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दूसरी वसीयत

दूसरी वसीयत
कहानी/शरोवन

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‘जगतभाई ने बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ पाया भी। इस दुनियां के हरेक रंग देखे। अपनों और परायों की परिभाषा को बार-बार पढ़ा और याद भी किया, लेकिन वे कभी इस बात को नहीं समझ पाये कि भारत से विदेश में आकर रहनेवाला स्वंय ही बदल जाता है या फिर यहां का पानी और आवोहवा उसे बदल देती है? इसकदर उसमें परिवर्तन आ जाता है कि, वह एक दिन अपने खून और मां-बाप को ही पहचानने से इनकार करने लगता है़।'

***

वुडस्टाक शहर के शवगृह से जैसे ही पुलिस की पहली कार अपनी नीली बत्तियों को जलाती-बुझाती हुई सड़क पर आई, तुरन्त ही अन्य आने-जाने वाले लोगों की कारों और अन्य गाडि़यों की रफ्तार अचानक ही कम हो गई। सब ही पुलिस की गाड़ी के पीछे जाने वाली अन्य कारों के निकल जाने की प्रतीक्षा करने लगे। अपने ही स्थान पर ठहरी हुई अन्य कारें तथा दूसरे वाहन के अन्दर बैठे हुये लोग देखते ही समझ गये थे कि पुलिस की निगरानी में जानेवाला समूचा कारों का हुजूम शवगृह की लॉरी के साथ इस दुनियां से अलविदा कहनेवाले को अंतिम सलाम करने कब्रिस्थान की तरफ जा रहा था। यह अमरीकी ज़मीन पर रहनेवालों का उसूल है कि किसी भी शवयात्रा को देखते ही, पहले उसे रास्ता देना और उसके सम्मान में अपने ही स्थान पर कुछ देर के लिये खड़े हो जाना, एक प्रकार से उसे आखिरी सलाम देना होता है। जानते हैं कि यह वह मार्ग है कि जिस पर एक न एक दिन हर किसी को गुज़रना होता है़।

फिर किसी प्रकार शवयात्रा में जानेवाले लोग कब्रिस्थान के प्राचीर में पहुंचे। दफन की रस्म पूरी हुई और सारे लोग अपना कर्तव्य पूरा करके वापस अपने निवास पर आ गये। मगर, कब्र के पास ही बैठे हुये बूढ़े और अपनी जि़न्दगी से, एक प्रकार से हर तरह से टूटे हुये जगतभाई अभी तक बैठे हुये इस दुनियां से जानेवाली ा्रीमती कैथी डेविस का दुख: मना रहे थे। हांलाकि, सभी अब तक वहां से जा चुके थे, परन्तु जगतभाई का वहां से उठने का मन ही नहीं हो सका था। सारा कब्रिस्थान एक अजीब से सन्नाटे में डूबा हुआ जैसे अपनी मनहूसियत का पैगाम दे रहा था। नई खुदी हुई कब्र से आती हुई मिट्टी की सौंधी सी गंध उनके नथुनों में भरी जाती थी। रह-रहकर उन्हें कैथी के साथ के वे दिन याद आते थे, जो उन्होंने पिछले बारह सालों तक उनके साथ, उनके ही घर में, एक मेहमान के रूप में व्यतीत किये थे।

‘. . . कैथी से उनकी पहली मुलाकात तब हुई थी जब कि वे दो दिन के भूखे और प्यासे मैक डॉनल्ड रेस्टोरेंट के बाहर पड़ी हुई पत्थर की बैंच पर बैठे हुये अपने मुकद्दर पर सिसक-सिसक कर रो रहे थे। तभी कैथी अन्दर से खाना खाकर जब बाहर आई तो उनकी यह दशा देखकर अचानक ही ठिठक गई। पास आकर उसने जगत भाई को एक पल देखा। फिर आश्चर्य से पूछा,

‘ए मैन? वाट्स रोंग विद यू?’

