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भगवान की लाठी


अमन कुमार

एक मौहल्ले में दो महिलाएं रहती थीं। एक का नाम था सावित्री और दूसरी का नाम था कांति। दोनों का स्वभाव एक दूसरे के विपरीत था। सावित्री सीधी-सच्ची एवं सि(ांतवादी महिला थी जबकि कांति फैशन परस्त, झूठी और मतलबपरस्त थी। दोनों के एक-एक बेटा भी था। सावित्री अपने बेटे का ख़याल ख़ुद रखती थी जबकि कांति ने घर एवं बेटे के मामूली से कामों के लिए भी नौकरानी लगा रखी थी। सावित्री का पति एक विद्यालय में अध्यापक था जबकि कांति का पति ठेकेदार था। सावित्री सोच-समझ कर अपना ख़र्च चलाती थी जबकि कांति को सोचने-समझने की फुर्सत ही नहीं थी। वह आधुनिक महिला थी।
कांति हालांकि सावित्री को कुछ भी नहीं समझती थी मगर फिर भी वह सावित्री के घर चली जाती। जब भी वह सावित्री के घर जाती तो एक बात वह अवश्य कहती- देखो सावित्री बहन....! हमें घमंड बिल्कुल नहीं है, तभी तो मैं तुम्हें अपनी बड़ी बहन समझती हूँ। अरे पैसे का क्या,.....रिश्ते तो पैसे के बिना भी बन सकते हैं.....अब देखो मैं कैसे चली आती हूँ तुम्हारे प्यार में बंधी हुई। और एक तुम हो...कभी मेरे घर में नहीं आतीं।’ यह बात सुनकर सावित्री देवी एक ही जवाब देती- बहन दिन भर का काम इतना होता है कि फुर्सत ही नहीं मिलती...।’ कहकर सावित्री देवी कांति को टालने का प्रयास करती। कांति धनी तो थी ही मगर सावित्री देवी को वह कभी अच्छी नहीं लगती थी। उन्हें कांति मग़रूर और चालाक नज़र आती थी। वह समझती थी कि कांति किसी दिन उनके लिए मुसीबत न बन जाए। क्योंकि कांति के घर अधिकारियों, नेताओं के साथ-साथ शहर के जाने-माने बदमाशों का भी आना-जाना लगा रहता था। शायद इसलिए सावित्री देवी ने एक बार अपने पति से कहा भी था कि वह यहाँ का मकान बेचकर कहीं दूसरी जगह ले लें।
एक दिन की बात है। सावित्री देवी का बेटा रामू पानी में खेल रहा था। वहीं पर कांति का बेटा बंटी भी अपने अमीर साथियों के साथ खेलने पहुँच गया। बंटी ने खेल-खेल में रामू को परेशान करना शुरू कर दिया। तब शिक़ायत भरे लहजे में रामू ने कहा-‘देखो बंटी तुम्हारी मम्मी अक्सर हमारे घर आती रहती हैं....मैं तुम्हारी शिक़ायत उनसे करूंगा वरना मुझे परेशान करना छोड़ दो।’ रामू की यह बात सुनकर बंटी का क्रोध बढ़ गया। उसने अपने साथियों की ओर देखते हुए कहा- ‘सुना तुमने.....ये दो कोड़ी की औक़ात के मास्टर का लड़का है.....मेरी माँ इन लोगों पर तरस खाती हैं तो ये लोग समझते हैं कि ये हमारी बराबरी के हैं....जा रहम किया तुझ पर।’ कहकर बंटी वहाँ से दोस्तों के साथ चल दिया। वह अपने घर पहुँचा और अपनी माँ से कहा- ‘देख माँ तू सामने वाले इस ग़रीब मास्टर के घर जाना छोड़ दे.....आज इसके लड़के ने मेरी बेइज़्ज़ती की है। उसने मेरे दोस्तों के सामने कहा कि तुम उसके घर पर जाती रहती हो।’
