मुक्तिबोध और उनकी साहित्यिक सैद्धान्तिकी कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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मुक्तिबोध और उनकी साहित्यिक सैद्धान्तिकी

मुक्तिबोध और उनकी साहित्यिक सैद्धान्तिकी

‘साहित्यिक की डायरी’

मुक्तिबोध

मुक्तिबोध का रचना-व्यक्तित्त्व उनके जीवन की ही तरह विरल विशिष्टताओं से निर्मित है। मुक्तिबोध एक व्यक्ति नहीं, अपने समय की एक परिघटना हैं जिसमें अनेक विमर्श और उद्भव निहित हैं। अनुभवों का इतना विस्तृत लोकायतन, वैचारिकता के इतने बड़े प्रमेय, संवेदना की इतनी आत्मीय वैश्विकता और अनेक रूपों और विधाओं में भी न समाती, छटपटाती ऐसी अधीर अभिव्यक्ति के दूसरे उदाहरण ढूँढ़ पाना आसान नहीं है। अपने रचनात्मक साहित्य के अन्तर्गत कविता और गद्य में जितने उद्धरणीय मुक्तिबोध बन गये हैं संभवतः कोई दूसरा समकालीन अथवा परवर्ती लेखक नहीं।

आतंक, हिंसा, भय,आशंका, शोषण और विषमता से भरा अपने समय का गुहान्धकारी यथार्थ मुक्तिबोध के लेखन की विषय-वस्तु भर नहीं है। वह अपने वैचारिक विश्वासों और सरोकारों की निर्भय तेजस्विता के साथ उस यथार्थ से टकराते हैं। ऐसा टकराव प्रतिबद्धता की शक्ति से प्रेरित होता है। फिर मुक्तिबोध तो उससे भी आगे उसका अंग ही बन जाते हैं।

मुक्तिबोध के साहित्य की मानवीय चिन्ताएँ अंतःकरण के तल पर लिखी भोक्ता की बेहद करूण और त्रासद अनुभूतियाँ हैं, घुमावदार तार की स्पाइरल जिल्द में सजी अभिजात पन्नों वाली राजनीतिक योजनाएँ नहीं। इसलिये उनमें न तटस्थता की दूरी है न तात्कालिकता की विस्मृति। वे औपचारिक शुभकामनाओं के बधाई पत्रों जैसी भी नहीं हैं। उनमें जीवन की वास्तविकता है, मानवीय भविष्य की स्वप्नशीलता है। वह अपनी चिन्ता केन्द्रित करते हुए कहते हैं कि

मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में/

सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ/

गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से/कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और/

उत्तर और भी छलमय/

समस्या एक/

मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में/

सभी मानव/

सुखी, सुन्दर व शोषणमुक्त/

कब होंगे।

मुक्तिबोध चिन्तन और सैद्धान्तिकी की दृष्टि से जितने समृद्ध और विचारशील थे उतने ही संवेदना के स्तर पर हार्दिक और भावपूर्ण। उन्होंने ज्ञान और संवेदना की नयी पारिभाषिकी गढ़ते हुए संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदना को आज के जीवनबोध के लिये आवश्यक माना। ये शब्द ऊपर से परस्पर विरोधी लगते हुए भी वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं। उनका रचना-संसार इतना विविध और ब्रह्माण्डीय प्रसार का है कि उसमें वनस्पति, जीव, औरांगउटांग, अंतरिक्ष, पहाड़, गुहा, राक्षस, बावड़ी, शतभुज पाकड़, अंधेरा, जिरहबख्तर, हथियार, राजा, सामन्त, पूंजीपति, भूख, शोषण, राजनीति आदि वह सब है जो जीवन से जुड़ा होने पर भी अभी तक अकाव्यात्मक और आसाहित्यिक माना जाता था। मुक्तिबोध वहाँ तक गये जहाँ तक जीवन के कोई भीसन्दर्भ जा सकते थे। इन सन्दर्भों को खोलते हुए वह एक ओर एक बड़ी दुनिया का विश्लेशण कर रहे थे, दूसरी ओर मानवीय बोध के नये दिगन्तों की तलाश कर रहे थे।

विश्वकोशीय विशयों से जुड़े उनके संवेदन अनुभव आज के जटिल, पाखंडी और चालाक समय से जूझते हुए कभी कभी खुद बहुत जटिल और रहस्यमय लगने लगते हैं। इस समय का सामना करते हुए या तो मुक्तिबोध जैसा संवेदनशील व्यक्ति निरन्तर आशंका और उत्तेजना की स्थिति मेें बेचेन रहने को अभिशप्त है अथवा वह जड़ हो जाना चाहेगा। मुक्तिबोध शहर के अँदेशे में दुर्बल रहने वाले काजी हैं। इस तरह के खुरदुरे यथार्थ की अनुभूति का लिबास भी बार्ड रोबों में तहाकर रखा गया चिकना और झुर्री विहीन नहीं हो सकता। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के ‘तीसरा क्षण’ लेख में मुक्तिबोध का मित्र कहता भी है कि अगर तुम्हारी कविताएँ किसी को उलझी हुई मालूम हां तो तुम्हंे हताश नहीं होना चाहिए।

