नरोत्तम दस पांडेय मधु कृष्ण विहारी लाल पांडेय द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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नरोत्तम दस पांडेय मधु

शब्द का तर्पण-कवि मधु के नाम
डॉ.अवध विहारी पाठक

बड़े गौर से सुन रहा था जमाना
तुम्ही सो गए दास्तां कहते कहते
-साविक लखनवी
समय इंसानी जिंदगी की बड़ी बुरी शै है । यह रहस्य ही है सदियों से कि वह कब कैसे खुद को प्रमाणित करता है। ऊपर लिखित पंक्तियां कवि नरोत्तमदास पांडेय 'मधु' पर पूरी तौर से लागू होती हैं। समसामयिकता इस कवि के हर शब्द पर गौर कर रही थी, परंतु एक अघटित घटित ने उसकी वाणी को विराम दे दिया। आज हम सब समय को चुनौती दे रहे हैं मधु के कृतित्व पर केंद्रित पुस्तक पर विचार करते हुए। जिस ग्रंथ के लेखक हैं कवि ' मधु' के चचेरे भाई डॉक्टर के.बी.एल. पांडेय और भूमिका लेखक हैं प्रख्यात व्यंग्यकार पद्म श्री ज्ञान चतुर्वेदी (कवि के खास भांजे) इस त्रिवेणी की संयुक्ति कवि मधु के नाम मणिकांचन संयोग है ।
डॉक्टर पांडेय जी द्वारा मुझे यह ग्रंथ इस आदेश के साथ दिया कि 'इस पर अपने विचार दो !'
मधु काव्य का विशाल फलक और उसके व्याख्याकार के. बी.एल. पांडेय जी देश के शीर्षस्थ आलोचक-समीक्षक , मैं पिद्दी सा
कलमघिस्सू उस पर क्या विचार करुं । भीतर से बहुत भयभीत हूं पर फिर भी कोशिश है कि आलोचनात्मक दृष्टि से कुछ कह सकूं क्योंकि आदेश तो आदेश है।
मधु की ऊर्ध्वगामी सृजनधर्मिता-
कवि का चिंतन फलक विस्तृत था। भारतीय संस्कृति, इतिहास एवं स्थानीय महान चरित्र उनकी कविता के चेतना बिंदु रहे हैं । कवि के एक-दो नहीं 6 खंडकाव्य हैँ-शकुंतला, उत्तर रामचरित, दुर्गा, सुलोचना सौरभ, झांसी का विभीषण, रानी गणेशकुंअर ।
इससे पूर्व भी इन पात्र-प्रसंगों पर पृभृत लिखा जा चुका था, परंतु कवि का लक्ष्य उनको नए ढंग से प्रस्तुत करना था। ताकि इन इति वृत्तों की तथ्य परकता, गवेषणात्मक काव्य दृष्टि और मानव जीवन का सांस्कृतिक उदात्त पक्ष प्रस्तुत किया जा सके, यथा महाभारत में शकुंतला प्रसंग कुछ नीरसता से ग्रस्त है, परंतु मधु ने अपनी रचना में शकुंतला-दुष्यंत को गणित का पाठ न बनाकर दांपत्य के टटके आल्हाद में डालकर पूर्णता प्रदान की । दूसरा प्रसंग देखें- मधु इस प्रसंग में कालिदास की तरह रोमांटिक भी हो सकते थे , परंतु उन्होंने ऐंद्रिकता के स्थान पर दोनों की मनोदशाओं का मूर्तन किया। श्रंगार मुक्त प्रेम का नैतिकता स्नात रूप। इसी भांति वाल्मीकि रामायण और भवभूति के उत्तर रामचरित की कथा परंपरा निर्वाह न कर राम लोकापवाद समाचार को गुप्तचर द्वारा अप्रकट रूप से रजक- पत्नी के संवाद को एक शिष्ट प्रमाण के रूप में प्रस्तुत कर मधु ने मौलिक दृष्टि का परिचय दिया ।
