केबीएल पांडे के गीत
नवगीत- सधे हुये आखेटक बैठे चारों ओर मचान पर...!
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू !
खुशियों में खोये सोये अपने हिंदुस्तान पर!!
इतनी दूर आगये हम उत्पादन के इतिहास में,
भूल गये अंतर करना अब भूख और उपवास में!
बन्द किवाडो भीतर जाने लक्श्मी कैसे चली गयी,
यहाँ लिखे भर रहे लाभ शुभ पूरे खुले मकान पर....!!
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू ....
शेष नही कोई सम्वदन सम्वादो में कथ्य में,
असली नाटक खेल रहे हैं कलाकार नेपथ्य में!
तिनका दाबे दांतो में सारा जंगल भयभीत है,
सधे हुये आखेटक बैठे चारों ओर मचान पर...!
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू ---
नाम लिखे हर दरवाजे पर फिर भी सभी अपरिचित हैं
सधे हुये आखेटक बैठे चारो ओर मचान पर...!
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू !
खुशियो में खोये सोये अपने हिंदुस्तान पर!!
इतनी दूर आगये हम उत्पादान के इतिहास में,
भूल गये अंतर करना अब भूख और उपवास में!
बन्द किवाडो भीतर जाने लक्श्मी कैसे चली गयी,
यहाँ लिखे भर रहे लाभ शुभ पूरे खुले मकान पर....!!
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू ....
सब जुलूस में शामिल लेकिन सबके अलग अलग हित हैं !
शब्द शब्द में मोलभाव है जीवन बस क्रय विक्रय हैं,
अक्सर लोग मिला करते अब बैठे किसी दुकान पर !
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू
इंक्लाब के कंठ मुखर हैं अब दरर्बारी बातो में
नाच रहे चेतक के वंशज घुंघ्ररु पहन बरातो में,
साध रहे सब योग जोड्ते हाथ उभरते सूरज को,
चौंच खोल कर बगुले बैठे परम अहिंसक ध्यान पर –!
जाने कब से सोच रहा हूँ मै भी कोई गीत लिखू खुशियो में खोये सोये अपने हिंदुस्तान पर!! ----
शब्दो की मौत
यह कहने से
कि धरती कभी आग का गोला थी
आज बर्फीले मौसम को कतई दह्शत नहीं होती
शब्दो की तमक बुझ गयी है
व्याकरन कि ताकत पर
आखिर वे कब तक पुल्लिंग बने रह्ते
जब कि वे मूलत नपुंसकलिंग ही थे
तम्तमाये चेहरों और उभरी हुई नसो की
अब इतनी प्रतिक्रिया होती है
कि बांहो में बान्हे डाले दर्शक
उनमें हिजडो के जोश का रस ले
मूंग्फलियां चबाते रह्ते हैं
और अभिनय की तारीफ करते रह्ते हैं
यह रामलीला मुद्दत से चल रही है
और लोग जान गये हैं
कि धनुश टूट्ने पर
परर्शुराम का क्रोध बेमानी है
शब्द जब बेजान बेअसर हो जाये
तब अपनी बात सम्झाने के लिये
हाथ घुमाने के अलावा
और कौन सा रास्ता है
यह सन्योग है साजिश
कि जब जब कुछ काफिले
राजधानियो की विजय यात्रा पर निकल्ते हैं
नदिया पयस्विनी हो जाती हैं
और पेडो पर लटक्ने लगती हैं रोटियां
ताकि विरोध के बिगुल पर रर्खे मुन्ह
रास्ते से हट जाये
जब तक हम
पत्थरों पर अंकित आश्वासन बांच्ते हैं
तब तक वहाँ लश्कर मे जश्न होने लगता है
डाल पर अब पक न पाते फल हमारे पास कितना कम समय है
कौन मौसम के भरोसे बैठता है
चाहतों के लिए पूरी उम्र कम है
मंडियां संभावनाएं तौलती है
स्वाद के बाजार का अपना नियम है
मिट्ठूओ का वंश है भूखा यहां तक आगये दुर्भिक्ष भय है
डाल पर अब पक न पाते फल हमारे पास कितना कम समय है
वहां जाने क्या विवेचन चल रहा है
सभी के वक्तव्य बेहद तीखे
यहां सड़कों पर हजारों बिखरे रूट से वास्तविक है
पूछने पर बस यही उत्तर सभी के
यह गंभीर चिंता का विषय है
डाल पर अब पक न पाते फल हमारे पास कितना कम समय है
संधि पत्र
अंधकार के साथ जिन्होंने संधि पत्र लिखिए खुशी से
उन्हें सूर्य के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं
मेले संदर्भों पर जीवित यह ऐसी आधुनिक शिक्षाएं
मोहक मुखपृष्ठ पर जैसे अपराधों की सत्य कथाएं
सबके सिर पर धर्म ग्रंथ है सबके शब्दों में हैं सपने
किस न्यायालय में अब कोई झूठ शक्ति का न्याय कराएं
अंधकार के साथ प्रश्न लौट आते अनाथ से
कहीं नहीं मिलता अपनापन
अपने साथ ही रूप घरों में खोया सा लगता हर दर्पण
अलग-अलग आलाप रे रहे जहां बेसुरे कंठ जीतकर
उस महफिल में सरगम की मर्यादा बोलूं कौन बचाए
अंधकार के साथ जिन्होंने संधि पत्र लिख दिए खुशी से
उन्हें सूर्य के संघर्षों का कोई क्या महत्व समझाएं