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नैनावती

अमन कुमार

एक दिन मैं कनाॅट प्लेस के मंडी हाऊस बस स्टैंड पर खड़ा था। मुझे लक्ष्मीनगर जाना था मगर एक भी बस ऐसी नहीं आ रही थी जिसमें किसी और सवारी के चढ़ने की गुंजाइश हो मगर फिर भी सवारियाँ चढ़ रही थीं। ऐसी धकम-पेल दिल्ली की बसों में अक्सर देखने को मिल जाया करती है। मैंने लाख चाहा कि मैं भी किसी बस की भीड़ में शामिल हो जाऊँ मगर साहस नहीं जुटा सका। हालांकि लक्ष्मीनगर आॅटोरिक्शा भी जाती है मगर मेरी जेब में इतना वज़न नहीं था कि मैं आॅटो का किराया चुकाने के बाद रात का खाना खा सकूँ। मजबूरी थी बस की भीड़ में शामिल होना। मैंने एक बार फिर हिम्मत की और स्टेट्समैन ;अंगे्रज़ी का अख़बार जहाँ से छपता हैद्ध के दफ़्तर के सामने जहाँ बसे प्रायः खाली हो जाया करती हैं की तरफ़ पैदल ही चल दिया।
अभी मैं चार कदम ही चल पाया हूंगा कि मेरे कानों में किसी महिला का मधुर किंतु याचनापूर्ण स्वर टकराया। वह कह रही थी- ‘ऐ बाबू! कल से भूखी हूँ दो-चार रुपए दे दो।’ उसकी आवाज़़ में तड़प थी। सहसा मैं पीछे पलटा और उस महिला की तरफ़ देखा। वह जैसे सहम गई हो, हाथ उसका आगे बढ़ा हुआ था और हथेली खुली थी। तेज़ धूप पड़ने के कारण उसकी हथेली किसी आईने की तरह चमक रही थी। मैंने उसकी हथेली से नज़रें हटाई और उसके चेहरे पर जमा दी। वह झेंप गई। उसने गर्दन झुका ली मगर हाथ फिर भी आगे ही रहा उसकी गोद में एक छोटा सा बच्चा भी था, जो कपड़े को बार-बार मुँह से कुतरने की नाकाम कोशिश कर रहा था। मुझे मालूम है कि दिल्ली ही क्या संपूर्ण देश में ही भीख माँगने वाले अपने आपको भूखा बताते हैं और ऊपर वाले की दुहाई देकर एक-दो रुपए की माँग करते हैं। मैं भीख माँगने और देने वालों के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ और फिर वैसे भी मुझ जैसे फक्कड़ आदमी की जेब में इतने पैसे कहा होते हैं कि जो किसी को भीख दे सके या यों भी कहा जा सकता है कि हम पैसे के मामले में इतने ग़रीब होते हैं कि बस ज़मीर नहीं बेचते और भीख नहीं माँगते। मेरे ख़याल से दुनिया का कोई भिखारी दो घंटे भूखा नहीं रह सकता। जबकि हम जैसे लोग दो-दो दिन भूखे काट देते हैं सिर्फ़ इसलिए कि किसी से अपनी परेशानी नहीं बता सकते।
मैंने एक बार उस महिला को ऊपर से नीचे तक देखा। उसने जो कपड़े पहन रखे थे निश्चित ही वो मेरे कपड़ों से महंगे थे और लिबर्टी की महंगी चप्पल उसके पैरों में थी। बच्चे ने जो कपड़े पहन रखे थे वह भी कम क़ीमत के नहीं थे। मैं वापिस मुड़ा और चल दिया।
-‘ऐ बाबू! दे-दे ना एक-दो रुपया।’ उसने मेरी कमीज़ पकड़ कर कहा तो मैं खीझ उठा। उसकी इस हरकत पर मुझे गुस्सा आ गया और मैंने उसे डाँटते हुए कहा- ‘भीख माँगती है....कहीं काम क्यों नहीं कर लेती। अभी तो हट्टी-कट्टी है।’
इतनी बात सुनते ही उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े और चेहरे पर मुर्दानगी छाने लगी। उसकी यह स्थिति देख मैं भी भाव विह्वल हो उठा। अनायास ही मेरा हाथ जेब में गया और जब बाहर आया तो पचास रुपए का नोट हाथ में था। मैंने हाथ आगे बढ़ाया और उसके हाथ पर रखने के बाद अपने गन्तव्य की ओर चल दिया। अभी मैं फुटपाथ छोड़कर सड़क क्रास करना ही चाहता था कि उसी भिखारिन महिला का मधुर स्वर पुनः मेरे कानों में गूंजा। वह कह रही थी- ‘बाबू, ओ बाबू! क्या मुझे काम मिल सकता है?’