मधु जी की एक रचना सुलोचना सौरभ है जिसका कथानक राधेश्याम रामायण और मानक रामायण में है मिलता है। परंतु मधु जी ने अपनी रचना में विभिन्न घटना प्रसंगों में रोचकता लाकर औत्सुक्य संपन्न बनाया और सुलोचना को फिर से जीवंत कर दिया। रचना 'झांसी का विभीषण' लोक प्रचलित एवं इतिहास सम्मत मधु की एक अन्यतम रचना है जिसमें ईमानदार और भरोसेमंद सैनिक दूलह के स्वार्थ में पड़ जाने से रानी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। तमाम तथ्यों से अलग इस में कवि ने भूल के पश्चाताप स्वरूप उसका आत्मघात का प्रसङ्ग जोड़ दिया जिसका लक्ष्य लोगों में डगमगाते राष्ट्रप्रेम की फिर से प्रतिष्ठा करना है जो लगभग समाप्त होता जा रहा है।
मधु जी का काव्य रानी गणेश कुंअर बुंदेलखंड का चर्चित कथा प्रसंग है जिसमें ओरछा की रानी की राम भक्ति का निदर्शन है और रामकृष्ण के एकत्व भाव की प्रतिष्ठा भी, इस काव्य के माध्यम से कवि भक्ति मार्ग का द्वैध समाप्त करना चाहता है ।
याद दिला दूं कि कवि के पिता श्री घनश्याम दास पांडेय ने दुर्गा सप्तशती (देवी चरित्र) का हिंदी काव्यानुवाद किया था । उसी के तारतम्य में मधु ने दुर्गा खंड काव्य लिखा, देवी और राक्षसों के प्रतीकों की सहायता से कवि ने राष्ट्रीयता की उदभावना इस रचना के माध्यम से करनी चाही है ।मैथिली शरण जी की भारत भारती की तरह कवि स्वयं अपनी कामना करता हुआ कहता है -
भारत के घर-घर में गूंजे
राष्ट्रीय काव्य दुर्गा मेरा
उपरोक्त तथ्य मधु काव्य के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय जीवन का ज्वलंत पक्ष प्रस्तुत करते दिखते हैं, जो कवि का चिंतन पक्ष है।
मधु का एक खंडकाव्य ' शशि शतक ' है । चंद्रमा की विभिन्न कलाओं, दृश्य बिम्बों, परिणाम, प्रभाव, पारिभाषिकता जैसी काव्य संखला में अस्सी छंद लिख देना कवि की विलक्षण कल्पना चारुता का दर्शन कराता है। कहन का इतना पैनापन कविता में कम ही देखा गया है देखें एक स्थल-
काहे कलंकी कहावते हैं शशि जो कहूं कारे हिया के न होते !
मारी न यूं मति जाती तुम्हारी जो बारुनी बारी धिया के ना होते!
