वल्लभ सिद्धार्थ का जाना: एक दुःखद दृश्यांतर
डॉ. के. बी. एल. पाण्डेय
जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है- केदारनाथ सिंह
सिर्फ संदर्भ बदलकर यह अनुभव वल्लभ सिद्धार्थ के चले जाने से भी होता है । 'थे' 'हैं' का इतना आसन्नभूत है कि क्षणांश के परिवर्तन को हमारी चेतना तत्काल स्वीकार न कर चौंक जाती है। तब इस खौफनाक क्रिया की यही प्रतिक्रिया रह जाती है कि 'अरे अभी कल ही तो मिले थे । उनसे मिलने की योजना बना रहे थे पर नहीं मिल सके ।'
महापुरुषों की वापसी, नित्य प्रलय, ब्लैकआउट, व्यवस्था, दुरभि सन्धि, डरा हुआ, जुलूस, कनखजूरा जैसी सशक्त कहानियों के लेखक वल्लभ सिद्धार्थ नही रहे।जिसे राजेंद्र यादव ने सदी की चेतना का उपन्यास कहा था,उस संश्लिष्ट संवेदना के उपन्यास "कटघरे" के रचनाकार नहीं रहे।
सुकरात, सार्त्र, गोगोल, काफ्का, पुश्किन,सोल्जेनित्सिन, दोंतोयवस्की के अनुवादक वल्लभ सिद्धार्थ जाना क्रिया को पूरा कर बड़ा शोक दे गए।
वल्लभ सिद्धार्थ की हर रचना ने कथा द्वार पर दस्तकें दीं, उन्हें सुना भी गया । उनके लिए दरवाजे खुलने के उत्तर भी मिले। लेकिन उनके साहित्य का वैसा विमर्श नहीं हुआ , जैसा हिंदी कथा साहित्य में होना चाहिए था । उनके साहित्य से संवाद तब और सार्थक हो जाता है जब हम उनके व्यक्तिगत को जानकर इसे उनके प्रतिफलन के रूप में देखते हैं। संपन्न परिवार में अकेले पुत्र के रूप में जन्म से उन्हें जीवन की सुविधाएं मिली। चिंतनशीलता ने उनकी निकटता के दायरे सीमित किए। शतरंज और बैडमिंटन के कुशल खिलाड़ी के रूप में वो अपनी रुचियां तृप्त करते रहे।
दर्शन शास्त्र में उच्च अध्ययन ने उन्हें जीवन को प्रत्यक्ष में देखने और परोक्ष में सोचने की उत्सुकता दी, तर्कशीलता दी। अध्ययन के प्रति गहरी प्रवृत्ति से वह देश विदेश के साहित्य से परिचित हुए।इसके द्वारा उन्होंने अपनी आग्रह शीलता और प्रतीति के साथ अपना एक थॉट सिस्टम बनाया, सिस्टम ही नहीं बल्कि एक विचार का पूरा पाठ्यक्रम।
एक और बड़ा रोचक तथ्य यह है कि वल्लभ सिद्धार्थ की बौद्धिकता उनकी बहसों में खुलकर जूझने और वाक्युद्ध में उल्लास लेने में कभी बाधक नहीं रही। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पीसीबी छात्रावास की छत पर खड़े होकर बगल के ही एस एस एल छात्रावास के छात्रों के साथ अकारण वाक्युद्ध में वल्लभ हरावल दस्ते में रहा करते थे। इस वाक्युद्ध में दोनों ओर से एक दूसरे को नीचा दिखाने वाली भाषा का प्रयोग किया जाता था। तब तक एसएसएल में गोविंद मिश्र वल्लभ के अभिन्न मित्र नहीं बने थे ।
वल्लभ सिद्धार्थ लेखन में भी आस्था को उतना उतना ही जरूरी मानते हैं जितना जीवन के लिए।वे लेखनेतर गतिविधियों में संकोच ही मिटा देते थे । वल्लभ लेखन में लेखक का इतना गहरा निवेश या निक्षेप मांगते हैं कि वह उस प्रक्रिया में स्वयं को मिटा देते हैं । तत्कालीन व्यवस्था के विरोध में वल्लभ की कहानियां इतनी मुखर थीं कि आपातकाल में वल्लभ सिद्धार्थ को गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ दिनों तक जेल में रखा गया। इसके बाद उनकी वैचारिकता में प्रतिरोध और उभर कर आया, हालांकि यह प्रतिरोध केवल प्रतिरोध के लिए नहीं था ।
