लेख
दतिया की बौद्धिक संपदा के कुछ प्रतिमान
डॉ.के बी एल पाण्डेय
दतिया में साहित्य और कला की समृद्ध परंपरा के साथ ही कुछ ही दशकों पहले यहां गंभीर और प्रचंड बौद्धिकता का भी असाधारण बना रहा है । रचनात्मक साहित्य और कला साधना के अतिरिक्त कुछ नाम ऐसे हैं जो दर्शन, इतिहास,पुरातत्त्व और सामाजिक वैचारिकी के क्षेत्र में गहरे उतरे हैं। अकल्पनीय अध्ययनशीलता के साथ ही उनका विमर्श और विवेचन ज्ञान के आयामों का विस्तार करता था , सर्व श्री राधाचरण गोस्वामी, पंडित सुधाकर शुक्ल, हित किशोर पश्तो सोSहम , रघुवीर दास कनकने इस प्रभामंडल के कुछ
प्रोज्ज्वल नक्षत्र हैं । हम भाग्यशाली हैं कि श्री राम रतन तिवारी के प्रकार दार्शनिक चिंतन का सानिध्य हमें प्राप्त हुआ है।
ऐसा क्यों होता है कि गंभीर बुद्धिजीवी प्रायः अकेला पड़ता जाता है, भौतिक उपस्थिति में नहीं अपेक्षित जीवन मूल्यों में । ज्ञान के धरातल पर उसकी भौतिकता को अधिक सहवर्ती नहीं मिलते क्यों डूबता जाता है वह गहरे अवसाद में? विषाद में ? क्या हमने कभी विचार किया है कि जिसे हम सनक,ज़िद, असामंजस्य, क्रोध, उग्रता कहकर सपाट बयानी कर रहे होते हैं, बहुत ज्ञान साधक बौद्धिक व्यक्ति की भीतरी सच्चाई की मजबूरी है। ज्ञान ज्ञान के प्रति असद ही नहीं सहनशील भी होता जाता है। व्यक्ति तो बस माध्यम होता है।ज्ञान की शत्रुता व्यक्ति से नहीं होती। ऐसे बुद्धि विक्रय व्यक्ति नहीं होते विचार होते हैं। कबीर क्या किसी व्यक्ति का नाम रह गया था ?क्या ऐसी ही प्रचंड बुद्ध जीता को आत्महन्ता आस्था कहा जा सकता है ?क्या इसे व्यक्तिगत स्वभाव या परिस्थितियों का परिणाम कहकर खारिज किया जा सकता है?
यहां दतिया के कुछ बुद्धिजीवियों की वैचारिकता के वर्णन और उदाहरण प्रस्तुत हैं, श्री राधाचरण गोस्वामी की कविता ,हित किशोर पस्तोर के अंग्रेजी लेख का अनुवाद और श्याम सुंदर 'श्याम' का किसी आयोजन में आधुनिक साहित्य पर विषय प्रवेश का यूज किए वक्तव्य। यह रचनाएं अब दुर्लभ है। श्री राम रतन तिवारी दर्शन और अध्यात्मिक के अद्वितीय अध्यक्षा और उज्जवल विमर्श करते थे। उन्होंने अध्यात्म और दर्शन पर सैकड़ों दोहे लिखे, उनके पास दार्शनिक विषयों पर लिखे लेखों का भंडार है, लेकिन प्रकाशित करवाने को बिल्कुल तैयार न थे, अपनी अतिशय अकिंचनता प्रकट करते हुए ( जो कि उनकी वास्तविकता नहीं है) वे अपने सारे लेखन को स्वान्तः सुखाय मानते थे । आत्मा की आवश्यकता का विवेचन करने वाले तिवारी जी किसी चीज को स्वान्तः स्वांता कैसे मान सकते हैं ? ज्ञान का यह भंडार समाज से गुप्त क्यों? सर्व कल्याण की यह सामग्री फाइलों में बंद क्यों ? हमें भी तो ले चलिए ऊर्ध्वगमन पर, लेकिन वे अडिग रहते थे शिव धनुष की तरह। हमें उस सामग्री की चोरी करवानी पड़े और वह किसी दूसरे के नाम से छपानी पड़े , इससे बेहतर है कि आप अपने नाम से ही यह प्रसाद वितरण करें। निश्चित मानिए , प्रसाद कहीं से भी मिले, पहले माथे से लगाया जाता है ।
