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बंजर

 


अमन कुमार त्यागी



जिस्म को झुलसा देने वाली तेज़ धूप थी। मेरे कदम तेज़ी से आगे बढ़ते चले जा रहे थे। दिमाग़ में एक साथ अनगिनत सवाल थे। क्या पति परमेश्वर ही होता है, भले ही वो पत्नी को जुए में हार जाए या घर से निकालकर जंगल में भटकने के लिए छोड़ दे, या फिर वह ऐसा संप्रभुशक्ति संपन्न होता है.. कि.. जो मन में आए करें और औरत को प्राणी न समझकर एक निर्जीव वस्तु ही समझे, या फिर ग़लती औरत की ही होती है कि वह बचपन से ही एक अदद मर्द की ज़रूरत के लिए मन्नतें माँगनी शुरू कर देती है? अभी न जाने कितने सवाल और मेरे दिमाग़ में आने थे जिनका जवाब कम से कम इस वक़्त तो मेरे पास नहीं था कि तभी ठंडी छाया ने मुझे अपने आगोश में ले लिया था। मेरे जिस्म ने राहत महसूस की। अभी मैं चंद ही कदम चल पाई थी कि उसी धूप ने मुझे पुनः आ घेरा। अनायास मेरी नज़रें आसमान की तरफ़ उठीं। मैंने सूरज को ढकने वाले उस बादल को देखा जो अब आगे निकल चुका था। फिर मेेरे जे़हन में एक सवाल उठा- ‘क्यों आते हैं ये खाली बादल?’ तभी जवाब भी सूझा-‘धरती की प्यास को और भड़काने के लिए।’
ये बादल छलावा होते हैं, धरती के धैर्य की परीक्षा लेते हैं। अपने क्रूर व्यवहार पर इन्हें ज़रा भी दया नहीं आती। धरती तृप्त होना चाहती है मगर अतृप्त ही रह जाती है। काफ़ी प्रतीक्षा के बाद बरसात का मौसम आता है। जब धरती नया जीवन पाती है और सावन के महीने में अपने पूर्ण यौवन पर आ जाती है। हरी-भरी धरती। कितना सुहाना मौसम होता है, डालों पर झूले पड़ जाते हैं और धरती की पुत्रियाँ झूम उठती हैं। सावन के गीत गाती हैं, शृंगार करती हैं, व्रत रखती हैं और अपने सपनों के राजकुमार को प्राप्त करने की चाह रखती हैं। कवि कविताएं करते हैं, धरती और उसकी पुत्रियों के यौवनांगों पर खंड-काव्य तक रच डालते हैं। धरती की यह हरियाली भला किसे अपनी ओर आकर्षित नहीं करती है।
धरती हरी हो जाती है तो उसका मन भी बढ़ जाता है। अहसास तो कर ही सकती हूँ कि जिस तरह अपनी कोख़ से जन्मे बादलों की वर्षा से पृथ्वी तृप्त होती है और तृप्ति के बाद संपूर्ण पृथ्वी पर हरियाली फैल जाती है। उसी तरह औरत भी मर्द से तृप्ति पाकर हरी हो जाती है। शायद इसीलिए गांवों में गाय या भैंस के प्रेगनेंट होने पर उसे हरी होना कहा जाता है।
मेरी माँ भी हरी हुई थी। परिणामस्वरूप फसल के तौर पर मैंने इस पृथ्वी पर पदार्पण किया था। मनवांछित पति को पाने के लिए मैंने भी व्रत रखे। बल्कि रखे क्या माँ ने ज़बरदस्ती रखवाए। मैंने माँ से पूछा- ‘माँ जब सभी लड़कियां मनवांछित पति पाने के लिए व्रत रखती हैं तो प्रायः उन्हें अपने पतियों से शिक़ायत क्यों रहती है?’ माँ ने तपाक से जवाब दिया- ‘वो भी तेरी ही तरह बेमन के व्रत रखती हैं और दुःखी रहती हैं। इसीलिए कहती हूँ, मन से व्रत रख, चिड़ियों को चुग्गा दे। अच्छा पति मिल जाएगा।’