मति का मारा जाना 'धिया' के सबब से गिलोय और नीम चढ़ी यहां मूर्तित हो गया, खुद का कारे हिया और वारुणी बारी धिया के प्रभाव से तुम्हारा शीतल रूप - क्या से क्या? आश्चर्य, उपालंभ और व्यंग दोनों एक साथ कवि ने प्रस्तुत कर दिए जो कवि की आभ्यंतर तार्किकता का सबल प्रमाण हैं। 'मुरली माला' भी कवि का खंडकाव्य है। कृष्ण भक्ति मार्ग में मुरली के प्रति अनुरक्ति - परस्पर कृष्ण और मुरली की -काफी बदनाम है, इसके मारे राधा रुकमणी भी त्रस्त रही। कवि अपनी तार्किकता से अपने को और सभी कृष्ण भक्तों को निदान सुझाता है कि भई इन दोनों की पारस्परिकता की शिकायत व्यर्थ ही है, कारण देता है कवि देखें-
इक हाथ गहि तिया के वशीभूत,रहें नर रीत सनातन सों।
इहि के बस में हरि क्यों ना रहे हैं इहि को दुइ हाथन सों।
पानिग्रहण संस्कार में एक हाथ से हाथ -अपर-का पकड़ लेना कितना मजबूत और शाश्वत होता है, फिर कृष्ण ने मुरली को दो हाथों से गह रखा है। कवि तर्क बहुत बलिष्ठ है।
यहां एक बात कहना भी बहुत जरूरी है कि कभी ने मुक्तक काव्य रूप में सजना अधिक की है। टोली माला रचना इसका उदाहरण है, इसमें अट्ठावन छन्द में प्रकृति की दस्तक है तो राधा कृष्ण की होली के चित्र भी। राष्ट्रीय भावना स्नात विचार हैं कृषक का रोपण का खाका भी। इसका कारण है कवि की काव्य शक्ति का समसामयिकता ने खूब दोहन किया है । लोकरुचि, मंच और परिस्थिति ने जब भी कुछ कहने का दबाव कवि पर बनाया कवि के मन में निरंतर प्रवाहित होती काव्य स्रोतस्विनी कुंडलिनी की तरह जागृत हो जाती थी और कविता थोड़े ही रहती थी। उन क्षणों में वहां तो कवि और उसके उपमान ही बहते नजर आते थे। कवि खुद भी बह जाता था
काव्य का 'रीति' रूप कवि का लक्ष्य न था और न रीति परंपरा का निर्वाह, पर रीति काव्य परंपरा का लोहा तो साहित्य ने भी माना है,कवि उससे कैसे बच सकता था। परंतु यहां ध्यान रखना पड़ेगा कि मधु द्वारा चिंतित राधा-कृष्ण प्रकारांतर से नायक नायिका के होली प्रसंगों में रीति कवियों जैसा खुलापन नहीं है। होली है बनी रहे, कवि ने कविता में उस आह्लाद को तो जिया परंतु उसे कहीं अशिष्ट नहीं होने दिया। मधु के नैतिकता के कुछ आग्रह भी थे। बिल्कुल निजी। एकाध स्थल देखें -कवि की मनोदशा का। इसके लिए हमें पद्माकर की ओर जाना पड़ेगा पहले, जहाँ राधा कृष्ण की होली सम्पन्न होती होती हो चुकी , परिणाम यह हुआ कि राधा कहने लगी-
धोए धोए हारी में तिहारी सों कडिगो अबीर , पर अहीर को कड़े नहीं
कथन सारी सामाजिक नैतिकता को पार गया, तो वह कृष्ण सामीप्य सुख मिल पाया। परंतु यहां मधु की राधा (नायिका( की दशा देखिए-
गोरी इते चली होरी हिते भरे झोरी उमंगन अंगन ऊँठी।
धाई उतेई चले नंदलाल लयें पिचकारी उताल उदूठी।
दीठि से दीठि जो जुटी भई मधु दोउन की दशा ऐसी अनूठी।
भूली उन्हें पिचकारी भरी इन्हें भूल गयी त्यों गुलाल की मूँठी।