श्री राधाचरण गोस्वामी जी अध्ययन की अत्यधिक का सबसे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि किताबें तो ठीक है , समाचार पत्रों तक के नोट्स लिया करते थे। अंग्रेजी भाषा के ज्ञान ने उनकी पत्नी अता को तिवारी जी और पस्तोर जी की तरह व्यापकता प्रदान की थी। वे पाश्चात्य और भारतीय चिंतन की परंपरा ही नहीं उसकी समकालीनता से भी जुड़े थे। पढ़ने का आलम यह था कि ताजा प्रकाशित कोई पुस्तक मंगाते तो थे श्री राम रतन तिवारी, पर बी.पी.पी. छुड़वाते थे श्री राधा चरण गोस्वामी। उसके पहले पाठक होते थे हित किशोर पस्तोर सोSहम। पुस्तक के अधिकतर पन्नों में छपाई से जो भी चारों तरफ जगह बच जाती थी, उस पर पस्तोर जी की टिप्पणियां लिखी जाती थी। इसमें यह बात उन्हें कभी बाधक नहीं लगी कि किताब उनकी नहीं है और दूसरे की है । तिवारी जी उनके लिए दूसरे थे ही नहीं। पस्तोर जी के बाद किताब पहुंची थी, श्री राधाचरण गोस्वामी के पास फिर विषयक आधार पर श्री बाबूलाल गोस्वामी जी के पास । दो गोस्वामीयों के बाद असली स्वामी के पास।
दोपहर बाद लगभग चार बजे और
श्री राधाचरण गोस्वामी जगमगाते सख्त कदमों से प्रायः मेरे निवास पर पधारते। ग्लानि से भर कर मैं कहना चाहता था कि आप क्यों आते हैं मैं हीं आ जाया करूंगा। लेकिन मैं जानता था कि उन्हें दयनीय होना पसंद नहीं है, दुखी चाहे जितने हो। बैठते ही भीतर तक आवाज पहुंचाते "नींबू की चाय"! इस आदेश पालन की तैयारी तो उनके प्रवेश करते ही होने लगती थी ।वह बैठते और मैं ज्ञान के उस विशाल जलागार के बांध के एक-दो दरवाजे ऊपर सरका देता। जल हहराता हुआ बहने लगता। ऐसा ही एक दिन था, 1978 के अगस्त की 20 तारीख का..
" कागज दीजिए कुछ लिखना है" मैंने अपने शोध की प्रति के दो पन्ने उन्हें दे दिए। वे लिखते रहे ।
"इन्हें अपने पास रखिए !"
वह एक कविता थी जो 1978 की बसंत पंचमी को प्रातः 4:00 बजे आरंभ हुई (महाप्राण सोते ही कब है ) शाम 5:00 बजे पूरी हुई। उस दिन तारीख थी 12 फरवरी।
दर्शन, मानवता और व्यापक हित में आत्म सजन की यह कविता श्री राधा चरण गोस्वामी का वास्तविक परिचय है। उसका अविकल पाठ प्रस्तुत है-
बसंत पंचमी
1978 फरवरी 12
प्रातः 4:00 बजे प्रारंभ
शीर्षक ग्रंथ से टूटे हुए फल की कामना
मैं ग्रंथ से टूटा हुआ फल हूं अकेला किंतु उसी महा वृक्ष को कि जिसका में फल हूं निरंतर अभी सीता रहता हूं
कौन जाए कब फिर आ जाए इस महा वृक्ष में बसंत की मदमस्त बाहर
है पाकर फिर से नई-नई को प्ले और आशा तो यह भी करूंगा कि शायद सावन भादो की मदमस्त जरी पीकर आ जाए उस बूढ़े से पर मन के युवक वृक्ष में कृषि नई नई चटखारेदार पिक्चर नई नई कलियां और चाहूंगा यही भी शायद फिर से इस पुराने पापी को मिल जाए वह अवसर निराला की दूर से थके मांदे आए हुए बटोही को बुला ले अपनी छत नारी को और फिर उसी शान क्लांत बटोही को ही मन से भेंट कर दे फिर से अपने ही मीठे मीठे रसीले अमृत से आम ऐसे ही बस जीवन की संध्या पार कल्लू यही कामना है यही चाहता हूं
बसंत पंचमी
संध्या 5:00 बजे
12:02 1978
राधाचरण गोस्वामी
सादर सप्रेम भाई पांडे जी को सप्रेम भेंट
208 1978
दतिया भगवान मंदिर
हितकिशोर पस्तोर सोSहम
अंग्रेजी भाषा के कोशीय अधिकारी उस भाषा की शक्तियों के विलक्षण प्रयोग का गहन अध्ययन और विद्वान हित किशोर पस्तोर सोSहम । वास्तव में सोSहम थे जब उनका नाम से अहम था तो उन्हें पाना आसान कैसे हो सकता था ! लोग जिन साथियों के लिए किसी भी हद तक समझौते को तैयार रहते थे, उन्हें पस्तोर जी अपनी जिद और स्वाभिमान के कारण छोड़ते रहे।
" दतिया उद्भव और विकास " के लिए उनका लेख कई अन्य आग्रहों के बाद भी नहीं आ पा रहा था। एक दिन शाम को सात-आठ बजे उनके घर पहुंचा । वे अपने टाइपराइटर पर थाली रखे खाना खा रहे थे -रोजी रोटी साथ साथ।
मैंने कहा "रोजी पर रखें रोटी खा रहे हैं यानी रोजी की रोटी खा रहे हैं!" खा चुके तो मैंने कहा-"लेख?"