कांति को बेटे की बात सुनकर क्रोध आ गया। वह बड़बड़ायी- ‘इसकी ये मजाल, अभी ले...अभी करती हूँ इस मास्टरनी की बच्ची को....कितना बिगाड़ रखा है उसने अपने लड़के को। वो तो कोई औक़ात नहीं है....तब ये हाल हैं।’ कहते हुए कांति सावित्री के घर जा चढ़ी। उसने सावित्री को जो चाहा वही कहा। कांति ने एक बार भी यह प्रयास नहीं किया कि वह सावित्री या रामू की एक भी बात सुनती। कांति के जाने के बाद सावित्री ने रामू से पूछा तो उसने सच-सच बता दिया। सावित्री देवी ने ठंडी सांस लेकर कहा- ‘चलो छूटा पीछा।’
इस घटना के बाद कांति सावित्री देवी को नीचा दिखाने का प्रयास करने लगी। वह सावित्री को चिढ़ाने के लिए नई-नई साड़ियाँ ख़रीदती, महंगी ज्वैलरी ख़रीदती और होटल में खाने के लिए जाती। दरवाज़े पर खड़ी होकर मौहल्ले की दूसरी औरतों से बतियाती और बातों ही बातों में सावित्री देवी पर ताने कसती। यही रवैया कांति के बेटे बंटी और उसके ठेकेदार पति का भी रहने लगा।
सावित्री देवी को जैसे इन सब बातों से कुछ लेना-देना नहीं था। वह, उनका बेटा और पति सभी अपने काम से काम रखते। उन्होंने कभी भी कांति या उसके पति से उनके दुव्र्यवहार के लिए शिक़ायत नहीं की।
ईष्र्या की आग तब और भी बढ़ जाती है जब जिससे ईष्र्या रखते हैं उस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता है। यही हाल कांति का भी हुआ। जब सावित्री देवी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की तो कांति को नई तरक़ीब सूझी। वह अपने एक रिश्तेदार के पास पहँुची। उनके यहाँ सावित्री देवी के पति के अधिकारी का आना-जाना लगा रहता था। कांति चाहती थी कि यदि सावित्री देवी के पति की नौकरी छूटी तो सावित्री मेरे सामने गिड़गिड़ाने पर मज़बूर हो जाएगी और एक दिन कांति की ईष्र्या की आग सावित्री के पति की नौकरी पर भी गिरी।
सावित्री देवी को गहरा धक्का लगा। परंतु उनके पति ने उन्हें समझाया- ‘चिंता मत करो सावित्री! जब तक नौकरी नहीं मिलती मैं ट्यूशन पढ़ा लूंगा....स्कूल का हर बच्चा चाहता है कि मैं उन्हें ट्यूशन पढ़ाऊँ।’ यही हुआ भी। देखते-देखते उनके पास ट्यूशन वाले बच्चों की भीड़ लग गई। अब वह नौकरी से भी अधिक ट्यूशन से कमाने लगे। परंतु कांति तो ईष्र्या की आग में जल रही थी। वह मौहल्ले की दूसरी महिलाओं से कहती- ‘अरी बहन सावित्री अगर ग़लती मान ले तो मैं उसे गले लगा सकती हूँ....आख़िर वह मेरी मुँह बोली बहन है।’ सभी महिलाएँ कांति की हाँ में हाँ मिलाती उसके साथ सावित्री की मज़ाक बनाती और फिर वहाँ से चली जातीं। कांति को लगता कि मुहल्ले की सभी महिलाएं उससे प्रभावित हैं। जब कांति ने देखा कि नौकरी छूट जाने पर भी सावित्री के परिवार पर कोई फ़र्क नहीं पड़ा तब उसकी ईष्र्या दोगुनी बढ़ गई। वह उन्हें परेशान करने के लिए पुनः युक्ति खोजने लगी।