यहां दृष्टि मिलते ही कवि की नायिका को वह सूखानुभूति हुई जो ध्येय भी पा गई और सामाजिकता नैतिकता भी तार-तार नहीं हुई। एक दृश्य रीति कवि घनानंद का देखें, जहां मधु का काव्य बिम्ब घनानंद से आगे की व्याख्या कर देता है । घनानंद ने नायिका के उपालंभ का चित्र दिया है -
तुम कौन सी पाटी पढ़े हो लला मन ले हो पे देहु छटांक नहीं

मधु लिखते हैं-
तोर दरी माल मुकतान की बिथोर डारी बेनी मृगनैनी दृग दे दे कहा जो बेरी
मारी अधरान पे गुलाल पाँछे छार डारी फार डारी सारी वृथा साँसन समोवे री।
बारो जसोदा को भयो मधु फगबारों नयो ऊधम अपारो करें विपत्ति बिगोवे री ।
वीर ब्रज में तो बर जोरी होन लागी रहे तोन खोरी जो ना होरी होत हो खोवेरी ।
घनानंद में नायिका का समर्पण मुखर है , परंतु मधु की नायिका समर्पण के बाद भी खुद को निर्दोष सिद्ध कर ही जाती है, यह मधु की नैतिक पराकाष्ठा का मानचित्र है।
बुंदेलखंड दर्शन और बेतवा बावनी रचनाओं में स्थानीय शौर्य उज्जवल परंपराएं प्राकृतिक सुषमा जैसे प्रश्नों के साथ इतिहास का संयोजन भी है
निसर्ग उद्भव चैतन्य का कवि-
मधु नैसर्गिक कवि था। कविता उसका बाना न थी वही कविता संख्या का बाना था । ध्यान दीजिए कवि अपनी सामयिकता को जीता है परंतु मधु ने रीति काव्य से लेकर प्रयोगवादी विचारधारा को भी अपनी कविता का भाव बोध, संवेदना, आल्हाद, प्रगल्भता, देशभक्ति और यहां तक कि मार्क्सवाद को भी वाणी दी। परंतु याद रखना होगा कि उसका मार्क्स लाल टोपी वाला नहीं गांधी के ग्राम स्वराज वाला समाजवाद था तभी तो वह चुनौती देता कहे उठा है-
ओ उच्च भवन वाले बोलो अतुलित धन वाले बोलो।
क्या कभी निहारी है तुमने अनजान गरीबों की दुनिया ।
वीरान गरीबों की दुनिया श्मशान गरीबों की दुनिया ।
आश्चर्य तो इस बात का है कि मधु ने यह प्रश्न सप्ताह से सन 1931-32 में पूछे थे, परंतु कोई सुधार नहीं, आज भी गरीबों की दुनिया श्मशानवत है ।
एक सच यह भी:-
जिसे सुनकर जानकर आप सब नाराज होंगे और मुझे निराट मूर्ख कहेंगे। कह लीजिए मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता और वह सच यह है कि हमने नरोत्तम पांडेय के कवि को लिखने ही कहां दिया। इस हम में हमारा सारा नगर, समाज, नाते, रिश्ते आते हैं, समग्र परिवार आता है । मधु निसर्ग का कवि था। बाल्यावस्था विद्यार्थी जीवन में ही कविताओं उसे सिद्ध हो गई थी, तभी तो पहली बार की कम नरेश टीकमगढ़ नरेश का राजकवि पद ठुकरा दिया था। परंतु परिवेश की मांग पर दोबारा स्वीकार करना पड़ा। उसके कवि ने शकुंतला, उत्तररामचरित जैसी रचनाओं को प्रारंभ किया था , यदि समय उसे मिलता तो यह सब महाकाव्य की तरह लिखे गए होते और महाकाव्य होते ।