मैंने पुनः उस महिला की तरफ़ देखा। उसकी आँखों में आँसू नहीं बल्कि चमक थी, रहस्यमयी चमक जिसे मैं समझने में धोख़ा खा रहा था। अब उसके चेहरे पर मायूसी नहीं बल्कि ख़ुशी थी और होंठों पर मुस्कान लिए थी वह। उसका यह रूप देखकर मैं आश्चर्य में गोते लगाने लगा। मेरे मन में विचार आया कि कहीं यह कोई फिल्मी दृश्य तो नहीं है, लेकिन आस-पास कोई कैमरा नहीं था। वहाँ मौजूद कोई भी आदमी हमारी तरफ़ नहीं देख रहा था। मैं चारों तरफ़ देखने के बाद आश्वस्त हो गया कि कहीं कोई गड़बड़ नहीं है। मैं एक बार फिर उस महिला की ओर मुख़ातिब हुआ- ‘क्या तुम वाक़ई मेहनत करना चाहती हो?’’ मैंने पूछा तो उसने तपाक से जवाब दिया- ‘हाँ बाबू! भीख माँगने में भी तो मेहनत ही करनी पड़ती है।’ यह सच कह रही थी। भीख माँगने में कितनी ज़िल्लत उठानी पड़ती है। वह किसी से नहीं छिपा है। भिख़ारी को कितनी हिकारत भरी निगाहों से देखा जाता है यह भी सभी जानते हैं। वह महिला काम के लिए कह रही थी तो निश्चित ही भीख माँगने से तंग आ चुकी होगी। वह भीख माँगने के अभिशाप से मुक्त हो जाना चाहती थी। ऐेसे में उसकी मदद करना मेरा नैतिक कत्र्तव्य था मगर उसकी मैं क्या मदद करूँ, कहाँ उसे काम दिलाऊँ, जल्दी से मेरी समझ में नहीं आ रहा था। मैं अपनी परेशानी को कम करने के लिहाज़ से पूछा- ‘क्या काम कर सकती हो?’ मेरे सवाल के जवाब में पहले तो वह ख़ामोश रही मगर फिर जल्दी ही बोली- बाबू! पैसे के लिए कुछ भी करूँगी।’
उसका मेरे कहने के साथ ही अपना इरादा बदल देना अब मुझ पर भारी पड़ रहा था। रात होने वाली थी। उसके लिए एकदम से कोई काम भी तो तलाश नहीं किया जा सकता था। उस वक़्त उससे पीछा छुड़ाने के लिए मैंने उससे कहा- ‘ठीक है, कल तुम मुझे यहीं मिलना। मैं कल ज़रूर तुम्हें काम पर लगवा दँूगा। मेरी बात सुनकर वह एक बार फिर मायूस होने लगी। दबे-दबे लहजे में वह बोली- ‘बाबू! मुझे आज रात अपने साथ ले चलो। मैं तुम्हें शिक़ायत का कोई मौका नहीं दूँगी।’ उसकी इच्छा सुन कर मैं सन्न रह गया। एक अजीब सी आफ़त मेरे गले पड़ी जा रही थी। अपने साथ उसे घर ले जाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। लग रहा था कि मैं खाली उपदेश देना जानता हूँ और अब अपने ही जाल में फंस गया हूँ। इस जाल से निकलना मेरे लिए ज़रूरी था। लेकिन कैसे निकलूँ? सोच-सोचकर परेशान हुए जा रहा था। मौसम सर्दी का होने के बावजूद मुझे पसीना आ गया था। अजीब सी पसोपेश में फंस गया था। मेरी सोच भी जवाब दे रही थी। अभी मैं पता नहीं क्या-क्या सोचता कि उसकी मधुर आवाज़़ ने सोच भंग कर दी। वह पूछ रही थी- ‘क्या सोचने लगे बाबू ?’
