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शब्दों की चोरनी

शब्दों की चोरनी
कहानी / शरोवन

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'?'- इस पर अंजना कुछ भी नहीं बोली. वह अपनी मुस्कान बिखेरते हुए किचिन में चली गई. जाते-जाते उसने बाहर आंगन में देखा तो पतझड़ की पीली पत्तियों से उसके घर का सारा आंगन भर चुका था. लेकिन आज उसे ये पत्तियाँ देखकर जरा भी क्रोध नहीं आ सका था. उसे तो लग रहा था कि, पतझड़ की ये बे-दम पत्तियाँ न होकर जैसे पीले सोने के वे फूल थे कि जिनसे उसका सारा घर अमीर हो चुका था.
***

बसंत ऋतु का सारा ज़माना अपने पूर्ण यौवन पर जैसे खिल-खिलाता हुआ सारे माहौल में गिरती हुई पत्तियों की चादरें फैला रहा था. वायु का एक झौंका आता था और दम तोड़ती हुई वृक्षों की पीली पत्तियों से घर का सारा आंगन भर जाता था. अंजना बाहर आंगन में सुखाने के लिए गीले कपड़े तार पर डाल रही थी और पतझड़ की इन पत्तियों को मन ही मन जैसे कोस भी रही थी और बड़-बड़ा भी रही थी;
'कितनी बार झाडू लगाऊँ मैं? हर समय ही गिरती रहती हैं. अगले वर्ष इस नीम के पेड़ को कटवा ही दूंगी मैं.'
मन ही मन बड़-बड़ाते हुए वह जैसे ही अंदर आई तो अपने पति अर्मेश को कपड़ों की अलमारी में बड़ी देर से कुछ ढूंढते हुए बेचैन पाया. यह सब देखकर वह क्षणिक चौंक गई. तब वह अर्मेश के करीब आई और आकर एक संशय से पूछ बैठी,


