन मैंने बातों-बातों में उससे प्यार का इज़हार कर दिया। उसने कहा, 'मुझे आप पसंद हैं, पर शादी नहीं कर सकती, 'लोअर मिडिल क्लास सास क्रृुअल होती हैं, मैं बर्दाश्त नहीं कर सकती।' ... मैंने रूमानियत के लहजे में कहा, 'सुम्बुल माई डारर्लिंग, मेरी मां पढ़ी-लिखी है, सरकारी स्कूल में टीचर है। वह तुम्हारे साथ प्रेममयी व्यवहार करेंगी। यदि वह तुम्हारे साथ एडजस्ट नहीं कर सकी तो मैं उन्हें पुश्तैनी मकान में शिफ्ट कर दूंगा।' 'बोल्ड बेबी।' उसने गले लगते हुए कहा।' इस शर्त के साथ हमारी शादी हो गयी।
शादी के बाद मां टोका-टाकी से बाज़ नहीं आयी और सुम्बुल ने पलटवार का मौका नहीं छोड़ा। आख़िरकार मैंने सुम्बुल से किया वादा निभाया और मां को पुश्तैनी मकान में शिफ्ट कर दिया।
मैं सुम्बुल के हुस्न की किश्ती में सवार उसकी झील सी आंखों में सारी कायनात की सैर करता और मां से बेख़बर हो गया था।
मैं मोटर से ऑफिस जाता, गेट पर एक बुर्क़ा ओढ़े औरत से सामना होता। मैं सोचता, पता नहीं किसकी बाट जोह रही है, जो चिलचिलाती धूप, मूसलाधार बारिश, बर्फीली हवा भी इसके जज़्बात के आड़े नहीं आती। कभी मुझे फरियादी लगती, जैसे मुझसे कुछ कहना चाहती है। एक दिन, मोटर स्लो करके खिड़की में से मैंने उससे पूछा, 'कुछ कहना है?'
वह उतावली होकर मेरी ओर बढ़ी और हड़बड़ाहट में मोटर की चपेट में आ गई। उसकी दर्द भरी चीख़ से मैंने उसे पहचान लिया, 'वह मेरी मां थी।' मैं आनन-फानन में उसे मोटर से अस्पताल ले गया।
अस्पताल में डॉक्टर मां को आप्रेशन थेटर में ले गए। मैं बाहर बैंच पर बैठा, पुरानी यादों में खो गया। ख़ुद की ग़लाज़त ने मेरे बदनुमा चेहरे को ढक लिया था। मन करता, ज़मीन फटे और मैं उसमें समा जाऊं। ... डॉक्टर ने यह कहकर दिल का दर्द और बढ़ा दिया, ' आपकी मदर को गहरा आघात लगा है जिससे उनकी जीने की लालसा समाप्त हो चुकी है। उन्हें इलाज से ज़्यादा सहानुभूति की आवश्यकता है। फिलहाल हाथ में फ्रैक्चर था, प्लास्टर कर दिया है। आप उन्हें घर ले जा सकते हैं।' मेरे सब्र का बांध फट पड़ा और मैं फफक कर रोने लगा।
मैं मां को लेकर अपने बंगले पहुंचा। दरवाज़े पर ताला लगा था, चाबी अरदली के पास थी। अरदली न कहा, 'किसी ने अस्पताल में आपको बुर्क़े वाली औरत के साथ देखकर मेम साहब को बता दिया। वह दूसरी औरत को बर्दाश्त नहीं कर सकीं और घर छोड़कर चली गईं।'
मैं मां को नर्स के सुपुर्द करके सुुम्बुल के पास गया। मैंने उसे सफाई दी, 'जिसे आप दूसरी औरत समझ रही है, वह बुर्क़े मे मेरी मां थी। फिर उसे पूरा किस्सा सुनाया और घर चलने को कहा। उसका संक्षिप्त उत्तर था, 'बी वन साईड।'
अकरम मेरे दोस्त, बताओ, 'मैं क्या करूं?' अकरम ने कहा, 'मेरी कहानी, तुम्हारी कहानी से मेल खाती है। कल मिलते हैं, कोई न कोई हल खोज निकलेंगे।'
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