चन्द्रकान्त देवताले का काव्यसंग्रह -लकड़बग्घा हँस रहा है कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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चन्द्रकान्त देवताले का काव्यसंग्रह -लकड़बग्घा हँस रहा है

लकड़बग्घा हँस रहा है - समयगत सच्चाईयों का दस्तावेज-

चन्द्रकान्त देवताले का तीसरा काव्यसंग्रह

हड्डियों में छिपा ज्वर और दीवारों पर खून से के बाद चन्द्रकान्त देवताले का तीसरा काव्यसंग्रह लकड्बग्धा हँस रहा है, सार्थक रचना शीलता की दिशा में एक और सफल प्रयास है आज की कविता और प्रस्तुत प्रसंग में चन्द्रकान्त देवताले की कविता की मूल संवेदना टंकार और झंकार की कृत्रिमता को तोड़कर तथा करूणा के वायवीय और अतिशय भावुकता प्रधान प्रसंगों को छोड़कर निराला की सड़क पर पत्थर तोड़ती औरत की परम्परा में श्रमशील, शोषित, वंचित और दलित आम आदमी की पीड़ा के साथ आ गयी है। राजनीतिक व्यवस्थाएँ बदलती रहीं, सत्ता-परिवर्तन के नाटक होते रहे पर निराला की उस मजदूरिनी का पसीना अभी तक नहीं सूख पाया उसकी अभाव भरी दृष्टि आज तक आकाश की ओर उठी हुई है।

प्रस्तुत कविता संग्रह समयगत सच्चाईयों को उजागर करता हुआ यथार्थ की ऐसी अनुभूति कराता है जिससे कटुता और भयावहता के बावजूद शुतुर्मुगी पलायन की जगह उसके साथ गहरी संलग्नता का अहसास होता है। इन कविताओं का यथार्थ निस्संग प्रत्यंकन तक सीमित न रहकर हमें अनुभूति और सहानुभूति के उस बिन्दु तक ले जाता है जहाँ विसंगतियों और अन्यायाी व्यवस्था के प्रति हमारे मन में रोष और संघर्ष उपजने लगता है। इन कविताओं का अनुभव जगत ऐकान्तिक और सर्वथा वैयक्तिक न होकर व्यापक भावबोध और सामान्य प्रतीति की वस्तु है। कवि केक मन में मानवता के प्रति गहरी आस्था और अनुकूल भविष्य गढ़ने का सुखद स्वप्न है।

आम आदमी की हालत के बदलाव में कविता की भूमिका पर विवाद हो सकता है और यह भी माना जा सकता है कि कविता किसी भौतिक उपकरण की तरह प्रयुक्त नही हो सकती पर इन कविताओं को पढ़कर जो प्रतिक्रिया होती है और जो मानसिकता बनती है उस संदर्भ में इन कविताओं को प्रखर हथियार से कम नहीं माना जा सकता। इसी अर्थ में इन कविताओं की रचनात्मकता कारगर है। इन कविताओं के माध्यम सेस कविता की शक्ति पर भरोसा होता है जैसा कि संग्रह के आवरण पर छपी टिप्पणी में कहा गया है। रचना में वह जुझारू तेवर तभी आ पाता है जब रचनाकार कलावादी चतत्कार के मोह में न उलझकर अपनी बात को प्रखर ओर बेलाग माध्यम से व्यक्त करता है जब अनुभवों के रूपायन और उनके संप्रेषण में कोई बनावट नहीं होती व्यवधान नहीं होता।

भिन्न भिन्न समयों में समाज के भीतर सामान्य व्यक्ति को प्रभावित करने वाले तत्व अलग अलग रहे हैं। एक समय था जब आदमी के सरोकारों का परिवेश बहुत सीमित था। उसकी चेतना मध्ययुगीन शोषक मूल्यों और अपनी अभिशप्त नियति के स्वीकार के साथ जुड़ी थी। आज के आदमी के सरोकार व्यापक हुए हैं। राजनीति तथा अन्य सारी घटनाएँ उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं। आज के आदमी का अनुभव-जगत अधिक जटिल सचेत और विस्तृत हुआ है। इसी तरह आज के कवि के संवेदन और अनुभव भी परिवर्तित भंगिमा के साथ निर्मित और व्यक्त हुए हैं। आज न राजनीति कविता से बाहर की चीज है न समाज को प्रभावित करने वाली अन्य कोई समस्या। देवताले की रचनाधर्मिता में भी आज केक परिवेश के सभी जरूरी आग्रह हैं, परिस्थितियों की अंतरंग पहचान है और उनका ईमानदारी से निर्भय बखान है।