'क्या ढूंढ रहे हैं आप इतनी देर से?'
तब उसकी बात को सुनकर, अंजना की तरफ बगैर देखे ही उन्होंने जबाब दिया. वे बोले कि,
'अब पता नहीं कि, मैं ही भूल में हूँ या फिर याद नहीं है?'
'क्या याद नहीं है?' अंजना ने कहा.
'यही कि, शायद तुम्हें भी याद हो. इस अलमारी में मैंने कभी एक हजार रूपये, यूँ ही इमरजेंसी के लिए रख दिए थे. वे अब कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं?'
'आपको जरूरत है क्या? मैं दिए देती हूँ?'
'हां ! जरूरत भी है. मगर कुछ पता तो चलना चाहिए कि वे रूपये गये कहाँ हैं? वह देवकी घर में काम करती है, कहीं उसने तो नहीं . . .?'
'कैसी बातें करते हैं आप? वह बेचारी तो घर में पड़े हुए पांच पैसे तक उठाकर मेज पर रख देती है.'
'तो फिर तुम्हीं याद करो. मुझे तो खूब याद है कि, वे पैसे मैंने खर्च नहीं किये हैं.'
यह कहते हुए अंजना के पति ने अपने हथियार ड़ाल दिए. अंजना ने अपने पास रखे हुए पैसों में से एक हजार रूपये लाकर अर्मेश को दिए. फिर उन्हें लेकर जब वह चला गया तो अंजना उन रुपयों के बारे में बहुत कुछ सोचने लगी.
भले ही उसने घर में रखे हुए पैसे किसी भी गलत तरीके से खर्च नहीं किये थे, पर खर्च तो उसने ही किये थे और वह भी अर्मेश को बगैर बताये हुए ही? अंजना ने सोचा था कि, वह कभी भी इन अतिरिक्त पैसों के लिए अर्मेश को बता देगी, पर उसके ज़हन से यह बात इस तरह से गायब हो गई थी कि उसे कुछ ध्यान ही नहीं रहा था. और अब अगर वह अर्मेश को बताती भी है तो बहुत देर हो चुकी है. अर्मेश अवश्य ही उस पर संदेह करने लगेगा. फिर यूँ भी आदमी का स्वभाव भी कुछ ऐसा ही होता है कि, वह स्त्री को बगैर कुछ सोचे-समझे ही शीघ्र ही संदेह की परिधि में लाकर खड़ा कर देता है- सोचते हुए अंजना को अचानक ही पसीना सा आ गया. अब अर्मेश को जब वह यह सारी बात बतायेगी तो ना जाने वह इसे क्या समझे?
शादी के सात साल अभी तक दोनों के बहुत ही अच्छे ढंग से व्यतीत होते आये थे. दोनों में झगड़ा आदि तो बहुत दूर की बात होगी, दो मिनट की किसी भी प्रकार की तकरार तक नहीं हुई थी. हां, यह और बात थी कि, विवाह के सात वर्ष व्यतीत होने के उपरान्त भी दोनों के यहाँ कोई सन्तान अवश्य नहीं हुई थी, मगर फिर भी दोनों के आपसी सम्बन्धों और प्रेम में कोई भी भेद-भाव नहीं आ सका था. दोनों का दंपत्ति-जीवन बड़ा ही सुखद चल रहा था.
जीवन के पिछले वर्षों में अर्मेश की जहां पर वह नौकरी करता था, अब तक दो बार पदोन्नति हो चुकी थी. अंजना भी जिस स्कूल में पढ़ाती थी, वहां पर भी उसकी कई बार वेतन में बढ़ोतरी हो गई थी. इस तरह से उनके अपने परिवार में अच्छी आय थी. सारे खर्चे सहज ही पूरे हो जाते थे. किसी भी चीज़ की कोई कमी नहीं थी. अंजना को जिस तरह से पढ़ाने का शौक था उससे कहीं अधिक उसे किताबें पढ़ने का भी शौक था. इतना अधिक कि, वह सदा कहा करती थी कि, अगर कोई उसे गिफ्ट देना चाहता है तो वह उसको केवल किताबें ही गिफ्ट में दे दिया करे. यही कारण था कि, जिस बुक स्टोर से वह अक्सर किताबें खरीदा करती थी, वहां पर बार-बार जाने से उसकी उस स्टोर में काम करनेवालों से काफी हद तक जान-पहचान हो गई थी. तब एक दिन एक मंहगी पुस्तक को खरीदते समय वहां के सेल्स मैन लड़के ने अंजना से कहा कि,
'दीदी, आप इतनी मंहगी पुस्तकें खरीदकर पढ़ती हैं, आपके पैसे खर्च नहीं होते हैं क्या?'
'हां ! होते तो हैं, लेकिन क्या करूं? मेरा शौक ही अब ऐसा है.'
'यही किताबें आप किराए पर लेकर भी तो पढ़ सकती हैं?'
'मुझे मालूम है, लेकिन वह लाईब्रेरी बहुत दूर है. लगभग चालीस किलोमीटर. मेरा वहां जाना नामुमकिन ही है.'
'मैं एक सलाह दूँ आपको?'
'?'- अंजना आश्चर्य से देखने लगी तो वह लड़का आगे बोला,
'आप ऐसा करिये; जब भी आप यहाँ पुस्तक खरीदने आया करें तो कोई भी किताब आप पढ़ने के लिए ले जाएँ. उस किताब पर आप कवर चढ़ाकर पढ़ लिया करें और पढ़ने के बाद मुझे वापस कर दिया करें. बस विशेष ध्यान रखें कि, वह किताब किसी भी तरह से गन्दी और खराब न हो. इस तरह से आप फ्री में किताब पढ़ लिया करेंगी और मेरी तरफ से जो आप समझें वह मुझे दे दिया करें. अगर आप माइंड न करें तो मैं अपनी तरफ से पुस्तक के मूल्य का केवल पांच प्रतिशत ही लिया करता हूँ. मेरा मतलब है कि, सौ रूपये की पुस्तक के केवल पांच रूपये ही.'
'?'- अंजना सुनकर दंग रह गई.

बाद में उसने विचार किया तो उसको उस सेल्स बॉय की यह बात पसंद आई. वह किताबें लाकर पढ़ने लगी. समय पर वह किताबें लाती और समय पर ही उन्हें पढ़ने के बाद वापस भी कर देती थी. ऐसा करने से अंजना को यह लाभ हुआ कि, जहां वह सौ रूपये में केवल एक किताब ही पढ़ती थी वहीं उतने ही रुपयों में अब बीस पुस्तकें पढ़ा करती थी.