जगत भाई को कोई अधिक अंग्रेजी नहीं आती थी। उन्होंने जैसे भी हो सका, अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में पहले तो यही बताया कि वह दो दिनों से भूखे हैं। तब कैथी ने पहले तो उन्हें रेस्टोरेंट के अन्दर ले जाकर खाना खिलाया। फिर जब वे सामान्य हुये तो उन्होंने अपने बारे में जो कुछ बताया उसे कैथी सुनकर दंग रह गई। दंग इसलिये रह गई, क्योंकि उसने किताबों, लोगों और अन्य स्त्रोतों जो कुछ जाना और सुना था, उससे यही पता चलता था कि जिस देश के जगत भाई वासी थे, उस देश में दुशमन को भी लोग अपने घर से भूखा नहीं जाने देते हैं। मगर यहां तो बात ही कुछ और थी। उनके अपने ही रक्त, और अपने ही लोगों ने उन्हें घर से निकालकर लावारिस बनाकर छोड़ दिया था। अकेला छोड़ा भी था, और वह भी विदेश में?

जगतभाई भारत में गुजरात प्रांत के एक शहर में भारतीय मिर्च मसालों का व्यापार किया करते थे। यह उनका अपना पुश्तैनी, पहले ही से जमा हुआ व्यापार था। अच्छा खासी बड़ा घर था। चार लड़कों और दो लड़कियों के वे पिता थे। दुकान से इतनी आय हो जाती थी कि पूरा परिवार बड़े ही आराम के साथ अपना जीवनयापन कर रहा था। लड़कियां बड़ी थीं, इसलिये उनका विवाह करके जगत भाई एक प्रकार से उनकी तरफ से निश्चिंत हो चुके थे। उसके बाद उनके दो बड़े लड़के भी दुकान में हाथ बंटाने लगे। बाद के दोनों लड़के पढ़ने में अच्छे थे। एक डॉक्टर बना और सबसे छोटा वाला इंजीनियर। जो डॉक्टर बना, वह किसी प्रकार अमरीका आ गया। अमरीका में आकर उसने एक अमरीकी लड़की से विवाह किया और भारतीय परंपरा, रीति रिवाज़ तथा अन्य तमाम सामाजिक बातों को भूलकर वह पूरी तरह से पाश्चातीय संस्कृति के रहन-सहन में रम गया। हां, उसने इतना अवश्य ही किया कि, धीरे-धीरे करके उसने अपने सभी भाई-बहनों को भी अमरीका बुला लिया। अब केवल जगत भाई और उनकी पत्नि ही भारत में रह गये थे। वे दोनों अकेले ही किसी प्रकार अपना काम और दुकान चला रहे थे। हांलाकि, उन्हें किसी भी वस्तु की कमी तो नहीं थी, पर हर समय इस ढलती हुई उम्र और मौत की तरफ कदम बढ़ाती हुई उनकी जि़न्दगी को जिस सहारे और लाठी की जरूरत थी, वह विदेशी भूमि का जल पीते ही सूख़ चुकी थी। एक दिन जगत भाई की पत्नि भी बच्चों के वियोग में उनकी राहें ताकते हुये स्वर्ग सिधार गईं। फिर जब जगत भाई बिल्कुल ही अकेले रह गये तो उन्होंने अपने चारों लड़कों को भारत बुलाया। पहले तो कोई भी आने को राज़ी नहीं हुआ, मगर जब जगत भाई ने अपनी जायदाद और संपत्ति की बात दोहराई तो सब ही पलक झपकते ही भारत आ टपके। जगत भाई ने अपने सारे बच्चों को सारी परिस्थिति से अवगत् कराया और अपनी सारी संपत्ति और जायदाद बच्चों में बराबर से बांटकर उनके नाम कर दी। रह गया घर, उसे उन्होंने तब तक अपने पास रखने की शर्त रखी, जब तक वे उसमें रहते। सो इस प्रकार उनके बच्चों ने अपने-अपने हिस्से की संपत्ति को बेचा और उसके पैसे लेकर वापस अमरीका आ गये। लेकिन बच्चों ने उन्हें सलाह दी कि वे अकेले यहां भारत में किसके सहारे रहेंगे? बेहतर होगा कि वे घर भी बेचकर, अमरीका में अपने बच्चों के साथ ही रहें। जगत भाई ने तब सोचा था कि बच्चे ठीक ही कहते हैं। चार दिन की तो जि़न्दगी बची है, अच्छा होगा कि वे उसे बच्चों के पास ही रह कर गुजार दें। सो वे अपना घर भी बेचकर बच्चों के साथ एक दिन अमरीका आ गये। अमरीका आकर आरंभ के दिन तो उनके ठीक-ठाक व्यतीत हुये, मगर बाद में परेशानियां एक के बाद एक आने लगीं। कोई लड़का उनको रखना चाहता था तो उसकी पत्नि को परेशानी थी। किसी ने उनको नर्सिंग होम में रहने की सलाह दी। किसी बहू को उनके रहने का ढंग पसंद नहीं था। जगत भाई ने सोचा कि वह वापस भारत चलें जायें, मगर अब वहां भी कोई ठिकाना नहीं था। वे चुपचाप बच्चों के आसरे पड़े रहे। कभी कहीं ज्यादती होती तो वे दूसरे लड़के के पास चले जाते। इस प्रकार से वे जब देखो तब ही घर बदलते रहते। फिर एक दिन उनकी एक बहू और लड़का उन्हें घुमाने के बहाने लेकर गये और एक स्टोर में छोड़कर गायब हो गये। अंग्रेजी की उनको परेशानी थी। घर का पता भी उन्हें नहीं ज्ञात था। जेब में भी दो पैसे तक नहीं थे। पुलिस को भी यह सोचकर सूचित नहीं किया कि इससे लड़कों को ही तकलीफ होगी। आखिर, पिता का दिल था। वे भूखे-प्यासे स्टोर के आस-पास ही अपने बहु-बेटे के वापस आने की प्रतीक्षा करते रहे। ज्यादा भूख लगी तो वे मेक डॉनल्ड रेस्टोरेंट के बाहर आ कर बैठ गये, इसी उम्मीद पर कि शायद कोई तरस खाकर उन्हें कुछ खिला दे . . .’

