अमन कुमार त्यागी
रामलाल की बेचैनी थमने का नाम नहीं ले रही थी। वह बहुत अधिक परेशान थे। रात्रि का मध्यकाल था और आँखों से नींद गायब थी। हाथ-पाँव काँप रहे थे। पूरा बदन पसीने से तर बतर था। फिर अचानक उन्हें सारा कमरा घूमता नजर आने लगा खिड़की दरवाज़े सब उनके चारों ओर किसी सौरमंडल के ग्रहों की तरह चक्कर लगा रहे थे। दीवार पर हाथ टिकाए वह अपने आपको भी हवा में घूमता हुआ अनुभव कर रहे थे। चंद सेकंड में ही उनकी आँखों में अँधेरा छाने लगा, तेज रोशनी के बावजूद उन्हें कुछ भी दिखाई देना मुश्किल हो गया था। वह अपने पलंग से मात्र चार कदम की दूरी पर थे मगर पलंग तक पहुँचना उन्हें असंभव सा प्रतीत लग रहा था। कितनी अजीब बात थी कि सारी दुनिया घूम लेने वाले रामलाल अब चार कदम रखने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें अपने पलंग तक पहुँचने में जो मशक्कत करनी पड़ रही थी अब तक के जीवन में कभी नहीं करनी पड़ी। लाखों किलोमीटर का सफ़र करने के बाद उन्होंने कभी थकन का अहसास किया तो एक दो प्यालों में उसको घुला दिया और चैन की नींद पूरी की।
जागने को तो उनका पूरा जीवन ही रातों को जागने में गुज़रा मगर आज की जगन उनके लिए नाकाबिलेबर्दाश्त हो रही थी। ऊपर से चक्कर और कमज़ोरी ने उन्हें घुमाकर रख दिया था। किसी तरह पलंग के पास पहुँचे और फिर किसी कटे पेड़ की मानिंद गिर पड़े। जब धीरे-धीरे उनकी सांसे संयत होने लगीं तो उन्होंने आँखें खोलकर देखा। सबकुछ यथावत लगा। उन्होंने पुनः उठने का प्रयास किया मगर कमज़ोरी की अधिकता के कारण उठ न सके।
समाज में बड़ा मान-सम्मान रखने वाले रामलाल की उम्र अस्सी वर्ष हो चुकी थी। उनका शरीर जरूर क्षीर्ण होता जा रहा था परंतु उनका मस्तिष्क अभी भी कमज़ोर नहीं हुआ था। उनकी याददाश्त कमाल की थी। एक-एक बात उन्हें याद रहती थी। यह अच्छे बुढ़ापे के लिए ख़राब बात है, अच्छी ख़ासी याददाश्त बने रहने का मतलब, उन्हें बचपन, किशोर और जवानी की ग़लतियों का अहसास कर अपना वर्तमान ख़राब कर लेना है। अभी वह अपनी स्मृतियों के भँवर में फँसने ही वाले थे कि तभी बाहर से आवाज़ आई- ‘नींद नहीं आ रही है क्या?’
-‘नहीं, तबियत ख़राब सी लग रही है। तुम सो जाओ।’ उन्होंने इतने धीमे कहा कि शायद दीवारें भी न सुन सकी हों।
-‘मैं कह रहा हूँ कि सो क्यों नहीं जाते हो? कोई पहाड़ नहीं टूटा है। जो हुआ अच्छा हुआ।’ कमरे के बाहर से पुनः कहा गया।
इस बार रामलाल शांत रहे। उनके बोलने का मतलब उनकी तक़लीफ़ का बढ़ जाना था। वह नहीं चाहते थे कि उन्हें इस समय कुछ हो। कमरे के बाहर से अंदर आती कदमों की आवाज़ ने उन्हें सतर्क कर दिया और वह आँख बंद कर सोने का नाटक करने लगे। एक खटके के साथ इलेक्ट्रिक स्विच आफ किया गया और अंदर आई पदचाप अब बाहर की ओर जाने लगी तो रामलाल ने पुनः आँखें खोल दीं। इस बार कमरे में अंधेरा था। वह अँधेरा जिससे बचने के लिए उन्होंने तमाम उम्र जायज़-नाजायज़ प्रयास किए थे। वह सारी उम्र जिस बेटे का साथ देते रहे उसी ने उनके कमरे में अँधेरा कर दिया था। किंतु यह अँधेरा उनके लिए अच्छा था। यह अँधेरा उनकी स्मृतियों और स्वयं से वार्तालाप में सहायक जो बनने वाला था।
उन्होंने अँधेरे में जैसे ही आँख खोली तो अनायास उनके मुँह से निकला- ‘हे भगवान! अब क्या होगा?’
वह सोच रहे थे कि जो-जो आरोप उनकी पत्नी और दूसरे बेटे मनीष ने प्रसून पर लगाए थे, आख़िर उसने उन्हें मान ही क्यों लिया। मैंने कभी मनीष के दिल की बात आख़िर सुनी क्यों नहीं और मनीष ने भी तो कोई शिक़ायत नहीं की थी कभी। जैसे-जैसे उससे कहा जाता रहा वह मानता रहा, मैंने ही तो कहा था उससे घर छोड़कर जाने के लिए और वह सुबह होते ही चला भी गया। एक बार भी तो नहीं पूछा था उसने कि आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है और उसके घर छोड़कर जाने के बाद सब लोग कितने ख़ुश थे? मैं उसके साथ पक्षपात क्यों कर बैठा?