इस प्रकार से सब कुछ ठीक चल रहा था. अंजना को एक प्रकार से मुफ्त में ही किताबें पढ़ने को मिलने लगी थीं. अब तक अंजना की उस सेल्स बॉय से काफी कुछ सामान्य सी मित्रता भी हो चुकी थी. वह अंजना को दीदी कहता था. सचमुच ही वह अंजना से अपनी बड़ी बहन जैसा व्यवहार किया करता था. इसलिए किसी भी तरह से रिश्तों में खटास आने जैसी कोई बात का डर भी नहीं था. अब तक अंजना के सामने पुस्तकों के बड़े मूल्य और 'महंगी पुस्तकें' वाली कोई समस्या भी नहीं थी. वह अब महंगी से महंगी किताब ले जाती और फिर उसे पढ़ने के बाद बड़ी आसानी से लौटा भी दिया करती थी. सब कुछ बड़े करीने से, समुचित ढंग से चल रहा था. मगर एक दिन एक किताब पर पढ़ते समय अंजना ने लापरवाही से चाय का भरा हुआ बड़ा मग, गर्म-गर्म पुस्तक पर गिरा दिया. फिर तो उस पुस्तक पर अखबारी कागज़ का कवर होने के बाद भी बड़ा ही खराब सा दाग पड़ गया. इस प्रकार कि, उस पुस्तक के उपर उसका आकर्षक कवर भी बेकार और बदसूरत दिखने लगा. अंजना ने बहुत कोशिश की, बहुत साफ़ किया, मगर कुछ बात नहीं बनी. घबराते हुए अंजना ने उस पुस्तक का मूल्य देखा तो उसके हाथों के जैसे सारे तोते ही उड़ गये- किताब का मूल्य आठ सौ रूपये था. अब तो इस समस्या का केवल एक ही उपाय था कि वह किताब का मूल्य देकर उस पुस्तक को खरीद ले. तब अंजना ने उस किताब का मूल्य देने के लिए वही पैसे इस्तेमाल कर लिए थे, जिन्हें आज अर्मेश कपड़ों की अलमारी में से ढूंढ रहा था. . .'

'. . . सोचते हुए अंजना को पसीना तो नहीं आया मगर सोच कर बुरा बहुत लगा. हांलाकि, वह जानती थी कि, अर्मेश उससे कहेगा तो कुछ भी नहीं, मगर जब वह सुनेगा तो ना जाने क्या सोचेगा? उसने मन ही मन निर्णय लिया कि वह आज शाम को जब अर्मेश आयेगा तो वह उसे सारी बात बता देगी. अगर नहीं बतायेगी तो कल का शनिवार और दूसरे दिन का रविवार; दोनों ही छुट्टियां खराब हो जायेंगी. 'वीकेंड' का सारा मज़ा ही जाता रहेगा.
फिर शाम को जब अर्मेश आया तो आते ही अंजना से बोला कि,
'अंजना, देखो तो मैं कितनी अच्छी पुस्तक तुम्हारे लिए लाया हूँ.'
'?'- पति के काम से वापस आने की खुशी और किसी नई पुस्तक के लाने की बात को सुनकर अंजना बड़ी शीघ्रता से आई और तुरंत ही पुस्तक को जब उसने देखा तो पल भर में ही उसकी सारी उत्सुकता हवा हो गई. वह तुरंत ही अर्मेश से बोली कि,
'यह पुस्तक तो मेरे पास है और मैं पढ़ भी चुकी हूँ?'
अर्मेश सचमुच वही पुस्तक लेकर आया था कि जिसके ऊपर चाय का मग गिराकर अंजना ने खराब कर दिया था और बाद में जिसे विवश होकर उसे खरीदना पड़ गया था.
'मैं जानता हूँ. उस सेल्स बॉय ने मुझे सारी बात बता भी दी है. मुझे यह भी मालुम है कि, तुमने वह इमरजेंसी के पैसे इसी पुस्तक को खरीदने में दिए है; लेकिन मैंने इन सारी बातों का ज़रा भी बुरा नहीं माना है. अगर मुझे कोई बात भली नहीं लगी है तो वह है, तुम्हारी मुफ्त में किताबें पढ़ने की आदत. तुम्हें तो मालुम है कि, मैं एक पुस्तक प्रकाशन संस्थान में काम किया करता हूँ. इसलिए जो लोग किताबें लिखा करते हैं, अथवा जो लेखक/लेखिकाएं हैं, उनकी आर्थिक परिस्थितियों को मैं बखूबी जानता हूँ. आज से लगभग चालीस साल पहले तक लेखक को उसकी किताब छपने पर बाकायदा उसका मेहनताना 'रायल्टी' प्रकाशक दिया करता था. मगर बाद में धीरे-धीरे यह रायल्टी समाप्त होती गई और वास्तविक लेखक के स्थान पर 'ट्रेडमार्क लेखक' आ गये. फिर उनकी किताबों या पाण्डलिपि को बहुत कम दाम देकर खरीदा जाने लगा. अब धीमे-धीमे यह चलन भी खत्म होता गया और लेखक की किताब छपने का खर्चा परोक्ष रूप में लेखक की ही जेब से लिया जाने लगा है.