मुझे उससे ऐसे किसी भी सवाल की उम्मीद नहीं थी और न ही मैं उसके किसी सवाल का जवाब देने की स्थिति में था परंतु फिर भी मैंने हिम्मत जुटाई और उससे कहा- देखो मैं तुम्हें अपने घर नहीं ले जा सकता, चाहो तो मुझसे और पैसे ले लो। ईश्वर पर भरोसा रखो। कल तुम्हें काम पर ज़रूर लगवा दूँगा।’ मैंने बड़ी मुश्किल से थूक निगलते हुए कहा और अपनी जेब में पड़े एक मात्र पचास रुपए का नोट निकालकर उसे देने लगा। लेकिन उसने पचास रुपए लेने से यह कह कर इंकार कर दिया कि वह बिना मेहनत के यह रुपए नहीं लेगी तब मैंने उससे कहा- ‘तुम भीख तो लेती ही हो, यूँ समझो कि मैं पचास रुपए तुम्हें भीख में ही दे रहा हूँ, या फिर उधार समझकर रख लो, जब काम मिल जाएगा दे देना।’ कहने के बाद मैंने उसके चेहरे की तरफ़ देखा। उसके चेहरे के भाव बड़ी तेज़ी से बदल रहे थे। वह कुछ सोचती हुई बोली- ‘रहने दो बाबू! भीख में पचास रुपए कोई नहीं देता। अब मज़ाक मत करो, मुझे अपने ठिकाने पर ले चलो, रात भर जैसे चाहो मेहनत कराना और फिर सुबह को सौ रुपए दे देना। आज सुबह से कोई भी नहीं मिला है ख़ाली हाथ घर जाऊँगी तो मेरा ख़सम मार-मार कर मुझे घर से निकाल देगा।’
उसका यह रूप मेरे संपूर्ण जिस्म में कंपन्न पैदा कर गया। मेरी आत्मा तक काँप उठी। मुझे उसके किरदार पर विश्वास नहीं हो रहा था। मैं तो उसे एक साधारण भिखारिन ही समझ रहा था, मगर वह तो भिखारिन की आड़ में उससे भी ज़्यादा घिनौना कृत्य कर रही थी। मेरा पत्रकार दिमाग़ सक्रिय हो उठा और मैं उसमें से एक अच्छा समाचार खोजने का प्रयास करने लगा। मैंने अपने आपको नियंत्रित किया और उसे अपने साथ फुटपाथ पर चलने के लिए कहा।
वह मेरे साथ चलने लगी। मैंने ऐसी महिलाओं के बारे में सुना तो था मगर देख पहली बार रहा था। रह-रहकर एक ही सवाल मेरे मस्तिष्क में घूम रहा था कि आख़िर ये महिलाएँ अपने वास्तविक जीवन से हट क्यों जाती हैं और इन्हें गै़र मर्दों की तलाश क्यों रहने लगती है? अपने सवाल का जवाब तलाशने के लिए ही मैंने उस महिला से पूछा - ‘इस धंधे में कब से है?’ तब उसने जवाब दिया- ‘बचपन से।’ जवाब सुनकर मुझे विश्वास नहीं हुआ और उस महिला को अधिक कुरेदने का प्रयास किया। उसने जो-जो बताया वह ख़ौफ़नाक़ सच था। उसके सच पर विश्वास नहीं हो रहा था मगर विश्वास के सिवा कोई चारा भी नहीं था। बातों ही बातों में उस महिला ने अपने बारे में जो बताया वह कोई पुराने हालात या फिल्मी कहानी नहीं बल्कि उस महिला की असल ज़िंदगी थी। उसका नाम नैनावती था। उसकी जाति के बारे में मैंने पहली बार सुना था। उसने अपनी जाति की जो स्थिति बताई निश्चित ही वह दयनीय थी। नैनावती की जाति के लोग जूता नहीं पहनते। उन्हें बंधुआ मज़दूरों की ज़िंदगी जीना पड़ रही है। औरतों की स्थिति तो और भी ख़तरनाक है। उनकी जाति में लड़कियों के बडे़ हो जाने पर उनके माँ-बाप द्वारा उनसे वैश्यावृत्ति कराई जाती है जबकि विवाह हो जाने पर उनके पति उनसे वैश्यावृत्ति कराते हैं। 

सोच रहा हूं कि काश यह जानकारी ग़़लत सिद्ध हो और महिलाओं के साथ इस अन्याय की बात भी झूठ हो।

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