समर्पण Aman Kumar द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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समर्पण


अमन कुमार

अरुण, सुनील का पुराना मित्र था। जब सुनील विदेश में डाॅक्टरी की पढ़ाई पूरी कर वापिस आया तब उसने अरुण को बुलाने के लिए अपना नौकर भेजा।
-‘साहब! आप को सुनील सर ने बुलाया है।’ नौकर ने अरुण को बताया।
-‘सुनील!’ चैंककर बोला अरुण- ‘कब आया सुनील।’
-‘साहब रात ही आए हैं।’ नौकर ने बताया।
कुछ देर अरुण सोचता रहा उसने नौकर से कहा- ‘ठीक है, अपने ज़रूरी काम निपटाकर पहुँच जाऊँगा तुम्हारे साहब के पास।’
अरुण का जवाब सुनकर नौकर तो चला गया परंतु अरुण के मस्तिष्क में पुरानी स्मृतियां ताज़ा हो आईं। दरअसल अरुण और सुनील बचपन के साथी थे। वह एक ही विद्यालय में पढ़ते थे और उनके बीच मैत्री इतनी प्रसि( हो गई थी कि एक के बिना दूसरे की कल्पना भी कोई नहीं करता था। साथ विद्यालय पहुँचना, साथ बैठना, साथ पढ़ना, साथ खेलना और साथ ही घर जाना। दोनों के घरों की दूरी भी अधिक नहीं थी। इसलिए विद्यालय के बाद का समय भी अक्सर साथ ही बीतता था। पढ़ने में दोनों इतने होशियार थे कि हमेशा अपनी कक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करते। हाँ, कभी अरुण को एक या दो नंबर ज़्यादा मिल जाते और कभी सुनील को। यही नहीं प्रायः सभी आदतें और पसंद में भी दोनों की आश्चर्यजनक समानताएं थीं। यादि कोई अंतर था तो वह यह था कि अरुण के पिता सरकारी स्कूल के अध्यापक थे, जबकि सुनील के पिता नगर के प्रसिद्ध व्यापारियों में से एक थे। परंतु न तो अरुण को अपने पिता की सीमित आमदनी का पता था और न ही सुनील को अपने पिता की असीमित आमदनी का। दोनों बालक थे। समाज के किसी भी भेदभाव से कोसों दूर। सुसंस्कारों से संपन्न और ऊंच-नीच या अमीरी-ग़रीबी के भेद से कोसों दूर। जब दोनों ने पांचवीं कक्षा उत्तीर्ण की तब दोनों का प्रवेश इंटर काॅलेज में कराया गया। दोनों पुनः पढ़ाई में जुट गए और दोनों ने पुनः सिद्ध कर दिया कि कक्षा में उनसे अधिक होशियार छात्र दूसरा कोई नहीं है।
एक बार सुनील अपने परिवार के साथ किसी हिल स्टेशन पर घूमने गया। तब वह पाँच-छः दिन तक विद्यालय नहीं पहुँचा। ऐसे में अरुण का मन भी विद्यालय में नहीं लगता था। वह बुझा-बुझा सा कक्षा में बैठा था कि तभी उसी कक्षा का एक छात्र राजू उसके पास आकर बैठ गया। उसने बैठते ही पूछा- ‘क्या बात है अरुण! आज इतना उदास क्यों?’
अरुण चुप रहा, उसने राजू की बात का कोई भी उत्तर देना उचित नहीं समझा तभी राजू पुनः बोला- ‘सुनील को मिस कर रहे हो, छोड़ो यार! कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली।’
-‘क्या मतलब?’ अरुण ने राजू को घूरते हुए पूछा- ‘तुम कहना क्या चाहते हो?’
राजू के चेहरे पर मुस्कान नृत्य कर उठी। वह बोला- ‘मेरी बात का बुरा मत मानना अरुण! दरअसल अमीर लोगों से हम जैसे ग़रीब लोगों की मित्रता ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाती है।’
-‘अरुण ने पूछा- आख़िर यह बात तुम किसके लिए कह रहे हो?’
