नरेश सक्सेना: पदार्थ ओर संवेदना के विरल संयोग के कवि
विगत कुछ दशकों की हिन्दी कविता ने जीवन के महाद्वीपीय विस्तार की जैसी विविध यात्रा की है उससे उसकी रचनात्मक उत्सुकता व्यक्त होती है। यह यात्रा न तो आकाश मार्ग से देखी गयी धरती की विहंगमता है, न पर्यटन की तरह कुछ जगहों पर खड़े होने या वहाँ से गुजर जाने का संस्मरण। इस यात्रा के माध्यम से हम जाने अजाने भूखण्डों को देखते भी हैं और उन्हंे देखने की प्रविधि भी सीखते हैं।
समकालीन कविता ने जीवन की पोथी को बाँचा ही नहीं, उस पर इतनी विमर्शकारी टिप्पणियाँ भी की हैं कि उनसे हमारे सरोकार तो बदले ही हैं, एक व्यापक संसार के प्रति हमारी आत्मीयता का विस्तार भी हुआ है। इस कविता ने हमें यथार्थ की सही समझ के साथ ही हमारी सौन्दर्य दृष्टि को अधिक मानवीय, प्रखर और संवेदनापूर्ण बनाया है।
इस कविता के विपुल परिमाण में से निरर्थकता का काफी अंश अलग भी कर दें तो भी सार्थक कविता का परिमाण चौंकाने वाला है। इस विपुलता में कथ्य की निरन्तर दुहरावहीन खोज तथा अभिव्यक्ति की ऐसी रूपंकरता के कारण नरेश सक्सेना की कविता ने अपने अलग मंडप (पेवीलियन) के रूप में पहचान बनायी है। उनकी कविता में अनुभवों को रचने की तीव्र और ईमानदार व्यग्रता के साथ ही ऐसा विरल अचानकपन भी है जो यह पूछने को विवश करता है कि यार नरेश तुम किस धातु के बने हो जो यह जानते हो कि धातुएँ विचारों से भी आगे अब आत्मा में बैठ रही हैं और अब वहाँ भी गर्मी सर्दी के अनुसार प्रसरण और संकुचन होने लगा है।
विचार या वस्तु का कोई भी नवाचार या नवाकार जितने तीव्र आर्कषण से आता है उसकी रूढ़ि की उतनी ही अधिक संभावना होती है। कविता के यथार्थ के संदर्भ में भी इसे समझा जा सकता है। यह यथार्थ न सिर्फ अपने सरोकारों में रूढ़ होकर सीमित हुआ, अभिव्यक्ति में भी स्थूल और प्रभावहीन हुआ अर्थात् हमारे विजन में सम्पूर्णता को देखने की कोशिश कम होती गयी। ठीक ऐसी ही स्थिति में यथार्थ को उसके छूटे हुए पार्श्वांे में और वास्तविक संदर्भों में देखने वाले कुछ कवियों में नरेश सक्सेना के पास मुक्तिबोध के ज्ञान और संवेदना का रचनात्मक समीकरण है। इसलिये हम उनकी कविताओं को सोचते भी हैं और महसूस भी करते हैं। शरीर तंत्र में विचार की जन्मभूमि कहीं भी हो पर संवेदना के आँगन में खेलकर उसे विकास मिलता है।
नरेश सक्सेना के यथार्थ में पदार्थ है-रूपान्तरण की तीनों दशाओं में। उसमें पूरा निसर्ग है-क्यारियों और बगीचों से बाहर समुद्र और रेगिस्तान और पहाड़ का भी, उसमें अपने समय की विडम्बनाओं, तनावों और संघर्षो में जूझता आदमी भी है। इसीलिये यह यथार्थ न हमसे अपना समय ओझल करता है न अपना परिवेश।