अपने परिवार की पांडित्य परंपरा की रक्षा में लोक, समाज, परिवार में अपनी स्थिति को मजबूती देने के प्रयत्न में राज दरबार की गरिमा की रक्षा में एवं स्थानीय कवि परंपरा की रक्षा में नरोत्तम दास का विराट कवि चिंदी चिंदी होकर बिखर गया और सामयिक ऐतिहासिक काव्य प्रश्नों में सीमित हो गया और उसकी वह बहती हुई काव्य चेतना छोटे मनोधरातलीय बिंदुओं में सिमट कर रह गई , ,अन्यथा कालिदास के मेघदूत के समान शकुंतला महाकाव्य होता जो केवल शकुंतला दुष्यंत के संक्षिप्त प्रश्नों तक सीमित होकर रह गया।
एक विशेषता तथ्य ध्यान देने योग्य है कि कवि का पर भाषा पर असाधारण अधिकार था। शब्द कवि की उंगली पकड़कर चलते थे। कविता की लय प्रवाह इतना तीव्र था कि वह तो कभी में सतत बहता रहता था और कविता उससे पूछ कर अपना रास्ता तय करती थी। कवि अपनी इच्छा से शब्द रचता था। प्रचलित शब्दावली का मोहताज कवि कभी नहीं रह गया यथा जूटी,ऊँठी,पानिय, अधरातन, परब,सुढंग शब्द कवि ने स्वयं बनाए हैं। यही कारण है कि मुझे मधु की कविता फ्रीस्टाइल प्रतीत होती है जो बिम्ब विचार सामने आ गया, बिना किसी काव्यात्मक आग्रहों के मधु की कविता चल पड़ती थी । विधि निषेध का बंधन न कभी जिंदगी में स्वीकार किया न ही कविता में, अस्तु अनुपमेय है वह।
हमें अपना पता नहीं:-
कवि का कविता समय उत्तर छायावादी युग रहा है। डॉक्टर के बी एल पांडेय जी ने कवि में छायावाद की दस्तक के प्रमाण स्वरूप काव्यांश भी दिए हैं। निश्चितः है वह मधु की कविता पर तत प्रभाव की व्यंजना करते हैं परंतु मैं अपनी तनिक सी बुद्धि से इतना ही समझ सका हूं कि छायावादी कविता वस्तुतः गांठों फांसों की कविता है-
'जो घनीभूत पीड़ा थी स्मृति में छाई
दुर्दिन में आंसू बनकर वह आज बरसने आई ।
चाहे यह प्रसाद जी की पंक्ति देखें या महादेवी की पंक्ति ' मैं नीर भरी दुख की बदली' देखें, अपनी एकांतिक छिदी हुई सांसों की पीड़ा है ,वाद का नाम कोई भी दे दें । इसी प्रकार मधु के कतिपय काव्यांश छायावादी कविता की कोठी में रखे जाने के हकदार हैं परंतु यह कथन वाक्यांश/ काव्यांश किसी न किसी फांस से उपजे हैं मधु की एक झंकार कविता में डॉक्टर पांडेय जी ने स्वयं भी 'बीते सुख की कसक' की उपस्थिति मधु अंतस में स्वीकार की है (पृष्ठ 150) मधु की कसक (फांस) की बात प्रसाद के समांतर मुझे खड़ी दिखती है । प्रसाद जी ने कामायनी में मनु को अपनी वेदना, पीड़ा, कसक से प्रश्न करते हुए दिखाया है मनु पूछते हैं -
कौन तुम संसृति जलनिधि तीर
तरंगों से फेंकी मणि एक
मधु जी उसी तरह पूछते दिख रहे हैं -
नाचती आती है तू कौन
साथ में लिए व्यथाएँ मौन
वहा जाती इस अंचल मध्य छिपाकर मेरा सुख संसार।
यह कौन शब्द प्रयुक्ति में बड़ा खतरनाक शब्द है। कौन ? पूछने वाला ना तो खुद के प्रति आश्वस्त हो पाता है और ना सामने वाले के प्रति और यह स्थिति किसी भी व्यक्ति के लिए बड़ी घातक है। प्रसाद मधु दोनों ही कौन का उत्तर ना पा सके, सभी प्रकार की समृद्धि, यश, पारिवारिक संरचना, भरी पूरी गृहस्थी , बच्चे; परंतु फिर भी कौन की नासमझ समक्ष में दोनों असमय ध्वस्त हुए ।