-‘तुम्हारे और सुनील के लिए।’ राजू ने स्पष्ट किया।
-‘ख़बरदार।’ अरुण क्रोध में आकर बोला- ‘आइंदा मेरे या मेरे मित्र के बारे में कोई राय बनाने की ज़रूरत नहीं है।’
इस घटना के बाद भी अरुण ने न जाने कितने ही लोगों को डाँट लगाई थी। किसी भी सूरत में वह अपने मित्र के विरोध में एक भी शब्द नहीं सुनना चाहता था। धीरे-धीरे समय व्यतीत होता गया। ज्यों-ज्यों दोनों बड़े हो रहे थे त्यों-त्यों दोनों में कुछ असमानताएँ भी बढ़ती जा रही थीं। जैसे सुनील अब महंगे कपड़े पहनने लगा था, वह अपने पिता के साथ बड़ी-बड़ी पार्टियों में जाने लगा था। जब भी वह किसी अच्छी पार्टी में जाता अरुण को ज़रूर बताता। अरुण भी आनंद के साथ सुनील के संस्मरण सुनता।
एक बार जब सुनील अपनी माँ के साथ बाज़ार गया था। तब उसे टी-शर्ट बहुत पसंद आई थी। दुकान पर एक सी ही दो टी शर्ट थीं। सुनील ने अपनी माँ से दूसरी टी-शर्ट अरुण के लिए ख़रीदने को कहा तो माँ ने मना नहीं किया। घर पहुँचने के बाद सुनील अरुण के पास पहुँचा।
-‘क्या लाए हो सुनील? आज तो मेरा बर्थडे भी नहीं है।’ अरुण ने कहा।
-‘लो खोलकर देख लो।’ अरुण को डिब्बा पकड़ाते हुए सुनील ने कहा- ‘पसंद ना आए तो बताना।’
अरुण ने डिब्बा खोला। उसमें सुंदर टी-शर्ट पाकर वह ख़ुश हो गया- ‘वाह! क्या ख़ूबसूरत है।’ अरुण ने सुनील की तरफ़ देखते हुए पूछा- ‘परंतु मित्र! ये तोहफ़ा किस ख़ुशी में?’
-‘बस बाज़ार गए थे। पसंद आई तो दोनों ख़रीद लीं।’ सुनील ने बता दिया।
उस दिन अरुण की चाची भी गाँव से आई हुई थी। चाची ने बड़े ध्यान से दोनों मित्रों की बातें सुनी थीं। सुनील के जाने के बाद वह अरुण की माँ से बोली- ‘एक बात पूछूँ जीज्जी।’
-‘पूछो क्या पूछना चाहती हो?’ अरुण की मम्मी ने कहा।
-‘ये जो लड़का सुनील आया था अभी, इसके माँ-बाप बहुत अमीर हैं क्या?’
अरुण की माँ ने बताया- ‘हाँ, शहर के जाने-माने व्यापारियों में से एक हैं परंतु आदत इतनी अच्छी है कि बस पूछो ही मत। घमंड से तो कोसों दूर हैं।’
अरुण की चाची ने ध्यान से सुनने के बाद कहा- ‘चलो अच्छा है जिज्जी! अपने अरुण के भाग अच्छे हैं। इसी बहाने अच्छे-अच्छे कपड़े पहन लेगा, वर्ना भाई साहब की इतनी नौकरी कहाँ, जो कपड़ों पर ज़्यादा ख़र्च कर सकें।’
अरुण की माँ विस्मय की स्थिति में थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या जवाब दें। तभी अरुण वहाँ पहुँचा। चाची की बात वह सुन चुका था- ‘आप ग़लत सोच रही हैं चाची।’ हमारे बीच स्वार्थ भावना नहीं है। अगर उसके माँ-बाप अमीर हैं तो मेरे माँ-बाप भी इतने ग़रीब नहीं हैं कि मुझे माँग कर कपड़े पहनाएँ। रही बात टी-शर्ट की, तो यह हमारी बच्चों की आपसी बात है।’
-‘बेटे! अपनों से बड़ों को इस तरह जवाब देते हैं क्या?’ अरुण की माँ ने बेटे को प्यार से डांटते हुए कहा।
अरुण की चाची का चेहरा मुर्झा गया। वह बोली- ‘जीज्जी मुझसे कोई ग़लती हो गई है क्या? हम भी तो आप सब से कितना प्यार करते हैं।’