‘पर माँ अनीता चाची को तो देखो... वो बचपन से लेकर विवाह तक कितना पूजा पाठ करती रही हैं। अपनी पूजा-पाठ के लिए तो वो चारों ओर प्रसि( हो चुकी थीं। हमारी दादी जी ने उनसे चाचा का विवाह सिर्फ़ इसीलिए किया था कि वो आकर बिगडै़ल चाचा को सुधार सकती है। मैं देख रही हूँ कि चाची जहाँ अपनी पूजा-पाठ में बढ़ोत्तरी कर रही है, वहीं चाचा में भी नए-नए एब पड़ते जा रहे हैं। पहले तो वो शराब पीकर सिर्फ़ झगड़ा ही करते थे, अब तो परायी औरतों को भी तकने लगे हैं।’ मैंने कहा तो माँ का चेहरा तमतमा उठा, उनकी त्यौरियां चढ़ गईं। एक हाथ से मेरे बाल पकड़े और दूसरे हाथ से मेरे गाल पर इतनी ज़ोर से तमाचा मारा कि मैं झन्नाकर रह गई। उन्होंने बड़बड़ाते हुए मुझे गालियां देनी शुरू कर दीं- ‘चुपकर बदज़ात! ज़्ाुबान तो ऐसे लड़ाती है जैसे वकील बन गई हो। मैं जानती हूँ तू ज़रूर घर से भागकर मेरी नाक कटवाएगी, कितना अच्छा होता कि पैदा होते ही तेरा गला घोंट देती, सवा गज़ कफ़न में ही काम हो जाता।’
माँ की मार खाने और गाली सुनने के बाद मैं घंटों रोती रही। उस दिन माँ ने मुझे पढ़ाई छोड़ देने का फ़रमान सुनाया मगर पिताजी उनकी बातों में नहीं आए और मुझे पढ़ाई छोड़कर घर नहीं बैठाया गया। शायद मेरी पढ़ाई जारी रहने को माँ ने अपनी शिकस्त मान लिया था। उन्होंने बहुत ज़्यादा विरोध तो नहीं किया मगर एक नया राग अलापना शुरू कर दिया। मेरी शादी का राग।
‘कुछ भी हो जाए पर मैं विवाह नहीं करूँगी.....पढ़-लिखकर नौकरी करूँगी। मुझे नहीं बनना किसी आदमी का गुलाम।’ जब कभी मैं कह देती तो घर में सन्नाटा छा जाता। एक दिन पिताजी ने मुझे अपने पास बुलाया और पूछा- ‘क्या मैं तेरी माँ को गुलाम बनाकर रखता हूँ?’ उनके इस सवाल के जवाब के लिए मैं तैयार न थी, सो तत्काल जवाब न दे सकी मगर सोचने पर मजबूर हो गई। पिताजी की बात ठीक थी, उन्होंने माँ को बिल्कुल भी गुलाम नहीं बनाया था। उल्टे पिताजी ही माँ का हर कहा मानते थे। हाँ, माँ पिताजी की हर ज़रूरत का ख़याल रखती। उनके पैर दबाती, कपड़े धोती और घर का सभी काम निबटाती। पिताजी को भी मैंने कभी माँ पर गुस्सा करते नहीं देखा था। हाँ यदि माँ कभी गुस्से मेें होती तो पिताजी चुप लगा जाते। अभी मैं उन दोनों के आपसी व्यवहार के बारे में सोच ही रही थी कि पिताजी ने पुनः पूछा- ‘बताओ ना.....क्या मैंने तुम्हारी माँ को गुलाम बनाया हुआ है?’
