अमन कुमार त्यागी
सरिता सौम्य एवं सुशील लड़की थी। वह अपने बहन-भाइयों में सबसे बड़ी होने के कारण सबसे अधिक समझदार भी थी। जब भी पिताजी कुछ खाने की चीजें़ लाते वह अपनी बहन व भाइयों को ही अपना हिस्सा भी खिला देती। जब वह बड़ी हुई तो उसके विवाह के लिए एक सभ्य वर की तलाश प्रारंभ कर दी गई। सरिता की छोटी बहन संगीता भी जवान थी। पिताजी को उसके विवाह की चिंता भी रहती थी। जब सरिता के लिए वर की तलाश हो गई तभी किसी ने राय दी कि संगीता का विवाह भी साथ ही कर दिया जाए। बात पिताजी को जमी तो उन्होंने संगीता के लिए भी जल्दी ही वर की तलाश कर ली।
विवाह की बात पक्की होते ही वर पक्ष ने सरिता की गोद भराई की रस्म पूरी कर दी और वह विवाह की जल्दी करने लगे। अभी पिताजी तैयारी कर ही रहे थे कि अचानक उनकी तबियत ख़राब हो गई। उन्हें अस्पताल भर्ती कराना पड़ा। मगर सरिता की ससुराल वालों को विवाह की जल्दी थी। वह समझते थे कि यदि सरिता के पिताजी चल बसे तो विवाह एक वर्ष के लिए रुक जाएगा और यदि संगीता का विवाह भी साथ होने लगा तो दहेज़ में कटौती हो जाएगी। सरिता की ससुराल वालों को यदि चिंता थी तो वह थी दहेज़ की। सरिता उनके मनोभावों को समझ गई थी तभी तो उसने अपनी माँ से कहकर वह रिश्ता तोड़ने का पक्का मन बना लिया। सरिता को घर-परिवार वालों ने काफ़ी समझाया मगर सरिता तो दृढ़ निश्चयी थी। उसने कहा- ‘जिस रिश्ते में लालच हो और स्वार्थों की सड़ांध आने लगी हो भला वह कब तक निभाया जा सकता है। फिलहाल मुझे अपने पिताजी की चिंता है, विवाह वहीं होगा जहाँ मेरी किस्मत में लिखा होगा।’
सरिता की बातें उसकी छोटी बहन संगीता भी सुन रही थी। वह तपाक से बोल उठी- ‘यदि बाद में तेरे लिए जल्दी ही कोई लड़का नहीं मिला तो!’ सरिता अपनी बहन के भावों को समझ रही थी। शायद इसीलिए उसने बड़ी शालीनता के साथ कहा था- ‘कोई बात नहीं, मैं इंतज़ार करती रहूँगी मगर विवाह तभी करूँगी जब पिताजी ठीक हो जाएंगे। रही बात तुम्हारी तो मैं पहले तुम्हारा विवाह करा दूँगी। मेरी बदनसीबी कभी तुम्हारे आड़े नहीं आएगी।’ कहते ही उसकी आँखों में पानी भर आया था और संगीता गुस्से में भुनभुनाती हुई कमरे में जाकर पलंग पर लेट गई थी।
सरिता ने अपने सर को तेज़ी से झटका और अगले ही पल उसके होंठों पर मुस्कान उभर आई। उसने अपने कपड़े दुरुस्त किए, पर्स उठाया और अस्पताल की ओर चल पड़ी। वह अब ख़ुश थी। उसके चेहरे पर निश्चिंतता भरे भाव देखे जा सकते थे। उसने फैसला कर लिया था कि वह अपने विवाह में होने वाले ख़र्च का सारा पैसा लगाकर अपने पिताजी को बचा लेगी और अपनी बहन का विवाह भी तुरंत ही करवा देगी। यही उसने किया भी। अभी पिताजी पूरी तरह से ठीक भी नहीं हुए थे कि सरिता ने अपने परिवार को समझाकर संगीता के हाथ पीले करा दिए। संगीता ख़ुशी-ख़ुशी अपनी ससुराल चली गई।
सरिता के पिताजी भी ठीक होने लगे थे। मगर उनकी दवाइयों में पैसा इतना अधिक ख़र्च हो गया था कि वह आर्थिक तंगी का शिकार होेने लगे थे। काम तो पिताजी के बीमार होते ही टूट गया था। आर्थिक तंगी का सामना करने के लिए सरिता ने एक विद्यालय में अध्यापक की और उसके छोटे भाई ने किसी फर्म में नौकरी कर ली थी। अब दोनों बहन-भाई के दम पर घर का ख़र्च चल रहा था। पिताजी चलने लायक हुए तो उन्हें पुनः सरिता के विवाह की चिंता हुई। वह बिरादरी में सरिता के लिए वर तलाशने लगे। मगर वह भी जहाँ जाते उनसे सवाल पूछे जाते- ‘आपने छोटी लड़की का विवाह पहले क्यों कर दिया? क्या आपकी बड़ी लड़की में कोई कमी है? आप दहेज़ में क्या देंगे?’