प्रस्तुत संग्रह में भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, आज की सभ्यता की यांत्रिकता के कारण मार्मिक संवेदनों के लोप के प्रति करूण है, गुलाम और शोषित की पक्षधरता है तथा छद्म और दोगलेपन पर कड़ी चोट है। अनुभूति की इतनी व्यापकता, गहराई और सच्चाई के ही कारण देवताले की इन कविताओं में प्रमाणिकता है। कविता के लिये सत्य कितना जरूरी है-

सत्य को जब चीथता है कोई शब्द

या कोई शब्द ध्वस्त हो

देता है हमें सत्य

तब टपकता है दूध कविता का

मजबूत होती हैं घास की जड़े

(भाषा के इस भद्दे नाटक में)

कविता का यह सत्य केवल प्रत्यय का दार्शनिक निराकारता का सत्य नहीं है बल्कि सामाजिक यथार्थ की चेतना से उत्पन्न ऐसी वास्तविकता है जिसका साक्षात्कार कहीं भी किया जा सकता है। पूरे संकलन में आज की स्थिति की भयावहता है, आतंक है। इसी आतंक और भयानक आदमखोरी का प्रतीक लकड़बग्घा अपनी विजयी स्वच्छन्दता पर व्यंग्य की हँसी हँस रहा है। हत्या की दहशत फैला कर भी लकड़बग्घा निश्चिन्न है, निरूपद है, प्रसन्न है। न्याय का स्वरूप एक लम्बी सुरंग की तरह है जिसमें घुसकर अंधेरे का फायदा उठाकर बिना किसी हानि के दूसरे छोर पर निकला जा सकता है। व्यवस्था के ठीक नीचे लकड़बग्घे की यह हँसी कितनी क्रूर है। जुल्म के शिकार व्यक्ति को आज की व्यवस्था राहत केक रूप में कुछ रूप में बाँट देती है जिसमें करूणा से अधिक अहसान है। किसी भी मानवीय ट्रेजडी के प्रति आज इतना औपचारिक व्यवहार हो गया है कि लाशों की राख को ठिकाने तक पहुँचा कर राहत देने वाले तुरंत इस चर्चा में रस लेने लगते हैं कि क्या भारत हाँकी में जीत जायेगा। फिल वक्त कविता का स्वर भी कुछ इसी प्रकार का है। जीवन की बुनियादी जरूरतों के संघर्षो में जूझते लोगों का यथार्थ यह है कि बच्चा गुड़धानी के लिये चीख चीख कर रो रहा है और माँ लीह बीनने के लिये टोकनी सँभाले घोड़ागाड़ियों की ओर पुलकित होकर देख रही है। व्यवस्था का यह हाल है कि पुलिस गाड़ी अपराधियों का पता पूंछने के लिये तो कातर गुहार करती है पर खाकी आँखों की खूंखार भाषा स्त्रियों के मन में दहशत पैदा कर सकती है। आज की व्यवस्था में हाथी तो बच कर निकल जाता है और चूहे की दुम पकड़ ली जाती है। असलियत यह है कि हमने आम आदमी को जीवन की बुनियादी चीजें नहीं दी, रोटी नहीं दी, नारे दिये, खोखले शब्द दिये, प्रदर्शन दिये थोथे और शोषक मल्य दिये। भूखे बच्चे मंत्री जी के स्वागत में जनगणमन गाने के लिये इंतजार करते करते दम तोड़ देते हैं। ऐसी ही एक और स्थिति है-

मुझसे क्यों पूंछेगा कोई

जबाबदेही का सूचना ठेका जिसके पास हो

बतावे वह, उस दिन कहाँ थे सब डाक्टर

पुलिस अफसर जिले के राजा कलक्टर कमिश्नर

कहाँ थे सब जब शराब पी-पीकर मिलावटी

ढेर हो रहे थे एक के बाद एक सैकड़ों लोग

कौन महाराज क्यों पधारा था जिसकी पच्चीसों फोटो

छाप अखबार में प्रसन्न थे मालिक अखबार

थे गद्गद् सम्पादक पत्रकार फिर भी खिन्न शायद

कि उनकी हजामत बनते वक्त की फोटू नहीं थी

आ पाई पकड़ में।

(फिल्म वक्त)