-‘तुम्हारी कोई ग़लती नहीं है।’ अरुण की माँ समझाते हुए बोली- ‘तुम्हें जो अच्छा लगा कह दिया। अरुण तो बच्चा है, इसका क्या बुरा मानना।’
ऐसी एक नहीं बल्कि अनेक घटनाएं घटी थीं। बारहवीं पास करते-करते दोनों मित्रों में काफ़ी समझदारी आ गई थी। बारहवीं के बाद दोनों ने डाॅक्टरी की पढ़ाई के लिए प्रतियोगिता में भाग लिया। दोनों ही ने प्रतियोगी परीक्षा उत्तीर्ण की लेकिन अरुण के पिता इतना पैसा नहीं जुटा सके कि वह अपने बेटे को डाॅक्टरी की पढ़ाई में प्रवेश दिला सकें।
मित्र का प्रवेश न हो सका तो सुनील ने भी बहाने बनाकर अपना प्रवेश रद्द कर दिया। जब इस बात का अरुण को पता लगा तो वह बहुत दुःखी हुआ। उसने सुनील को समझाया और अपनी कसम देकर पुनः डाॅक्टरी में प्रवेश लेने के लिए मजबूर कर दिया। परिणामस्वरूप सुनील ने डाॅक्टरी की पढ़ाई पूर्ण की। जबकि इसी वर्ष अरुण एमएससी की पढ़ाई संपन्न कर पीएचडी के लिए रजिस्ट्रेशन करा चुका था। बढ़ती महंगाई में अरुण की विज्ञान की पढ़ाई में रुकावट आने लगी तो उसने ट्यूशन पढ़ाकर अपना ख़र्च स्वयं निकाला। हालांकि सुनील के पिता ने अनेक बार अरुण की मदद करने की पेशकश की परंतु हर बार वह टाल गया। एक बार जब सुनील के पिता ने ज़िद्द की तब अरुण ने स्पष्ट कहा था-‘अंकल आप हमें भिखारी न समझें।’ सुनील के पिता को उससे इस जवाब की उम्मीद न थी। उन्होंने समझाते हुए कहा- ‘बेटे मेरा मतलब यह नहीं है, मैं तो चाहता हूँ तुम कामयाब हो जाओ। उधार समझकर मदद ले लो बाद में वापिस कर देना।’
अरुण को जैसे अपनी ग़लती का अहसास हुआ। उसने विनम्रता के साथ कहा-‘अंकल मैं अपने कैरियर के लिए पापा का स्वाभिमान गिरवी नहीं रख सकता। मैं जानता हूँ आप हमारे हमदर्द हैं। परंतु मैं भी पुरुषार्थ में विश्वास रखता हूँ। आप अपने इस बेटे पर भी भरोसा रखें, देर से ही सही मगर कामयाब मैं भी होकर दिखाऊँगा।’
अरुण की बात सुनकर सुनील के पिता आश्चर्यचकित थे। उन्हें गर्व हो रहा था अरुण पर। वे अरुण के कंधों पर हाथ रखकर बोले थे-‘बेटे! मेरी सोच ही ग़लत थी। भला इतने स्वाभिमानी और पुरुषार्थी बच्चे को कामयाब होने से कौन रोक सकता है।’
ऐसी ही तमाम बातें अरुण को स्मरण हों आई थीं। वह काफ़ी देर तक यादों में खोया रहा था। जैसे ही उसके दरवाज़े पर खट-खट हुई, वो यादों से बाहर आया। दरवाज़ा खोलकर देखा तो सुनील और उसके पिता खड़े थे। ‘ओह, डाॅ. सुनील!’ वह इतना ही कह पाया था कि सुनील उसके गले से आ लिपटा।
सुनील के पिता अरुण के सर पर हाथ रखकर बोेले- ‘बेटे हम दोनों खुशियाँ एक साथ मनाना चाहते हैं। एक बेटे के डाॅक्टर बनने की, दूसरी दूसरे बेटे के डाॅक्टरी में रजिस्ट्रेशन होने की।’
तभी अरुण की माँ भी वहाँ पहँुच गई। वे हाथ जोड़कर बोलीं- ‘भाई साहब! हमें तो पता नहीं कब से हम इस घड़ी का इंतज़ार कर रहे थे। ईश्वर करे अरुण-सुनील की मित्रता सदैव बनी रहे। दोनों इसी तरह एक-दूसरे को समर्पित रहें। समर्पण में ही तो सच्चा सुख होता है।’