कैथी ने उनकी यह सारी दास्तान सुनी तो केवल दांतों से अंगुली ही दबाकर रह गई। वह तो अमरीकी समाज की महिला थी। उसने जगत भाई के किसी भी बच्चे और बहू को दोषी नहीं ठहराया। अमरीकी समाज का नियम है कि अपना कमाओ और अपना ही खाओ। मां-बाप की जिम्मेदारी बच्चों के लिये तब तक ही है जब तक कि वे वयस्क नहीं हो जाते हैं। वयस्क होकर भी और बाद में भी बच्चों की कोई भी जिम्मेदारी अपने मां- बाप की देखरेख की नहीं बनती है। कैथी ने जगत भाई को ही दोष दिया कि उन्हें अपनी कोई भी संपत्ति या जायदाद अपने मरने के बाद ही बच्चों को देनी चाहिये थी। जीते जी उन्हें कुछ भी नहीं देना चाहिये था। जगत भाई अकेले थे। कहां जाते? कैथी उन्हें चुपचाप, जब तक उनका कोई भी प्रबन्ध नहीं होता, अपने घर पर ही ले आई।

फिर कुछ ही दिनों में कैथी ने जगतभाई के सारे बच्चों के रहने के स्थान आदि की जानकारी भी एकत्रित कर ली। उन्हें उनके पिता की मौजूद परिस्थिति के बारे में सूचित भी किया। इस पर उनके सारे बच्चे उनके पास भी आये और उनसे अपने साथ घर चलने का आग्रह भी किया, परन्तु जगत भाई ने स्पष्ट कह दिया कि वे मरना पसंद करेंगे लेकिन अपने बच्चों के पास कभी भी नहीं रहेंगे। उन्होंने कैथी से भी विनती की कि, वह किसी भी तरह से उनके भारत वापसी का प्रबंध कर दें। वे अपने देश में मरना पसंद करेंग, लेकिन अपनी औलाद के पास कभी भी उनका बोझ बनकर रहना पसंद नहीं करेंगे। उन्होंने अपने बच्चों के पास रह कर जो देखा और भुगता है, उसका दर्द वही जानते हैं।