उन्हें लगभग ऐसा आग्रह का इनकार असंभव है । दो दिन बाद बहुत अच्छा संस्मरनात्मक लेख मिल गया । उनकी आत्मीयता तक पहुंचने के लिए पात्रता होनी होती थी। वे भोपाल से प्रकाशित अंग्रेजी "दैनिक एमपी क्रॉनिकल" के संवाददाता हो गए थे । स्वतंत्र लेखन भी करते थे ।
यहां उनके अंग्रेजी लेख का अनुवाद प्रस्तुत है। यह लेख "एमपी क्रॉनिकल " में छपा था। मेरे पास सुरक्षित लेख की टंकित प्रति में प्रकाशन तिथि का हिस्सा फट गया है।
'पब्लिश्ड इन द एम.पी. क्रॉनिकल इन इट्स यीशु डेटेड... '
दर्शन पर आधारित यह लेख विज्ञान के तर्क और कारण की कसौटी पर भी प्रमाणित होता है। आज के 'हिग्स बोसोन' अथवा कणों के विखंडन की दिशा में यह लेख बहुत प्रासंगिक है ।
चेतन शून्य
लेखक-पस्तोर 'सोsहम'
एक कमी (lacuna)एक अवकाश(gap), एक दरार(creviee), एक अंतराल(hiatns), एक फटाव(srent) और एक अपूर्ति (fanlat) अंग्रेजी भाषा में यह और ऐसे दर्जनों और शब्द हैं जो हमें रिक्तता,अनस्तित्व अथवा शून्य के उन अजीब टुकड़ों का बोध कराते हैं। जिन्हें हमारे समक्ष प्रस्तुत संसार कहे जाने वाले माया जाल से अलग नहीं किया जा सकता। वास्तव में सोने के अलावा ऐसी और कोई चीज ब्रह्मांड में नहीं है जो हमें व्यक्तिक और वस्तुगत स्तर पर दी गई हो। ऐसी कोई चीज नहीं प्रतीत होती जो एक पूर्व खंड हो,जो अपनी संरचना में परम एकत्व, परम एकल के रूप में हो। इसके लिए मस्तिष्क के भूरे पदार्थ में सरसराहट - खरखराहट का अथवा केक के एक टुकड़े का उदाहरण लीजिए। निकट परीक्षण से यह सिद्ध होता है कि दोनों दानेदार हैं ,इन्हें बनाने वाले विभिन्न दानों के बीच खालीपन अथवा शून्य की स्थिति है । इन शून्य खंडों के बिना उन्हें दाने कहा ही नहीं जा सकता। अगर हम इन दानों को परम और अविभाज्य माने तो हमें निराशा मिलेगी क्योंकि वे भी किसी भी भौतिक विज्ञानी के अनुसार दानेदार हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि मस्तिष्क और पदार्थ में नाभिकीय प्रवृत्ति है। हर वस्तु नाभिकीकरण का प्रयत्न करती है। लेकिन जब हम इसे खोजते हैं तो यह नाभिक गायब हो जाता है। दिक और काल के ढांचे में कोई खरा नाभिक, ठोस,अविभाज्य और पूर्ण एकत्व है ही नहीं । कितनी अजीब बात है!