हम जिन नये सरोकारों और अपने से बाहर के साथ अन्तःक्रियाओं मंे व्यवहाररत है उनको नरेश सक्सेना नये अर्थों में उद्घाटित करते हैं। सभ्यता के दौर में मनुष्य वस्तुओं तक गया है लेकिन जब उसने उन्हें सिर्फ वस्तु के रूप में देखा तो वह केवल उपभोक्ता हो गया। नरेश की कविताएँ वस्तुओं को आदमी के पास पहुँचाती हैं, हस्तक्षेप के द्वारा भी, जीवन की जरूरत के तौर पर भी, आदमी की संवेदना जगाते हुए भी और उसे दायित्व सौंपते हुए भी। प्रकृति और वस्तुओं के साथ इस तरह की अंतरंगता, आत्मीयता नरेश सक्सेना की कविताओं को नयी तरह की अनुभूति से जोड़ती है। दुनिया के नमक और लोहे में हमारा भी हिस्सा है। तो फिर दुनिया भर में बहते हुए खून और पसीने में भी हमारा हिस्सा होना चाहिए। ‘ईटें’ कविता में ईटें पूरी दुनिया रचती हैं। हमारे उपयोग में खुद को तपाते गलाते लगाते हुए। जब ईटें हमसे कुछ चाहती हैं तो हम शर्म के कारण उनसे आँख नहीं मिला पाते क्योंकि वे अपने लिये कुछ नहीं चाहतीं। वे सिर्फ यह चाहती हैं कि वे बनाये जो घर उसे जाना जाये थोड़े से प्रेम, थोड़े से त्याग और थोड़े से साहस के लिये। नरेश चीजों और आदमी के बीच सगापन जोड़ कर दुनिया में रिश्तों का मानवीय स्वरूप बनाते हैं, बृहत्तर परिधियाँ खींचते हुए। वह यथार्थ के लिये अपने समय की बाहरी बिडम्बनाओं को ही नहीं दिखाते, वह दरारों, कोने, आँतरों दीवारों वगैरह के द्वारा भी मनुष्य की बिडम्बनाएँ खोलते हैं। आदमी की ईटों से स्वार्थ की चाहत के विपरीत ईटें अगर कुछ चाहती हैें तो उसी का भला चाहती हैं।
नरेश सक्सेना बाहर की तरफ केवल सहानुभूति से नहीं बल्कि अपने पूरे अस्तित्व के साथ जाते हैं। उनका प्रस्थान भीतर से बाहर की ओर है। बाहर से आकर देह की देहरी पर रूकी या अंतस् के गुहालोकांे के दफीने ढूँढ़ती हिन्दी कविता का दौर बहुत पहले निरर्थक साबित हो चुका था। वह सीमेंट क्रांकीट पेड़ पृथ्वी सभी को बिल्कुल अपनी ममता अपने प्यार की तरह कोमल रसलीन और आत्म विस्मृत आँखों से देखते ह,ैं बोलते छूते हैं, उसके साथ व्यवहार करते हैं , घर के लोग आँगन का नीम बेच देते हैं। उसे कटता हुआ देखकर कवि ऐसा विलाप करता है जैसे पेड़ पर किया जा रहा प्रहार उस पर हो रहा हो। बाजार पेड़ में मेज़ की और ईट सीमेंट में मकान की आकृतियाँ ढूँढता है लेकिन पेड़ का जाना कवि के लिये ऐसा है ‘जैसे कोई ले जाये लावारिस लाश/घसीटकर ऐसे उसे ले गये/ले गये आँगन की धूप छाँह सुबह शाम चिड़ियों का शोर/ ले गये ऋतुएं / अब तक का संग साथ/ सुख दुख सब जीवन ले गयें।
घृणा, संवेदनहीनता और क्रूरता के इस निःसंग निर्मम बाजारू समय में पृथ्वी को एक स्त्री की तरह रलभरता, सहनशीलता, यातना, रचना, निर्माण और दान के लिये याद करना सिर्फ कविता लिखने की सामग्री ढूँढना नहीं है। वह उस समय का अपनी तरह से प्रतिरोध भी है। अलग अलग होते जाने के समय में परस्परता के अपनत्व की बात नरेश सक्सेना की अनेक कविताओं में है। रिश्तों का यह घनत्व ही हमें आत्मदान के लिये प्रेरित करता है। ‘लिखता हूँ अंतिम इच्छाओं में कि बिजली के दाहघर में हो मेरा संस्कार/ ताकि मेरे बाद/एक बेटे और एक बेटी के साथ एक वृक्ष भी बचा रहे संसार में।’ संसार के प्रति शुभकामनाओं की ऐसी ऊष्मा और उसके हित के लिये आत्म विसर्जन की ऐसी भावना कविताओं की विषयसूची में से उठायी गयी चीज नहीं है। वह कवि की आन्तरिक मनुष्यता का निवेदन है। यही मनुष्यता नरेश से छः दिसम्बर और गुजरात-1 और गुुजरात-2 जैसी अचूक और अनूठी कविताएँ लिखवाती हैं। ‘पहचान’ कविता में वह सारे अन्तरिक्ष में विलीन होते दिखायी देते हैं। ‘उस वक्त मेरे साथ जरूर रहना बच्चो/ ..... धुएंँ के साथ ऊपर उठूँगा मैं / बच्चो जिसे तुम पढ़ते हो कार्बनडाइ ऑक्साइड/ वही बन कर और छा जाऊँगा/ वनस्पतियों पर जिसे वे सोख लेंगीं/ तो कुछ और हरी हो जायंेगी/ फल कहीं होंगे तो कुछ पक जायेगें/ जब कभी फलों की मिठास तुम तक पहुँचेगी/ हरियाली भली लगेगी/ या हवाओं को बदला हुआ महसूस करोगे/ तो तुम पहचान लोगे/ कहोगे अरे ! पापा ’ किसी और जगह आदर्श और आत्मगौरव लगनेे वाला यह अनात्म नरेश सक्सेना में अपनी निश्छलता के लिये पहचाना जा सकता है। वह इसे चीख चिल्ला कर नहीं कहते। ममता या प्यार की संगीत रचना के सप्तक में चिल्लाहट का सुर हेाता भी नहीं।
विज्ञान को कविता बनाना अर्थात् विज्ञान की प्रक्रियाओं और उसके तथ्यों को मनुष्य के निरीक्षण में लाना ही नहीं उन्हें मानवीय व्यवहार के साथ व्याख्यायित करना नरेश सक्सेना की कविता की अद्वितीयता है। दरअसल नरेश सक्सेना नरेश सक्सेना का मूल पाठ है, अपना मुकम्मल और मुजस्सम टैक्स्ट उसका अनुवाद नहीं। इस मूल पाठ को फुटनोटांे से नही समझा जा सकता है, उसे तो सीधा पढं़े तो वह खुलता जाता है। सरल अनाच्छन्न कोई तिर्यकता नहीं, साथ-साथ चलता हुआ किसी को द्विभाजित, बाइसैक्ट नहीं करता क्योंकि उसका एक ही सेक्ट है वह है मनुष्य यह धरती, उस पर अडिग संसार, बिल्कुल अपनेपन के साथ। रचना की अपनी प्रक्रिया में यह न तो विज्ञान का स्थूल प्रतीकीकरण करते हैं न कुछ चेष्टाओं के रूप में मानवीकरण। विज्ञान का निर्भाव, उसकी निर्वैव्यक्तिकता, उसकी तथ्यपरकता नरेश सक्सेना की कविताओं में रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा संपृक्ति की हद तक घुल जाती है। ‘रोशनी’ कविता में प्रकाश की भौतिकी कब मानविकी बन जाती है पता ही नहीं लगता! धातुओं और लोहे की रेलिंग, को कविता बना देना कविता के संसार को ही विराटता देना नहीं है, मनुष्य के बोध और उसकी चेतना को बृहत्तर संदर्भों से जोड़ना भी है। जैसा नरेश सक्सेना ने अपने एक साक्षात्कार में कहा है ‘कला और विज्ञान के बीच जो चीज ‘कॉमन’ है वह है मनुष्य के लिये कुछ नया करने की इच्छा।’ इस उभयनिष्ठता को वह बहुत कुशलता से साधते हैं।