बच्चे अपने पिता का निर्णय और सारी बात सुनकर अपना सा मुंह लेकर चले गये। कैथी समझदार थी। खुद भी अकेली रहती थी। उसके पति का देहान्त हो चुका था, लेकिन उसका पति उसके लिये आलीशान घर और भरपूर दौलत छोड़ गया था। मरने से पूर्व कैथी का पति फ्रेंचाइज़ स्टोरों का मालिक था। कैथी ने जगत भाई को समझाया। जीवन कायदे से और संघर्ष के साथ जीने के उपदेश दिये। उसने जगतभाई को अपने ही घर में अपने बगीचे की देखभाल, फार्म हाऊस की निगरानी तथा अन्य छोटे-मोटे कामों का बहाना देकर, जेब खर्च जैसे वेतन के पैसों पर, अपने ही पास रख लिया। इसके अतिरिक्त जगतभाई का खाना-पीना और रहना सब कुछ निशुल्क था। अपने देश और अपने सगों से दूर एक अलग संसार उनको आसरा देने के लिये अपनी बाहें पसार रहा था। जगतभाई ने अपने सारे हथियार डाल दिये और इस विदेशी महिला के सहारे हो गये।

इस प्रकार से जगतभाई को कैथी के घर में रहते हुये पूरे बारह वर्ष बीत गये। इन बारह वर्षों में जगतभाई ने बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ पाया भी। इस दुनियां के हरेक रंग देखे। अपनों और परायों की परिभाषा को बार-बार पढ़ा और याद भी किया। लेकिन वे कभी इस बात को नहीं समझ पाये कि भारत से विदेश में आकर रहनेवाला स्वंय ही बदल जाता है या फिर यहां का पानी और आवोहवा उसे बदल देती है। इसकदर उसमें परिवर्तन आ जाता है कि वह एक दिन अपने खून और मां-बाप को ही पहचानने से इनकार करने लगता है। कैथी और जगतभाई में यूं तो कोई भी रिश्ता और संबन्ध नहीं था, परन्तु वषों से एक ही छत और एक ही स्थान पर रहते हुये वे मित्र होते हुये भी एक दूसरे के दुख-सुख के साथी बन चुके थे। कोई भी संबन्ध और रिश्ता ना होते हुये भी उन दोनों के मध्य कभी भी अलग न होने वाला वह रिश्ता था जिसे दुनियाबी तौर पर कोई अलग नाम नहीं दिया जा सकता है।

फिर समय और बढ़ा। मौसम बदले। हवायें कभी गर्म हुई तो कभी मनमोहक। पतझड़ हुये। तारीखें आगे बढ़ती गई। कैथी की उम्र बढ़ी तो वह अक्सर ही बीमार रहने लगी। धीरे-धीरे यह सिलसिला इसकदर बढ़ा कि कैथी का ज्यादातर समय अस्पताल में ही गुज़रने लगा। लेकिन कैथी के इन मुसीबत भरे दिनों में, उसकी बीमारी और बुढ़ापे में जगतभाई ने जी भर कर उसकी सेवा की। इस प्रकार कि उन्होंने अपनी तरफ से उसकी तीमारदारी में कोई भी कोरकसर नहीं छोड़ी थी। जब भी वह बीमार पड़ती थी, जगत भाई हर समय उसके बिस्तर के पास ही बैठे रहते थे। फिर एक दिन कैथी इस दुनियां से सदा के लिये कूच कर गई। मरने से पूर्व वह जगत भाई से केवल इतना ही कह गई थी कि वह अपना घर उन्हें दिये जा रही है। यदि उसकी आत्मा को ईश्वर ने दुनियां में आने की इजाजत दी तो वह समय- असमय उन्हें देखने इसी घर में आती-जाती रहेगी . . . ’

‘ . . .सोचते-सोचते जगतभाई की बूढ़ी आंखों से आंसुओं की चन्देक बूंदें निकल कर कैथी की कब्र की ताज़ा मिट्टी के बदन में जाकर सदा के लिये विलीन हो गईं। वे नहीं समझ पाये कि उनकी आंखों से निकले हुये ख़ारे पानी के ये शबनमी कतरे खुद कैथी को खो देने के अफसोस के कारण थे, उसके प्रति उसके किये गये एहसानों के कारण के थे या फिर प्यार के उन एहसास भरे बेनाम रिश्तों के थे, जिन्हें आज उन्होंने सदा के लिये खो भी दिया था।