भय और हादसे की आशंका ने आदमी को विचलित आत्म विश्वास रहित और सशक्ति कर दिया है। अपने श्रम से अनेक वरदान उपजाने वाले हाथ जीवन संघर्ष में ही इतने उलझे हैं कि उनकी प्राणवत्ता ही समाप्त हो गयी है। देवताले की ये कवितायें इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर सही लगती है कि आदमी के इन दुःखों का कारण वर्ग वैषम्य है, सामंती पूँजीवादी वर्ग के शोषक स्वार्थ है। यह शोषण गुलामी को जन्म देता है। बूर्ज्वा व्यवस्था द्वारा दिया हुआ गुलामी का यह अभिशाप इतना क्रूर और अमानवीय है कि मालिक के बच्चे की थोड़ी सी चीं पर जान छोड़कर भागने वाले नौकर के अपने गुलामज़ादे स्नेहवंचित होकर अभावों मंे विसूरते बिलखते रहते हैं। थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे कविता में विरोधी स्थितियों की स्थापना से मार्मिक अहसास उभरता है। सुविधा सम्पन्न शोषक वर्ग के हिस्से में साराी सुविधायें आ गयी हैं। जबकि सर्वहारा वर्ग के बच्चे कीचड़ धूल और गंदगी से पटी गलियों में अपना भविष्य बीन रहे हैं-

सिर्फ कुछ बच्चों के लिये

एक आकर्षक स्कूल और प्रसन्न पोषाकें हैं

बाकी बच्चों का हुजूम

टपरों के नसीब में उलझ गया है

उनकी फटी चड्डी

उनें सीधे खड़े होने से रोक रही हैं

ढेर सारे बच्चे

सार्वजनिक दीवारों पर गालियाँ लिख रहे हैं

ढेर सारे बच्चे बीड़ी के अद्दे ढूँढ़ रहे हैं

ढ़ेर सारे बच्चे होटलों में

कप बसिया रगड़ रहे हैं।

उनके चेहरे मेमनों की तरह दयनीय हैं

और उनके हाथों और पाँवों की चमड़ी

हाथ और पाँव का साथ छोड़ रही है

इन अनुभवरों में कवि की स्थिति बाहरी दर्शक की नहीं है बल्कि समझौता की है। इसीलिये उसके मन में ऐसा विद्रोह उभरता है जहाँ सारी गलती मान्यताओं और मूल्यों को चुनौती दी जाती है-

ईश्वर होता तो इतनी देर में उसकी देह कोढ़ से

गलने लगती। सत्य होता तो वह अपनी न्यायाधीश

की कुर्सी से उतर जलती सलाखें आँखों में

खुपस लेता। सुन्दर होता तो वह अपने चेहरे

पर तेजाब पोत अंधे कुएँ में कूद गया होता। लेकिन...............

(थोड़े से बच्चे और बॉकी बच्चे)

यहाँ एक खतरे का जिक्र अनिवार्य है कि यथार्थ के नाम पर कुछ स्कूल घटनाओं या दृश्यों का तथ्यात्मक भावविरहित चित्रण इतिहास भूगोल या अन्य कोई शास्त्र तो हो सकता है, कविता नहीं। कविता की सबसे जरूरी शर्त और कसौटी है सैकड़ों घटना व्यापारों और स्थितियों से गृहीत ऐसी अनुभूति जो सृर्जन की प्रक्रिया में रच पच कर ऐसा भाव बोध बन जाती है जिसमें तथ्य गायब हो जाते हैं और एक सामान्य संवेदना शेष रह जाती है। देवताले की स्थितिपरक कविताओं की यही खूबी है।

आदमी के दुर्भाग्य के यथार्थ को प्रकट करते हुए उसे वहीं छोड़ देना कोरे यथार्थ की संतुष्टि तो हो सकती है पर चन्द्रकांत देवताले जैसे सार्थक रचनाकार का कवि कर्म इतने से ही पूरा नहीं हो जाता। वह हमें ऐसे प्रकाश पर पहुँचा देते हैं जहाँ हमारे भीतर कुछ या गढ़ने का उत्साह पैदा होता है। हम स्वयं को एक लड़ाई में शामिल पाते हैं। उनकी अनेक कविताओं में विद्रोह और जनचेतना की शक्ति में भरोसा है।

भरोसा रखो हवा पर

वह तोड़ कर रख देगी

जंगलों की चुप्पी

गूँगे नहीं रहेंगे दरख्त

मथ देगी समुद्र

झाग में तैरेंगे जीवित शब्द

(शब्द संभव है)

थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे कविता में वर्ग-चरित्र के चित्रण के अंत में कवि क्रांति के आवेश में कह उठता है-