-‘आप अच्छे व्यक्ति हैं और ज़रूरी नहीं है कि दुनिया का हर आदमी आप जैसा हो।’ मैंने पिताजी से कहा- ‘वैसे भी माँ की नस-नस में रूढ़ीवादिता भरी हुई है। यह एक ऐसा ज़हर है जो कभी पुरुष के सामने सर उठाकर बोलने की हिम्मत नहीं करने देता।’
-‘तुम कहना क्या चाहती हो?’ पिताजी ने पूछा।
-‘कुछ ख़ास नहीं.....बस यही कि माँ जब से आपके पास आई है, अपने माँ-बाप को भूल गई है, भाई-बहनों को याद करने की फुर्सत ही नहीं मिलती। वही मेरे साथ भी होगा। परवरिश आपने की और काम आऊँगी किसी ऐसे के जिसे मैं जानती तक नहीं। वहाँ पर वो सभी काम करने पड़ेंगे जो यहाँ नहीें करती हूँ।’
-‘बेटी विवाह एक सामाजिक बंधन है। जिसमें हर स्त्री-पुरुष को बँधना ही चाहिए। नहीं तो समाज में अव्यवस्था फैलने का भय बना रहता है।’
-‘वो कैसे?’ मैंने पिताजी की आँखों में झाँकते हुए पूछा- ‘और चाची, जो चाचा के जुल्मों को सहती है, वह कैसी व्यवस्था है। अगर यह भी कोई व्यवस्था है तो मेरे ख़याल से इससे ज़्यादा बुरी कोई व्यवस्था नहीं होगी।’
-‘ऐसी बात नहीं बेटी! जहाँ सब अच्छाइयाँ होती हैं वहाँ बुराइयाँ भी होती हैं। न सभी लोग अच्छे होते हैं और न ही सभी लोग बुरे ही होते हैं। मुझे देखो, मैं कोई ऐब नहीं करता और मेरा भाई कोई ऐब करने से बाज़ नहीं आता है।’ पिताजी ने कहा तो मैं उनसे बहस नहीं कर सकी और चुपचाप अपने स्कूल की किताबों में गुम हो गई।
अब मैं धीरे-धीरे बड़ी हो गई थी। माँ की आदर्शवादिता और पिताजी के प्यार ने मेरी सोच में बदलाव ला दिया था। अब मैं विवाह के लिए भी सहर्ष तैयार थी। मेरे विवाह के लिए माँ ने मुझसे न जाने कितने व्रत रखवाए थे और मैंने रखे भी थे। फिर वह दिन भी आ गया जब मैं ब्याह कर ससुराल पहुँच गई।
मेरे पति राहुल पेशे से चिकित्सक थे। वह वैज्ञानिक तरीके को ही मान्यता देते थे। जिन अँधविश्वासों में मैं अपने मायके में फंसी रही थी, यहाँ आकर छुटकारा मिल गया था। कभी मैं अपने आपको पूरी तरह आज़ाद समझती और कभी यही आज़ादी मुझे बड़ी ही अजीब लगती। नैतिक मान्यताएँ टूटती नज़र आतीं और कभी जीवन को उद्देश्यहीन समझने लगती। मुझे दुनिया कभी रंग-बिरंगी लगती और कभी सभी रंग मिश्रित होते हुए बदरंग लगने लगते। तब एक ही रंग नज़र आता। काला रंग। अँधकार जैसा। सभी उजाले मेरे आस-पास थे मगर मुझे दिखाई नहीं दे रहे थे। डाॅक्टर पति को पाने का जो रोमांच था वह फीका पड़ता जा रहा था। विवाह पूर्व जो हसीन ख़्वाब देखे थे, रेत की दीवार की तरह गिरते नज़र आ रहे थे। हालांकि यह अहसास मुझे अब हुआ था जबकि पिया मिलन की प्रथम रात्रि से ही मुझे बलि का बकरा बनाया जाने लगा था। सब कुछ प्रकृति के विरु( हो रहा था और मैं महामूर्ख ख़ुश हो रही थी। अपनी तारीफ़ें सुनकर, अपने लिए झूठी हमदर्दी देखकर। सोचती हूँ उस वक़्त क्यों विरोध नहीं कर पाई मैं। आज किसका विरोध करूँ, किसे दोष दूँ अपने भाग्य को या नारी होने को? प्राकृतिक ख़ूबसूरती पर कृत्रिमता हावी हो चुकी है।
पिया से प्रथम मिलन की रात थी। दो आत्माओं का मिलन था प्रेम के लिए और दो जिस्मों का मिलन था सृष्टि को बनाए रखने के लिए। अहा! कितनी मतवाली थी मैं। मादकता में चूर, न पूरे होने वाले ख़्वाबों में मस्त, पिया की आँखों में डूब जाने वाली मस्ती, तृप्ति का असीम आनंद। एकदम स्वर्ग सा अहसास था। मेरे पति मेरी मादकता और मेरे कोमलांगों के नशे में चूर रहते। पिया से असीम प्यार पाकर मैं ख़ुश थी। बेइंताह ख़ुश। आने वाले ख़तरे से अनजान।