जीवन के प्रति इतनी ललक, जिजीविषा की ऐसी उत्कटता नरेश को बिना सैद्धान्तिक हुए सरोकारों का कवि बनाती है । जीवन की ऐसी प्रसन्न स्तुति और उसका ऐसा विह्वल अभिनन्दन इन कविताओं में अकृत्रिम रूप से व्यक्त है। ’’दरार’’ कविता में ‘खत्म हुआ ईटों के जोड़ों का तनाव/प्लास्टर पर उभर आयी हल्की सी मुस्कान/ दौड़ी दौड़ी चीटि़याँ ले आयी अपना अन्न जल/फूटने लगे अंकुर/ जहाँ था तनाव वहाँ होने लगा उत्सव/हँसी/हँसी/ हँसते-हँसते दोहरी हुई जाती है दीवार’ अर्थ और शिल्प की ऐसी सुन्दर कविता के लिये हमें नरेश सक्सेना के होने का इंतजार करना पड़ता है। दीवार के लिये तनाव मुस्कान और हँसते-हँसते दोहरे होने के इस बिम्ब में आकार और गति की अद्भुत चाक्षुशता है। ‘घास जो बिछी रहती है धरती पर/और कुचली जाती रहती है लगातार कि अचानक एक दिन/महल की मीनारों और किले की दीवारों पर शान से खड़ी हो जाती है/ उन्हें ध्वस्त करने की शुरूआत करती हुई।’
बिल्कुल साधारण चीजें, बातें और व्यवहार नरेश सक्सेना की कविता में अधिकतर जगह पाते हैं। यह साधारणता अभिजात द्वारा दिखायी गई कृपा नहीं। वह अपनांे की सहवर्तिता है। तुच्छ, उपेक्षित और कविता या कला के लिये अनुपयोगी तत्त्व यहाँ बड़े और सार्थक आशयों के साथ उपस्थित हैं। नरेश सक्सेना इस बोध से सचेत हैं कि समय के साथ बदली हुई चीजों की परिभाषाओं की तरह कविता की भी कसौटी और परिभाषा बदली है। उसी साक्षात्कार में उन्होंने माना है कि कविता का सम्बन्ध व्यापक मानव समाज से है। उन्हें अपने रचना काल के आरम्भ में ही कविता की जिम्मेदारी का बोध हो गया था जब उन्होंने जबलपुर में परसाई जी के पीछे लगतार भागते हुए अपनी कविता सुनायी और पूछा कि क्या इस पर इनाम मिल सकता है! परसाई जी ने कहा ‘अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है।’ (पहल अगस्त-सितम्बर-02) इसी जिम्मेदारी के तहत नरेश मानते हैं कि ‘हमारा मुख्य मुद्दा जीवन को बचाना है। वह जीवन जो अकेला नहीं है। जो पूरे पर्यावरण से जुड़ा हुआ है। जिसमें वृक्ष है, तितलियाँ हैं, हवा है, फूल हैं, पानी है, मिट्टी है। कहीं दूर अदृश्य क्षेत्रों में कोई हमारे लिये कपास उगा रहा ह,ै कोई अँधेरी सुरंगों में उतरकर कोयला निकाल रहा है, वस्तुएँ उसके द्वारा निर्मित होकर हमारे पास आ रही हैं। वो जो ओझल लोग हैं, उन्हें समकालीन कविता का मुद्दा बनना चाहिए। रचना के मुद्दे, अनिवार्यतः जीवन के मुद्दों से जुड़े हुए है।’ (वसुधा जन. मा. -07)
‘कविताएँ’ नरेश सक्सेना की काफी चर्चित कविता है। यहाँ कविता की सार्थकता ही यह मानी गयी है कि जैसे चिड़ियोें की उडान में शामिल होते हैं पेड़ उसी तरह मुसीबत के वक्त हमारे पास कौन सी कविताएँ हांेगीं और लड़ाई के लिए उठे हाथों में कौन से शब्द हांेगे। कविता का यही प्रयोजन कवि को मिट्टी से लदे ट्रक पर कोलतार के पास भरनींद सोते हुए मजदूर के पास ले जाता है जो ‘दिमाग खाली पेट में’ ’रात भर’’ और ‘‘अच्छे बच्चे’’ जैसी कविताएँ लिखवाता है। यही कविता अपनी बदली और व्यापक सौन्दर्य दृष्टि से छिपकलियोें, लालटेनों और नावों को देखती है।