वल्लभ सिद्धार्थ की रचना शीलता और वैचारिकता उनके पात्रों से भी प्रकट है। पत्र लेखन भी वल्लभ का पैसा ही गंभीर प्रयोजन रहा है जैसा कहानी या उपन्यास में। इसलिए उनके पत्र व्यक्तिगत राजीखुशी या आसपास की जानकारियों के तथ्य गत अभिलेख नहीं हैं, बल्कि वे समकालीन यथार्थ और जीवन के प्रति गंभीर चिंतन तथा उसके मूल्यों के दस्तावेज हैं। गोविंद मिश्र के साथ उनका पत्र संवाद इतना घनिष्ठ रहा कि वह 'संवाद अनायास' बनकर प्रकाशित हुआ। अपने चचेरे भाई बृजेश कृष्ण के साथ उनके पत्र 'ताकि सनद रहे ' बनकर प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त साहित्यकार मित्रों से उनके पत्र संवाद भी विचार परख ही रहे। उनके नितांत व्यक्तिगत पत्रों में भी संबंधों की तरल धारा के नीचे सोच का अंतरप्रवाह तो रहता ही है।
अपनी सोच के पक्ष में बहस करना काफी समय तक वल्लभ का सक्रिय शगल रहा है। वाराणसी में वामपंथियों के साथ अपनी बहस की चर्चा वल्लभ अक्सर करते थे । वल्लभ ने एक जगह एक प्रौढ़ से बहस करते हुए कहा कि "आपने सोल्जेनित्सिन को पढा है ? " उत्तर नकार में मिलने पर वल्लभ बोले "बाबू जी जरूर पढ़िए ऐसा न हो कि आप उसे पढ़े बिना ही मर जाएं ।" ऐसे अवसरों पर वल्लभ सिद्धार्थ असहिष्णु भी हो जाते थे। उनकी अपनी चिंता के प्रति अधिक चिंता थी ।
लगभग सौ कहानियां, हाथ की अंगुलियों के बराबर कहानी संग्रह और एक कटघरे उपन्यास, वल्लभ के रचनात्मक लेखन के नाम पर पाँच दशकों से अधिक समय में इतना ही । वल्लभ संख्यात्मक विपुलता या आयतन के विस्तार के लेखक नही हैं , वह घनत्व और संश्लिष्टता के रचनाकार हैं। वह घटनाओं से अधिक 'फॉल आउट' के लेखक हैं । उनकी अनुभूतियों का संघनन जब फैलता है तो लगता है कि हम एक कहानी नहीं पढ़ रहे हैं, बल्कि अपने समय का काफी बड़ा दस्तावेज हमारे हाथ लग गया है । हम दिक और काल के बड़े आयामों के साथ हैं, सिर्फ उतने नहीं हम अपनी इयत्ता में हैं।
वल्लभ सिद्धार्थ ने अपने मित्र गोविंद मिश्र को एक पत्र में लिखा था "मुझे लगता है कि जो लिखने के लिए जरूरी होता है। संसार मनुष्य और पूरी गहराई के साथ और इन तमाम एब्सर्ड लिखने वाली स्थितियों के बीच जो अपने होने के अर्थ को समझ पाए ।'डोंट शन सफरिंग' मैं इस बात से आश्वस्त हो चुका हूं कि रचना की शक्ति मेरी समझ में यही होती है कि वह तुम्हें कितना सस्टेनेंस देती है, कि कितना मुक्त करती है और कितना तुम्हें तुम्हारे अर्थ की तलाश में और बढ़ाती है ।"
दुख, आत्मा ,फेथ, ईश्वर वल्लभ सिद्धार्थ के विश्वास के तत्व हैं।
गोविंद मिश्र ने लिखा है कि मूल्य , नैतिकता , आत्मिकता , नास्तिकता व ईश्वर की भक्ति वल्लभ के यहां बार-बार आती हैं । वल्लभ स्वयं मानते हैं कि उनकी कहानियों में फेथ और ईश्वर अक्सर आते हैं । वे मानते हैं कि यंत्रणा को बिना रेजिस्ट किए आस्था और जड़ता के ताप सहन करना चाहिए । सोल्जेनित्सिन की इस बात से वल्लभ पूरी तरह सहमत हैं कि व्यक्ति को विपदाएं और तकलीफें चाहिए, यह अंतर्जीवन को गहरा करती हैं । दुख सहते हुए आस्था बनाए रखना बड़ी चीज है। वल्लभ सिद्धार्थ के अंतर्जीवन की यही आस्था थी, जिसके द्वारा वह अपने दो पुत्रों के अस्वाभाविक निधन का दुख सहन कर पाए । अपने दुःख के साथ वे पुत्रवधु के संताप को सांत्वना दे पाए।उनके एक मित्र बताते हैं वल्लभ का धीरे-धीरे क्षरण हो रहा था । इन स्थितियों में वे बाहर से व भीतर से अकेले होते चले गए ।
उनकी पुत्रवधू ने उनके एक मित्र को बताया कि उन्होंने कह रखा था कि "मुझे यहां लिटा देना ! मेरे अंतिम समय किसी को ना बुलाना! केवल तुम रहना !"