महीना दो महीना ही गुज़रा होगा कि एक दिन कांति के पति ने पुलिस इंस्पेक्टर को अपने यहाँ दावत पर बुलाया। कांति के मस्तिष्क में एक योजना ने जन्म लिया। जब वह इंस्पेक्टर दावत खाकर वापिस जाने लगा तब कांति ने बुझे मन से कहा- ‘भाई साहब एक बात कहूँ।’ इंस्पेक्टर कांति की ओर देखते हुए बोला- हाँ-हाँ बिल्कुल कहो भाभी जी....बताइए हम आपके किस काम आ सकते हैं।’
कांति अपने होठों पर ज़हरीली मुस्कान लाती हुई बोली- शर्म आती है क्योंकि मुहल्ले की बदनामी है। मगर बुरा कार्य देखकर चुप भी नहीं रहा जाता.....हमारे सामने वाले घर में चकला चलता है....।’
पुलिस इंस्पेक्टर ने कांति की ओर देखते हुए कहा- ‘अगर यह बात सच है तो फिर आप फ़िक्र न करें भाभी जी....मैं इन लोगों को गिरफ़्तार कर जेल भेज दूँगा।’ और फिर कांति ने मनगढ़ंत कहानी सुनाते हुए कहा- ‘बहाना सिलाई सिखाने का है और नई-नई लड़कियाँ पता नहीं कहाँ-कहाँ से बुलाती है।’
कुछ ही दिन बाद पुलिस ने सावित्री देवी के घर पर उस समय छापा मारा जिस समय लड़कियाँ सिलाई सीखने आई हुई थीं। पूछने पर पुलिस ने बता दिया कि वह अपने घर पर ग़लत काम कराती है। सुनकर सावित्री देवी के पैरों तले से ज़मीन खिसक गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि ईश्वर इनकी कैसी परीक्षा ले रहा है। वह अपने दरवाज़े पर खड़ी पुलिस कार्रवाई देख रही थी।
थोड़ी देर बाद पुलिस इंस्पेक्टर सावित्री देवी के पास पहँुचा और दोनों हाथ जोड़तेे हुए बोला- ‘साॅरी बहन जी! हमें किसी ने ग़लत सूचना दी थी। हमें आपका घर देख लेने के बाद ऐसा कुछ भी प्रतीत नहीं हुआ जैसा कि बताया गया था।’
पुलिस के चले जाने के बाद सावित्री देवी ने नीले आसमान की ओर हाथ जोड़ कर कहा- ‘हे ईश्वर हमने कभी किसी का बुरा नहीं चाहा है....हमें विश्वास है कि हमारे साथ भी बुरा नहीं होगा।’
कुछ दिन बाद अचानक कांति सावित्री के घर पहुँची। वह उस वक़्त हड़बड़ायी हुई थी। ख़ौफ़ उसके चेहरे से झलक रहा था। अभी सावित्री ने पूछा भी नहीं था कि वह स्वयं ही गिड़गिड़ाने लगी- ‘मुझे बचा लो बहन...हमारे घर पर विजिलेंस वालों ने छापा मार दिया है किसी तरह उन्हें धोखा देकर आई हूँ।’ उसने सावित्री को पोटली देते हुए कहा-‘बहन ये कुछ गहने और नक़दी है। अपने घर में रख लो और अगर चाहो तो बाद में आधा-आधा बाँट लेना।’ सावित्री ने वह पोटली नहीं ली तो वह पुनः कहने लगी- ‘मुझे माफ़ कर दो बहन ग़लती हो गई। मैं तुम्हारे स्वाभिमान से जलती थी इसीलिए मैंने ही पुलिस को तुम्हारे घर भेजा था। बहन तेरा सुख ही मेरा दुःख था। अभी कांति ने बात पूरी ही की थी कि तभी दो पुलिस वाले उसका हाथ खींचते हुए ले गए।
सावित्री ने नीले गगन की ओर हाथ जोड़कर कहा- ‘भगवान तेरी लाठी में आवाज़़ नहीं होती।’

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