आज चाहे लेखक सुप्रसिद्ध हो अथवा नया हो; प्रकाशक उसकी किताब तो छापता है मगर साथ में शर्त भी रखता है कि, उस लेखक को कम से कम एक समुचित संख्या तक किताबें खुद ही खरीदनी पड़ेंगी. उदाहरण के लिए यदि प्रकाशक ने लेखक को सौ पुस्तकें स्वयं ही खरीदने की शर्त रखी है और एक हजार प्रतियां छापने का खर्चा, मान लो तीस हजार आता है तो प्रकाशक लेखक की एक पुस्तक का दाम कम से कम तीन सौ रूपये रख देगा. तब इस दशा में लेखक को सौ किताबों का मूल्य तीस हजार देना होगा. कहने का मतलब है कि, प्रकाशक लेखक की एक जेब में उसकी पुस्तक छापने का एहसान रखता है तो दूसरी जेब से उनकी प्रिंटिंग इकाई आदि का सारा खर्चा भी वसूल लेता है. इसको कहते हैं कि, खुद ही मुंसिफ और खुद ही मुज़रिम. यह सब, लेखकों की भावनाओं की हत्या, उनकी विवशता उनकी कलम का सौदा और सारी बातें, मैं हर रोज़ अपने काम के दौरान देखा करता हूँ. इसलिए मैं तुम्हारा एक पति होने के नाते, तुमको सलाह देता हूँ कि, 'लेखकों की भावना और उनके महान शब्दों की चोरी आज से बिलकुल ही बंद करो. तुम यदि इन लेखिकों/लेखिकाओं को अपनी तरफ से कुछ दे नहीं सकती हो तो, कम से कम उनकी लेखनी का अपमान भी न करो.

यह लो, एक हजार रूपये तुम्हारे लिए पुस्तकें खरीदकर पढ़ने के लिए और दो हजार रूपये उस इमरजेंसी वाली अलमारी में, कपड़ों के नीचे रखने के लिए.'

'?'- अंजना ने कहा तो कुछ नही, मगर वह चुपचाप किसी कटी हुई टहनी के समान अर्मेश के कंधे से लग गई. वह क्या जानती थी कि, इसी सहारे के लिए तो ईश्वर ने उसे अर्मेश दिया था कि, हर मुसीबत और कठिनाई में वह उसकी सहायता ही न करे बल्कि, उसको हिम्मत और हौसला भी देता रहे.
'तुम बहुत ही अच्छे हो.'
अंजना ने कहा तो अर्मेश बोला कि,
'चाय पीने का बहुत मन हो रहा है. अब एक प्याला चाय तो पिला दो?'
तब अंजना चाय बनाने के लिए जाने लगी तो अर्मेश ने यह भी कहा. वह बोला कि,
'अब किताबों पर कवर चढ़ाकर पढ़ना भी छोड़ देना नहीं तो . . .'
'नहीं तो क्या?'
'लोग तो यही समझते हैं कि तुम कोई खराब या गन्दी किताब पढ़ती हो.'
'?'- इस पर अंजना कुछ भी नहीं बोली. वह अपनी मुस्कान बिखेरते हुए किचिन में चली गई. जाते-जाते उसने बाहर आंगन में देखा तो पतझड़ की पीली पत्तियों से उसके घर का सारा आंगन भर चुका था. लेकिन आज उसे ये पत्तियाँ देखकर जरा भी क्रोध नहीं आ सका था. उसे तो लग रहा था कि, पतझड़ की ये बे-दम पत्तियाँ न होकर जैसे पीले सोने के वे फूल थे कि जिनसे उसका सारा घर अमीर हो चुका था.
-समाप्त।

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