इससे ऐसा लगता है मानो इस ब्रह्मांड में इन अन्तरालों शून्य खण्डों के बिना कोई एक ठोस संरचना हो ही नहीं सकती । तब क्या हमें यह विश्वास नहीं करना पड़ता कि यह सृष्टि इन शून्य खंडों, अवकशों के भीतर अवकाशों और अवकाशों से ही निर्मित सभी अवकाशों के सपिण्डन के अलावा और कुछ नहीं है।
तो इससे क्या चित्र बनता है ?मेरा अनुमान है इससे यह प्रतीत होता है कि शून्य के भीतर और शून्य का संघनन ब्लॉक होना, वलयित होना, सिकुड़ना और अति व्याप्ति अथवा आच्छादन है। मानो शून्य कोई वास्तविकता या ठोसपन हो। पुनः कैसी विचित्रता?
एक और विलक्षण पक्ष है ।अगर हम इन अंतरालों को उनकी कौतूहलभरी सीमाओं के परे बढ़ाते जाएं संसार में बाह्य विस्फ़ोट हो जाएगा। और हम उन्हें शून्य तक कम करते जाएं तो भी अंतःविस्फ़ोट हो जाएगा। तो यह दूसरा चित्र क्या है ? दरअसल यह स्थिति शून्य के अनंत महासागर में कौतूहलपूर्ण अव्यवस्था अथवा अस्तव्यस्तता के बीच अनिवार्य रूप से हमारे रहने की है । जो इस से डर जाते हैं कि मृत्युभय से ग्रस्त हो जाते हैं और मृत्यु की कामना करने लगते हैं। और जैसा कि प्रायः होता है जो इस शून्य अथवा अनस्तित्व को भूल जाते हैं वे इन अंतरालों को भरने की वैसी ही कोशिश करते हैं जैसे खाली छलनी में पानी भरा जाए। वे प्रपंच (संवृत्ति) और मन दोनों ही स्तरों पर सत्य अथवा किसी ठोस 'कुछ'को खोजते रहते हैं । फिर भी एक तीसरी कोटि के कुछ लोग हैं जिन्हें जिन्हें इस शून्य, इसके खंडों, महासागर और उसकी अव्यवस्था से कोई मतलब नहीं क्योंकि वे स्वयं उस परम प्रकाशवान सरल और संपूर्ण चेतना का अंश मानते हैं। वे इस शून्य से,इसके अंशों से, अंतरालों को भरने वाले प्रयत्नों से औऱ अंततः स्वयं उस चेतना से उस सीमा तक परिचित हो जाते हैं, जहां जानने का समय ही नहीं बचता । अब अगर कोई किसी भूत प्रेत से और उसके प्रेतत्व से पूरी तरह परिचित है तो उसके पास उस प्रेत से डरने का न समय होगा, न उसकी प्रवृत्ति। क्या होगी? सार्त्र ने कहा था,' मानवीय वास्तविकता निरर्थक आशक्ति (राग) है। वह सही भी था और नहीं भी। निरर्थक है ऊपर वर्णित प्रथम व द्वितीय वर्गों के लिए लेकिन तीसरे वर्ग के लिए वह सही नहीं है। निष्कर्ष यह है अगर हम 'कुछ नहीं' को 'कुछ' में बदलना चाहें तो हमे स्वयं को भी अभाव या अनस्तित्व या शून्य समझना पड़ेगा और ऐसा समझने से परे हमें इस से कोई वास्ता नहीं रखना होगा । बस जैसा है।
मैं सोचता हूं कि शून्य पर इस प्रबंध की मूर्खता को यहीं खत्म करना चाहिए। क्योंकि शून्य में कुछ भी डाला जाए उसमें से कुछ भी निकाल लिया जाए शून्य तनिक भी प्रभावित नहीं होता। परम सत्ता के रूप में ही रहता है । जो इस शून्य को स्वयं शून्य होकर शून्य में मिलकर अनुभव कर लेते हैं वे यह बताने के लिए लौट कर कभी नहीं आते यह शून्य क्या है। तो क्या मैं चेतन शून्य का चित्रण करके ईश्वर की बात कर रहा हूं ? शायद! अथवा यहां मैंने नास्तिककता की बात की है शायद। स्यादवादी केवल वर्णन करते हैं। वे निष्कर्ष तक कभी नहीं पहुंच सकते ।
(अंग्रेजी से अनुवाद dr के बी एल पाण्डेय)
श्री श्याम सुंदर 'श्याम'