वस्तु के स्तर पर तो उनकी यह विविध व्यापकता चौंकाती ही है, अभिव्यक्ति के सभी पक्षों में भी वह इतने सम्पन्न और मौलिक हैं कि उन्हे अपनी रचना में आसानी से पहचाना जा सकता है। उनका आवेग अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाशा की व्याकरणिक वाक्यपूर्णता अथवा क्रमिकता का धीरज तोड़ तोड़ बैठता है। ऐसी छटपटाहट और भाशा की निर्माण-क्षमता निराला के बाद संभवतः मुक्तिबोध में ही मिलती है। कलापुरम से योजनों दूर मुक्तिबोध की भाशा की बस्ती में तत्सम, तद्भव, अंग्रेजी,उर्दू आदि शब्दों को समान नागरिकता प्राप्त है। बिम्बों और प्रतीकों में मुक्तिबोध सर्वथा नये हैं। फैंटैसी कितनी रचनात्मक और यथार्थ के साथ भी चल सकने योग्य हो सकती है यह मुक्तिबोध को पढ़कर ही जाना जा सकता है। कलात्मक सफाई के नाम पर मुक्तिबोध ‘कंटेण्ट’ की बलि कभी नहीं देते। वह अपनी खोई अनिवार आत्म संभवा परम अभिव्यक्ति को खोजने पठार,पहाड़, समुन्दर तक भटकते रहते हैं। वह जानते हैं कि सच कहने के लिये, मस्तक-शिराओं का तनाव अभिव्यक्त करने के लिये ख़तरे उठाने पड़ेंगे। ये ख़तरे हैं मठों और गढ़ों को तोड़ने के उनकी आज्ञाओं से विद्रोह के।

विचित्र योग है कि सैंतालीस वर्शीय जीवन की लघुप्राणता के इस व्यक्ति के कृतित्व में महाप्राणत्व की दीर्घता है। गद्य में भी और कतिताएँ तो उनकी लम्बी हैं ही। फिर उन्हे लगता है कि वे अधूरी हैं जिस सत्य और यथार्थ को वह कह देना चाहते हैं वह पूरा कभी नहीं कह पाते। जीवन के इतने विस्तार को बाँध पाना संभव भी नहीं है। वह मानते हैं कि

कहीं भी खत्म नहीं होती कविता/

कि वह आवेग त्वरित कालयात्री है/

व मैं उसका कर्ता नहीं/

परम स्वाधीन है वह विश्वयात्री है/

इसलिए मैं अपनी अधूरी दीर्घकविता में जन्म लेना चाहता हूँ फिर से।

मुक्तिबोध ने स्वयं को मार्क्सवादी माना है, विधिवत् अध्ययन और चिन्तन के द्वारा। उनके पूरे लेखन में उनकी यह दृष्टि निहित है। विशेष रूप से उनकी कविताओं में इस विचार-दर्शन के अनेक शब्दों का भी प्रयोग हुआ है पर वह मार्क्सवाद के स्थूल शाब्दिक अनुवादक नहीं हैं। उन्होंने उसकी ऐतिहासिक भौतिकवादी वैज्ञानिक और द्वन्द्वात्मक दृष्टि को समझा है। इसलिये वह उसे गतिशील और मानववादी दर्शन के रूप में देखते हैं। वह मार्क्सवाद की उस प्रतिपत्ति से सहमत हैं कि कोई भी विचार जड़, स्थिर या अन्तिम नहीं होता। वह जड़वाद के विरोधी हैं वह चाहे अध्यात्म का हो या भौतिकवाद का। इसलिये उन्होंने परम्परा और आधुनिकता जैसी अवधारणाओं को पूर्वाग्रह से नहीं बल्कि विवेक से समझा। वह कथित यथार्थवाद को अपर्याप्त मानते है। जब वह पूछते हैं कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है अथवा जब वह कहते हैं कि तुम्हें तय करना ही होगा कि तुम्हारी पक्षधरता किस ओर है तब वह निश्शंक रूप से वैज्ञानिक तर्कपूर्ण भाव सम्पन्न और विश्वदृष्टि युक्त वैचारिकता की बात कह रहे हैं। वह मानते हैं कि मुक्ति अकेले में नहीं सबके साथ है। मार्क्सवाद, साम्यवाद और क्रांति के साथ सहमति के बाद भी वह आँखें बन्द कभी नहीं करते। उनके पास भाव संवेदन भी गहरे हैं और विचार भी दृढ़। यह उनकी मुक्त चेतना का ही प्रमाण है कि वह अपनी अभिव्यक्ति में पौराणिक प्रतीकों और आत्मा जैसे शब्दों का निस्संकोच प्रयोग करते हैं।

