Mask Mohan Corona (Review) books and stories free download online pdf in Hindi

मास्क मोहन कोरोना (समीक्षा)

मास्क मोहन कोरोना,
उपन्यासकार -डॉ राकेश कुमार सिंह
प्रकाशक-निखिल पब्लिशर्स एंड डिस्टिब्यूटर्स,37 शिवराम कृपा,विष्णु कॉलोनी,शाहगंज,आगरा-282010
पृष्ठ-144,मूल्य-500रु

बिना दवाई के इलाज की कथा--मास्क मोहन कोरोना
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'मास्क मोहन कोरोना, डॉ राकेश कुमार सिंह का व्यंग्यात्मक उपन्यास है।डॉ राकेश की अब तक 26 पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं।इसमें व्यंग्यात्मक कोरोना साहित्य के अंतर्गत इनके 8 व्यंग्यात्मक उपन्यास और 2 अन्य कृतियां--कोरोना की चिल्लर(व्यंग्यात्मक लघुकथा संग्रह) और कोरोनकालीनन बेतुकी तुकबंदिया ।मास्क मोहन कोरोना को डॉ सिंह ने अपने साहित्यिक साथी डॉ राजेश यादव को समर्पित किया है जो कि कोरोना से संक्रमित होकर औषधिय उपचार के अभाव में यह लोक छोड़कर चले गए थे।इस उपन्यास की कथावस्तु इस ओषधीय उपचार के इर्द गिर्द घूमती है।
उपन्यास की कथा एक भेंसवाली से शुरू होती है।वह कुत्ता काटे के इलाज की दवा देती है।लोग उसके पास आये।बोले--अरे अखबार आप पढ़ती नही है।कुष्ट रोग की दवाई कोरोना के मरीजों को दी जा रही है।रिजल्ट देखा जा रहा है।कैंसर की दवाई कोरोना के मरीजों को दी जा रही है।रिजल्ट देखा जा रहा है।कोरोना मरीजो को मलेरिया की दवाई दी जा रही है।रिजल्ट देखा जा रहा हैतो कुत्ता काटे की दवाई कोरोना के मरीजों को देकर देखा जाए तो--?
इस कथा का एक पात्र कहता है-"अरे मंजरी यह सिद्धो का देश है।इसके बड़े बड़े महात्मा अपनी चमत्कारी अनुभूति बताते है।।कहते है-डायबिटीज है खूब मिठाई खाओ।अब कोरोना की बीमारी रोकनी है तो श्रद्धा को किसी ने बता दिया-,समोसे खाओ तो आज हमारे यहां समोसे बन रहे है।
दुनियाभर में फैले कोरोना की किसी के पास कोई दवा न थी।लोग निराश थे।अंधेरे में थे।जीवन के लिये इधर उधर हाथ पैर मार रहे थे।लोग अपने अपने ढंग से बचाव का प्रयास कर रहे थे।।इस स्थितिका वर्णन इस उपन्यास में बखूबी व्यंग्यात्मक ढंग से किया गया है।देखिये-आज आदमी कोरोना की दवाई खोज रहा है।वह हर आदमी को कोरोनरोधक -कोरोनानाशक दवाई बता रहा है।
"अच्छा'
"हां, तेल पेरने वाला कहता है-,राई का तेल सुबह शाम नाक में डालो,कान में डालो।। पैर. के तलवों में लगावो।नाभि में लगाओ,पूरे शरीर में लगाओ।कोरोना छू मनतर।.सब्जीवाला कहता है-- चुकन्दर के छोटे छोटे टुकड़े काट लो।फिर काला नमक डालकर एक लीटर पानी में खूब उबाल लो। छान.कर.पीयो।गर्म गर्म पीओ।कोरोना गायब।किसान कहता है-मुट्ठी भर चने पानी में भीगो दो।सवेरे वही पानी पीलो।चनो मे किशमिश डालकर चबाऊ कोरोना नही चइप्केगा।पत्रकार कहते है-अखबआर पढो ।एक घण्टा सुबह,एक घण्टे डोपहर और एक घण्टा शाम कोपढ़ो।कोरोना पास नही फटकेगा।
कोरोना से बचने के लिए तंत्र मंत्र का भी सहारा लिया गया।माना गया कि ऐसे मुल्लाओ, बाबाओ से देश भरा पड़ा है।।तो कोरोना भी इतना जबर थोड़े है कि बाबाओ और मुल्लाओं के आगे घुटने न टेक दे।चमत्कार को लोग नमस्कार करते है।जिनको लाभ मिलता है वे बताते है तो मानना ही पड़ता है।यहां विश्व स्वास्थ्य संगठन की कोई भी कैसी भी राय नही मांगता।आम खाने से मतलब पेड़ क्या गिनना।लोगो के इस विश्वास का लोगो ने फायदा भी उठाया।