हमारे विवाह को चार वर्ष व्यतीत हो चुके थे। यौवन की मादकता में ये चार वर्ष कब बीत गए पता ही नहीं चला। अचानक मैं बीमार हो गई। पति ने काफ़ी इलाज किया और दूसरे चिकित्सकों से भी कराया। मेरी बीमारी क्या थी मुझे बताया ही नहीं गया। मैं ठीक भी हो गई मगर कमज़ोरी ने आसानी से पीछा नहीं छोड़ा। तब मैं मायके चली गई। मायके में इस बार कुछ दिन रहना पड़ा तो तमाम सखियों से भी मिलन हो गया। तमाम खट्टे-मीठे अनुभवों की बातें हुईं। तभी एक सहेली ने मुझसे पूछा- ‘तू अभी तक माँ नहीं बनी, कोई गड़बड़ है क्या?’ उस वक़्त तो मैं हँसी में टाल गई मगर सवाल दिल को छू गया। मैं हत्भागिनी! अब तक इस बारे में क्यों नहीं सोच पाई। जहाँ तक मुझे विश्वास है मैं बंजर तो न हूँ। पिया के प्रेम में ऐसी गुम हुई कि अपनी हकीकत को ही भूल गई। कुछ रिक्तता सी महसूस होेने लगी। मन अजीब और आशंकित हो उठा। मायके में अब मन नहीं लग रहा था और मैं ज़िद करके शीघ्र ही ससुराल पहँुच गई।
-‘मेरे डाॅक्टर पति! मुझे माँ भी बनना है, जनाब के प्यार में मैं यह बात तो भूल ही गई थी। प्लीज़ मुझे एक बच्चा दे दो।’ मैंने रात को बैड पर लेटते ही पति से कहा सुनकर उनके चेहरे का रंग फीका पड़ गया। क्या सोचने लगे जनाब।’ मैंने छेड़ते हुए कहा।
-‘सोच रहा था कि जो बात तुम्हें अभी नहीं बतानी थी वह बतानी ही पड़ेगी। दिल पर पत्थर रखना पड़ेगा तुम्हें।’
उन्होंने कुछ इस तरह से कहा कि मैं विचलित हो उठी। किसी अनहोनी से डर गई मगर हिम्मत कर पूछा- ‘कौन सी बात है ?’
-‘तुम माँ नहीं बन सकती।’ उन्होंने तो सहज भाव से कह दिया था मगर मेरे सर पर हथोडे़ से प्रहार होने लगे। सर चकराने लगा और रंग-बिरंगी दुनिया बदरंग नज़र आने लगी। सहसा, मुझे उनकी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मैं कह उठी- ‘नहीं, ऐसा नहीं हो सकता है। मैं बंजर नहीं हो सकती। जब-जब तुम बादलों की तरह बरसे हो, तब-तब मैं धरती की तरह तृप्त हुई हूँ। मैंने कहा तो पतिदेव को गुस्सा आ गया- मैं तुम्हारी बकवास सुनना नहीं चाहता हूँ, जो चैकप के बाद रिपोर्ट आई तुम्हें बता दिया। तुमसे ज़्यादा बच्चे की मुझे ज़रूरत है, तुम्हारे रहते मेरी यह ज़रूरत पूरी नहीं हो सकेगी।’
-‘क्या.....?’ सुनकर मैं अवाक रह गई। मेरे सभी सपने ढह गए। खंडहरों पर खड़ी हो गई।
वह सारी रात मैंने बैठे-बैठे ही काट दी। नींद आँखों से कोसों दूर भाग गई थी जबकि मेरे पति आराम की नींद सो रहे थे। एकदम बेफ़िक्री वाली नींद। तमाम सोचने-समझने के बावजूद मैं उनका किरदार न समझ सकी। मेरी मुस्कुराहट के लिए तरसने वाला, दुःख-सुख का वह साथी जानकर भी अनजान बन गया था। मेरी स्थिति पागलों वाली हो गई थी।
सुबह को मेरे पति ठीक समय पर सोकर उठे और तैयार होकर अपने नर्सिंग होम चले गए। मैं बेसुध सी दोपहर तक पलंग पर बुत बनी बैठी रही। कोठी काफ़ी बड़ी थी। सास-स्वसुर नीचे की मंज़िल में रहते थे जबकि हम लोग ऊपर की मंज़िल में। घर के सभी काम करने के लिए नौकर-नौकरानियाँ लगी थीं। शायद इसीलिए किसी का ध्यान मेरी सूरत पर नहीं गया था। उस दिन मैं उठी और सास के पास पहुँची। मेरी हिम्मत जवाब दे रही थी इसीलिए बात होंठों से कहने की बजाए आँखों से कहने की कोशिश की। अश्रुधार फूट पड़ी तो सास जी चिंतित हो उठीं। उन्होंने मुझे पहले प्यार से धैर्य बंधाया और फिर बात पूछी। मैंने रात की बात ज्यों की त्यों बता दी।