नरेश सक्सेना की वे कविताएँ भी बहुत प्रभावपूर्ण हैं जो छोटे आकार में संश्लिष्ट हैं और सघन संवेदना से भरी हैं। ‘दीमकें’, ‘आघात’, ‘सीढ़ी’, ‘पानी’, ‘समुद्र’, ‘परिवर्तन’ ,‘जूते’, ‘हँसी’, ‘डर’, ‘शिशु’, ‘डूबना’ जैसी कविताएँ लगभग सूक्ति बन गयी हैं। उनकी कविताएँ अक्सर अपनी बुनावट में पर्याय, विलोम, उदाहरण, दृष्टान्त और व्याख्या की तकनीक अपनाती हैं। ये अधिकतर गद्य के उपकरण हैं पर इन शब्दों को कविता की भूूमिति और उसके अनुशासन के हिसाब से प्रयोग करके नरेश सक्सेना अपने शिल्प का परिचय देते हैं। इनसे विकसित और प्रोत्साहित होकर उनकी कविता चरम अथवा निष्कर्ष तक पहुँचती है। कई जगह कविता शुरू में चौंकाने वाली लगती है पर वह जल्दी ही अपना पूरा मन्तव्य व्यक्त कर देती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वे कविताएँ सिर्फ निष्कर्ष में महत्त्वपूर्ण है। कभी कभी तो कोई अनुभव या निरीक्षण ही कविता बन गया। नरेश सक्सेना ’’पार’’ जैसी कविताओं में सृजन की पूरी ऊँचाई पर है, जहाँ विचार जीवन की अनुभूति के माध्यम से बड़ी बात कह देता है। ’’पार’’ और ‘अच्छे बच्चे’ शिलंङ में आस्ट्रेलिया की गेयनर डासन को संवेदना और विचार की अविच्छिन्नता के ही कारण अच्छी लगी हांेगीं। कुछ छोटे अनुभव जीवन को उसकी आंशकाओं अनिश्चिताओं में पकड़ते हैं। हादसों और संघर्षो से घिरे आमजीवन में महाकाव्य जैसी अटूट और अकथनीय संभावना हो भी नहीं सकती।
विचार के साथ होते हुए नरेश सक्सेना अमूर्तन के कवि नहीं हैं हालांकि उनकी कुछ कविताएँ बोध की दृष्टि से थेाड़ी जटिल हैं। वह ऐन्द्रिक अनुभवों और ऐन्द्रिक विम्बों के कवि हैं। लयात्मकता उनकी कविता का आत्मतत्त्व है। आरम्भ उन्होंने गीतकार के रूप में किया था। वह गेयता उनकी इन कविताओं को भी सुर में रखती है।
पानी जैसी जीवन से जुड़ी चीज की तलाश और उसके प्रावधान की यांत्रिकी को मनुष्य को समर्पित करती ये कविताएँ कभी पृथ्वी के भीतर जाती है कभी उसके ऊपर और अन्तरिक्ष में रहती हैं लेकिन प्यास बुझाने की अपनी मूल प्रतिज्ञा को कभी नहीं भूलतीं क्योंकि समुद्र पर हो रही है बारिश विडम्बना भी है और समुद्र की पछाड़ खाती छटपटाहट भी कि वह प्यासों को क्या मुँह दिखाये, कहाँ जाकर डूब मरे। उसके पास ही क्यों दुनिया का सारा नमक रख दिया गया। नरेश ने ’’पहल’’ पत्रिका में प्रकाशित अपनी डायरी में लिखा है ‘मैं अपने आँसू नहीं छिपा पाता। मैं कुछ भी नहीं छिपा पाता।’ छिपा पाते तो करूणा के जल से छलछलाती ये कविताएँ हमें कैसे मिलतीं ।
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