देश की फार्मेसियों ने दवा भी बनाई।लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन की मान्यता के बिना वह कैसे बिके।बिक्री पर रोक लगाई।सरकार भी उल्टे पूछने लगी-तुमने यह दवा क्यो बनाई?तुमने किस्से पूछकर बनाई?यह दवाई बनाने की तुम में काबिलियत है क्या?लोग आपस मे बतियाने लगे -विदेशों में अपनी अपनी दवाई बेचने की होड़ लगी है।भारत की दवाई खाकर चंगे हो रहे है।लेकिन भारत को जगत गुरु मानने में अपनी तौहीन मान रहे है।पहले भारत की कोरोना की दवाई अच्छी थी।फिर न जाने कैसे उबकाई आयी।यह दवाई ठीक नही।प्रतिबन्ध लगा दिया। फिर नही क्या हुआ,थूक कर चाटने लगे।भारत की कोरोना की दवा ठीक है, प्रयोग करो।प्रयोग करने लगे।
इस कोरोना काल मे एलोपैथी वाले लोग वैध जी का काढ़ा पीने लगे।ऋषियों मुनियों वाला योग करने लगे।होमियोपैथी का प्रयोग करने लगे।अखबारों में विज्ञापन छपते--यज्ञ होंगे कोरोना भागेगा।तन्त्रो मन्त्रो से कोरोना भागेगा।लोग भूत प्रेतों की सिद्धियों में विश्वास करने लगे।।उपन्यास का नायक सोचने लगा।बड़े बड़े उत्पादों के उत्पादको ने कोरोना के नाश के लिए फार्मूले खोज लिए है।इन फार्मूलों से ही इसकी दवाई इसके टीके बनने लगे है।दवाई बनाकर इन्हें क्या करना है।उन्हें तो उत्पाद को बेचना है।कल कहा जायेगा अमुक नेताजी का भाषण सुन लो कोरोना भाग जाएगा।।अमुक हीरो का डांस देख लो।कोरोना खुश हो जाएगा।अमुक शहर की साड़ी पहन लो कोरोना शांत रहेगा।अमुक शहर का गुड़ खा लो कोरोना ठीक हो जाएगा।यह बातें उसके दिमाग मे तब आती जब टी वी में बताए जाने लगता-लाइफबॉय से हाथ धोओ कोरोना से बचो।।हार्पिक का प्रयोग करो।यह कोरोना वायरस को मार देता है।
इस उपन्यास में एक जगह यह भी कहा गया है।कोटोंटीआन सेंटर में पानी पीने की व्यस्था तक नही।पंखे तक नही। मरीज गर्मी से उबल रहे है।खाना ऐसे दिया जा रहा है जैसे लोग आदमी न हो कुत्ते हो।बिस्कुट के पैकेट फेंक कर दिए जा रहे है। दवा के नाम पर पेरासिटामोल की गोलियां।विटामिन की गोलियां।गर्म पानी भी नही मिल रहा।कोरिन सेंटर मरीजो का कांजी हाउस।
इस उपन्यास में कोरोना से बचने के तरह तरह के उपाय लोगो के दिमाग मे आये है।वही एक उपाय यह भी आया है कि दुश्मन के आगे हाथ जोड़कर चापलूसी क्यो न कि जाए।।दुश्मन बलवान है उससे लड़कर तो जीत नही सकते।उपन्यास के नायक प्रियम अग्रवाल ने आगे बढ़कर बताया है-सर यह हमारी सभ्यता है।हमारी सज्जनता है।हम लोग किसी का नाम अनादर्पूर्वक नही लेते।उसके नाम के आगे पीछे उसका कोई विशेषण जोड़ देते है।जैसे-,कोयल की तरह बोलने वाली रामेश्वरी को कोकिल बैन रामेश्वरी कहते है।।जैसे बड़ी बड़ी मुछो वाले भूपेंद्र को मुच्छड़ भूपेंद्र कहते है।वैसे ही मास्क पहनने पर न परेशान करने वाले कोरोना को मास्क मोहन कोरोना कहते है।
इससे फायदा?
बताया न हमारी अपनी सभ्यता।अपनी सज्जनता।वैसे कहे तो आप कह सकते है।यह चापलूसी है।चापलूसी का ही एक हिस्सा है।सर चापलूसी तो आप समझते होंगे।
इस तरह सीमित पात्रों द्वारा इस उपन्यास की कथा बड़े ही रोचक ढंग से रची गयी है।सरल भाषा मे स्वभाविक कथोपकथन इस कथा को आगे बढ़ाते है।कथा का अंत भी बड़े ही रहस्मय ढंग से होता है।ऐसी कथा है पढ़ना शुरू ज करे तो पढ़े ही चले जायेंगे।
अंत मे इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ जब जब कोरोना काल खंड का इतिहास लिखा जाएगा तब तब डॉ राकेश कुमार सिंह के कोरोना पर लिखे उपन्यास पढ़ना आवश्यक हो जाएगा।इस उपन्यासमे तत्कालीन सामाजिक यथार्थ कथात्मक रूप में छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी घटना के रूप में इतिहास बनकर मौजूद है।इस उपन्यास को कोरोना काल के एक दस्तावेज के रूप में देखना भी उचित होगा।यह उपन्यास पठनीय है।
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समीक्षक--किशन लाल शर्मा

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