‘ मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक पत्थर में/

चमकता हीरा है। हर एक छाती में आत्मा अधीरा है /

प्रत्येक सुस्मित में विमल सदानीरा है।

मुझे भ्रम होता है कि प्रत्येक वाणी मेें

/महाकाव्य पीड़ा है।

मुक्तिबोध के पहले से ही परदुःख कातर हृदय में इस विचार ने करूणा और संघर्ष की चेतना का विकास किया।

वैसे तो मुक्तिबोध की संवेदना कविता में अधिक व्यक्त है पर उनका वैचारिक और समीक्षात्मक गद्य भी महत्त्वपूर्ण है उनकी कहानियाँ भी। ‘एक साहित्यिक की डायरी’ भले ही स्तंभ के अन्तर्गत वसुधा में लिखे गये लेख हैं लेकिन मुक्तिबोध जहाँ भी होते हैं अपने ‘हाई’ पर होते हैं, बेहद गम्भीर, हमेशा चिन्तन के अतलान्त पर स्थित, तने और कसे हुए, निरन्तर मठ और गढ़ तोड़कर अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर अरूण कमल की ओर जाते हुए। अक्सर अखबार या पत्रिका का स्तम्भगत लेखन अपनी नियमित बाध्यता के कारण गुणवत्ता खोने लगता है लेकिन एक तो मुक्तिबोध के सामने ऐसी कोई बाध्यता नहीं थी दूसरे वे निरन्तर रचनाकुल और नवीन रहते थे। विचार में विषयों की व्यापकता के रूप में वह समाज जीवन और कला तथा साहित्य की सैद्धान्तिकी पर गम्भीर वैचारिक चिन्तन करते हैं, मानवीय कल्याण की चिन्ता करते हैं और जो है उससे बेहतर की कोशिश करते हैं। उनकी ‘एक साहित्यिक की डायरी’ को ‘उत्तरशती की जटिल जीवन प्रक्रिया का जीवन्त दस्तावेज’ इसी संदर्भ में कहा गया है। मुक्तिबोध बताते हैं कि साहित्य जीवन से उपजता है और अन्ततः उसका प्रभाव भी जीवन पर पड़ता है। उनका एक मुख्य निष्कर्ष यह भी है कि नैतिक और अनैतिक, उचित और अनुचित संगत और असंगत का निर्णय करने की ताकत आपने व्यक्ति के परे किसी वैज्ञानिक पद्धति या तुलादण्ड को नहीं सौपीं वरन अपनी अन्तरात्मा को, यानी भीतरी प्रवृत्ति को जो आपकी अपनी है।

कला और सौन्दर्य बोध पर विचार करते हुए वह कला के तीन क्षणों का अपना प्रसिद्ध सिद्धान्त व्यक्त करते हैं। जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव दूसरे क्षण के रूप में फैंटैसी बन जाता है और तीसरे क्षण में अभिव्यक्त होने की गतिमानता। मुक्तिबोध फैंटैसी को साहित्य या कला का एक उपकरण मात्र नहीं मानते हैं। वह कला की अन्तर्वस्तु के रूप में अनुभवों से उद्बुद्ध होकर फिर अपने मूल से पृथक होकर नया रूप ले लेती है। यह वैयक्तिक से निर्वैयक्तिक होने और फिर शब्दबद्ध होने की निर्माण प्रक्रिया का अनिवार्य अंग है। इस फैटेंसी में संवेदनात्मक ज्ञान और ज्ञानात्मक संवेदनाएँ रहती हैं। मुक्तिबोध का यह विवेचन बहुत गम्भीर और जटिल है लेकिन जीवन से संयुक्त। वह अकादमिक या शास्त्रीय कहीं नहीं होते।

मुक्तिबोध नारी या प्रकृति के सौन्दर्य के अवलोकन को सही सौन्दर्यानुभव नहीं मानते। उनके अनुसार सौन्दर्य सृजनशील कल्पना के सहारे संवेदित अनुभव का विस्तार है। कविता में आवेग आवेश और भावना की भूमिका है लेकिन वे स्वभावतः हो कृत्रिम नहीं। आज की कविता बौद्धिक और आत्मीय है। उसमें आवेश को स्थान नहीं। काव्यसत्य भावना प्रसूत है लेकिन उसका नैतिक उत्तरदायित्व है। साहित्य का मूल्यांकन न तो केवल साहित्यिक कसौटी पर हो सकता है न केेवल समाजशास्त्रीय अथवा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से। साहित्य को विविधपक्षीय दृष्टियों से देखा जाना चाहिए। कलाकार की ईमानदारी इस बात में है कि वह जीवनमूल्यों का आचरण भी करें। कविता का धर्म है अपनी प्रकृति से और काव्य के वस्तुतत्त्व की प्रकृति से एकाकार होना। व्यक्तिगत ईमानदारी का अर्थ है ज्ञानात्मक आधार को विस्तृत करना और भावना को ज्ञानशक्ति द्वारा गृहीत जीवन क्षेत्र में सक्रिय करना। लेखक एक देश का नहीं होता। उसमें विश्व दृष्टि होनी चाहिए।