सुनकर सास जी पर कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ा। उन्होंने कहा- ‘मैं जानती हूँ बेटी! समझ में नहीं आ रहा है कि हमारी वंश बेल कैसे आगे बढ़ेगी। अगर तू चाहे तो एक काम हो सकता है बेटी!’ मैंने चैंककर पूछा- ‘क्या, माजी।’
-‘तू राहुल का दूसरा विवाह करा सकती है। मेरी और राहुल की निगाह में एक बड़ी ही नेक लड़की है। वह पहले राहुल को चाहती थी मगर राहुल के पिताजी की ज़िद की वजह से तुझसे विवाह करना पड़ा।’ माता जी ने आगे क्या कहा मुझे पता ही नहीं चला। मैं बेहोश होते-होते बची। बड़ी मुश्किल से चेहरे पर आए पसीने को पौंछा। मेरा तो संपूर्ण अस्तित्व ही हिल गया था। मेरे ख़िलाफ़ कोई भयानक षड़यंत्र रचा गया है यह मुझे अब अहसास हो रहा था। उठकर मैं तेज़ी से अपने कमरे में भागी। दो-चार जोड़ी कपड़े लेकर मैं जल्दी से जल्दी मायके चली जाना चाहती थी। मैंने फुर्ती से सेफ़ खोली। सेफ़ खुलते ही अपने कपड़े निकाले और उल्टे-सीधे ही ब्रीफ़केस में ठूंँसने लगी। अभी मैंने चंद कपड़े ही उतारे होंगे कि मेरे हाथ में एक ऐसी चीज़ आई जिससे मेरे दिमाग़ की नसें खुलती चली गईं।
दरअसल हुआ यह कि सेफ़ में ही राहुल का कोट टंगा था। जल्दबाज़ी में मेरा हाथ राहुल की जेब में चला गया। वहाँ मुझे कुछ होने का अहसास हुआ। नाम पढ़ा तो सबकुछ समझ में आता चला गया। पढ़ी-लिखी हूँ और फिर किसी डाॅक्टर के साथ चार महीने बिताने का समय भी कम नहीं होता है। वह दवाइयाँ नशे और अबार्शन की दवाइयाँ थीं। जिन्हें किसी न किसी बहाने राहुल मुझे खिला ही देता था। दवाइयाँ छोड़कर मैंने अपनी चैकप रिपोर्ट उठाई और फिर ध्यान से पढ़ने लगी। रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा था- गर्भपात की अधिक दवाइयों का सेवन करने से गर्भाशय अब गर्भधारण करने लायक नहीं रहा है।’ ईश्वर ने मुझे हौंसला दिया। मैं रिपोर्ट हाथ में ले राहुल के पास नर्सिंग होम पहुँची। केबिन में प्रवेश भी नहीं किया था कि वहाँ से कुछ आवाज़़ें आती सुनाई दीं। राहुल किसी महिला से कह रहा था- ‘अब चिंता की बात नहीं है रंजना! मैंने तुम्हारे लिए रास्ता साफ़ कर दिया है। अब जल्दी ही हम दोनों कोर्ट मैरिज़ कर दुनिया की निगाहों में पति-पत्नी होंगे।’
राहुल की बात सुनकर मैं उल्टे पैरों वापिस हो ली। घर पहुँचकर ब्रीफ़केस में अपना ज़रूरी सामान रखा। शेष बची दवाइयाँ और चैकप की रिपोर्ट भी साथ लेकर मायके पहँुच गई। मैंने अदालत में राहुल के ख़िलाफ़ मुकदमा डाल दिया है। विश्वास है राहुल को सज़ा भी ज़रूर मिल जाएगी। मगर मुझे न्याय मिल पाएगा? यह सवाल मेरे जे़हन में हमेशा रहता है।
इस पीड़ित महिला ने वकील के बस्ते पर ही मुझे अपने जीवन की घटना सुना दी थीं मैं इस महिला की दिल से मदद करना चाहता था मगर पूरी कहानी सुनने के बाद उसकी क्या मदद करूँ? नहीं समझ पाया। अनेक बार ख़बरें भी बनाईं मगर न्यायालय में विचाराधीन मामले में लिखा भी कितना जा सकता है। अब तो उसके बाल भी सफेद होने लगे हैं और चेहरे पर झुर्रियां पड़ गई हैं। मुकदमा जीत भी गई तो क्या उसके साथ न्याय हो पाएगा? जब भी सोचता हूँ, काँप जाता हूँ।

 

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