जब पिताजी घर वापिस आते और यह सारी बातें बताते तो घर का माहौल ग़मज़दा हो जाता। प्रारंभ में तो सरिता को किसी ने कुछ भी नहीं कहा मगर फिर जल्दी ही माँ-पिताजी तथा शादीशुदा बहन ने कहना शुरू कर दिया- ‘पता नहीं कब तक हमारी छाती पर बैठी रहेगी। हम तो तंग आ गए हैं बिरादरी को जवाब देते-देते।’ घर-परिवार के लिए कुर्बान होने वाली सरिता जब ताने सुनती तो उसकी पलकों से नीर छलक आता। वह किसी पर ज़ाहिर नहीं होने देती और अपने आँसुओं को आँखों से ही पी लेती। हर प्रकार से सुसभ्य, सौम्य, सुशील और ख़ूबसूरत सरिता देखते ही देखते घर के लिए कलंक समझी जाने लगी। जब सरिता से बर्दाश्त नहीं हो सका तो उसने भी स्पष्ट शब्दों में कह दिया- ‘मुझे नहीं करनी शादी। इतना तो मैं कमा ही लेती हूँ कि जीवन गुज़ार सकती हूँ। आप लोगों को बरदाश्त नहीं होता तो मैं अलग किराए का मकान लेकर रह सकती हूँ।’
माँ बेटी की भावनाओं और उसकी कुर्बानी की ओर से आँख मूंद लेती। उल्टे उसी पर विभिन्न प्रकार के आरोप-प्रत्यारोप करने लगती। नतीजा यह निकला कि सरिता के लिए अच्छे रिश्ते मिलने बंद हो गए। माँ रिश्तेदारों के तानों से सरिता भी दुःखी होने लगी थी। वह भी जब एकांत में होती तो प्रार्थना करती कि- ‘हे ईश्वर या तो मेरे लिए कोई रिश्ता भेज दो अथवा मुझे इस नश्वर संसार से मुक्ति दिला दो।’
सरिता की प्रार्थना ईश्वर ने सुन ली। उसके लिए एक रिश्ता पहुँच गया। पिताजी ने सरिता के लिए वर को देखा और तुरंत हाँ कर दी। सरिता ने पिताजी से होने वाले पति अथवा उसके परिवार के बारे में कुछ भी नहीं पूछा। जब पिताजी ने उसे बताने का प्रयास किया तो वह बिफर उठी। उसने कहा- ‘मुझे आप पर भरोसा है लेकिन आपको अपनी बेटी पर भरोसा नहीं है। मैं आपको बोझ लग रही हूँ और जब किसी बोझ को उतारा जाता है तो आदमी अच्छा-बुरा नहीं सोच पाता। आप अपना बोझ उतारिए मेरी चिंता भला आप क्यों करेंगे। जवान बेटी में तो काँटें निकल आते हैं। समाज के डर से हर माँ-बाप अपनी ही बेटी को बोझ समझने लगते हैं, धक्का दे देते हैं खाई में। जब बेटी ससुराल जाती है,...विभिन्न विचारधारा वाले लोगों में तब पुनः उसी की ग़लती निकाली जाती है बहू के रूप में। मैं जानती हूँ.....जिस बेटी को घर में बोझ समझा जाता है....वह लाख चाहे मगर ससुराल में सुख प्राप्त नहीं कर पाती है।’
इस वक़्त सरिता को विवेकहीन प्राणी समझ लिया गया था। विवाह की तैयारी होने लगी थी और फिर एक दिन वह भी आया जब सरिता विदा होकर ससुराल चली गई। ससुराल वालों का प्यार पाकर वह निहाल हो गई। जब वह पुनः मायके गई तो उसने खुले दिल से ससुराल वालों की तारीफ़ की, मगर ससुराल का सुनहरी रंग धीरे-धीरे उतरने लगा। सरिता को जल्दी ही अहसास हो गया कि उसकी ससुराल की माली हालत अच्छी नहीं है। जो भी आमदनी घर में आती है वह दिखावे के लिए अथवा उधार के लिए ख़र्च हो जाती है। घर का बजट गड़बड़ाया हुआ है। इस विषय पर जब उसने पति से बात करनी चाही तब उसके पति ने समझाया- ‘देखो सरिता! यह बात सही है कि मेरे घर की माली हालत अच्छी नहीं है और हम सात बहन-भाइयों में सबसे बड़ा बस मैं हूँ। हमारा भी कुछ उत्तरदायित्व है। मैं चाहता हूँ कि किसी को भी समझाए बिना हम अपनी ज़िम्मेदारी निभाते रहेें। हमारा उद्देश्य गृहसेवा नहीं बल्कि मानव सेवा होना चाहिए। जब हम अपने परिवार वालों की बहुत सारी माँगों को पूरा नहीं कर पाएंगे तब हमें बहुत से दुःखों के लिए भी तैयार रहना चाहिए।’
पति की बात सरिता की समझ में नहीं आई। तब उसने सकुचाते हुए पूछा- ‘सच बताइएगा....क्या मेरी कुछ सोने की चीज़ें भी गिरवी रखी गई हैं?’