पर वे शायद अभी जानते नहीं

वे पृथ्वी के वाशिन्दे हैं करोड़ों

और उनके पास आवाजों का महासागर है

जो छोटे से गुब्बारे की तरह

फोड़ सकता है किसी भी वकत

अँधेरे के सबसे बड़े बोगदे को

फिल्म्वक्त कविता में भ्रष्ट व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त करते कवि की आश भरी दृष्टि उस गर्भवती स्त्री की ओर जाती है जो इस आतंक में भी हँस रही है क्योंकि गर्भ में वह भविष्य पल रहा है जो सब कुछ बदल देगा। एक साबुत घर के लिये, कविता में कविता की शक्ति और उसकी रचनात्मक सार्थकता का परिचय मिलता है। पृथ्वी का देखा हुआ सपना ही कवि में कतिवाएँ उगाता है। वह अपनी कविता से लकड़बग्घे की हँसी तोड़कर उसका डर भगा देना चाहता है जो इस साबुत घर के सपने को पूरा नहीं होने देता।

आज की मशीनी सभ्यता में आदमी संवेदन शूण्य हुआ है। वह दूसरों से एलियनेट हुआ है। इसका मूल कारण भी आर्थिक असुरक्षा और जीवन संघर्ष की तोड़ देने वाली परिस्थितियाँ हैं। बच्चे के खोजने के बाद कविता का बाबू अपेन पिता के प्रति बेगाना होकर बीबी बच्चों में उलझ कर रह गया है। दरअसल यह बाबू नहीं खोया है बल्कि मनुष्यता का अवमूल्यन हुआ है। आदमी केवल दूसरों के लिये ही पराया नहीं हुआ है बल्कि वह खुद से भी एलियनेट हुआ है। यह आत्म निर्वासन की ट्रेजडी पूँजीवादी की अनिवार्य देन है।

देवताले की रचनाधर्मिता में आदमी के छद्म और दोगलेपन को तोड़ने की साहसिकता है। हँसी के पीछे जेब में छिपा हुआ चाकू है, हमें जो कुछ सुनाया जाता है वह वास्तविक नहीं । मंचच पर झूठे शब्दों का प्रयोग और नेपथ्य में भूमिगत साजिश चलती रहती है।

यथार्थ की यह भीतरी पहचान वास्तविकता को उसके मूलभूत स्तर पर परखने से बनती है-

मैं देखता हूँ चीजों को

अड़चनों के भीतर तक जाकर

और कहता हूँ कुछ इस तरह से

जैसे में जो कुछ कह रहा हूँ

वह देख सुन कर ही नहीं

चखकर भी आया हूँ

और यह उससे कितना भिन्न है

जो सुबह अखबार में

किसी की भी आँखें देखती हैं।

(मैं जो कुछ कह रहा हूँ)

यह प्रमाणिक अनुभूति अपने परिवेश के प्रति आत्मीयता से बनी है। कवि ने जहाँ व्यापक रूप से स्थितियों को परखा है वही अपने परिचित परिवेश के फलक का भी आधार लिया है।

देवताले की अनुभूतियाँ और उन्हें रूपांकित करने वाली भाषा को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता। कथ्य और उसकी माँग पूरी करता रूप-विधान जब अलग-अलग उपकरण या कसौटियाँ नहीं रह जाते तभी कविता अकृत्रिम होती है। प्रस्तुत कवि की भाषा रोमानी अंदाज से मुक्त होकर यथार्थ का निर्वाह कर सकने में सक्षम है। उसने शब्दों के अनगढ़पन और उनकी आंचलिकिता में भी सार्थकता की खाज की है। रतलाम में म0प्र0 शासन साहित्य परिषद के तत्वाधान में प्रश्न जो समुद्र है। बैनर से आयोजित गोष्ठी में भाग लेते हुएए देवताले ने कहा था- शब्द अपने परिवेश को व्यक्त करते हुए उस कवि के अपने निजी व सामाजिक रिश्तों के साथ फूटता है। कविता में कवि रचना के दौरान अपने सत्य का आविष्कार करता है और अपनी सुविधाओं अपने अनुभवों में से वह रचनात्मक भाषा के जरिये कुछ हासिल करना चाहता है और उसके लिये शब्द बहुत महत्वपूर्ण चीज़ है।

मक्खी को मकड़ी और तिनके को तमंचा बना देने वाली भाषा अविश्वसनीय होती है। शब्दों की जड़े खून में है।

लकड़बग्घा हँस रहा है समयगत सच्चाईयों का दस्तावेज भी है और मनुष्य विरोधी व्यवस्था के खिलाफ चुनौती भी है।

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