कुछ देर रामलाल शांत रहने के बाद अपने पलंग पर ही बैठते हुए बोले- ‘अब मैं उनके साथ कोई अत्याचार नहीं होने दूंगा, भले ही मेरी जान चली जाए। मैं उनका हिस्सा उन्हें जरूर दूंगा।’ उन्हें वह सब बातें याद आने लगी थीं जिनसे दुःखी होकर प्रसून ने घर छोड़ दिया था और उन्होंने भी प्रसून से कानून संबंध विच्छेद कर लिए थे। न जाने क्या-क्या सोचते हुए उन्हें नींद आ गई थी। नींद भी इतनी गहरी कि जब उठे तो सूरज सिर पर चढ़ आया था। वह हड़बड़ाकर उठे।
-‘मैं प्रसून के घर जा रहा हूँ।’ उन्होंने उठते ही कहा था।
-‘क्या करोगे वहाँ जाकर?’ उनके बेटे मनीष ने पूछा।
-‘मुझे जाना ही होगा। मेरा जाना ज़रूरी है।’ रामलाल ने ज़ोर देकर कहा और अपनी छड़ी की टिक-टिक के साथ दरवाज़े की ओर बढ़ने लगे।
तभी मनीष अपनी जगह से उठा और रामलाल के पास पहुँचकर प्यार से बोला - ‘चले जाना, लेकिन कुछ चाय वगैरह पीते जाओ, वहाँ कुछ नहीं मिलेगा।’
बात रामलाल की समझ में आ गई और वह बरांडे में पड़ी कुर्सी पर बैठ गए। मनीष की पत्नी चाय बनाने के लिए रसोई में चली गई और मनीष उन्हें बैठाकर सामने वाली कुर्सी पर बैठना ही चाहता था कि तभी दरवाज़े पर लगी बैल बज उठी। मनीष दरवाज़े पर देखने चला गया। तभी रामलाल की निगाहें सामने रखे कुछ शादी कार्डों और पुराने अख़बार पर गईं। उन्होंने आगे बढ़कर वह अख़बार उठाकर देखा और फिर ख़ामोशी से वहीं रख दिया, फिर उन्होंने एक शादी कार्ड उठाया और बाहर से ही देखकर यथावत रख दिया। अब उन्होंने दरवाज़े की ओर कान लगा दिए। मनीष की धीमी आवाज़ आ रही थी -‘ नहीं, हमारा क्या मतलब? पिता जी अभी सो रहे हैं, रात भर उनकी तबियत ख़राब रही है और फिर उन्हें कुछ बताया भी नहीं गया है।’ इसी के साथ दरवाज़ा बंद करने की आवाज़ आती है तो रामलाल संभलकर बैठ जाते हैं।
-‘कौन था?’ रामलाल ने पूछा।
-‘कोई नहीं, ऐसे ही कोई आया था। आप आराम से चाय पिओ।’ मनीष ने लापरवाही से कहा।
-‘और ये सब क्या है?’ रामलाल ने मेज पर रखे शादी कार्ड और पुराने अख़बार की ओर इशारा करते हुए पूछा।
-‘ये वही सब प्रूफ हैं जिनसे सिद्ध हो जाएगा कि प्रसून से हमारा कोई रिश्ता-नाता नहीं था।’ मनीष ने बता दिया।
-‘मतलब ये काग़ज़, रिश्ते-नाते ख़त्म कर देंगे।’ रामलाल ने मायूसी के साथ पूछा।
-‘कर देंगे क्या? कर चुके हैं। न तो उसका नाम हमारे यहाँ किसी भी विवाह उत्सव में छपा है और अख़बार में विज्ञापन देकर भी आपने संबंध विच्छेद कर दिए हैं।’ मनीष ने उन्हें एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ बता दिया।
रामलाल को कोई जवाब नहीं सूझ रहा था। वह अंदर ही अंदर घुट रहे थे। कुछ कहते कि उससे पहले ही मनीष की पत्नी चाय लेकर आ गई।
-‘चाय पिओ और आराम करो। वहाँ जाने का मतलब है हमसे सदा के लिए रिश्ता ख़त्म कर लेना।’ मनीष ने कहा और सभी काग़ज़ एक फ़ाईल में रखने लगा।
रामलाल अंदर से उतने कठोर भी नहीं थे जितना कि परिस्थितियों ने उन्हें बना दिया था। वह भी प्रसून से बहुत प्यार करते थे मगर कुछ मजबूरियाँ थीं जिनके कारण उन्हें प्रसून से दूरी बनाकर रखनी पड़ी। घर में ऐसा षड़यंत्र रचा गया कि जो सही था उसे घर से बाहर कर दिया गया और जो ग़लत थे वह घर में ही रहे।
बाहर से घंटे के बजने की आवाज़ के साथ लोगों का सम्वेत स्वर गूँज रहा था- ‘राम नाम सत्य है, सत्य बोलो गत है।’
रामलाल ने पूछा - ‘यह किसकी शवयात्रा है?’
-‘उसी की जिसका नाम हमारी लिस्ट से सदा के लिए काट दिया गया था।’ मनीष ने एक झटके से बता दिया।
सुनकर रामलाल का दिल बैठा जा रहा था। मनीष का यह जवाब सुनकर रामलाल का हलक सूख गया था। आंखें जैसे पथरा गई थीं। उन्होंने बेचैन हो कहा -‘तूने अच्छा नहीं किया मनीष। तू नहीं जानता तेरी वजह से न सिर्फ़ भाई के रिश्ते का ही क़त्ल हुआ है, बल्कि माँ-बाप के रिश्तों का भी क़त्ल हो गया है। यह प्रसून की नहीं बल्कि रिश्तों की शवयात्रा है।’
कहते हुए रामलाल की आँखों से आँसू झरने लगे थे। रामलाल को आज समझ आ रहा था। ‘क्यों माँ-बाप को संतान में पक्षपात नहीं करना चाहिए।