सुनकर सरिता के पति ने कुछ सोचने के बाद कहा- ‘हाँ, किंतु मुझे भी बाद में ही पता चला है और फिर सोने के गहनों से तुम्हें लगाव भी नहीं होना चाहिए। हमें कुछ बड़े काम करने हैं जिनके लिए इन छोटी बातों को भूलना ही होगा। कई बार ऐसा भी होता है कि व्यक्ति छोटी-छोटी बातों में उलझकर रह जाता है।’
सरिता पति की कुछ बातें समझ पाई और कुछ नहीं। लेकिन वह ईश्वर को धन्यवाद देती थी कि उसे एक आदर्श पति मिला है। एक ऐसा पति जो अपने परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित था। सरिता भी अपनी नंदों, देवरों और सास व ससुर की सेवा के लिए सदैव तत्पर रहती थी किंतु वह उनकी गै़र सामाजिक व गै़र पारिवारिक बातों का विरोध भी कर देती थी। परिणाम यह निकला कि घर में तनाव शुरू हो गया। परिवार के अन्य सदस्यों ने अपनी ग़लतियों को सुधारने की बजाए सरिता एवं उसके पति में ही गलतियाँ निकालनी शुरू कर दीं। यही नहीं सास और नंदों ने भी ताने देने शुरू कर दिए। वह कहतीं- इतनी समझदार और सुदृढ़ थी तो क्यों तेरी बहन की शादी तुझसे पहले हो गई? क्या वह किसी के साथ भाग रही थी? ज़रूर उसमें या तेरे अंदर कोई कमी थी तभी तो तेरा पहला रिश्ता टूट गया। भली आई हमें समझाने वाली.....ख़बरदार....। अगर हमारे घर में रहना है तो जैसे हम कहें वैसे रहना... नहीं तो निकल जा हमारे घर से।’
ना बर्दाश्त होने वाले तानों को भी उसे बर्दाश्त करना पड़ता था। वह अपने पति को भी पारिवारिक बातें कम ही बताती थी।
सरिता का पति मुख्य रूप से पत्रकार था। महापुरुषों की कहानियां और धार्मिक ग्रंथों को पढ़ता रहता था। वह स्वयं भी धार्मिक एवं शांत-चित्त स्वभाव का था। ईमानदारी उसकी रग-रग में थी। उसे कई बार मोटी रकम का लालच दिया गया मगर कभी उसने अपने सिद्धांत से समझौता नहीं किया। धीर-धीरे उनके विवाह को आठ वर्ष हो चुके थे और अब तक सरिता एक बेटी एवं एक बेटे की माँ बन चुकी थी। दोनों पति एवं पत्नी ने ईमानदारी, ज्ञान और ज़िम्मेदारी के साथ जीवन जीने का संकल्प लिया था। शायद इसलिए उन्हें संघर्ष भी करना पड़ रहा था।
अब सरिता के पति को किसी बीमारी ने आ घेरा। इलाज में पैसा ख़र्च होने लगा तो वह अपने परिवार को उतना पैसा नहीं दे पाया जितने की परिवार को उससे अपेक्षा थी। पैसे की अधिकता मनुष्य के वास्तविक स्वभाव को ढक लेती है। मगर आर्थिक तंगी में जब वास्तविक स्वभाव पर से पर्दा हटता है तो परिवार विखंडन की राह पर चलने लगता है। ऐसे में यदि घर का मुखिया विवेक से काम ले तो टूटते परिवार को रोक सकता है और यदि मुखिया ही स्वार्थी हो तो वह स्वयं ही परिवार को तोड़ देता है।
यही हुआ भी। जब सरिता और उसके पति पर आर्थिक परेशानी आई तो बाक़ी परिवार ने उनकी ओर से मुँह मोड़ लिया। उन्हें घर से बेदख़ल कर दिया गया। परेशान होकर सरिता रोने लगी। तब उसके पति ने उसे समझाया- ‘हम बंधनों से मुक्त हुए हैं, अब हम अपने उद्देश्यों की प्राप्ति आसानी से कर सकेंगे। मानव सेवा हमारा धर्म है जिसमें लगे रहने के लिए ही ईश्वर ने हमें घर से पृथक कराया हैै। अब हमें गर्व होगा कि हम तमाम परेशानियों के बावजूद सिद्धांत पर कायम रह सकेंगे।’