उनके निकट संपर्क में रहने वाले इसे धीरे-धीरे वल्लभ की हाराकिरी मानते हैं । इतने व्यापक अध्ययन और गहरे चिंतन के बाद भी वल्लभ ने किसी सभा गोष्ठी में व्याख्यान या वक्तव्य नहीं दिया। वह जाते थे, पीछे कहीं बैठ जाते थे और जब मन होता तो उठ कर चले जाते थे। मैंने जब भी उन्हें किसी सेमिनार में बुलाया, वह आए और निर्वाक रहे। इसके विपरीत अनौपचारिक बातचीत में अपने मित्रों के साथ वह बेहद मुखर थे और कभी-कभी आक्रामक भी।
आस्था और आत्मिकता को तर्कातीत मानते हुए भी वह एक परंपरा पूजक और अनायास मिले संस्कार वाले व्यक्ति नहीं थे । इसलिए वह अपने चारों ओर अध्यात्म का संस्थान नहीं बनाते। उनकी "नित्य प्रलय " कहानी की तरह "ब्लैकआउट" में भी ईश्वर का होना जरूरी माना गया है । 'संवाद अनायास' में गोविंद मिश्र ने लिखा है कि जब एक साहित्यकार होकर भी मैं अपनी कृति में न्याय और अच्छाई का पक्षधर होता हूं तो ईश्वर की सृष्टि में वह क्यों गायब है ? वहां न्याय क्यों नही है? क्यों अच्छाई कष्ट उठाने के लिए अभिशप्त है? क्यों दुष्ट मजा मारते हैं?
तो वल्लभ का तर्क है कि माना कि संसार में दुख, अन्याय है, पर इससे ईश्वर का निषेध कहां होता है ? तो फिर क्या वह ईश्वर हमारे मानवीय स्वरूप से अलग हमारा विश्वास प्रेरणा और सहनशीलता को नहीं मानते ! शायद यही।
यंत्रणा और इस दुःख को अगर हम वल्लभ का रोमानी उत्सवीकरण माने तो सही नहीं होगा। यह बाहरी संसार या समाज का निषेध नहीं है। अपनी अव्यवस्था, अन्याय से पीड़ित, असहायता के प्रति वल्लभ सिद्धार्थ के बेहद बेचैन सरोकार हैं । वे महसूस करते हैं कि पता नहीं धीरे-धीरे यह विश्वास दृढ़ होता जा रहा है कि जीवन से कटकर कहानी या साहित्य नहीं होता।
वल्लभ सिद्धार्थ जब अपने समय का तापमान पढ़ते हैं तो वह बहुत क्षोभ के साथ कहते हैं कि " मैं उस व्यवस्था को बर्दाश्त नहीं कर सकता, जिसमें कुछ लोग कदम -कदम पर मक्कारों की दया के मोहताज हैं , मैं मानवता वादी व्यवस्था चाहता हूं । मुझे विश्वास नहीं है कि इस देश में क्रांति हो सकती है । यहां आदमी भूखा मर जाने में भी आदर्श देखता है। हमें संस्कृति और क्रांति में से किसी एक को चुनना होगा।" यहां वल्लभ पूरी तरह अपने सरोकारों में मुखर हैं।
यह स्पष्ट हो जाता है कि वल्लभ आत्मवादी और अपनी दुनिया को नकार देने वाले लेखक नही हैं । उनकी समकालीनता में आजादी के कुछ ही समय बाद आया हुआ मोहभंग है। व्यवस्था हिंसक , क्रूर और स्वछंद होने लगी है। आतंक व असुरक्षा न्याय का उपहास, आतंक आदि विषय इस समय के एहसास बन गए। इस वातावरण में वल्लभ के पात्र विचलित होते हैं ,वे विद्रोही भी होते हैं और हताश भी । यह महापुरुषों की वापसी का जित्ते निराश होता है, उसकी डायरी में मार्क्स, लेनिन, नीत्शे, गांधी , सार्त्र, पास्तरनाक, सुकरात, केनेडी , लोहिया के नाम और उनके कथन लिखे रहते हैं । तब इस आदर्श व्यवस्था के सामने प्रभाव हीन हो रहे हैं। यह पात्र अपने भीतर के आक्रोश में बड़बड़ाते रहते हैं । -जीनियस जैसा पात्र प्रतिकार भी करता है पर उसका फेथ, ईश्वर ,आत्मा ,ट्रांस देख कर यह प्रश्न उठता है कि क्या विद्रोह के लिए ईश्वर ही तलाशना पड़ेगा? एक तरफ फेथ, ईश्वर आस्था जैसा आंतरिक जगत, दूसरी तरफ बाहर का संसार ,जहां वह महसूस करते हैं कि अगर आप इतिहास और भूख सापेक्षता और नैतिकता में विवेचन करें तो चौंकाने वाले नतीजों पर पहुंचेंगे । हमारा वर्तमान हमारे इतिहास का प्रतिफलन है। यहां लेखक अपने समय के कुरूप यथार्थ की मूल हीनता और यथार्थ के दबाव से ध्वस्त होती नैतिकता को प्रत्यक्ष देख रहा है ।
कटघरे उपन्यास सचमुच ऐसा पिंजरा है जिसमें सारे पात्र अपनी अपनी पीड़ा से त्रस्त हैं,असहाय हैं ।यहां भूख है ,भूख से बच्चे कहते हैं 'भूखे बच्चे झूठ नहीं बोलते !हमने दो दिन से खाना नहीं खाया है !'
फौज से रिटायर्ड अधेड़ है, उसकी परित्यक्ता भतीजी नंदनी है और जेल से छूटा हुआ अनादि है । जो नंदिनी को प्रेम करता है ।आर्थिक सहायता करता है ।अधेड़ की जानकारी में ही बंद कमरे में नंदिनी और अनादि की रति क्रीड़ा चलती रहती है। करुणा,विवशता और उसमें बदलते हुए मूल्यों का वह वर्तमान है जो इतिहास का परिणाम है। पूरा का पूरा उपन्यास करुणा से भरा है । कटघरे के आरंभ में ही सार्त्र का यह कथन पूरे उपन्यास की संवेदना का पूर्वाभास देता है। आपका फैसला स्वयं आपको निर्णीत और परिभाषित करता है । कटघरे में अधेड़ का पूछा गया यह प्रश्न गूंजता रहता है, उत्तर मांगता हुआ- हमारे वर्तमान के लिए इतिहास जिम्मेदार है तो इतिहास के लिए कौन जिम्मेदार है?
कला साहित्य के प्रयोजन जैसे प्रश्नों पर वल्लभ सिद्धार्थ बहुत स्पष्ट हैं । वो लिखने को मुक्ति की तलाश में टॉर्चर का वरन मानते हैं। उनके लिए दुख के सकारात्मक आयाम का दर्शन करने की क्षमता देने का सबसे बड़ा फल है । इसीलिए वे अपने एक प्रारूप ( ड्राफ्ट) से संतुष्ट नहीं होते। वह उसे बार-बार जाँचते हैं और एक परफेक्शनिस्ट की तरह काम करते हैं। वह कहते हैं कि मैंने ब्लैक आउट कहानी लिखने के लिए तेरह-चौदह प्रश्न बनाए थे, जिनके समाधान इसी कहानी में तलाशना थे । कटघरे उपन्यास पर उन्होंने 10 वर्ष का समय लगाया। अपने जीवन, अपने विश्वास, अपने मूल्यों, अपने धारणाओं में जीवन और रचना के अद्भुत आनन्द का अनुभव करने वाले हैं वल्लभ सिद्धार्थ जिन्हें थे कहते हुए 'है' उनके आत्मीय निकट की आंख में आंसू आ जाते हैं।
उनसे असहमत और सहमत होना दोनों का अपना सुख था
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70,हाथी खाना,दतिया 475661
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