शाम ढल चुकी थी। कब्रिस्थान के सूने प्राचीर में ढलती हुई शाम का धुंआ उनकी आंखों को दूर तक देख लेने की मनाही करने लगा था। हर तरफ सन्नाटा था। इस सन्नाटे को देखते हुये प्रतीत होता था कि कब्रिस्थान में बनी हुई हरेक कब्र पर मरनेवाले की रूह बैठी हुई उस दुनियां को चुपचाप निहार रही थी, जिसकी वे कभी मेहमान थीं।

जगतभाई थोड़ी देर को सामान्य से हुये। कैथी की कब्र को फिर से एक बार देखा। नहीं रहा गया तो उन्होंने कब्र को ही चूम लिया। फिर बहुत ख़ामोशी से, भारी कदमों से पीछे लौट लिये। दुनियां से जानेवाले को जि़न्दगी की नहीं, बल्कि चैन से हमेशा सोते रहने की दुआयें देते हुये।

किसी तरह से बुझे-बुझे से वे घर आये। मायूसी से उदास हवाओं से घिरी हुई शाम गुज़ारी। रात में सोने की कोशिश की, पर नींद नहीं आई। कैथी के इस हवेलीनुमा विक्टोरियन घर में वह किसी हताहत, अजनबी के समान सारी रात टहलते ही रहे। सोचते रहे कि इतना बड़ा घर, फार्म हाऊस अलग, कैथी का बचाया हुआ बैंक में तमाम धन, तीन कारें, इसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ ...। वे इन सबका क्या करेंगे? कैथी का कोई अन्य वारिस भी नहीं था। करोड़ों की मालिकिन थी वह। सोचने लगे कि इतना सारा धन-दौलत और संपत्ति तो वे जीवन में कभी भी नहीं पा सकते थे। किसी ने सही कहा है कि ईश्वर जब भी देता है तो छप्पर फाढ़कर ही देता है। ना जाने उन्होंने कौन सा उपकार किया होगा कि जिसके फलस्वरूप कल तक सड़क पर घूमने वाले आज वे करोड़ों के मालिक थे। कैथी अपने नगर, आस-पास और स्थानीय चर्च में एक सुविख्यात महिला थी। उसके धन और वैभवशाली जीवन के बारे में सभी लोग जानते थे। उसके मरने की खबर के साथ उसकी दी हुई जायदाद की खबर दूसरे दिन अखबारों में तो छपी ही, साथ ही किसी प्रकार टी. वी. पर भी सुना दी गई। इस प्रकार से जब जगतभाई की तस्वीर के साथ यह खबर उनके बच्चों ने सुनी और देखी तो दूसरे दिन ही वे सब पता लगाते हुये उनके घर पर आ पहुंचे। जगतभाई ने जब अपने सारे बच्चों को अचानक ही देखा तो चौंकने वाली बात तो क्या ही थी, उन्हें समझते देर नहीं लगी। लाश हो, मरा हुआ जानवर हो या पकी हुई खेती के दाने हों, आकाश में गिद्ध और तमाम तरह के परिन्दे तो मंडराने ही लगते हैं। एक दिन था कि उनकी जेब में पचास पैसे भी पानी की एक बोतल खरीदने के लिये नहीं थे। उनके अपने ही बच्चों ने उन्हें दुतकार के, एक बोझ समझकर घर से बाहर निकाल फेंका था। और आज . . . ? पैसे में जबरदस्त ताकत होती है। किसी को भी अपनी तरफ खींचने के लिये। दुनियां का सबसे सस्ता सच उनकी आंखों के सामने था।

उनके लड़कों, बहुओं ने आते ही शिकायत भरे स्वरों में अपना जैसे मतलबी रोना आरंभ कर दिया। कहां-कहां नहीं ढूंढ़ा था आपको हमारी तो नींदे ही चली गई थीं। भला हुआ कि जीवित तो मिले हैं। अरे, कुछ तो खबर दी होती? अब यहां रहने की कोई आवश्यकता नहीं है, आप हमारे साथ चलिये। अब किसी भी तरह से आपको अकेला नहीं छोड़ेगें . . . । जगत भाई ने सबकी बातें ध्यान से सुनीं। सुनकर बहुत कुछ सोचा। फिर काफी देर की गंभीरता के बाद उन्होंने अपने लड़कों और बहुओं से कहा कि,