राजनीति में सक्रिय हो जाने के बाद श्री श्याम सुंदर श्याम के अन्य आयामों को पूरी तरह अभिव्यक्त प्रकट होने का समय नहीं मिला। एक श्रेष्ठ कवि-लेखक, मर्मज्ञ संगीतज्ञ, कुशल खिलाड़ी, विभिन्न विषयों (दर्शन और अध्यात्म सहित) के अध्येता का बहुत बड़ा कौशल प्रस्तुत ही रह गया। इतने अधिक पार्श्वों के प्रिज़्म में जाने कितनी रचनात्मक संभावनाएं निर्मितियां छिपी रहती हैं। उन्होंने अनेक कविताएं लिखी हैं, अनेक लेख लिखे हैं, साहित्यिक आयोजन किए हैं और साहित्यिक वक्तव्य दिए हैं।
ऐसे ही किसी साहित्यिक आयोजन में 'आधुनिक साहित्य पर आयोजित गोष्ठी का विषय प्रवेश' नाम से उनका आलेख छपा था। उपलब्ध प्रकाशित पन्ने से यह पता नहीं लग सका कि यह कौन सा आयोजन था ! आधुनिक कथा साहित्य पर इतनी विशेषज्ञता से लिखे गए इस आलेख में तत्कालीन समय से लगभग पांच दशक आगे की सामाजिक चिंताएं हैं, नारी विमर्श है , नायक का बदलता हुआ स्वरूप है, राजतंत्र की जगह लोकतंत्र की प्रतिष्ठा है, साहित्यकार के दायित्व का बोध है और सबसे बड़ी बात साहित्य में यथार्थ का प्रयोग है। इस आलेख की भाषा सशक्त है और कथ्य विचारगर्भित । लेख इस प्रकार है -
आधुनिक साहित्य पर आयोजित गोष्ठी का विषय प्रवेश
आधुनिक युग में कथा साहित्य ने बहुत बड़ा विकास कर लिया है और उसका प्रभाव भी काफी व्यापक हो गया है शायद कविता से कहीं अधिक। इसीलिए काव्य के नायक से कथा साहित्य के नायक का प्रभाव अधिक तीव्र हो गया है, इस परिवर्तन के साथ ही नायक के आयाम ( डाईमेंशन ) में भी एक मौलिक अंतर हुआ है, वह विशिष्ट ना रहकर सामान्य और आदर्श ना रहकर यथार्थ हो गया है । उस नायक में अभिभूत करने से अधिक जीवित करने की क्षमता सन्निबिष्ट की गई है और उसमें उचित मानव से अधिक पदों से जूझने वाले मानव की अभिव्यक्ति अधिक सशक्त रूप में हुई है । इसका कारण चाहे पश्चिमी साहित्य का गहरा प्रभाव हो या युग के बदले हुए मान का सहज परिणाम हो या स्वयं साहित्यकार की स्थिति में जो एक विषम परिवर्तन हुआ है, वह साहित्य के द्वारा देने और लेने दोनों का कार्य करने को विवश हो गया है या चाहे राजशक्ति के वंश के विकीर्ण होकर जनता में फैल जाने से यह बात आई हो पर नायक के प्रतिमान में परिवर्तन स्पष्ट है।
चर्चा का एक पहलू तो यह है और दूसरा पहलू यह भी हो सकता है कि विभिन्न प्रमुख कृतियों के प्रभाव कारी नायकों का विश्लेषण तुलनात्मक ढंग से किया जाए और यह देखा जाए कि उनमें किस अंश तक व्यापक मात्रा बनाने की योजना है और किस अंश तक व्यापक वैयक्तिक उन्नयन के लिए आग्रह भी है । इस प्रकार इस दृष्टि से भी इस विषय का अनुभव किया जा सकता है कि आधुनिक कथा का नैतिक मान कितने अंश तक समाज से बना हुआ है और कितने अंश तक उसने ऊंचे उठकर उससे विद्रोह करने वाला है उस नायक ने नारी को किस रूप में ग्रहण किया है। यह भी प्रयास है इन शब्दों से विचार करने का प्रयोजन आधुनिक साहित्यकार के चिंतन का विषय समझना है।
संयोजक
श्याम सुंदर श्याम
उपरोक्त सभी व्यक्तित्व ऐसे हैं जिनके अनेक आयाम हैं यहां सिर्फ कुछ पहलू दिए गए हैं।
000
70 हाथीखाना, दतिया mp
दतिया 475661