मुक्तिबोध ने ‘डायरी’ में केवल साहित्य और कला के स्वरूप और दायित्व का ही विवेचन नहीं किया। उन्होंने समाज की वर्ग-चेतना तथा नये और पुराने जैसे सामाजिक मुद्दों पर भी बहुत तर्कपूर्ण टिप्पणी की है। मुक्तिबोध जब साहित्य को जीवन के साथ जोड़ कर देखते हैं तो ‘एक साहित्यिक की डायरी’ में जीवन के आशयों की समीक्षा स्वाभाविक है। मुक्तिबोध भ्रष्टाचार, अवसरवादिता और अनाचार का सूत्रपात बुजुर्गों से मानते हैं। कानून या नियम तो आर्थिक शक्ति से सम्पन्न प्रभावशाली लोगों की सुविधा के लिए हैं। आज का उच्चतर वर्ग अधिक जड़ और अधिक प्रतिगामी हो गया है। विवेकानन्द ने इसीलिए कहा था कि भारत की एक मात्र आशा उसकी जनता है। उच्चतर वर्ग दैहिक और नैतिक रूप से मृतवत् हो गये हैं। धन से शासित समाज में आदमी ज्यादा से ज्यादा टुच्चा और ओछा होता चला जायेगा।

यह मुक्तिबोध की लेखकीय और विचारगत ईमानदारी है कि जब आज लोग दूसरे को खारिज करने के लिये अपने गलत के समर्थन में तर्को के आयुध तान लेते हैं तब मुक्तिबोध अतिवादी नहीं होते। परम्परा और आधुनिकता अथवा नये और पुराने पर विचार करते समय वह उचित के साथ ही होते हैं। वह पुराने के व्यतीत होने को स्वाभाविक मानते हैं लेकिन उनकी प्रमुख चिन्ता यह है कि जो नयी दृष्टि आनी चाहिए थी वह नहीं आयी। धर्मभावना गयी लेकिन वैज्ञानिक बुद्धि नहीं आयी। वैज्ञानिक मानवीय दर्शन ने, वैज्ञानिक मानवीय दृष्टि ने धर्म का स्थान नहीं लिया। इसीलिये केवल हम अपनी अन्तःप्रवृत्तियों के यन्त्र से चालित हो उठे।

यह ‘साहित्यिक की डायरी’ सामाजिक चिन्ता के अन्तर्गत परिवार पर विचार करते हुए उसकी स्थिति का यथार्थ रेखांकित करती है। संयुक्त सामन्ती परिवार का

हृास हुआ लेकिन आज भी हमारे परिवार अमानवीय कट्टरपंथी विचारधारा के गढ़ हैं या बुर्जुआ किस्म के सत्तावाद के दुर्ग हैं। मानववाद की हरदम दुहाई देते हुए भी घर में जितना अहंवाद और व्यक्तिवाद तथा वैचारिक दासता चली आ रही है उसकी कोई हद नहीं। मुक्तिबोध विश्लेषण की तहें खोलते हुए उस वास्तविकता तक पहुँचते हैं जो अक्सर उपेक्षित रह जाती है। सामाजिक परिवर्तन के क्रम में यह विडम्बना रही कि समाज में बाहर पूंजी या धन की सत्ता से विद्रोह की बात की गई लेकिन घर में नहीं। मतलब यह है कि अन्यायपूर्ण व्यवस्था को चुनौेती घर में नहीं, घर के बाहर दी गयी।

इस तरह के अनेक अन्तर्विरोधों और पाखण्डों का तटस्थ दृष्टि से विश्लेषण करते हुए वह एक साहित्यिक का सही दायित्व निभाते हैं। कोरा कलावाद या जीवन के स्पन्दनों से रहित साहित्य मुक्तिबोध के मूल्यों से बाहर है। विचार को जीवन और कृतित्त्व में इतनी अभिन्नता से समझने वाले मुक्तिबोध हमारे समय की संवेदना और रचनात्मकता के महाख्यान हैं। विचार के प्रति ऐसी निष्कपटता को ही मुक्ति का बोध माना जा सकता है।

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