मधु बेहद संवेदनशील परंतु चट्टानी सोच का कवि था, उसने जिंदगी और संसार के व्यवहारिक गणित को अच्छे से समय लिया था समझ लिया था। अपने सोच के कारण योग की ध्यान अवस्था तक मधु पहुंच गए थे -जहां सारी सांसारिक का कोई अर्थ नहीं रखती । इस तरह साहित्य के लिए वह भले ही कवि रूप धारे रहा हो परंतु वह तो कालातीत संत था ।
उपलब्धियां इस पुस्तक की:-
डॉक्टर केबीएल पांडेय द्वारा संपन्न ले यह अनुष्ठान की उपलब्धियों को निम्न रूपों में देखा जा सकता है- 1 अभी तक एक कवि जो बट्टे खाते में पड़ा था उसकी साहित्यिक मंच पर उपस्थिति दर्ज हो गई।
2 साहित्येतिहास में संलग्न वर्चस्ववादी प्रवृत्तियों को अब तो कुछ शर्म आएगी ही कि वे मधु के कृत्य को उत्तर छायावादी कवि परंपरा का कवि मानकर उस इतिहास में संशोधन करें ।
3 पांडेय जी में भी मधु के जीन्स हैं ही, अस्तु रचना में स्थापनाओं और मधु काव्य की नवीन उदभावनाओं का तेजस्वी पाठ है अस्तु रचना महत्वपूर्ण हैं ।
4चल इस पुस्तक का चौथा अध्याय 'समसामयिक परिवेश' बहुत वजनदार है, लेखक ने बहुत श्रम किया। मधु काव्य की पृष्ठभूमि की यह अध्याय समुचित व्याख्या करता है।
5 स्थानीय परिवेश मऊरानीपुर का पहली बार पुस्तकाकार में सामने आया ,जहां मऊ के झंडा आंदोलन का दमन करने को सन्नद्ध अंग्रेज शासकों को चुनौती देने वाले पंडित घनश्याम दास पांडेय सदृश्य देश प्रेमी रहते थे और घोषणा करते थे- वैसे तो न जाते पर जाएंगे जरूर अब
हम भी तो देखें हैं बार कैसे हैं मशीनों के
मऊ के देशभक्त का यह देश प्रेम है। मशीन गन की गोली झेकने को तैयार। मऊरानीपुर का झंडा सत्याग्रह उस में सक्रिय पंडित घनश्याम दास, राम नाथ त्रिवेदी, घाशीराम व्यास, रामनाथ राव , हल्के सुनार, दुर्जन लाल रावत, चंद्रभान नायक, सुमेर सिंह जैसे देश पर वरदान हो जाने की शिद्दत को पहली बार इस रचना ने उभारा है । इनको इतिहास लेखकों ने नजरअंदाज किया। यह पुस्तक आजादी के सन 1930 के मऊ के झंडा आंदोलन का पुनर पाठ है ताकि 21वीं सदी की पीढ़ी मऊ की गौरवशाली परंपरा को जाने समझे। 6पुस्तक का छठवां अध्याय कवि की अंतर्बाह्य प्रवृत्तियां एवं मनश्चेतना का संवाद है। कवि को समझने में बहुत उपयोगी है।

मधुमय हो गया मैं खुद:-
इस किताब से गुजरते हुए मधु का काव्य कवि मुझ पर छाया रहा। दुर्धर्ष मनश्चेतना यानी निराला का, दुष्यंत कुमार का बेचैन सा छोटा बड़ा भाई। यहां मुझे एक बुंदेली गीत की पंक्तियां याद आ रही हैं -
झर गए फुलवा रह गई वास मलिनिया लाइव फुलवा नंदनवन के
मधु झर गया अभी तक परिवेश में गंध थी अब वह उस रचना से राष्ट्रव्यापी हो गई और प्रकृति मालिन ने डॉक्टर केबीएल पांडेय और पद्म श्री ज्ञान चतुर्वेदी जैसे पुष्प पांडेय वृन्त पर खिला दिए हैं। जो साहित्य और लोक जीवन में पांडेय वंश की कीर्ति को बरकरार रखे हैं।
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डॉक्टर अवध बिहारी पाठक
सेंवढ़ा जिला दतिया मप्र