‘ठीक है। तुम लोग कहते हो तो मैं तुम्हारे साथ चला चलूंगा। यहां अकेला पड़ा-पड़ा भी क्या करूंगा? लेकिन जाने से पूर्व मुझे भी एक दो बहुत जरूरी काम करने हैं। उन्हें खत्म करते ही मैं जब तुम लोगों को खबर करूं तो लेने आ जाना।’

‘ऐसा भी क्या जरूरी काम हो सकता है? अगर है भी तो आप उसे हमारे घर से भी कर सकते हैं।’ उनकी बड़ी बहू बोली।

‘अरे बहू, बहुत सारे जरूरी काम छोड़कर गई है, मुझे दोबारा जीवन देनेवाली। उसका दिया हुआ यह हवेली जैसा आलीशान घर है। पच्चीस एकड़ का फॉर्म हाऊस है। उसकी गाड़ियां हैं। बैंक का पैसा है। मैं इन सबका अब क्या करूंगा? जि़न्दगी के चार दिन बचे हैं, वे भी शांति से व्यतीत हो जायेंगे। अपनी पहली वसीयत मैंने तुम सबके नाम करके खुद को तुम्हारे आसरे छोड़ दिया था। सोचता हूं कि अब यह दूसरे की अमानत जैसी दूसरी वसियत मैं बूढ़ों के नर्सिंग होम के नाम कर दूं ताकि मुझ जैसे दूसरे वृद्धों को अपने जीवन के अंतिम दिनों में किसी पर बोझ न बनना पड़े।’

‘?’
जगतभाई की इस अप्रत्याशित बात को सुनकर अचानक ही उनके सारे लड़कों और बहुओं के हाथों से जैसे तोते उड़ गये। लगा कि लगी लगाई लॉटरी के नंबर तो सही थे, परन्तु मशीन उनको स्वीकार करने से इनकार कर रही थी।

बाद में किसी ने कुछ भी नहीं कहा। कोई तर्क नहीं किया। किसी भी नई सलाह आदि के लिये उनके होठ नहीं खुले। समझ गये कि वर्षों पूर्व उन्होंने जिन हालात में अपने पिता को छोड़ा था, उनको नाकाम और बे- मतलब भार की वस्तु समझकर नकार दिया था, बारह वर्षों का ए्क लंबा रास्ता उनके स्वभाव को बदलने के लिये कम नहीं होता है। उन सबने जो कुछ भी, जैसा भी और जिन परिस्थितियों में अपने पिता के साथ किया था, उन सारी बातों का अंजाम, जैसा आज वे सब जो देख रहे हैं, कुछ ऐसा ही होना भी था। घर आई हुई लक्ष्मी की बारात, उनके घर में आकर, एक गिलास पानी पिये बगैर ही वापस लौट गई थी। सबके सब, और कुछ भी कहे बगैर, चुपचाप मुंह लटकाये वापस चले गये।

कैथी की मत्यु हुये आज एक माह हो चुका है। जगतभाई फिर एक बार ढेर सारे जैसमीन के सफेद फूलों की ‘रीतबेल’ लिये हुये उसकी कब्र के सामने उदास मुद्रा में खड़े हुये हैं। वक्त की मार, दुख और विछोह से भरी उनकी बोझिल आंखों में चाहत के बिछुड़ जाने के वियोग के मोती हैं। कब निकल जायें और कब धरती पर गिर कर बिखर जायें। कोई नहीं जानता है। जानते हैं तो केवल इतना कि एक मरने के पश्चात भी उनको नहीं छोड़ सकी है और दूसरे उनके अपने हैं जो जीवित होकर भी आज तक उन्हें लेने नहीं आये हैं। शायद यही दुनियां का चलन है, दस्तूर है, रिवाज़ है; जो हाथ थाम ले वही अपना है, वरना अंधेरा देखते ही खुद की भी परछाईं तक साथ छोड़ जाती है।
समाप्त।

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